दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद कहा जा रहा है कि आम आदमी पार्टी की हार इसलिए अफ़सोसनाक है कि इससे वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद को झटका लगा है. दूसरे, यह कि ‘आप’ की हार का कारण उसकी नैतिक आभा का धूमिल हो जाना है. हमें इस पर विचार करना होगा कि ‘आप’ क्या सचमुच किसी विकल्प का वादा कर रही थी? वह विकल्प क्या था? और क्या ‘आप’ सचमुच किसी नैतिकता में विश्वास भी करती थी? लेकिन पहले यह समझें कि यह हार-जीत है क्या?
‘गब्बर से तुम्हें गब्बर ही बचा सकता है.’ दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत की व्याख्या एक मित्र ने हिंदी फिल्म शोले के इस संवाद के माध्यम से की. पिछले 10 सालों में भाजपा नीत संघीय सरकार की ज़ोर-ज़बरदस्ती से दिल्ली की जनता को कौन निजात दिला सकता था? मतदाता ने तय किया कि उसे भाजपा से भाजपा ही बचा सकती है.
पिछले 10 साल से संघीय सरकार ने उप राज्यपाल के माध्यम से जिस तरह दिल्ली की ‘आप’ सरकार का चलना असंभव कर दिया था, उसे देखते हुए ‘आप’ के मतदाताओं के एक हिस्से ने गब्बर की शरण में जाना ही मुनासिब समझा. अगर केंद्र में अगले 5 साल भाजपा को ही रहना है तो ‘आप’ की सरकार के दुबारा बनने का कोई लाभ नहीं क्योंकि भाजपा तो उसे काम नहीं करने देगी. ऐसी हालत में बिजली, पानी, सड़क, नौकरी या दूसरी रोज़मर्रा की ज़रूरत के लिए भी भाजपा को ही चुन लेना चाहिए क्योंकि वह ‘आप’ सरकार की किसी फाइल को आगे नहीं बढ़ने देगी.
अगर सरकारी अधिकारियों से बात करें तो वे बतलाएंगे कि मतदाताओं के एक हिस्से का गला दबाकर यह वोट लिया गया है. यह बात तो साथ में कही जानी चाहिए कि ‘आप’ के मतदाताओं के एक हिस्से को भाजपा की तरफ़ जाने में कोई भावनात्मक छलांग नहीं लगानी पड़ी क्योंकि ‘आप’ और भाजपा एक ही भावनात्मक या वैचारिक दायरे में काम कर रहे थे.
वैसे यह बात प्रायः किसी भी हिंदू मतदाता के लिए कही जा सकती है. पारंपरिक रूप से कांग्रेस पार्टी या किसी भी अन्य धर्मनिरपेक्ष दल के मतदाता को भाजपा की तरफ़ जाने में क्या कभी किसी दुविधा का सामना करना पड़ता है? क्या वह कभी भी धर्मनिरपेक्षता के प्रश्न पर समझौताविहीन रहा है? फिर ‘आप’ के मतदाता की तो उम्र ही अभी 10 साल की है. उसने इन 10 सालों में देखा कि भाजपा और ‘आप’ के वैचारिक लोक में कोई फर्क नहीं है. आप का वादा उसे सड़क, पानी, बिजली,शिक्षा, स्वास्थ्य की सुविधा देने भर का था. वह अगर भाजपा के आने से अधिक सुगम हो जाए तो उसे लाने में क्या हर्ज है?
इस प्रकार का विचारनिरपेक्ष मतदाता ‘आप’ ने ही 10 सालों में तैयार किया है. हनुमान चालीसा, सुंदरकांड का हफ़्तावर पाठ, अयोध्या और सारे तीर्थों के भ्रमण, सनातन सेवा बोर्ड, पुजारियों आदि के लिए विशेष व्यवस्था के वादे के बाद आप और भाजपा में सिर्फ़ चुनाव चिह्न का अंतर रह गया था. लेकिन राष्ट्रवादी हिंदू होने के लिए मुसलमान विरोध अनिवार्य है.
भाजपा को तो उसके लिए कुछ करने की ज़रूरत नहीं. उसके तो अस्तित्व का वह तर्क है. वह सिर्फ़ नरेंद्र मोदी या आदित्यनाथ को सामने खड़ा कर दे तो उनके कुछ बोले बिना ही मतदाता में मुसलमान विरोधी अपने आप संक्रमित हो जाती है. भाजपा के बाक़ी नेता एक दूसरे से मुसलमान विरोध में प्रतियोगिता करते हैं. सवाल यह होगा कि प्रवेश वर्मा आगे हैं या कपिल मिश्रा या रवींद्र नेगी?
