हिंदी के वैकल्पिक नजरिए वाले कवियों में अग्रगण्य स्मृतिशेष वीरेन डंगवाल ने अरसा पहले अपनी एक कविता में पूछा था : किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है, जिसमें बस वही दमकता है जो काला है-वह कत्ल हो रहा सरेआम चौराहे पर, निर्दोष और सज्जन जो भोला-भाला है!
हमने अपने देश पर पिछले कई दशकों से शोषण व गैरबराबरी पर आधारित जो सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था लाद रखी है, उसके विषफलों की निरंतर बढ़ती पैदावार के बीच यह सवाल न सिर्फ अनुत्तरित है बल्कि लगातार बड़ा होता जा रहा है.
इस व्यवस्था की जाई अनेकानेक बुराइयों से बुरी तरह त्रस्त इस देश में, इसके चलते यह सवाल भी छोटा नहीं रह गया है कि सरकारों को नागरिकों के किन वर्गों की समस्याओं को ज्यादा तवज्जो देनी चाहिए, किनकी समस्याओं को कम? और क्या वे जिनको ज्यादा तवज्जो देनी चाहिए, दे रही हैं?
आम का नाम और खास का काम
जानकार इस सवाल को ‘प्राथमिकता का सवाल’ कहते हैं और सरकारों द्वारा इसे हल करने के तरीके से ही पता लगा लेते हैं कि वे किसके लिए ज्यादा चिंतित हैं? उनके लिए, व्यवस्था ने जिनकी थालियां पहले ही इतने पकवानों से भर दी हैं कि उन्हें यही समझ में नहीं आता कि वे उनमें से क्या-क्या खाएं? या उनके लिए जिनकी थाली में कुछ रहने ही नहीं दिया गया है, जिसके चलते उनका ऐसे हालात से सामना है कि वे अपने पेट की आग कैसे बुझाएं, खाएं तो भला क्या खाएं?
कोई कहे कुछ भी, आज की तारीख में यह समझने के लिए बहुत जानकार होने की भी जरूरत नहीं है कि हमारी सरकारें ‘क्या खाएं’ वालों के नाम का रट्टा लगाकर ही चुनकर आतीं और उन्हीं के नाम पर चलाई जाती हैं. लेकिन सबसे ज्यादा चिंतित उन मध्य व उच्च वर्गों के लिए रहती हैं, जिन्हें जोर-जोर से रोने व दहाड़ने के अभ्यास के बल पर अपनी समस्याओं को ही सबसे बड़ी और तुरंत ध्यान दिये जाने लायक या असली समस्याएं बनाकर पेश कर देने में महारत हासिल है. इन वर्गों की यह महारत उनके इस सुभीते से और बढ़ जाती है कि संचार व प्रचार माध्यमों में भी उनका प्रभुत्व है. इस कदर कि दोनों का वर्ग चरित्र लगभग एक होकर रह गया है.
कई बार ये वर्ग इस प्रभुत्व को निचले तबकों की समस्याओं की ओर से ध्यान हटाने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं. इसे महाकुंभ के उस उदाहरण से आसानी से समझ सकते हैं, जिसमें भगदड़ में श्रद्धालुओं के हताहत होने के बाद सरकार प्रायोजित वीवीआईपी संस्कृति के विरुद्ध आवाजें उठने लगीं और कहा जाने लगा कि आम श्रद्धालुओं को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है, तो उच्च वर्गों के शुभचिंतक मीडिया ने श्रद्धालुओं के बड़े-बड़े रेलों के चलते सड़क जाम की समस्या को वीवीआईपी संस्कृति से बड़ी समस्या बनाकर दिखाना शुरू कर दिया. वह इसके लिए ‘रोड अरेस्ट’ जैसा चमकदार शब्द भी ढूंढ लाया.
गौरतलब है कि सड़क जाम की समस्या उच्च वर्गों की ही देन है, जो सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की बदहाली के विरुद्ध आवाज उठाने में ‘समय नष्ट करने’ के बजाय निजी साधनों से यात्रा को तरजीह देते और सड़कों पर वाहनों की भीड़ बढ़ाना ज्यादा ‘पसंद’ करते हैं. इससे सार्वजनिक परिवहन प्रणाली चरमरा जाये तो उनकी बला से.
लेकिन बात यहीं नहीं थमी, रोड अरेस्ट हुए लोगों की यह ‘समस्या’ आम श्रद्धालुओं की भूख-प्यास की समस्या से भी बड़ी कर दी गई कि हाईवे के ढाबों पर उनको छौंकी हुई दाल व आलू परांठे वगैरह या तो उपलब्ध नहीं हो पा रहे या बहुत महंगे मिल रहे हैं.
