राजनीति के गंभीर विशेषज्ञ सुहास पलशिकर ने भारतीय गणतंत्र के पचहत्तर वर्ष पूरे करने पर एक लेख में यह स्थापना की है कि इस समय यह गणतंत्र संवैधानिक राष्ट्र और हिंदू राष्ट्र के गहरे युग्म में फंसा हुआ है. राजधर्म और धर्म के बीच दूरी लगातार व्यवहार में घट रही है. हालांकि बहुलता, समावेशिता, समता और न्याय को औपचारिक रूप से स्वीकार करना और उसका उत्सव मनाना भी साथ-साथ चल रहे हैं. सरसंघ संचालक ने यह अकारण नहीं कहा है कि भारत को 1947 में जो स्वतंत्रता मिली थी उसमें ‘स्व’ का अभाव था जो पिछले वर्ष राम मंदिर के निर्माण के समय अर्जित हुआ.
पलशिकर जी ने यह भी बताया है कि अनेक संस्थाएं जो अब तक संविधान से चलतीं या उसे ध्यान में रखकर सार्वजनिक आचरण करती थीं, वे अब हिंदू राष्ट्र के प्रति समर्पित होकर उसके अपर्वजनों के अनुरूप आचरण कर रही हैं.
इस विश्लेषण से हम यह स्पष्ट समझ सकते हैं कि दरअसल हम अपने गणतंत्र में उस मुक़ाम पर पहुंच चुके हैं जहां बहुलता, समावेशिता, समता, न्याय आदि के संवैधानिक मूल्य अब लगातार आचरण में अतिक्रमित हो रहे हैं और यह अतिक्रमण या उल्लंघन इस आधार पर उचित बताया जा रहा है कि उसे चुनावों के माध्यम से व्यापक जनसमर्थन प्राप्त है.
पहले अतिक्रमण या उल्लंघन दंडित होता था पर अब उसका लगभग अभिनंदन होता है. अल्पसंख्यकों के साथ किए गए अपराध और उस पर यदा-कदा सज़ा पाए अपराधियों की छूट आदि का सार्वजनिक अभिनंदन जब-तब धड़ल्ले से होता रहता है. ऐसा ही अभिनंदन अज्ञान और दुर्व्याख्याओं का भी होता रहता है. यह अंधविश्वास बहुत फैल गया है कि हिंदुओं के साथ अन्याय हुआ है, जिसे अब ठीक किया जा रहा है. इस क़दर लुच्चई-लफंगई-टुच्चई-दबंगई दृश्य पर छा गई हैं कि लगता है भद्रता और सिविल समाज जैसे ग़ायब या पूरी तरह से निष्क्रिय हो गए हैं.
यह दृश्य भले हमें भयावना लगे पर सच है कि संवैधानिक राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र चांप रहा है. यह एक प्रश्न है कि क्या इस हमले, चोट और क्षति के बाद संवैधानिक राष्ट्र बच पाएगा. फ़िलमुक़ाम कोई स्पष्ट उत्तर नज़र नहीं आता. सचाई हमारे सपने को लगातार कुतर रही है. या कि एक यथार्थ दूसरे यथार्थ पर हावी हो रहा है. संवैधानिक राष्ट्र अभी भी यथार्थ है जैसे कि हिंदू राष्ट्र भी होता जा रहा है.
लेखक मंच
सोशल मीडिया यानी फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि पर इधर लेखकों की उपस्थिति और सक्रियता बहुत बढ़ गई है. एक ओर तो ऐसे में जब अभिव्यक्ति के खुले और सार्वजनिक मंच कम हो गए हैं, असहमति का सत्ताधारी शक्तियों ने लगभग अपराधीकरण कर दिया है, सत्ताभक्त और पूरी बेशर्मी से पालतू हो गए गोदी मीडिया ने साहित्य और कलाओं को या तो बहिष्कृत ही कर दिया है या कि उनमें उनके लिए जगह घटा दी है, सोशल मीडिया ने लेखकों को राहत दी है और खुला मंच उपलब्ध करा दिया है.
