जम्मू-कश्मीर: कोर्ट ने कथित देशद्रोही लेख मामले में तीन साल से जेल में बंद स्कॉलर को ज़मानत दी

'द कश्मीरवाला' वेबसाइट पर प्रकाशित एक लेख के लिए 2022 में गिरफ़्तार किए गए कश्मीर विश्वविद्यालय के शोधार्थी आला फ़ाज़िली को सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि ज़मानत से इनकार करना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अधिकारों का उल्लंघन होगा. 

स्कॉलर आला फ़ाज़िली. (फोटो साभार: स्पेशल अरेंजमेंट.)

श्रीनगर: जम्मू की एक अदालत ने 2011 में श्रीनगर स्थित डिजिटल समाचार पोर्टल में कथित रूप से ‘देशद्रोही’ लेख लिखने के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा गिरफ्तार कश्मीर विश्वविद्यालय के स्कॉलर आला फ़ाज़िली को लगभग तीन साल बाद जमानत दे दी है.

जम्मू में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की अदालत ने 8 फरवरी को कश्मीर विश्वविद्यालय के पोस्ट डॉक्टोरल स्कॉलर आला फ़ाज़िली को रिहा करने का आदेश दिया. फ़ाज़िली को 17 अप्रैल, 2022 को ‘गुलामी की बेड़ियां टूटेंगी’ शीर्षक वाले लेख के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस की राज्य जांच एजेंसी (एसआईए) ने गिरफ्तार किया था.

इस मामले पर सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा, ‘आवेदक को लेख से जोड़ने वाले सबूत बहुत कमजोर हैं, और यदि कमजोर सबूतों के कारण आवेदक को मुकदमे के अंत में बरी कर दिया जाता है, तो उनकी कैद की अवधि किसी भी तरह से क्षतिपूर्ति योग्य नहीं होगी.’

इस संबंध में फ़ाज़िली के भाई सामी फ़ाज़िली ने द वायर को बताया कि अदालत के आदेश के बाद फ़ाज़िली को जम्मू की कोट भलवाल जेल से रिहा कर दिया गया और वह मंगलवार शाम को घर पहुंच गए.

 ‘द कश्मीर वाला’ के संपादक फहद शाह को पहले ही मिल चुकी है जमानत

मालूम हो कि इस विवादास्पद लेख प्रकाशित करने वाली श्रीनगर स्थित डिजिटल पत्रिका ‘द कश्मीर वाला’ के संपादक फहद शाह को इस मामले में एसआईए द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय द्वारा जमानत पर पहले ही रिहा किया जा चुका है. शाह की रिहाई के 15 महीने से अधिक समय बाद फ़ाज़िली की रिहाई हुई है.

अपने आरोप पत्र में एसआईए ने आरोप लगाया था कि फ़ाज़िली का लेख अत्यधिक उत्तेजक और देशद्रोही लेख है, जिसका उद्देश्य ‘अशांति पैदा करना’, ‘भोले-भाले युवाओं को हिंसा का रास्ता अपनाने और सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के लिए प्रेरित करना’ और ‘आतंकवाद का खुलेआम महिमामंडन करना और पूरे जम्मू-कश्मीर में गैरकानूनी गतिविधियों को बढ़ावा देना था’.

अभियोजन पक्ष ने फ़ाज़िली की जमानत याचिका का विरोध करने के लिए यूएपीए की धारा 43-डी (5) लागू की थी. इस धारा के तहत कोई अदालत अभियोजन पक्ष को सुने बिना यूएपीए संदिग्ध को जमानत नहीं दे सकती.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के तीन फैसलों का हवाला देते हुए अदालत ने फैसला सुनाया कि फाज़िली, जो अपनी गिरफ्तारी के समय फार्मास्युटिकल विज्ञान में पीएचडी कर रहे थे, को जमानत देने से इनकार करना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अधिकारों का उल्लंघन होगा.

अदालत ने कहा कि मामले में 44 गवाहों में से अब तक 10 से पूछताछ की जा चुकी है और उनमें से किसी ने भी यह गवाही नहीं दी है कि लेख फ़ाज़िली द्वारा लिखा गया था.

अदालत ने कहा कि जब 6 नवंबर, 2011 को द कश्मीर वाला में लेख छपा, तब से लेकर 4 अप्रैल, 2022 तक जब एसआईए ने मामला दर्ज किया, सरकार ने ‘न तो नोटिस दिया और न ही कोई कार्रवाई की’.

अदालत ने जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के उस फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा ‘नैरेटिव टेररिज्म’ करार दिए गए मामले में द कश्मीर वाला के संपादक फहद शाह को जमानत दे दी गई है. अदालत ने कहा कि विवादास्पद लेख ने जम्मू-कश्मीर में ‘न तो कानून-व्यवस्था को प्रभावित किया है और न ही आतंकवाद से संबंधित घटनाओं को बढ़ाया है’.

अदालत के अनुसार, ‘इस विवादास्पद लेख में राज्य के खिलाफ हथियार उठाने या सशस्त्र विद्रोह के लिए उकसाने का कोई आह्वान नहीं किया गया था’.

अदालत ने कहा: ‘उनके सह-अभियुक्त (फहद शाह) को पहले ही जमानत मिल चुकी है, जिन्होंने कथित तौर पर उक्त लेख प्रकाशित किया था और उनकी भूमिका आवेदक की भूमिका से कम नहीं है क्योंकि अगर लेख प्रकाशित नहीं हुआ था तो आवेदक की डायरी में रहने पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता.’

ज्ञात हो कि एसआईए द्वारा जम्मू में जेआईसी/एनआईए पुलिस स्टेशन में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम की धारा 13 (गैरकानूनी गतिविधि की वकालत करना, उकसाना, सलाह देना या उकसाना) और धारा 18 (ऐसी गतिविधि में शामिल होने के लिए सजा की मात्रा निर्धारित करना) के तहत मामला दर्ज किया गया था.

एजेंसी ने एफआईआर में धारा 121 (भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ना), धारा 124 (सरकार के खिलाफ असंतोष फैलाना), धारा 153-बी (आरोप, राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक दावे) और धारा 120-बी (आपराधिक साजिश) भी लगाई है, जिसमें फहद को आरोपी के रूप में नामजद किया गया है.

हालांकि, हाईकोर्ट ने शाह के खिलाफ यूएपीए की धारा 18 और आईपीसी की धारा 121 और 153-बी के तहत आरोपों को खारिज कर दिया है, यह देखते हुए कि ‘लेखक द्वारा हथियारों का कोई आह्वान नहीं किया गया था (और) .. राज्य के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह के लिए कोई उकसावा नहीं था.’

शाह की सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा था, ‘रिकॉर्ड पर कोई सबूत नहीं है. (मामले में एसआईए द्वारा दायर) पूरा आरोप पत्र इस तथ्य के संबंध में चुप है कि किसी ने हिंसा का रास्ता चुना है, केवल इसलिए क्योंकि ‘लेख’ की प्रकृति उकसावे वाली थी, लगाए गए आरोप…. बिना किसी कानूनी आधार के (और) मान्यताओं पर आधारित हैं.’

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