आपराधिक तरजीह
निस्संदेह, यह ‘समस्या’ भी गैरजरूरी नहीं थी. लेकिन कौन कह सकता है कि आम श्रद्धालुओं की दुश्वारियों पर इसको तरजीह देना आपराधिक नहीं था? खासकर, जब ऐसे श्रद्धालुओं की खोज-खबर तो खूब ली जा रही थी, जो खुद को अपनी लकदक लग्जरी कारों में रोड अरेस्ट बताकर चार पांच सौ रुपये का एक आलू परांठा खरीदने व खाने में समर्थ थे, लेकिन जिनकी जेबों में इतने रुपए नहीं थे, कोई भी उनकी सुध नहीं ले रहा था. न महाकुंभ परिसर में, न ही उसके बाहर. उल्टे वे जगह-जगह से भगाये और दुत्कारे जा रहे थे. कहीं पुलिस द्वारा तो कहीं मुनाफाखोरों द्वारा. इसके विपरीत जो रोड अरेस्ट थे, वे अपनी खरीदारियों से जीएसटी कलेक्शन बढ़ाने में ‘बड़ा योगदान’ कर रहे थे, इसलिए उनकी तकलीफ सर्वोपरि थी.
बात को एक और तरह से समझ सकते हैं. जब इस आशय की खबरें आने लगीं कि तीन हजार से ज्यादा स्पेशल ट्रेनें चलाने का दावा करने वाली रेलवे की बदइंतजामी से क्षुब्ध श्रद्धालु कई ट्रेनों के एसी कोचों तक में घुस जा रहे हैं और उसके दरवाजे तक तोड़ डाल रहे हैं तो उन्हें इन यात्रियों के बहुत बड़े अपराध के तौर पर दर्ज किया गया, क्योंकि उससे उच्च वर्गों के यात्रियों को असुविधा हुई. नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ में डेढ़ दर्जन से ज्यादा यात्रियों की मौतों को भी लगभग उतना ही महत्व दिया गया, ज्यादा नहीं. क्योंकि मरने वाले ज्यादातर सामान्य यात्री थे.
इस सौतेलेपन पर सोचिए जरा : रेलवे को सबसे ज्यादा आय निचले दर्जे के कोचों के सामान्य यात्रियों से ही होती है. ऊपर के दर्जों के ज्यादातर यात्री या तो अफसर होते हैं या उद्यमी और उद्योगपति, जिनके टिकट या तो उन्हें मिलने वाले यात्रा भत्ते से आते हैं या उनके आयकर (income tax) की रकम से. इन दोनों से होने वाली रेलवे की आय वैसे ही होती है जैसे कोई अपनी एक जेब से रुपये निकालकर दूसरी में रखकर उसका वजन बढ़ा ले. फिर भी रेलवे ऊपर के दर्जे के यात्रियों की सेवा मुस्कान के साथ करती है और सामान्य यात्रियों की आपराधिक उपेक्षा के साथ. उस पर रेलों में इन सामान्य यात्रियों की असुविधाओं का इतना सामान्यीकरण कर दिया गया है कि उनकी बाबत खबरें या तो आती ही नहीं हैं या कोने अंतरे में इक्का-दुक्का आती हैं और सिर झटककर भुला दी जाती हैं.
एक और नज़ीर. खाद्यान्न और सब्ज़ियां मंहगी होने लगती हैं (विडंबना यह कि बाजार-व्यवस्था के दोषों के कारण उनके उत्पादक किसानों को इस महंगाई का भी अपेक्षित लाभ नहीं मिलता.) तो खूब शोर मचाया जाता है, लेकिन बड़ी कंपनियों द्वारा निर्मित या उत्पादित उपभोक्ता वस्तुओं की कई गुनी महंगाई के खिलाफ आवाज उठाने की बात आए तो महंगाई राष्ट्रवादी हो जाती है और उसके फायदे गिनाए जाने लगते हैं. उसे प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का गुण बताया जाने लगता है.
उच्च वर्गों का मुगालता
इधर उच्च वर्गों का यह मुगालता भी बहुत बढ़ गया है कि देश इस रूप में उनका मोहताज है कि उनके द्वारा अदा किए जाने वाले करों से ही चल और विकसित हो रहा है. इसीलिए वे बात-बात पर सरकारों द्वारा ‘करदाता के पैसे से मुफ्त की रेवड़ियां’ बांटने के विरुद्ध मुखर रहते और गरीबों को हर महीने मिलने वाले पांच किलो राशन को भी ‘मुफ्त की रेवड़ी’ ही मानते हैं.
जानबूझकर समझना नहीं चाहते कि कोई भी वस्तु तब तक मुफ्त नहीं मिल सकती, जब तक मुफ्त में उत्पादित न हो. उत्पादन मुफ्त हो तो भी उसके वितरण में आने वाला खर्च अदायगी की मांग करता है. इसलिए किसी न किसी रूप में किसी न किसी को उसकी कीमत चुकानी ही पड़ती है. वह प्रत्यक्ष हो या परोक्ष.