यह सर्जनात्मक और नैतिक स्तर पर बहुत स्वागत योग्य है. लेकिन दूसरी ओर, इस नए मंच ने लेखकों की आत्मरति, तुरत मान्यता और प्रशंसा पाने की आकांक्षा, परस्पर प्रशंसा करने का उत्साह, कीचड़ उछाल आदि बहुत बढ़ा दिए हैं. यह मंच लगातार लेखकों की निजता की भी हानि कर रहा है. कुछ इस तरह की बात व्यापक हो रही है कि जो लेखक सोशल मीडिया पर नहीं है, वह लेखक ही नहीं हैं. या कि ध्यान देने योग्य लेखक नहीं हैं.
आए दिन यह नज़र आता है कि अक्सर किसी कृति या पुस्तक या लेखक को अतिरंजना के भाव से प्रोजेक्ट किया जाता है. कई अपने संपादक या प्रकाशक की प्रशंसा करते हुए अपनी कविता या कहानी पेश कर देते हैं. पढ़ने का सामान्य शिष्टाचार भी अब नहीं बरता जाता: लेखक पति-पत्नी, मित्र या सगे संबंधी, अपने ‘बॉस’ आदि की प्रशंसा या बेवजह ज़िक्र करते दीख पड़ते हैं. किसी लेखक को लांछित करने का उपक्रम भी अबाध चलता रहता है. बहुत से युवा, अपने अनुभव की स्पष्ट अपर्याप्तता और अपरिपक्वता के बावजूद, जीवन-जगत्-साहित्य आदि पर अतर्कित सामान्यीकरण ज्ञान की तरह परोसते रहते हैं. कई लेखक अपनी यात्राओं के अप्रासंगिक ब्योरे और छवियां भी डालते रहते हैं.
इन सबसे एक नए ढंग की सामुदायिकता भी बन रही है. सबका मुख्य काम, लगता है, एक तरह की ग़ैर-आलोचनात्मक सराहना और एहतराम परस्पर बांटना है. यह माध्यम वैसे तो संक्षेप का है पर उसमें, फिर भी, बड़बोलापन, अनर्जित प्रशंसा, अतिशयोक्ति का विस्तार हो रहा है. जो लेखक मंच पारंपरिक रूप से गठित रहे हैं और जिनमें वैचारिक आधार आदि होते रहते हैं, वे शायद सोशल मीडिया द्वारा अपदस्थ हो रहे हैं.
यह भी उल्लेखनीय है कि आजकल सत्तारूढ़ राजनीति ने जो डर का माहौल व्यापक रूप से बना रहा है, उसके चलते ये नए मंच भयग्रस्त भी हैं: उनमें राजनीतिक मसलों पर ज़्यादातर लेखकगण प्राय: कभी कोई टिप्पणी नहीं करते या चतुराई या कायरता या दोनों से ऐसा करने से बचते हैं. ठीक ऐसे समय में जब राजनीति अपनी सारी लोकतांत्रिक मर्यादाओं का धड़ल्ले से उल्लंघन करती हुई सर्वग्रासी हो रही है, उसे अपने प्रगट दायरे से बाहर रखना एक तरह का कायर अपसरण है. कई बार यह प्रभाव पड़ता है कि राजनीति का सार्थक-सशक्त प्रश्नांकन और प्रतिरोध लेखकों के बजाय रवीश कुमार, अजित अंजुम जैसे पत्रकार बेहतर और निर्भय साहसिकता के साथ कर रहे हैं.
