रचनाकार का समय: बदनाम गली मेँ लाला-रुख़

प्रचण्ड प्रवीर की यह कहानी आयरिश लेखक टॉमस मूर के प्रसिद्ध काव्य ‘लाला रूख’ (1817) और उस पर बनी हिन्दी फिल्म ‘लाला-रुख़’ (1958) के संदर्भ में लिखी गई है. प्रसिद्ध गायक तलत महमूद और अभिनेत्री श्यामा की मुख्य भूमिकाओं में अभिनीत यह फिल्म टॉमस मूर की कथा को कुछ बदलती है. प्रवीर की कहानी इस कथा में एक नया मोड़ जोडती है.

(बाएं से) टॉमस मूर की 'लाला रुख़, अतहर सिराज की फ़िल्म 'लाला रुख़' का पोस्टर और साहित्यकार प्रचण्ड प्रवीर. (फोटो साभार: openlibrary.org/Cinematerial.com/सोशल मीडिया)

‘रचनाकार का समय’ स्तम्भ इस बार लेख के बदले प्रचण्ड प्रवीर की एक कहानी प्रकाशित कर रहा है। उनका कहना है कि ‘आज का समय यह चाहता है कि अदीब उसके कहे अनुसार ही प्रलाप करे और उसके साज पर उसके ही लिखे तराने बेसुरा होकर गाए। जिसको यह रवायत मंजूर नहीँ, उसके लिए सुई नोँक भर जमीँ मयस्सर नहीँ है।’ उनकी कहानी उनकी इच्छानुसार वर्तनी (पूर्ण विराम, संयुक्ताक्षर और अनुनासिक स्वर के लिए बिन्दु की जगह चन्द्र बिन्दु का प्रयोग इत्यादि) के अनुरूप ही रखी गयी है।

यह कहानी आयरिश लेखक टॉमस मूर (1779-1852) के प्रसिद्ध काव्य ‘लाला रूख’ (1817) और उस पर बनी हिन्दी फिल्म ‘लाला-रुख़’ (1958) के सन्दर्भ में लिखी गई है। प्रसिद्ध गायक तलत महमूद और अभिनेत्री श्यामा की मुख्य भूमिकाओं में अभिनीत यह फिल्म टॉमस मूर की कथा को कुछ बदलती है। टॉमस मूर की कहानी में औरंगजेब की काल्पनिक पुत्री ‘लाला-रुख़’ की शादी बुशरा के राजकुमार अलीरिस से तय होती है। शाहजादा अलीरिस भेस बदल कर ‘फेरमोर्ज़’ नामक बहुरूपिया कवि बन कर लाला-रुख़ के काफिले में शामिल होकर शाहजादी का दिल जीतता है। हिन्दी फिल्म मेँ यह कथा एक भिन्न रूप ले लेती है.

प्रचण्ड प्रवीर की पुस्तकें. (फोटो साभार: संबंधित प्रकाशन)

बदनाम गली मेँ लाला-रुख़

कल की बात – 264

कल की बात है। जैसे ही मैँने चौक की बगल वाली गली मेँ कदम रखा, मेरी राह देख रहे मेरे दोस्त ने दूर से मुझे सलाम किया। मैँने पूछा, “सहाब मंसूर, तुम जो हमसे कानूनी काग़ज़ात का तर्जुमा अङ्ग्रेजी मेँ करवाना चाहते थे वह काम किसी और तरीके से मुकम्मल हुआ या नहीँ?” सहाब मंसूर ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “आप मशरूफ़ थे, इसलिए हमने आपकी मजबूरी पर ग़ौर फरमाया। चुनाँचे हमने किसी ग़ैर का अहसान ले लिया। वह छोड़िए, यहाँ तक कदमबोशी की है तो बदनाम गली का भी एक चक्कर लगा लिया जाए।”

मेरी सवालिया नज़र देखकर सहाब मंसूर ने फरमाया, “यह बदनाम गली आज से सौ साल पहले तक आबाद थी। सुना करते हैँ कि उन दिनोँ शाम से ही यहाँ घुँघरुओँ की झनकार सुनायी देती थी। गुलोँ और किमाम की खुशबू से गुलज़ार समाँ यहाँ के बड़े-बड़े रईसोँ और नवाबोँ को खेँच लाता था। बुजुर्गोँ की कही बात है कि आजादी के साथ ही फ़न और फ़नकारोँ का जनाज़ा निकल गया। मगर अफ़सोस न कीजिए, अब जब हिन्दोस्तान मेँ दौलत लौट रही है, साथ ही वो रिवायतेँ भी नई शकल मेँ लौट रही है। बदनाम गली मेँ एक सदी के बाद बहार लौट आयी है।”