‘आप’ ने शुरू में तय कर लिया था कि इस मामले में वह भाजपा को बाज़ी नहीं मारने देगी. इसलिए कोविड संक्रमण के वक्त उसने तबलीगी जमात के बहाने मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा फैलाई. जब मुसलमानों ने नागरिकता के क़ानून में सांप्रदायिक संशोधन के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू किया तो अरविंद केजरीवाल ने उसके ख़िलाफ़ बयान दिए. उसके पहले आप’ ने उत्साह के साथ कश्मीर के ख़ास दर्जे को ख़त्म करने और अनुच्छेद 370 को रद्द करने के फ़ैसले का समर्थन किया था. अयोध्या में बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर राम मंदिर बनने की आलोचना तो दूर, उसने उसके दर्शन के लिए मुफ़्त यात्रा का वादा किया. ख़ुद अरविंद केजरीवाल ने सपरिवार अपनी राम मंदिर यात्रा को खूब प्रचारित किया.
मुसलमान विरोधी दिखने में वह पीछे न रह जाए इसलिए उसने बांग्लादेशी और रोहिंग्या लोगों के ख़िलाफ़ भी हिंसक बयान दिए. मुसलमान विरोधी दिखने की होड़ में वह इतना नीचे गिर गई कि यह कहना शुरू किया कि बांग्लादेशी और रोहिंग्या दिल्लीवालों का हक़ मार रहे हैं. मुख्यमंत्री आतिशी ने बांग्लादेशी और रोहिंग्या बच्चों को स्कूलों में दाख़िला देने से सख्ती से मना करने का आदेश चुनाव के ठीक पहले निकाला.
बच्चों के मुंह से निवाला छीन लेने वाला क्या इंसान है? लेकिन ‘आप’ के समर्थकों ने ‘आप’ की इस चतुर रणनीति की प्रशंसा की: ‘आप’ ने ऐसा करके तुरुप का पत्ता चला है और भाजपा को मात दे दी है. उनका कहना था कि ‘आप’ वैसे तो सांप्रदायिक नहीं है लेकिन अभी हिंदू मतदाता को भाजपा की तरफ़ से खींचने के लिए यह एक ज़बरदस्त हिकमत है. यह शोभनीय तो नहीं है लेकिन आज की बाध्यता है.
सवाल मंदिर मंदिर जाने या हनुमान चालीसा के पाठ का नहीं था. वह फूहड़पन है लेकिन सांप्रदायिक नहीं. करेंसी नोट पर गणेश लक्ष्मी की तस्वीर लगाने के अरविंद के प्रस्ताव को भी क्या हम मज़ाक़ ही मानेंगे? लेकिन अनुच्छेद 370 की समाप्ति की प्रशंसा, जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे के ख़ात्मे का समर्थन, शाहीन बाग आंदोलन से दूरी, बांग्लादेशी और रोहिंग्या के ख़िलाफ़ फ़ैसले सांप्रदायिक कदम हैं.
‘आप’ अगर रणनीतिक सांप्रदायिकता करके भाजपा से आगे हो जाना चाहती थी तो यह उसकी भूल थी. लेकिन यह कोई वक्ती मजबूरी न थी. यह सांप्रदायिकता या हिंदू राष्ट्रवाद शुरू से ही ‘आप’ के चरित्र का हिस्सा था. इसे हमारे भले मित्रों के द्वारा जानबूझकर 2011, 12 में नज़रअंदाज़ किया गया.
हमारे कुछ मित्र अफ़सोस कर रहे हैं कि ‘आप’ का पतन हो गया, वह अपने रास्ते से भटक गई. ’आप’ के पतन से वैकल्पिक राजनीति का सपना टूट गया है. अगर टूटा नहीं तो वह खयाल अब काफ़ी दब गया है. लेकिन वे यह नहीं बतलाते कि आख़िरकार वह वैकल्पिक राजनीति क्या थी जिसका वादा ‘आप’ ने किया था? वह किस राजनीति का विकल्प थी? क्योंकि भारत में राजनीति एक प्रकार की ही नहीं है. ‘आप’ किस राजनीति का विकल्प थी? या वह राजनीति मात्र का विकल्प पेश कर रही थी?