फिर हुसैन
यह तो बहुत उचित ही है कि हमारे महान् आधुनिक कलाकारों में से एक मक़बूल फ़िदा हुसैन ख़बरों में रहें. लेकिन उनकी असंदिग्ध श्रेष्ठता के कारण वे ख़बरों में नहीं आते. वे ख़बरों में इस बार फिर इसलिए आए हैं कि उनकी दो कलाकृतियों ने किसी की भावनाओं को आहत किया है. बरसों पहले देश के अनेक भागों में उनके खिलाफ़ इसी आधार पर मुकदमे दर्ज़ कराए गए थे कि उनके सरस्वती के एक रेखाचित्र ने ‘भावनाओं को आहत’ किया था. उन्हें इस मुहिम ने इतना त्रस्त किया कि उन्होंने देश छोड़ दिया.
अपनी मातृभूमि और उसकी संस्कृति से अथाह प्रेम करनेवाला यह कलाकार फिर वापस नहीं आ सका और उसकी मृत्यु लंदन में हुई ओर वहीं वह दफन है. उसे दो गज़ ज़मीन यहां नहीं मिल सकी. पर इस सबसे यह बात धुंधला नहीं जाती कि हुसैन के बिना भारतीय आधुनिकता को कोई भी कथा अधूरी और अप्रामाणिक ही रहेगी. उन्हें उनकी सरज़मीं से भले बेदख़ल कर दिया गया हो, उन्हें यहां की संस्कृति और कला से बेदख़ल नहीं किया जा सकता.
बहरहाल, इस बार मामला उनके गणेश और हनुमान के चित्रों को लेकर है. नई दिल्ली में जब हुसैन के चित्र की, बरसों बाद, इस प्रदर्शनी का शुभारंभ हुआ तो हम कई लोग वहां थे और उनमें से अधिकांश हिंदू ही थे. हम तो कृतज्ञता और प्रशंसा से भरे हुए थे और हममें से किसी की भावनाएं आहत हुई हो ऐसा क़तई नहीं हुआ. संयोगवश, यह याद कर लें कि आक्तावियो पाज़ की भारतीय अध्यात्म और परंपरा पर बहुप्रशंसित पुस्तक ‘द मंकी ग्रैमेरियन’ के आवरण पर हुसैन द्वारा चित्रित हनुमान ही थे और यह पुस्तक संसार की अनेक भाषाओं में अनूदित होकर पिछले कम से कम चार दशकों से उपलब्ध है.
यह भी याद करना चाहिए कि हुसैन संभवतः भारत के एक मात्र चित्रकार हैं जिन्होंने हमारे दो महाकाव्यों ‘रामायण’ ओर ‘महाभारत’ पर लगभग दौ सो चित्र बनाए हैं. यही नहीं, अगर हम भारत के पिछले पचास वर्ष में किसी एक चित्रकार को चुनें जिसने आधुनिक भारत की चित्रों में कथा कही है चित्रों में एक तरह ‘भारतचरितमानस’ रचा है, तो वे हुसैन ही हैं. ऐसा कलाकार किसी हिंदू की भावना आहत करने की सोच भी नहीं सकता ओर न उसने ऐसा किया. यह बात हुसैन के प्रशंसक-संग्राहक-अध्येता अच्छी तरह से जानते-समझते हैं और उनमें अधिकांश हिंदू हैं. किसी एक हिंदू का, अपनी कला की अप्रमाणित समझ और आहत भावना के आधार पर, एक महान् कलाकार को इस तरह लांछित करने का प्रयत्न, उम्मीद है, सफल नहीं होगा. मामला अदालत में है.
इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि कभी नैतिकता, कभी धर्म का सहारा लेकर, इस तरह के मामले दर्ज़ हो रहे हैं. सूज़ा और अकबर पदमसी के चित्रों को लेकर नैतिक आपत्ति की गई थी जिसे अंततः मुंबई की एक अदालत ने ख़ारिज कर दियास. क्या यह संयोग है कि सूज़ा ईसाई, अकबर खोजा मुसलमान और हुसैन मुसलमान हैं जिन्हें लांछित करने की कोशिश हुई है?
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)