दिल्ली: चुनावी सौगात के आगे क्यों फीके पड़ जाते हैं वायु प्रदूषण और मैली यमुना के मुद्दे?

दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं है, बल्कि यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है. इन दिनों बड़ी संख्या में अस्थमा और फेफड़ों से संबंधित रोग सामने रहे हैं. बुजुर्गों में हृदय रोग, क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) और अन्य गंभीर बीमारियां बढ़ रही हैं.

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नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल, बैकग्राउंड में स्मॉग भरी दिल्ली. (फोटो साभार: ट्विटर/Wikimedia Commons)

दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार खत्म होने के कुछ दिन पहले तक प्रदूषित हवा और मैली कुचैली यमुना में हरियाणा की फैक्ट्रियों के ज़हरीले रासायनिक कचरे को फेंकने का ज्वलंत मुद्दा तीखे आरोप प्रत्यारोपों के मात्र तीन दिनों के भीतर चर्चा से बाहर हो गया. मानो यह कोई इतना गंभीर मामला नहीं, जिसके आधार पर दिल्ली के लोग वोट करें.

दिल्ली में पिछले माह 7 जनवरी को जब चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव की घोषणा की, उसके एक दिन पहले ही सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने दिल्ली में बिगड़ती वायु गुणवत्ता को देखते हुए इस पर क्षेत्र में जनस्वास्थ्य को लेकर गंभीर चिंताओं को लेकर रिपोर्ट सार्वजनिक की थी. इसमें बताया गया कि मौजूदा समय में वायुमंडल में सूक्ष्म कण पदार्थों की मात्रा पीएम-2.5 सांद्रता या उससे अधिक होने को हवा का खतरनाक होना माना जाता है.

रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल अक्तूबर से दिसंबर तक निगरानी स्टेशनों ने 26 प्रतिशत तक की चिंताजनक बढ़ोतरी रिकॉर्ड की. लेकिन इन हालात को काबू में लाना और राज्यों के बीच आपसी तालमेल और सहयोग बढ़ाने की न कोई प्रतिबद्धता दिखी और न ही बीते सप्ताह संसद में पेश आम बजट में देश की राजधानी दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करने को कोई विशेष बजटीय प्रावधान का संकल्प दिखाई दिया.

बहरहाल, 70 सीटों पर सोमवार को चुनाव प्रचार खत्म होने और मतदान के दिन की अवधि के भीतर राजधानी में वायु गुणवत्ता सूचकांक –एक्यूआई-355 के खतरनाक स्तर तक पहुंच गया. आकाश में स्मॉग और प्रदूषण की चादर में लिपटा कोहरा और अधिक बढ़ने के आकलन जारी किए गए हैं. पिछले कुछ दिनों अस्पतालों में इस तरह के मरीजों की लगातार संख्या बढ़ी है, जिनमें आंखों में जलन और सांस की समस्याएं बढ़ी हैं.

आम आदमी पार्टी व भाजपा चंद रोज ही इस मामले पर एक दूसरे की छीछालेदर करने में तुले रहे. हालांकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपनी अंतिम चुनावी सभाओं में भी दिल्ली की गंदगी और विषैली हवा में सांस लेने की दुश्वारियों जैसे कई मुद्दों पर केजरीवाल सरकार पर लगातार व्यंग्य बाण और प्रहार करते दिखे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो अपने लिए सहानुभूति बटोरने में जरा भर देर नहीं की और केजरीवाल से मंच से सवाल पूछ लिया कि क्या हरियाणा सरकार उस पानी में ज़हर डाल सकता है, जिस पानी को दिल्ली में खुद वे (मोदी) पीते हैं.

रोचक बात यह है कि इस विवाद में आप सरकार की घेराबंदी करने और भाजपा की मदद करने के लिए देश का चुनाव आयोग भी सारे काम छोड़कर कूद पड़ा. आयोग ने मौका गंवाए बिना केजरीवाल को फ़ौरन नोटिस जारी कर पानी में ज़हर के सबूत देने का फरमान दिया. हालांकि पिछले कई दिनों से आचार संहिता उल्लघन के मामलों पर गैर भाजपा दलों की दर्जनों शिकायतों पर आयोग टस से मस नहीं हुआ.

हैरानी की बात यह है कि कुछ ही दिन बाद सब इस तरह भुला दिया गया जैसे मानों कि तीखी सियासी बहस के बाद दिल्ली की आबोहवा एकदम दुरुस्त हो चुकी और यमुना का जल रातोंरात चमत्कारिक तौर पर स्वच्छ और निर्मल जल में तब्दील हो चुका है.

इसी बीच दिल्ली में चुनाव प्रचार खत्म होने और मतदान के दिन की अवधि के भीतर राजधानी में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई- 355) के खतरनाक स्तर तक पहुंच गया. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने आगाह किया है कि आगामी दिनों में हवा बेहद खराब की श्रेणी में रहेगी.

प्रधानमंत्री मोदी चुनावी सभाओं में आम आदमी पार्टी को ‘आपदा’ कहकर प्रहार कर रहे हैं, लेकिन दिल्ली के बजट में आपदा प्रबंधन में कोई खास बढ़ोतरी नहीं की गई जबकि 60 प्रतिशत दिल्ली की आबादी गहरे जोखिम वाले सिस्मिक जोन-4 में निवास करती है, जहां कभी भी खतरनाक भूकंप राजधानी को दहला सकता है.