क्या यह ‘आप’ के उदय के समय ही साफ़ न था कि वह एक प्रकार के कट्टर राष्ट्रवाद में यक़ीन करने वाला दल है जो हिंदुत्ववाद का मुलायम पर्याय है ? आप ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ आंदोलन की पैदाइश है. क्या इस आंदोलन के राष्ट्रवादी प्रतीकों और नारों की याद हमें नहीं? क्या हम नहीं जानते थे कि इस आंदोलन के जनक अरविंद केजरीवाल मूलतः सांप्रदायिक और जातिवादी थे?
जिन्होंने ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की यात्रा देखी है, वे याद कर सकते हैं कि इसका आरंभ लाला रामदेव और श्री श्री रविशंकर की जुटाई भीड़ के सहारे शुरू हुआ था. दैत्याकार तिरंगे और वन्दे मातरम् के साथ शिवाजी, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आज़ाद के प्रतीकों का चालाक इस्तेमाल एक राष्ट्रवादी भावना को गढ़ने और भड़काने के लिए किया जा रहा था जो हिंदू राष्ट्रवादी भावना ही हो सकती थी.
अप्रैल, 2011 में रामदेव से पीछा छुड़ाकर अरविंद केजरीवाल महाराष्ट्र से अन्ना हज़ारे को रामलीला मैदान में उपवास करने ले आए. अन्ना को उत्तर भारत में कोई नहीं जानता था. अरविंद के लिए आसान हो गया कि मीडिया के सहारे अन्ना को दूसरा गांधी साबित कर दें.
पत्रकार मुकुल शर्मा ने अन्ना हज़ारे के गांव रालेगांव सिद्धी और ख़ुद उनके बारे में लंबा लेख लिखा था. उस लेख को पढ़ने से साफ़ हो जाता है कि अन्ना एक प्रतिक्रियावादी, तानाशाही प्रवृत्ति के व्यक्ति थे. गांव में लोगों को पेड़ से बांधकर पिटवाना और भय, आतंक के सहारे एक तरह का मिलिट्री अनुशासन कायम करना उनकी ख़ासियत थी.
रामलीला मैदान में उनके उपवास के समय महाराष्ट्र की संस्था ‘आरोग्य सेना’ के डॉक्टर अभिजीत वैद्य ने एक लेख में कहा था कि वे इस आंदोलन में शामिल नहीं हो सकते क्योंकि यह मूलतः जनतंत्र विरोधी है. अन्ना को दूसरा गांधी कहे जाने पर आपत्ति करते हुए उन्होंने लिखा था कि वास्तव में अन्ना में बौद्धिक क्षमता नहीं है कि वे किसी भी मसले को समझ सकें. अन्ना का इस्तेमाल अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं. अन्ना तो ख़ुद को इतना गौरव मिलते देख अरविंद के पुतले की तरह काम करने को तैयार थे.
डॉक्टर वैद्य ने उनके उपवास की शुद्धता पर भी सवाल उठाया था. बरसों पहले एक बार उनके गांव में उन्होंने उनके एक उपवास के समय पाया था कि अन्ना के सहयोगी उन्हें लगातार ग्लूकोज़ और एल्कट्रोलाइट पाउडर दे रहे हैं. इस तरह तो उपवास काफ़ी लंबा खींचा जा सकता है.
रामलीला मैदान के उपवास को जिस तरह उत्सव का रूप दे दिया था, वह हास्यास्पद था. डॉक्टर वैद्य ने ठीक ही कहा था कि ख़ुद को ‘अन्ना टीम’ कहने वालों को ख़ुद उपवास पर बैठना चाहिए, न कि के बूढ़े की जान को ख़तरे में डालना चाहिए. इस पूरे आंदोलन की अनैतिकता और चतुर राष्ट्रवाद के प्रति कई लोगों ने जनता को सावधान किया था.
‘जन लोकपाल’ क़ानून बनाने के आंदोलन के समय अरविंद केजरीवाल और उनके मित्रों ने कहा था कि वे जो प्रस्ताव दे रहे हैं उस पर उन्होंने जनमत संग्रह करवा लिया है और संसद को उसे पारित भर करने की ज़रूरत है. वे इसके लिए तैयार न थे कि संसद उस पर कोई विचार विमर्श करे. उनका कहना था कि यह तो उन्होंने कर ही लिया है, संसद को उसपर बस मुहर लगाने की ज़रूरत है.
