अमेरिका ने वहां रह रहे लाखों अवैध भारतीय प्रवासियों को निकालने के सिलसिले में जैसा नृशंस और अस्वीकार्य रुख अपनाया हुआ है और जिसके तहत उन्हें एलियन करार देकर उनमें से 104 को मवेशियों की तरह अपनी सेना के विमान में लादकर, 40-40 घंटे तक हथकड़ियों-बेड़ियों व जंजीरों में जकड़े रखकर, घिसट-घिसट कर वाशरूम जाने को मजबूर कर, साथ ही अपने हाथ से खाना तक न खाने देकर हमारी धरती पर ला पटका है, उसके पीछे के उसके मंसूबों को समझने के लिए किसी बड़ी विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं है.
अलबत्ता, निर्गुट आंदोलन के संस्थापक रहे और अब ‘विश्व गुरु’ बनने की उतावली में दिखते भारत ने उसके समक्ष बिना प्रतिवाद आत्मसमर्पण कर जैसी रीढ़हीनता का परिचय दिया है (और जिसके तहत विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इस मामले को पहले से चली आ रही प्रवासियों की वापसी की प्रक्रिया से जोड़ा और उन्हें हथकड़ियों-बेड़ियों में जकड़कर समूचे देश के आत्मसम्मान को आहत करने के दुस्साहस को तवज्जो देने के लायक नहीं समझा है) वह जरूर अचंभित करने वाली है. अमेरिकी अकड़ के समक्ष ऐसा आत्मसमर्पण तो उन छोटे देशों ने भी नहीं किया, जो भारत के पांसग बराबर भी नहीं हैं.
हम जानते हैं कि अपनी सुविधा व अहंकार के आगे किसी को भी कुछ न समझने और चौधराहट जताने की अमेरिका की बीमारी नई नहीं है. उसकी गुंडागर्दी का इतिहास भी बहुत पुराना है. उसमें कुछ नया है तो बस यही कि ‘चढ़ते राजा और उतरते ग्रह’ की भारतीय कहावत को चरितार्थ करते हुए उसके नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उसकी बीमारी को उसके राष्ट्रवाद से जोड़कर उसका नया इतिहास बनाने में लग गए हैं.
यह ‘राष्ट्रवादी’ मित्रता!
यह वैसे ही है जैसे भारत के बीमार ‘राष्ट्रवादी’ अपनी बीमारियों को ही अपने स्वास्थ्य का सबूत बनाते व बताते देखे जा रहे हैं. अकारण नहीं कि ट्रंप अपने पिछले कार्यकाल से ही भारत के ‘राष्ट्रवादी’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मित्र बने हुए हैं, जिन्हें अपने नागरिकों से इतने बुरे सलूक के बावजूद इस मित्रता पर कोई आंच आने देना गवारा नहीं हो रहा.
बहरहाल, ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रवाद के, जिसे उन्होंने पिछली दफा ही ‘अमेरिका फर्स्ट’ तक पहुंचा दिया था, जोर-जोर से बज रहे ढोल का एक बड़ा पोल यह है कि बीती शताब्दी के आखिरी दशक में अमेरिकी प्रभुत्व के विस्तार के लिए प्रवर्तित भूमंडलीकरण व उदारीकरण भी अब उसे अपने बहुत काम आते नहीं दिख रहे. उसके अंदरूनी हालात बताते हैं कि चूंकि अब ये उसे नहीं फल रहे, इसलिए फिर से संरक्षणवाद की जरूरत महसूस होने लगी है. ट्रंप का पिछले कार्यकाल में दिया गया ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा इसी जरूरत को पूरा करने का उपक्रम था, जिसे अपनी वापसी के साथ उन्होंने नए सिरे से अमली जामा पहनाना आरंभ कर दिया है.
गौरतलब है कि ऐसा तब है, जब कोई तीन दशक पहले ‘देयर इज नो आल्टरनेटिव’ के झांसे में दुनिया के गरीब व विकासशील देशों पर एकतरफा तौर पर थोप दी गई मनुष्यद्रोही नीतियों ने इस दौरान उनका हाल बुरा कर डाला है. ये नीतियां इस अर्थ में एकतरफा थीं और हैं कि इनके तहत जानबूझकर सिर्फ अमीर देशों की पूंजी के भूमंडलीकरण यानी मुक्त प्रवाह का मार्ग प्रशस्त किया गया और गरीब या विकासशील देशों की श्रम शक्ति के रास्ते में नए रोडे डालकर उसकी पुरानी बदहाली को और बढ़ा दिया गया.
