दिल्ली चुनाव परिणाम: धूल में मिले आम आदमी पार्टी के धूमकेतु क्या फिर आकाश में चमकेंगे?

जो लोग कांग्रेस को मिले वोट और कई सीटों पर हार-जीत का अंतर दिखा कर बता रहे हैं कि कांग्रेस की वजह से आप हारी, वे आधा सच देख और बता रहे हैं. पूरा सच यह है कि आप अपनी वजह से हारी, वरना बीते दो चुनावों में उसे न कांग्रेस की दया की ज़रूरत पड़ी थी और न ही डबल इंजन सरकार के प्रचार से फ़र्क पड़ा था.

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दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आप संयोजक अरविंद केजरीवाल. (फोटो साभार: फेसबुक/@AAPkaArvind)

2013 में आम आदमी पार्टी की जीत और सरकार गठन के बाद एनडीटीवी पर एक चर्चा के लिए एक मंत्री को बुलाया गया. चर्चा का समय होने को था, लेकिन मंत्री का पता नहीं था. जब उन्हें फोन किया गया तो उन्होंने कहा कि वे कब से चैनल के दफ़्तर के नीचे खड़े हैं. सब हैरान हुए. एक आदमी नीचे गया. उसने देखा कि एक मासूम सा युवक चहलकदमी कर रहा है. वह कहीं से मंत्री या नेता नहीं लग रहा था. यह सौरभ भारद्वाज थे. लगभग यही कहानी उसी आसपास राखी बिड़ला के साथ भी घटी जिन्हें देखकर हमारे दफ़्तर में सब लोग हैरान थे कि यह तो मंत्री लगती ही नहीं.

तब हमारी तरह के बहुत सारे लोग यह महसूस कर रहे थे कि अपने सारे भटकावों और टकरावों के बीच और बावजूद यह‌ नई पार्टी एक नई तरह की राजनीति करने की कोशिश कर रही है. किसी धूमकेतु की तरह उभरी इस पार्टी के नेताओं में नेताओं वाला गुमान नहीं है, शक्ति प्रदर्शन की अभीप्सा नहीं है और अपने वैचारिक कच्चेपन के बावजूद कुछ नया करने और समझने की कोशिश है.

हालांकि, तब तक भी पूत के पांव पालने में दिखने लगे थे- पार्टी योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे वैचारिक सहयोगियों और मार्गदर्शन की क्षमता रखने वाले साथियों से कुछ अशोभनीय ढंग से पीछा छुड़ा चुकी थी. फिर भी अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जैसे नेता तब तक ऐसे लोगों की तलाश में थे जो पैसे या प्रलोभन से दूर लोगों के बीच सचमुच काम करते हों. उनके साथ देश भर से वे परिवर्तनकामी संस्थाएं भी जुड़ रही थीं जो किसी राजनीतिक पहल में भरोसा न कर पाने की वजह से तब तक स्वैच्छिक संगठनों की तरह अपने-अपने क्षेत्रों में काम कर रही थीं. तब तक केजरीवाल ऐसे विद्युत केंद्र लगते थे जिनको छूने भर से झटका लग सकता है.

लेकिन यह नई बिजली चुनावी सफलता के बाद राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के नए तारों पर दौड़ती नज़र आई. राजनीतिक परिवर्तन के लिए जन संगठन का अपना आज़माया हुआ नुस्खा छोड़ पार्टी सरल रास्तों की तलाश में जुट गई और इस व्यावहारिक समझ की शिकार होती चली गई कि चुनाव लड़ने के लिए बड़ा पैसा चाहिए. दिल्ली के बजट में विज्ञापनों के लिए दी जाने वाली राशि बढ़ती चली गई और जो काम पहले कार्यकर्ता अपनी इच्छा और लगन से करते थे, वह एक सरकारी महकमे के ज़रिए विज्ञापन एजेंसियों द्वारा किया जाने लगा.