सहाब मंसूर ने फूल बेचने वाले से दो गुलाब खरीदे और एक मेरे हाथोँ मेँ पकड़ा कर कहा, “चलिए, बदनाम गली मेँ चलते हैँ। यहाँ चार गलियोँ मेँ हफ्ते के चार दिनोँ तक घेराबन्दी होती है। केवल उनको अन्दर जाने की इजाज़त मिलती है, जो अपने मोबाइल से ओटीपी देँगे और नाम बताएँगे। नाम कुछ भी बताओ, कुछ गलती की तो मोबाइल से पकड़ ही लिए जाओगे। चलिए, दिल बहला कर आते हैँ।”

बदनाम गली मेँ कदम रखा तो वहाँ चौकीदारी मेँ मुस्तैद दरबान ने मेरा मोबाइल नम्बर और नाम पूछा। ओटीपी दर्ज़ कराने के बाद मैँने अपना नाम लिखाया -“शाह मुराद अलीरिस ‘फेरमोर्ज’।” सहाब मंसूर को नहीँ मालूम था कि मुझे बदनाम गली के बारे मेँ पहले ही मालूम था और लाला-रुख़ वहाँ मुझसे पहली बार मिलने आने वाली थी। लाला-रुख़ ने ‘अलीरिस’ तख़ल्लुस से हमारा कलाम पढ़-सुन रखा था, लेकिन कभी मुलाक़ात न हुई थी। हमारी ख्वाहिश थी कि हम अजनबी बन कर लाला-रुख़ से पहले मिल कर जान लेँ कि वह हमारी शाइरी के माइने समझती भी है या नहीँ। हम पर यह जाहिर हुआ था कि लाला-रुख़ लाल गालोँ की ही नहीँ, बेपनाह हुस्न की भी मलिका है।

सहाब मंसूर और हम बदनाम गली की उबलती भीड़ मेँ, कहकहोँ मेँ, अफरा-तफरी से पिसते हुए एक दो मंजिली इमारत मेँ चढ़ते चले गए जहाँ अन्दर से साज़ की झनकार आ रही थी। सहाब और हम एक झरोखे से अन्दर झाँकने लगे। अन्दर पाँच-सात बन्दे मसलन पर लेटे मय पी रहे थे और एक तेईस-चौबीस साल की खूबसूरत रक़्क़ासा नाच रही थी। उसकी घनी जुल्फ़ेँ बिखरी-बिखरी जा रही थी। पूरे जुनून से वह थिरक रही थी और साथ मेँ उसका कमरबन्द भी रह-रह कर मचल रहा था। सहाब मंसूर ने कहा, “सिनेमा और टीवी के बिगड़े हुए लोग क्या जानेँगे एक दिलकश रक़्क़ासा का नाच क्या होता है? टीवी पर गाने सुनने वाले क्या कभी जानेँगे कि सुर सामने आते हैँ तो जान कैसे हलक़ तक आ जाती है। ये बदनाम गली नहीँ होती तो आप ऐसे हुस्न और ऐसे फ़न से महरूम ही रहते।”

मेँने सहाब को कहा, “ध्यान से देखो, मुझे लगता है कि रक़्क़ासा को मालूम है कि हम उसे छुप कर देख रहे हैँ। जान पड़ता है कि वह बैठे कद्रदानोँ के लिए नहीँ हमारे लिए नाच रही है।” सहाब ने आँखेँ मीच-मीच कर कहा, “मुझे भी ऐसा ही कुछ जान पड़ता है।”

अन्दर से आवाज़ आ रही थी, “भाई, ये गूँगा नाच कुछ हमेँ तो पसन्द नहीँ।“ सहाब ने मेरा बाजू पकड़ी और सीधे महफिल मेँ ले चला। सहाब ने चौँकी हुई महफिल से कहा, “महफिल मेँ तशरीफ़ ला चुके हैँ अलीम और अदीब जनाब ‘फेरमोर्ज’। जनाब गूँगे नाच को जबान देँगे।”

हमने भी सहाब मंसूर की शरारत शराफ़त से कबूल की। सबने ‘सुभानअल्लाह’ कहा। मैँने आवाज़ देनी शुरू की-

ये खुले-खुले से गेसू, उठे जैसे बदलियाँ सी 1
ये झुकी-झुकी निगाहेँ
, गिरे जैसे बिजलियाँ सी
तेरे नाचते कदम मेँ है बहार का खज़ाना
है कली कली के लब पर
, तेरे हुस्न का फ़साना
मेरे गुल्सिताँ का सब कुछ
, तेरा सिर्फ़ मुस्कुराना
है कली कली के लब पर
, तेरे हुस्न का फ़साना

वहाँ बैठे एक अधेड़ रईस ने बड़ी गर्मजोशी से मुझे बुला कर पास बिठाया। उसने कहा, “हम यहाँ के नवाब होज़ेफा होब्स अब्बास हैँ। हमेँ बेहद खुशी हुई कि एक अदीब से हमारी मुलाक़ात हो रही है। तुम बड़े काम के आदमी हो मेरे लिए।”

मैँने तल्खी से कहा, “क्या आपको भी घरेलू औरतोँ की तरह अपने बच्चे के हिन्दी के सबक हल करने मेँ हमारी ज़रूरत आन पड़ी है? या फिर आपको भी किसी काग़जात का तर्जुमा करवाना है?”