करन थापर के साथ अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण के इंटरव्यू में संसदीय प्रक्रिया के प्रति अरविंद और उनके साथियों की हिक़ारत साफ़ दिखलाई पड़ती है. भीड़ को संसद के बरक्स खड़ा करना कितना ख़तरनाक है, यह हम जनतंत्र के इतिहास से जानते हैं.
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने क्यों उस वक्त अफ़रातफ़री से काम लिया और क्यों हथियार डाल दिए, इस पर अलग से शोध की ज़रूरत है. लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की सच्चाई जानना भी आवश्यक है और यह तब तक नहीं हो सकता जब तक इस आंदोलन में शामिल लोग सच न बोलें.
सच की इस तलाश को अगर छोड़ भी दें तो भी ‘आप’ के गठन के बाद उसके विकल्प बनने के दावे की तो परीक्षा की ही जानी चाहिए. यह कहा गया था कि धर्मनिरपेक्षता जैसी विचारधारा की राजनीति का युग समाप्त हो चुका है. अब विचारधारा के बाद की राजनीति का ज़माना है. यह स्वच्छ और कुशल प्रशासन की राजनीति होगी. उस वक्त यह कहा गया कि ‘आप’ की विचारधारा वास्तव में समस्याओं के समाधान की विचारधारा होगी.
‘मिंट’ को दिए गए एक इंटरव्यू में योगेन्द्र यादव ने कहा: ‘तो एक तरह से कहें तो, आप कह सकते हैं कि समस्या का समाधान करना, विशिष्ट स्थितियों पर ध्यान देना , साक्ष्यों को देखना और यह बताने की कोशिश करना कि आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीका क्या है. यही हमारी विचारधारा है. ‘
उन्होंने यह कहा कि विविधता में विश्वास उनकी पार्टी की विचारधारा एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है. लेकिन धर्मनिरपेक्षता को अपने सिद्धांतों में इसने शरीक नहीं किया. विविधता के सम्मान का तर्क पर्याप्त नहीं अगर यह साफ़ न किया जाए कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रति पार्टी का क्या रुख़ है. इस अपेक्षा का मज़ाक़ उड़ाया गया. बल्कि यह समझाने की कोशिश की गई कि एक बार समस्या समाधान की राजनीति कारगर हो जाए, धर्मनिरपेक्षता का सवाल अपने आप ही अप्रासंगिक हो जाएगा.
समस्या क्या है जिसका समाधान राजनीति तो करना है, यह कभी साफ़ न हुआ. क्या वह सिर्फ़ पानी, बिजली और शिक्षा, स्वास्थ्य की सुविधाओं का न्यूनतम स्तर था? स्कूली शिक्षा में ‘प्रतिभाशाली’ और ‘मंदबुद्धि’ के बीच भेदभाव, कैमरों के सहारे निगरानी, किसी भी तरह की आलोचना के लिए अध्यापकों को दंडित किया जाना, कट्टर देशभक्ति और प्रसन्नता पाठ्यक्रम जैसे प्रतिक्रियावादी कदमों के बारे में कभी बात न की गई. मोहल्ला क्लीनिक, स्कूल की इमारत और बिजली की रियायत का हवाला देकर ‘आप’ के आलोचकों का मुंह बंद करने की कोशिश की गई.
‘आप’ कौन सा विकल्प थी, यह कभी स्पष्ट नहीं हो पाया, हालांकि कहते सब रहे कि वह वैकल्पिक राजनीति का प्रतीक है. जो समझ में आया वह यह कि यह पार्टी ताक़त के लिए हर तरह की तिकड़म और समझौता कर सकती थी. और यह बात इसको जन्म देने वाले आंदोलन में भी थी. उसमें भी हर तरह के झूठ और तिकड़म का सहारा लिया गया था. भ्रष्टाचार को लेकर ही जो झूठ बोला गया उस पर किसी ने माफ़ी मांगने की ज़रूरत महसूस न की. एक तर्क यह था कि सरकार के विरोध के लिए झूठ का सहारा लिया जाना रणनीतिक रूप से उचित ही था. असल बात थी सरकार को कमजोर करना, उसकी साख ख़त्म करना.
‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की नीतिविहीनता और चतुर सांप्रदायिकता का प्रदर्शन ‘आप’ ने पिछले 11 सालों में बार-बार किया. हर बार कहा गया कि वह अपने आदर्श से विचलित हो रही है. लेकिन वह आदर्श क्या था, यह आज तक किसी ने न बताया. फिर हम किस आदर्शवादी राजनीति से धोखे का रोना रो रहे हैं?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. )