ग़रीबों की राजनीति करने वाली पार्टी किसी ठोस वैचारिकी के अभाव में रेवड़ी बांटने वाली पार्टी बन गई

क्षरण की बिल्कुल प्रारंभिक शुरुआत यहीं से हुई. ग़रीबों की राजनीति करने वाली पार्टी किसी ठोस वैचारिकी के अभाव में रेवड़ी बांटने वाली पार्टी बन गई. फिर भाजपा के हिंदुत्व के जवाब में उसने भी हिंदूवादी चोला पहना और बुजुर्गो को तीर्थ यात्रा कराने से लेकर पंडे-पुरोहितों का मासिक वेतन बढ़ाने तक लगातार तरह-तरह की घोषणाएं करती रही. भाजपा के घातक और घृणा-आधारित हिंदुत्व के आगे नुक़सानरहित लगने वाले इस हिंदुत्व के चिंताजनक पहलू तब समझ में आए जब उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों में केजरीवाल का लगभग मुस्लिम विरोधी चेहरा दिखने लगा.

इसके बाद शराब घोटाले के नाम पर भ्रष्टाचार के आरोप आए और फिर मुख्यमंत्री भवन के आलीशान निर्माण की सच्चाई सामने आई. यह सादगी भरी और साफ़-सुथरी राजनीति के नाम पर बनाई गई छवि पर आख़िरी चोट थी. इसी दौरान मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी स्कूलों के काम के लिए मिलने वाला ग़रीबों का समर्थन भी सिकुड़ता चला गया. इसमें संदेह नहीं कि इन सबके बीच केंद्र सरकार की एजेंसियों ने राजनीतिक दबाव में आम आदमी पार्टी के नेताओं को जेल में डाला, लेकिन इसकी भी जो सहानुभूति मिलनी चाहिए थी, वह केजरीवाल और सिसोदिया हासिल नहीं कर सके. क्योंकि जो साख उन्होंने कभी कमाई थी, वह बहुत कम समय में गवां दी. इन सबके बीच केजरीवाल के ऊल-जलूल आरोपों का सिलसिला तब चरम पर पहुंच गया जब उन्होंने हरियाणा सरकार पर दिल्ली के पानी में ज़हर मिलाने का आरोप लगाया और इसकी तुलना हिरोशिमा-नागासाकी पर हुए नाभिकीय हमले और यहूदियों के ख़िलाफ़ हिटलर की कार्रवाई से कर डाली.

भाजपा ने इस बार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति नहीं की, चुनावों में स्थानीय मुद्दों को उठाया

भाजपा के खुर्राट नेताओं और उनकी विराट चुनाव मशीनरी के लिए इतना भर काफ़ी था. यह बात बहुत मासूमियत से कहीं जा रही है कि इस बार भाजपा ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति नहीं की और चुनावों में स्थानीय मुद्दों को उठाया जिसका उसे लाभ मिला. लेकिन सच्चाई यह है कि भाजपा को अब ध्रुवीकरण करने की ज़रूरत नहीं है, उसकी उपस्थिति ही ध्रुवीकरण का प्रतीक है- बंटोगे तो कटोगे, एक रहोगे तो सेफ़ रहोगे और अस्सी बनाम बीस जैसे नारे ही अब उसे परिभाषित करते हैं. फिर उसने रेवड़ी बांटने की वही राजनीति शुरू कर दी जो ‘आप’ की यूएसपी थी- तो लोगों ने मोदी की गारंटी को केजरीवाल की गारंटी से वज़नी माना- आख़िर इस गारंटी में डबल इंजन का भ्रम भी शामिल था.