नवाब होब्स अब्बास ने भरपूर ठहाका लगाया। साकी ने उसके प्यालेँ मेँ थोड़ी मय और भर दी। प्याले का घूँट लेकर उसने फरमाया, “दुनिया दरअसल ऐसी है कि हर एक आदमी दूसरे आदमी के साथ होड़ मेँ लगा है। हर आदमी दूसरे आदमी का दुश्मन है और आगे बढ़ना चाहता है। लेकिन इसकी हक़ीक़त मेँ इजाज़त दे दी जाए, ऐसा ख़ून-ख़राबा मच जाएगा कि नज़ारा देखने वालोँ की दीदेँ फूट जाएँगी। इसलिए दुनिया को सँभालना पड़ता है। पहले काम ये नवाब खुलेआम करते थे, अब सियासत ने उनको दूसरी शक्ल अख्तियार करने को मजबूर कर दिया है। हम चाहते हेँ कि हमारे सियासी बयान तुम जैसे काबिल अदीब नाज़ुकी से लिखेँ।”

मैँने नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा, “सियासत अदीब की राहोँ के नक्शे नहीँ बनाती। हम खुदमुख्तार हैँ। आपकी मेहरबानी की हमेँ ज़रूरत नहीँ है।“ नवाब होब्स अब्बास संजीदा होते हुए बोले, “अदीब हो पर अव्वल दर्जे की बेवकूफ़ हो। हमने क्या तुमसे तुम्हारी मंज़ूरी माँगी है? हमने तो बस तुमको अपना नौकर माना है और मेहरबानी की बख़्शीश दी है। रवायत है कि पहले हम तुम्हेँ इनाम-ओ-इक़राम से नवाज़ेँगे। तुममेँ अगर ज़रा भी नमक का हक़ अदा करने का जज़्बा होगा, तुम ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे काम आओगे।”

“हम आपकी ताक़ीद समझते हैँ नवाब साहेब। यकीन नहीँ हो रहा। आपके इशारे पर सियासत की राह पर सैकड़ोँ अदीब खुशी-खुशी बिछ जाते हैँ, आपको मामूली फेरमोर्ज की ज़रूरत क्योँ आन पड़ी?”

यह सुनते ही नवाब साहेब ने कहकहा लगाया, “तुमने समझा ही नहीँ। हमेँ तुम्हारी ज़रूरत नहीँ है। जो तुम लिखोगे उसे दूसरे लोग दुरुस्त करके सही शक्ल अता फरमाएँगे। जहान मेँ एक से एक अदीब बैठे हैँ जो हमारी चाकरी करते हैँ। हमेँ तुम्हारी कौन-सी ज़रूरत होगी? दरअसल वक़्त की नज़ाक़त यह है कि सारे अदीब दुरुस्त हो कर वही फरमाएँ जो वक़्त की ज़रूरत हो। अगर हम यह करना छोड़ देँ तो सियासत कैसे चलेगी? आज की तारीख़ मेँ दुनिया मेँ वही हुनरमंद है, वही काबिल है, वही आलिम है, वही अदीब है जो सियासी खेल मेँ हो, चाहे इस पाले मेँ हो या उस पाले मेँ हो। किनारे खड़े होने की छूट नहीँ है।”

यह कहकर नवाब होजेफ़ा होब्स अब्बास नशे मेँ एकबारगी खड़े हो कर गुस्से से कापँने लगे और शीशे का प्याला जमीन पर पटक दिया। काँच के टूटने के साथ ही बदनाम गली मेँ यकबयक अँधेरा छा गया। शायद बिजली चली गई थी। इससे पहले लोग अपनी मोबाइल से रौशनी करते कि एक दस्त-ए-नाज़नीँ ने मेरी हथेली को पकड़ जल्दी से खेँचा। मैँ भी उस मचलती मौज़ के साथ सबको छोड़कर कमरे से बाहर हो आया। जल्दी-जल्दी मेँ सीढ़ियाँ उतरता गया और मोगरे के आती खुशबू और मद्धम रौशनी मेँ रक़्क़ासा को उसकी बहादुरी और अक़लमन्दी की दाद देता गया।