आज की तारीख में इसका नतीजा यह है कि बड़ी पूंजी अब इतनी उन्मुक्त कहें या निरंकुश हो चुकी है कि देशों की सीमाएं भी उसकी उड़ानों के रास्ते की बाधा नहीं रह गई हैं. इतना ही नहीं, उन देशों में मनचाही सरकारें बनवाना या उनकी राजसत्ता का अतिक्रमण करना भी इसके बायें हाथ का खेल हो गया है. उसके अतिक्रमणों से किसी देश का सामाजिक ताना-बाना बिखरने या टूटने लगता है तो उसकी बला से.
दूसरी ओर अमीर देशों ने अपने देश के सामाजिक ताने-बाने की रक्षा के नाम पर अपनी सीमाओं में श्रम शक्ति के मुक्त प्रवाह पर वांछित-अवांछित ढेरों पाबंदियां आयत कर रखी हैं. इसे यों समझ सकते हैं कि उन्होंने पूंजी निवेशकों की दिग्विजय करा दी है और श्रमिकों के समक्ष उसकी अधीनता स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहने दिया है.
पूंजी बनाम श्रम
स्थिति यह है कि निवेशकों के लिए हर देश में हर समय व हर हाल में गलीचे बिछे हुए हैं और उनकी सारी शर्तें स्वीकार कर उनकी अगवानी की जा रही हैं. लेकिन जिनके पास बेचने के लिए सिर्फ उनका श्रम है, वे कई मायनों में शरणार्थियों से भी बुरा बर्ताव झेलने को अभिशप्त है. वे अपना सब कुछ दांव पर लगाकर दूसरे देशों में जाना चाहें तो उन्हें वहां तो नाना प्रकार के अत्याचारों व शोषणों का सामना करना ही पड़ता है, उनके अपने देश में भी लम्बे संघर्षों से अर्जित उनके अधिकारों में निवेशकों के लिए सुविधाजनक कटौतियों में कुछ अनुचित नहीं समझा जाता.
भारत भी इसकी एक मिसाल है, जिसमें सारे श्रम कानूनों को मिलाकर ऐसी श्रम संहिता बना दी गई है, जो पूरी तरह बड़ी या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के लिए अनुकूलित और श्रमिकों को हासिल सुरक्षाएं घटाने या न्यूनतम करने वाली है. श्रमिक संगठनों द्वारा इस संहिता के विरोध का सिर्फ इतना असर हुआ है कि उसका लागू होना टाल दिया गया है.
अमेरिका को धरती का स्वर्ग मानकर थोड़ी ज्यादा कमाई के लिए कर्जा-उधार लेकर वहां जाने और अवैध प्रवासी बन जाने वाले श्रमिकों के लिहाज से सोचें तो क्या यह इधर कुंआ और उधर खाई की स्थिति नहीं है? 1991 में जब हमारे देश में भूमंडलीकरण व उदारीकरण की नीतियों की अगवानी की जा रही थी, तो कहा जा रहा था कि वे सर्वथा अमानवीय नहीं होंगी, क्योंकि उनका एक मानवीय चेहरा भी होगा! लेकिन अब उस मानवीय चेहरे का कहीं कोई अता-पता नहीं है!
सोचिए जरा, जो निवेश लालायित देश निवेशकों की शर्तें मानकर अपने देश के श्रमिकों के अधिकारों में कटौती कर डाले, वह कल्पना भी कैसे कर सकता है कि बेरोजगारी के मारे उसके श्रमिक थोड़ी बेहतरी की तलाश में अवैध रूप से अमेरिका में जा घुसेंगे तो वह उनसे किसी सभ्य लोकतांत्रिक देश की तरह पेश आएगा?
तब तो कारसेवा करा रहे थे!
