क्या अब अयोध्या सिर्फ एक मंदिर की नगरी होकर रह जाएगी?

पिछले सालों में जोर-शोर से प्रचार किया जाता रहा है कि राम मंदिर निर्माण के बाद बड़ी संख्या में श्रद्धालु अयोध्या आएंगे तो न सिर्फ उसके निवासियों की आय बढ़ेगी, बल्कि उनका चतुर्दिक विकास होगा. लेकिन अब 'खूब' श्रद्धालु आ रहे हैं तो जहां पुलिस व प्रशासन अयोध्या निवासियों की चिंता छोड़ श्रद्धालुओं को ही संभालने में थके जा रहे हैं, निवासियों की आय कम और दुश्वारियां ज्यादा बढ़ती दिख रही हैं.

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अयोध्या स्थित राम मंदिर. (फोटो साभार: X/@PIB_India))

प्रचार माध्यमों में छाई यह खबर, निस्संदेह, आप तक पहुंच चुकी होगी कि अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पिछले साल 22 जनवरी को उद्घाटित नए-नवेले राम मंदिर में न सिर्फ़ श्रद्धालुओं की संख्या रिकॉर्ड तोड़ रही है, बल्कि चढ़ावा भी रिकॉर्ड तोड़ चढ़ रहा है. इतना कि वैष्णो देवी व शिरडी वाले साईं बाबा के मंदिर उससे पीछे रह गए हैं और राम मंदिर ‘श्रद्धालुओं की पहली पसंद’ बनने की ओर बढ़ गया है.

लेकिन क्या आप इस ‘खुशखबरी’ के दूसरे पहलू से भी वाकिफ हैं और आपको पता है कि इसके चलते हजारों मंदिरों की नगरी अयोध्या अपनी पुरानी पहचान खो देने के कगार पर जा पहुंची और तेजी से ‘वन सिटी वन टेंपल’ की दिशा में बढ़ने लगी है!

अकारण नहीं कि अयोध्या स्थित ‘मूवमेंट फार राइट्स’ के कर्ताधर्ता और इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के अधिवक्ता नितिन मिश्र कहते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार के ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ और ‘वन नेशन वन राशनकार्ड’ जैसे अरमान पूरे होने की राह में भले ही कई बाधाएं बरकरार हों, अयोध्या में ‘वन सिटी, वन टेंपल’ का रास्ता पूरी तरह हमवार किया जा चुका है.

उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘आज भगवान राम की नगरी में जहां उनके एक मंदिर में श्रद्धालुओं के रेले उमड़ रहे और चढ़ावे की रकम आसमान छू रही है, वहीं दूसरे हजारों छोटे-बड़े मंदिरों में सन्नाटा-सा छाया हुआ है और वे आम दिनों जितने चढ़ावे के भी मोहताज हो गए हैं. आज की तारीख में हनुमानगढ़ी, कनक भवन और देवकाली जैसे गिने-चुने मंदिर ही राम मंदिर की भव्यता कहें या चाक्चिक्य में खोए श्रद्धालुओं को कुछ सीमा तक अपनी ओर आकर्षित कर पा रहे हैं, शेष का इस वसंत में भी पतझड़ से सामना है.’

और ऐसा कहने वाले नितिन मिश्र अकेले नहीं हैं. हालत यह हो गई है कि चढ़ावे की कमी झेल रहे अयोध्या के जिन दूसरे मंदिरों की आर्थिक स्थिति थोड़ी ठीक है, वे अपने परिसरों में श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए कमरे या होम स्टे जैसे निर्माण कराकर कोशिश कर रहे हैं कि इस नहीं तो उस रास्ते उनक दैनंदिन खर्च के लिए पैसा आता रहे. लेकिन जो ऐसा नहीं कर सकते, उनके लिए अपनी व्यवस्था बनाए रखना लगातार मुश्किल होता जा रहा है.

कई मंदिरों के महंतों, संचालकों और पुजारियों के अनुसार इन दिनों वे जो कुछ झेल रहे हैं, वह सिर्फ रुपए-पैसे की तंगी का मामला नहीं, एक बड़े सांस्कृतिक संकट का संकेतक है.

दरअसल, अयोध्या में विभिन्न राजाओं, रियासतों, जातियों व समूहों आदि द्वारा बनवाए गए ‘अपने’ अलग-अलग मंदिर हैं, जिनमें खास तौर पर अमावां मंदिर, अमेठी मंदिर, कुर्मी मंदिर, रविदास मंदिर, कुर्मी मंदिर, कालेराम व गोरे राम के मंदिर आदि के नाम लिए जा सकते हैं. ये मंदिर अब तक अपनी-अपनी तरह से अपनी सीमाओं में अयोध्या की अनेकता में एकता की संस्कृति को पुष्पित व पल्लवित करते आए हैं. राजाओं, रियासतों और जातीय स्वाभिमान के बुरे दिन आए तो इन्होंने न सिर्फ अपने परिसरों में आने वाले बल्कि दूर-दराज गांवों तक के श्रद्धालुओं में फैली आस्था की जड़ों की बदौलत मिल रहे सहयोग से अपनी रक्षा कर ली. लेकिन अब उनके निकट दूरदराज से सहयोग करने वाले श्रद्धालुओं का भी टोंटा है और परिसरों में आने वाले श्रद्धालुओं का तो है ही.

फलस्वरूप, जिन मंदिरों के पास ज्यादा जमीनें व जायदादें वगैरह नहीं हैं और जो पूरी तरह से आकाश वृत्ति पर ही निर्भर हैं, उनके सामने अपने भगवानों व इष्ट देवों के भोग-राग और भवनों के रंग-रोगन तक का गम्भीर संकट आ खड़ा हुआ है.