रक़्क़ासा और हम एक बड़े इमारत के अन्दर जा पहुँचे। विशाल हॉल कुछ पच्चीस फीट लम्बा तीस फीट चौड़ा होगा। हमारे वहाँ पहुँचते ही बिजली आ गई। रौशनदान चमक उठे। सङ्गीत बजने लगा। हसानीओँ की महफिल मेँ मेरे सामने सोफे पर एक महज़बीँ बेपरदा बैठी थी। वही जो महफिल मेँ सबसे खूबसूरत थी, उसी ने रक़्क़ासा से बड़ी बेचैनी से पूछा, “क्या बात है ज़ेबा? क्या तुम्हेँ अलीरिस की कोई ख़बर मिली?”

ज़ेबा ने जवाब दिया, ” उनकी तो कोई खबर नहीँ मिली। लेकिन ये बड़े उम्दा शाइर हैँ। इन्होँने हमारे सामने देखते ही देखते गाना बना कर सुनाया। हुजूर का नाम ‘फेरमोर्ज’ है।” मेरी तरफ मुखातिब होकर ज़ेबा ने सलाम करते हुए कहा, “सामने लाला-रुख़ बैठी हैँ। आप शाहजादियोँ की तरह पली बढ़ी हैँ। इनके हुस्न के सामने हर अकलमन्द आदमी तीन बार सलामी देता है। आपको शायद मालूम नहीँ मैँने आपको झरोखेँ मेँ झाँकते देख कर आपके लिए ही उम्दा नाच दिखाना शुरू किया था। मगर हक़ीक़त यह है कि आपकी असली कद्रदान लाला-रुख़ है, नवाब नहीँ।”

मैँने सात बार सलामी देने के बाद लाला रुख़ से कहा, “अगर शाहजादी गुस्ताखी माफ़ करेँ तो मैँ आपके हुज़ूर मेँ कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ।”

लाला-रुख़ ने इजाज़त दी, “बेखौफ़ होकर कहो।”

मैँने कहा, “आप किस अलीरिस के फेर मेँ पड़ गयी। उसकी एक टाँग दूसरी टाँग से छोटी है। सारी दुनिया को एक आँख से देखते हैँ, मेरा मतलब है काने हैँ। उनकी पूरी शाइरी का असली शाइर यह नाचीज़ है।”

लाला-रुख़ ने घबराकर पूछा, “क्या तुम सच कहते हो?” मैँने लाला-रुख़ की आँखोँ मेँ आँखेँ डाल कर मुस्कुरा कर यकीन दिलाया, “बिल्कुल सच है। मैँ आपको उसकी ताजा शाइरी सुनाता हूँ जो उसने आपको नज़र की है।”

लाला-रुख़ घबराकर एकदम से खड़ी हो गयी। मैँने फरमाया, “चाँद तारोँ को मयस्सर है नज़ारा तेरा, मेरी बेताब निगाहोँ से ये परदा क्योँ है?” 2

लाला-रुख़ ने इठला कर उँगलियोँ से रुख़ को छुपाते हुए जवाब दिया, “चाँद आईना मेरा, तारे मेरे नक़्श-ए-कदम, ग़ैर को आँख मिलाने की तमन्ना क्योँ है?”

तभी रौशन बज़्म में सहाब मंसूर और नवाब होज़ेफा होब्स अब्बास एकदम से दाखिल हुए। दरवाजे के पास से ही नवाब ने चिल्लाकर कहा, “शाह मुराद अलीरिस फेरमोर्ज! तुम हमसे बच कर नहीँ जा सकते। तुझको अँधेरा इस दुनिया का बढ़ाना होगा।”

लाला-रुख़ ने हैरानी से मुझसे पूछा, “आप ही अलीरिस हैँ?” मैँने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “तुझको देखा तुझे चाहा तुझे पूजा मैँने, बस यही इसके सिवा मेरी ख़ता क्या होगी?”

लाला रुख़ ने शोखी से और कुछ नीमबेहोशी से फरमाया, मैँने अच्छा किया घबरा के जो मुँह फेर लिया, इससे कम दिल की तड़पने की सज़ा क्या होगी?”
तुझको परदा रुख़-ए-रोशन से हटाना होगा 2
हुस्न का पास निगाहोँ को सिखाना होगा

ये थी कल की बात!

दिनाङ्क : 12/12/2०24

सन्दर्भ:
1. गीतकार- क़ैफ़ी आज़मी, चित्रपट- लाला-रुख़ (1958)
2. गीतकार- क़ैफ़ी आज़मी, चित्रपट- लाला-रुख़ (1958)

(प्रचण्ड प्रवीर कवि व उपन्यासकार हैं.)

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