तभी तो मुफ्त राशन योजना को भी परोक्ष रूप से ‘वोट के बदले राशन’ या ‘राशन के बदले वोट’ की योजना में बदल दिया गया है और सरकार उसे ‘लाभांवित’ होने वालों की मांग पर नहीं, संसाधनों के न्यायोचित वितरण के रास्ते ‘सबको भोजन, सबको काम’ उपलब्ध कराने में अपनी विफलता को ढके रखने के लिए चला रही है. वह जानती है कि उसने रोजी व रोजगारहीन विकास का जो रास्ता अपना रखा है और जिस तरह मनरेगा के बजट में समुचित बढ़ोत्तरी तक उसे कुबूल नहीं है, उसके चलते निम्न आय वर्गों के लोगों का पेट भरने का उसके पास मुफ्त राशन बांटने के अलावा कोई चारा नहीं है.
उस पर विडंबना यह कि इन तबकों को विकास की मुख्यधारा से दूर बनाए रखकर वह चाहती है कि वे इस मुफ्त के लिए कृतज्ञ रहकर उसकी उम्र बढ़ाते रहें. दूसरी ओर उच्च वर्ग ही नहीं, उच्चतम न्यायालय तक इसे इन वर्गों को ‘अकर्मण्य बनाने वाली रेवड़ी’ के रूप में देखते हैं. समझते नहीं कि यह उनकी कम, सरकार की अकर्मण्यता की प्रतीक ज्यादा है. सरकार अकर्मण्य न होती तो क्या उसके पास इन वर्गों को कानूनन हासिल खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने का और कोई रास्ता नहीं होता?
मजे की बात तो यह है कि उच्च वर्गों का हितचिंतक मीडिया इस ‘मुफ्त’ की तो बहुत चर्चा करता है, इसे चुनावों के वक्त दिए जाने वाले खाते में नक़दी डालने जैसे प्रलोभनों से भी अलग नहीं करता, लेकिन कारपोरेट द्वारा जानबूझकर डुबाए जाने वाले बैंक कर्ज या उसकी माफी की चर्चा करने में उसका गला सूखने लगता है.
उस पर उच्च वर्गों के अलंबरदार खुद को आईने के सामने खड़ा करके यह भी नहीं समझना चाहते कि आज वे जिस ऊंचाई पर हैं, वहां तक महज अपने पुरुषार्थ के बूते नहीं पहुंचे हैं. वह शिखर छूने में सरकारी व्यवस्था की अनुकूलताओं ने भी उनका साथ निभाया है. निम्न वर्गों से दुश्मनी की कीमत पर भी. अपने दिए जिस आयकर पर वे बड़ा गुमान करते हैं, उसके योग्य आय निम्न वर्गों के लिए सपना बनी हुई है तो इसलिए नहीं कि वे अकर्मण्य हैं. इसलिए कि देश में सर्वाइवल आफ द बेस्ट की जो व्यवस्था है, उसमें कर्म तो वे करते हैं और फल कोई और ले जाता है.
अंतहीन विडंबनाएं
सच्चाई यह है कि देश के विकास में उच्च वर्गों के दिए कर का जितना योगदान है, उनकी ऐश्वर्य वृद्धि में निम्नवर्गों के खून पसीने का योगदान उससे कई गुना ज्यादा है. अकारण नहीं कहा जाता कि उच्च वर्गों का मुनाफा निम्न वर्गों के शोषण का ही दूसरा नाम है. तिस पर वे भी कर देते ही हैं-साबुन की एक टिकिया खरीदते हैं, तो भी और आटे का एक पैकेट खरीदते हैं तो भी.
लेकिन उनकी विडंबनाओं का अंत यहीं नहीं है. अलग अलग जगहों पर उनकी जान की कीमत भी अलग-अलग है. तभी तो महाकुंभ की भगदड़ में मरने वालों के परिजनों को पच्चीस लाख रुपए का मुआवजा देने की घोषणा की गई है और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ में मरने वालों के परिजनों को दस लाख देने की. लेकिन किसी को इसमें कुछ भी अनुचित नहीं लग रहा. वैसे ही, जैसे इसमें कुछ बुरा नहीं लगता कि विश्व भूख सूचकांक में देश की लगातार खराब होती स्थिति की उतनी भी चर्चा नहीं होती जितनी एक बड़े उद्योगपति के बेटे के विवाह में परोसे गये व्यंजनों की. सरकार अपने बजट में आयकर की सीमा बढ़ाकर बारह लाख रुपए करके ऐसा जताती है जैसे उसके ऐसा करने से उन नागरिकों की आय भी कर योग्य होने की ओर बढ़ जाएगी, जो अभी महीने में बारह हजार कमाने का सपना भी नहीं देख पाते.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)