यह सच है कि केजरीवाल की टीम को दिल्ली के उपराज्यपालों ने बहुत सारे काम करने नहीं दिए. अनावश्यक अड़ंगे और हस्तक्षेप ही‌ नहीं, कनिष्ठ अधिकारियों से उन्हें लगभग अपमानित कराने का काम भी किया. क्या यह कल्पना की जा सकती है कि योगी या मोदी कोई घोषणा करें और उनका विभाग अख़बार में विज्ञापन देकर उन्हें झूठा बता दे? आतिशी सरकार की घोषणाओं पर यह हुआ. कुंभ के हादसे का सच भी अब तक सामने नहीं आ पाया है. जिन तीस लोगों की मौत सरकार मान रही है, उनके नामों की सूची तक सार्वजनिक नहीं की गई है जबकि उनके लिए मुआवजे़ का एलान किया जा चुका है. जाहिर है, अपने आख़िरी दिनों में आप सरकार बिल्कुल अशक्त और अक्षम जान पड़ती थी जिसका भी उसे ख़मियाज़ा भुगतना पड़ा.

आप अपनी वजह से हारी, केजरीवाल केजरीवाल नहीं रह गए और आप आप नहीं रह गई‌

जो लोग कांग्रेस को मिले वोट और कई सीटों पर हार-जीत का अंतर दिखा कर बता रहे हैं कि कांग्रेस की वजह से आप हारी, वे आधा सच देख और बता रहे हैं. पूरा सच यह है कि आप अपनी वजह से हारी, वरना बीते दो चुनावों में उसे न कांग्रेस की दया की ज़रूरत पड़ी थी और न ही डबल इंजन सरकार के प्रचार से फ़र्क पड़ा था. फ़र्क इसलिए पड़ा कि केजरीवाल केजरीवाल नहीं रह गए और आप आप नहीं रह गई‌.

सच तो यह है कि यह एक पार्टी की नहीं, बहुत बड़े सपने की हार है. विकल्प की राजनीति के एक प्रयोग की हार है. लेकिन क्या यह अंतिम हार है? राजनीति में कुछ भी अंतिम नहीं होता. पार्टियां अपनी राख से खड़ी होती हैं. कांग्रेस कई बार अपनी मौत की घोषणा को पराजित कर खड़ी हुई है. भाजपा भी दो सीटों तक सिमट कर तीन सौ सीटों के पार भी गई. फिर आप तो बिल्कुल युवा पार्टी है जिसकी एक राज्य में सरकार भी है.

लेकिन आम आदमी पार्टी महज एक और राजनीतिक दल की तरह- भाजपा या कांग्रेस की बी टीम की तरह- खड़ी होना चाहेगी तो उसके होने का मतलब नहीं बचेगा. उसे अपनी उन जड़ों तक लौटना होगा जहां से उसे प्रारंभिक पोषण मिला था. हालांकि, यहां भी एक मुश्किल है. जिस अण्णा आंदोलन की कोख से यह पार्टी निकली थी, उसमें एक मध्यमवर्गीय अगड़ावाद था जिसे भ्रष्टाचार विरोध या आरक्षण विरोध लुभाता था. इसलिए भी उस आंदोलन से पैदा हुई ऊर्जा अगर दिल्ली में आम आदमी पार्टी के काम आई तो दूसरे राज्यों में उसने भाजपा को शक्ति दी.

लेकिन अपने जन्म के बाद आम आदमी पार्टी ने समाजवादी विश्वासों की ओर झुकने के संकेत दिए थे, जिससे आकर्षित होकर बहुत सारे लोग उससे जुड़े थे. उन लोगों को नए सिरे से जोड़ना आसान नहीं, लेकिन अगर आप अपने आंदोलन को नए सिरे से धार दे और उसकी दिशा दुरुस्त करे तो उसकी वापसी असंभव नहीं. फिलहाल यह दिख रहा है कि उसके प्रति सरकारी एजेंसियां हमलावर हो सकती हैं. लेकिन जेलें भी वह जगह होती हैं जहां से बदलाव के आंदोलन चलाए जाते हैं. इस देश की आज़ादी की लड़ाई जेलों से ही लड़ी गई है, माफीवीरों के पराक्रम से नहीं. देखना है, केजरीवाल और उनके साथी अपनी राख से उठ खड़े होने का जज़्बा दिखाते हैं या नहीं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)