यहां एक और याद रखने की बात यह है कि जब इस देश के एकजुट होकर भूमंडलीकरण की मानवद्रोही व्यवस्था से लड़ने की जरूरत थी, हमारे वर्तमान सत्ताधीशों की जमातें उस जरूरत से मुंह मोड़कर रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद को सिर पर उठाए घूम रही थीं. उन्होंने रोजी और रोजगार के बजाय कारसेवा को सर्वोच्च प्राथमिकता बना दिया था. तब देश की दूसरी शक्तियों के लिए भी सांप्रदायिकता दुश्मन नंबर वन हो गई थी. ऐसे में बंटी हुई लड़ाई का ही कुफल है कि आज हम सांप्रदायिकता से भी पीड़ित हैं और उक्त मानवद्रोह से भी.
उस बीती को बीती मानकर बिसारना चाहें तो अभी भी, जब अमेरिका अपने ही द्वारा प्रवर्तित भूमंडलीकरण को थोड़ी मानवीय बनाने के बजाय उससे पल्टी मारने पर उतर आया है, हमारे सत्ताधीश कुछ ऐसा जता रहे हैं जैसे समझ नहीं पा रहे कि करें तो क्या करें. अमेरिका तक में अवैध से जानवरों जैसे सलूक के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे हैं, लेकिन हमारे सत्ताधीश भारत स्थित अमेरिकी राजदूत को बुलाकर औपचारिक विरोध भी नहीं जता पा रहे.
संसद में विदेश मंत्री एस. जयशंकर से पूछा गया कि क्या अमेरिका स्थित भारतीय मिशन ने वहां इन भारतीयों को कानूनी सहायता दी तो उनका भोला-सा जवाब था कि किसी ने इसका अनुरोध ही नहीं किया! जैसे अनुरोध न किया जाना इस ओर से आंख मूंद लेने की सहूलियत हो! लेकिन भारतीय मिशन भी क्या करे, जब अमेरिकी विदेश मंत्री ने वहां गए हमारे विदेश मंत्री से दो टूक कह दिया था कि वे अपने देश के अवैध प्रवासियों को ले जायें और वे सबकुछ सुनकर चुपचाप चले आये थे. उनसे यह भी कहते नहीं बना था कि हां, हम उनकी सम्मानपूर्वक वापसी सुनिश्चित करेंगे. अलबत्ता, विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने लोकसभा में कह दिया कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ट्रंप के शपथग्रहण समारोह के निमंत्रण का जुगाड़ करने अमेरिका गए थे, तो चुप नहीं रह पाए और उन्हें झूठा बताने लगे.
गौर कीजिए, ये सत्ताघीश दावा करते हैं कि उनके कारण दुनिया भर में देश का इकबाल बुलंद है और डंका बज रहा है! किसी देश में मुश्किल में फंसे अपने नागरिकों को बाहर निकालने या निजात दिलाने में सफल हो जाते हैं तो उसका भरपूर ढिंढोरा पीटते हैं. लेकिन अमेरिका के समक्ष ऐसा निर्लज्ज आत्मसमर्पण किये हुए हैं कि उसके द्वारा किसी न किसी बहाने लगातार अपमान के बावजूद अपना स्वाभिमान नहीं जगा पा रहे.
जग हंसाई का मंसूबा
जानकारों के अनुसार इसके दो कारण हो सकते हैं. पहला यह कि यह सोचकर वे पस्तहिम्मत हुए जा रहे हों कि अभी अमेरिका से टकराव के आगे और कठिन मोर्चे हैं. आखिर हमारी सीमा में घुसे चीन की बाबत विदेश मंत्री कह ही चुके हैं कि वह बड़ी अर्थव्यवस्था है, उससे कैसे लड़ें! वे अमेरिका की बाबत भी यह बात कह ही सकते हैं. दूसरा कारण यह कि वे अपने देश से कथित घुसपैठियों को इसी तरह अपमानित करके निकालकर अपनी क्षेत्रीय चौधराहट का संदेश देना चाहते हो!
वे सचमुच इनमें से कोई विकल्प सोच रहे हैं तो उसका एक ही अर्थ है : यह कि देश की इतनी जगहंसाई कराकर भी उनका मन नहीं भरा है.