ऐसा भी नहीं कि यह संकट सिर्फ मंदिरों को प्रभावित कर रहा हो. आम अयोध्यावासी भी इससे कुछ कम प्रभावित नहीं हो रहे. इसे इस रूप में समझ सकते हैं कि फूल मालाएं, पूजन सामग्री और श्रृंगार व सौंदर्य प्रसाधन आदि बेचने वाले जिन दुकानदारों को मंदिरों ने नाममात्र के किराए पर दुकानें उपलब्ध करा रखी थीं और जो उनकी बदौलत अच्छी कमाई कर रहे थे, वे अब मंदिरों द्वारा किराए में कर दी गई कई-कई गुनी वृद्धि से हलकान हैं. लेकिन मंदिरों के प्रबंधन यह कहकर उन्हें कोई रियायत देने से इन्कार कर दे रहे हैं कि यह उनके भी अस्तित्व का सवाल है.

कई मंदिर इससे भी आगे जाकर किराये पर उठाई गई अपनी दुकानों को तोड़कर श्रद्धालुओं के ठहरने की आधुनिक सुविधाओं से संपन्न कमरों में बदल देना चाहते हैं, जिससे उनमें रोजगार करने वालों के समक्ष आजीविका छिनने की समस्या आ खड़ी हुई है और वे उसका निदान नहीं कर पा रहे.

दूसरी ओर अयोध्या में परंपरागत किरायेदारी खत्म सी होकर रह गई है. क्योंकि मकान मालिकों को अब श्रद्धालुओं को एक दो दिन के लिए ठहराकर ज्यादा कमाई करने के मुकाबले छात्रों व नौकरीपेशा लोगों को मामूली मासिक किराये पर घर या कमरे देना बहुत घाटे का सौदा लगता है.

आम अयोध्यावासियों की समस्या इससे अलग है. पिछले सालों में जोर-शोर से प्रचार किया जाता रहा है कि राम मंदिर निर्माण के बाद बड़ी संख्या में श्रद्धालु अयोध्या आएंगे तो न सिर्फ उसके निवासियों की आय बढ़ेगी, बल्कि उनका चतुर्दिक विकास होगा. लेकिन अब ‘खूब’ श्रद्धालु आ रहे हैं तो जहां पुलिस व प्रशासन अयोध्या निवासियों की चिंता छोड़ श्रद्धालुओं को ही संभालने में थके जा रहे हैं, निवासियों की आय कम और दुश्वारियां ज्यादा बढ़ती दिख रही हैं.

‘गरीबों के डाक्टर’ के रूप में जाने जाने वाले अयोध्या के लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. महेंद्र सिंह बताते हैं कि ट्रैफिक की मुश्किलों के कारण उन्हें हनुमान गढ़ी के पास श्रृंगारहाट में स्थित अपना क्लीनिक बंद कर देना पड़ा है क्योंकि सामान्य मरीजों का वहां पहुंचना ही संभव नहीं रह गया है. उस क्षेत्र के मेडिकल स्टोरों पर दवाएं भी नहीं पहुंच पा रहीं और उनकी भी कमी हो गई है.

समझा जा सकता है कि इस हाट में क्लीनिक नहीं खुल पा रहे तो कपड़े सिलने, आभूषण व बिजली आदि घरेलू उपयोग के सामान बेचने और वाहनों की मरम्मत करने वालों की दुकानों की फ़िक्र भी कौन करे, जो उन्हें बंद करके घर बैठने को मजबूर हो गए हैं.

इसके विपरीत भक्ति पथ और राम पथ के पूरब वाले सिरे के व्यापारियों की हालत ‘धोबिया जल बिच मरत पियासा’ जैसी हो गई है, जो अपनी-अपनी दुकानें खोले दूसरी ओर से जाते श्रद्धालुओं के हुजूमों को देखते और अपनी ओर आने वाले ग्राहकों के लिए तरसते रहते हैं. जहां ग्राहक पहुंच रहे हैं और बिक्री हो रही है, उन क्षेत्रों में भी दुकानदार बहुत खुश नहीं हैं क्योंकि वे अपना माल ही दुकानों तक नहीं ला पा रहे, फिर क्या बेचें.

ऐसे ही एक शख्स ने बताया कि इस वक्त राम की नगरी में या तो होटलों की ठीक-ठाक कमाई हो रही है, या होम स्टे चलाने वालों की (उनमें भी बड़े खिलाड़ियों की ही पौ-बारह है और छोटों की ज्यादा पूछ नहीं है) या फिर उनकी जो श्रद्धालुओं को किसी भी तरह फंसाकर कमा सकते हैं. जो ऐसा नहीं कर सकते, वे सिर्फ दुश्वारियां झेल रहे हैं.

बेढब यातायात प्रतिबंधों के कारण कहीं सड़क की इस पटरी से उस पटरी पर जाना मुहाल है तो कहीं डायवर्जन के कारण अपने घर पहुंचने के लिए भी कई-कई किलोमीटर ज्यादा चलना पड़ रहा है. सबसे ज्यादा दुर्दशा उन छात्रों की है, जिनको पढ़ाई और परीक्षाओं के सिलसिले में घर से निकलना और कई-कई घंटे जाम में फंसना पड़ रहा है. लगभग ऐसा ही हाल उन नागरिकों का भी है, जो विषम घरेलू परिस्थितियों में यातायात प्रतिबंध तोड़कर पुलिस के हाथों उत्पीड़ित व अपमानित होने को विवश हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)