बंगनामा: दलित बस्ती में साक्षरता की गूंज

1988 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का शुरू किया था, जिसका मक़सद था अनपढ़ लोगों को व्यावहारिक रूप से साक्षर बनाना, ताकि सभी लोग काम के लायक़ पढ़-लिख सकें. बंगाल की प्रौढ़ महिलाओं की साक्षरता की यात्रा पढ़िए बंगनामा की बीसवीं क़िस्त में.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: The Women Education and Empowerment Trust)

डेढ़ साल पहले जब हम लोग कलकत्ता वापस पहुंचे तो अपने फ़्लैट में कदम रखने के साथ ही घर में काम करने वाली की खोज आरंभ हुई. श्रीमती जी के कई फोन कॉल, कुछ साक्षात्कार, तथा एक-दो सूक्ष्म परीक्षणों के उपरांत हमारे यहां घर के कामकाज में एक निपुण तथा कर्मठ महिला काम करने लगी. कुछ दिनों बाद मेरी पत्नी ने उससे कहा कि चलो तुम्हारा बैंक में खाता खुलवा देती हूं ताकि तुम कुछ बचत भी कर सको. उसका उत्तर था, ‘मुझे लिखना-पढ़ना नहीं आता.’

चार साल पहले दिल्ली में भी ऐसा ही हुआ था. वहां भी जब मेरी पत्नी ने हमारे घर में काम करने वाली महिला से कहा था कि बैंक में खाता खुलवा लो, तो उसने भी ऐसा ही जवाब दिया था. मुझे यह बात सुन कर अचंभा तो हुआ लेकिन साथ ही इस बार कॉनटाई सबडिवीज़न के अपने कार्यकाल की कुछ खोई यादें वापस आ गईं.

देश में साक्षरता और शिक्षा के मान को बढ़ाने के लिए 1988 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का शुभारंभ किया था. इसका एक महत उद्देश्य था अनपढ़ लोगों को व्यावहारिक रूप से साक्षर बनाना, ताकि सभी लोग काम के लायक़ पढ़ सकें, लिख सकें और गणित का दैनन्दिन जीवन में व्यवहार कर सकें.

1991 की जनगणना के अनुसार, भारत में साक्षरता की दर 52% थी जिसमें पुरुषों की दर 64.13% और महिलाओं की 39.29% थी. 1990 में केरल के एरनाकुलम ज़िले ने 100% साक्षर ज़िला बनने का गौरव प्राप्त किया. इस मानदंड को लक्ष्य बनाकर विभिन्न राज्यों के कुछ ज़िलों में साक्षरता का अभियान आरंभ हो गया था. पश्चिम बंगाल में यह कार्य मिदनापुर ज़िले में आरंभ हुआ था और जब मैं कांथी पहुंचा तो यह कार्य ज़ोर-शोर से चल रहा था.

सितंबर 1991 के अंतिम दिन की संध्या अंधकार में डूब चुकी थी. हमारे टॉर्च की रोशनी से बाहर मिट्टी के घरों का वह झुरमुट, जो हमारा गंतव्य था, प्रकाश के कुछ टिमटिमाते बिंदुओं तथा अर्ध-चंद्रमा के फीके आलोक में रेखांकित भर था. मैंने इसी महीने के आरंभ में कॉनटाई, यानी कांथी, सबडिवीज़न के सब डिवीज़नल ऑफ़िसर (एसडीओ) के पद का भार ग्रहण किया था तथा शाम-सुबह अब ऐसे गांवों में जाना मेरी दिनचर्या का एक स्वाभाविक अंश बन चुका था. मेरे साथ कांथी 3 ब्लॉक के बीडीओ भी थे और हम दोनों बिना किसी पूर्व सूचना के इस ग्राम में आ पहुंचे थे.