हर साल नवंबर से जनवरी के बीच दिल्ली और एनसीआर क्षेत्र के लोग गंभीर वायु प्रदूषण का सामना करते हैं, जो अब एक वार्षिक संकट बन चुकी है. इन महीनों में क्षेत्र की वायु गुणवत्ता खतरनाक स्तर तक गिर जाती है और पूरा क्षेत्र जहरीले धुएं की चादर में लिपट जाता है. यह स्थिति जीवन के हर पहलू को प्रभावित करती है, खासकर स्वास्थ्य को. इसके बावजूद यह मुद्दा चुनावी बहसों में मुख्य स्थान नहीं पा सका है.

दिल्ली चुनावों में तीनों प्रमुख राजनीतिक दलों की घोषणा पत्रों में इस गंभीर मुद्दे का कोई ठोस समाधान नहीं दिखता. पार्टियों का ध्यान मुख्य रूप से मुफ्त सेवाओं और सुविधाओं पर केंद्रित है, ताकि वे वोटरों को आकर्षित कर सकें. लेकिन वायु प्रदूषण,जो सार्वजनिक स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है सियासी दलों के घोषणा पत्रों से अक्सर गायब रहता है.

दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं है, बल्कि यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है. डॉक्टरों और स्वतंत्र शोधों के अनुसार वायु प्रदूषण के कारण अस्पतालों में सांस संबंधी बीमारियों से ग्रस्त मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है.

दिल्ली में फेफड़ों और श्वास रोगों व जाने माने स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉक्टर अरविन्द कुमार कहते हैं, ‘बच्चे सांस लेने में तकलीफ, अस्थमा और फेफड़ों के विकास में रुकावट जैसी समस्याओं का सामना कर रहे हैं. बुजुर्गों में हृदय रोग, क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) और अन्य गंभीर बीमारियां बढ़ रही हैं. लंबे समय तक प्रदूषित हवा में सांस लेने से कैंसर का खतरा भी बढ़ रहा है.’

एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल वायु प्रदूषण के कारण 10 लाख से ज्यादा लोगों की मौत होती है. दिल्ली जो विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है, वहां रहने वाले लोगों की जीवन कि अवधि केवल प्रदूषित हवा के कारण कई वर्षों तक कम हो जाती है. यह स्थिति एक गंभीर चेतावनी है, जिसे नज़रअंदाज करना घातक हो सकता है.

विशेषज्ञों का यह भी मत है कि वायु प्रदूषण का असर केवल स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है इसका आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र पर भी प्रभाव पड़ता है. खराब स्वास्थ्य के कारण लोगों की उत्पादकता कम हो जाती है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था को चहुंमुखी नुकसान होता है. अस्पताल में इलाज का खर्च समय से पहले मौत और जीवन स्तर में गिरावट जैसी चीज़ें समाज और सरकार पर भारी आर्थिक बोझ डालती हैं.

दिल्ली में विगत कुछ दशकों से मतदाताओं का मिजाज देखने से पाएंगे कि उनकी निगाहें चुनाव में अक्सर मुफ्त बिजली पानी और परिवहन जैसे त्वरित लाभों पर केंद्रित होती हैं. दिल्ली में कुल आबादी के करीब 40 प्रतिशत लोग अनधिकृत कालोनियों में रहते हैं. इसी तबके पर वर्षों पहले कांग्रेस ने और सवा दशक से केजरीवाल ने फोकस किया. कम आय वर्ग के लोगों की पहली प्राथमिकता रोज़ी रोटी और इस महंगाई में परिवार की गुजर बसर पर फोकस रहता है. उसकी नजर में खतरनाक प्रदूषित हवा-पानी जैसे प्रश्न उनके जीवन में गौण विषय बन जाते हैं, जिस पर वोटरों को आकर्षित कर पाना उतना मुफीद नहीं होता जितना कि फ्री या निशुल्क सुविधाओं की सौगात.

जानकारों का मानना है कि दिल्ली में शासन की संरचना जटिल है. दिल्ली सरकार, केंद्र सरकार और नगर निगमों के बीच अधिकारों का विभाजन है. इस खंडित व्यवस्था के कारण वायु प्रदूषण जैसे मुद्दों पर समन्वित प्रयास नहीं हो पाते.

दिल्ली के वायु प्रदूषण संकट को जलवायु परिवर्तन से अलग करके नहीं देखा जा सकता, क्योंकि बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण दिल्ली जैसे शहरी क्षेत्रों में गर्मियों के दौरान ‘अर्बन हीट आइलैंड’ प्रभाव बढ़ गया है. इससे गर्मियों में तापमान 50 सेल्सियस तक पहुंच जाता है. इसके अलावा असामान्य बारिश हीटवेव और अन्य मौसमी घटनाएं अधिक बार हो रही हैं, जो पहले से ही खराब होती जा रही पर्यावरणीय स्थिति को और जटिल बना रही हैं.

दूसरी तरफ़ फॉसिल फ्यूल्स (कोयला पेट्रोल और डीजल) के जलने से न केवल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है बल्कि वायु में हानिकारक कण भी बढ़ते हैं. यदि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो दिल्ली के वायु प्रदूषण की समस्या और गंभीर हो जाएगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)