यह मुहल्ला, पाड़ा, मुख्य गांव से कुछ अलग हटकर खड़ा था. समीप आने पर जान पड़ा कि यहां के सारे घर मिट्टी के थे, किंतु फूस के छप्परों के बीच कुछ खपरैल भी नज़र आ रहे थे. पाड़ा के ठीक बाहर पतले रास्ते के किनारे खड़े, खांसते चापाकल पर दो लड़के हाथ-मुंह धो रहे थे. उनसे मैंने पूछा, ‘एखाने साक्खरता केंद्र कोथाय आचे (यहां साक्षरता केंद्र कहां है)?’ ‘ऐइ तो, पाशेइ. आशुन देखिए दी (बस यहीं पास में. आइए दिखला देता हूं )’ उसने कहा, और हम साथ हो लिए.

मिट्टी के दीवारों के बीच होते हुए हम एक घर के सामने पहुंचे जिसके संकरे बरामदे पर छह-सात महिलाएं एक बिश्नुपुरी लालटेन और एक ढिबरी को ऐसे घेरकर बैठीं हुई थीं मानो रोशनी कहीं भाग न जाए. महिलाओं की उम्र तीस से लेकर पचास-पचपन साल तक थी तथा सबके सामने मिट्टी के फ़र्श पर एक कॉपी रखी थी और हाथ में पेंसिल. पास ही में बैठी एक नवयुवती उन्हें सरल शब्दों का श्रुति लेखन लिखवा रही थी. उस लड़की ने बताया कि वह नज़दीक के घोष पाड़ा में रहती है, कांथी कॉलेज में पढ़ रही है, और बतौर स्वयंसेविका ज़िला साक्षरता अभियान से जुड़ी हुई है. दिन में क्लास में पढ़ने के लिए हाज़िर रहती है और हर संध्या इस बरामदे पर, इन महिलाओं को पढ़ाने के लिए.

इस केंद्र में कुल 11 नव साक्षर हैं जिनमें ज़्यादातर महिलाएं प्रतिदिन आती हैं. मैं महिलाओं से बात करने लगा. शुरुआत की हिचकिचाहट के बाद उनकी बातों से साक्षर होने की उनकी दृढ़ता तथा उनका उत्साह साफ़ झलकने लगा. जब मैंने उनमें से एक को उनके लिए विशेष रूप से बनाई गई ‘सरल पाठ’ से कुछ वाक्य पढ़ने को कहा तो बाक़ी महिलाओं में जैसे छोटे बच्चों की तरह होड़ सी लग गई— ‘आमियो पोड़ी (मैं भी पढ़ूं )’ या ‘आमियो पोड़बो (मैं भी पढ़ूंगी).’

मैंने उनसे अपनी-अपनी कॉपियों में अपना नाम लिखने को कहा. सभी ने बड़े-बड़े अक्षरों में अपना नाम लिख कर अपनी कॉपी जांच के लिए मेरी ओर बढ़ा दी. आलोच्य बात यह न थी कि उनमें से अधिकतर की हस्तलिपि टेढ़ी-मेढ़ी थी या शब्द निर्भूल न थे, आशाजनक बात यह थी कि अब तक पढ़ाई-लिखाई से वंचित रहने के बाद भी वे इस उम्र में भी लिखना सीख रही थीं, लिख रही थीं.

मैंने उनसे पूछा, ‘आपनारा की काज कोरेन (आप लोग क्या काम करती हैं)?’ दो तीन लोगों ने एक साथ कहा, ‘आमरा मोजुरी कोरी आर बाड़ीर काज कोरी (हम लोग मज़दूरी करते हैं और घर का काम करते हैं).’ पता चला कि ये सातों महिलाएं दिनभर मज़दूरी करने के बाद घर लौटकर आती हैं, खाना बनाती हैं, और फिर इस केंद्र में पढ़ने चली आती हैं. दलितों के इस पाड़े में यह साक्षरता केंद्र नियमित रूप से चल रहा था.

(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)

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