यूट्यूब पर अश्लीलता मामले में बीजद सांसद ने कहा- पुलिसिंग नहीं, केवल उचित प्रतिबंधों की ज़रूरत

बीजद सांसद सस्मित पात्रा संचार और सूचना प्रौद्योगिकी पर संसदीय स्थायी समिति के सदस्य हैं. यूट्यूबर्स के कंटेंट पर हुए हालिया विवाद और एफआईआर पर उनका कहना है कि अगर ऐसे व्यवहार के लिए क़ानून में कोई प्रावधान है, तो उसकी उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए.

बीजेडी सांसद सस्मित पात्रा. (फोटो साभार: फेसबुक/सस्मित पात्रा)

नई दिल्ली: यूट्यूबर रणवीर अलाहाबादिया की कॉमेडियन समय रैना के शो ‘इंडियाज गॉट लेटेंट’ के दौरान की गई ‘भद्दी टिप्पणियों’ को केंद्र में रखते हुए यूट्यूब और ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्मों पर अश्लील सामग्री परोसने को लेकर चल रहे विवाद के बीच राज्यसभा में बीजू जनता दल (बीजद) के सांसद सस्मित पात्रा ने यूट्यूब सामग्री के लिए कानून नहीं, बल्कि एक विशिष्ट कोड बनाने की मांग की है.

मालूम हो कि पात्रा संचार और सूचना प्रौद्योगिकी पर संसदीय स्थायी समिति के सदस्य हैं. इस समिति ने पिछले सप्ताह इस मामले पर पर चर्चा की थी.

सस्मित पात्रा ने द वायर को बताया कि समिति के सभी सदस्यों इस बात पर सहमत हैं कि किसी भी प्रकार की अशिष्टता, अश्लील सामग्री, अनुचित टिप्पणियों को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.

इस संबंध में केंद्र सरकार ने गुरुवार (20 जनवरी) को ओटीटी प्लेटफॉर्मों को सामग्री प्रकाशित करते समय कानूनों का पालन करने के लिए एक परामर्श (एडवाइजरी) जारी किया है. यह एडवाइजरी सुप्रीम कोर्ट द्वारा यूट्यूब पर ऐसी सामग्रियों से निपटने के लिए ‘कानून न होने’ की बात कहने के दो दिन बाद आई है.

ज्ञात हो कि शीर्ष अदालत ने यूट्यूबर रणवीर अलाहाबादिया के खिलाफ भी सख्त टिप्पणी की थी और उनकी टिप्पणियों को ‘गंदा’, ‘अश्लील’ और ‘माता-पिता का अपमान’ कहा था. हालांकि, अदालत ने इलाहाबादिया को तीन शहरों में उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर में गिरफ्तारी से राहत दे दी थी.

दरअसल, अलाहाबादिया को अपनी टिप्पणियों के खिलाफ कई एफआईआर का सामना करना पड़ रहा है, जब पात्रा से इस संबंध में पूछा गया कि क्या इस तरह के आचरण को अपराध घोषित किया जाना चाहिए?

इस पर पात्रा ने कहा कि अगर कानून में कोई प्रावधान है, जो ऐसे आचरण के अपराधीकरण का प्रावधान करता है, तो कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए. लेकिन जहां तक ​​कानून के अमल और प्रक्रिया का सवाल है, तो यह अदालतों पर निर्भर है.

संसदीय स्थायी समिति के सदस्यों ने पिछले सप्ताह अपने विचार-विमर्श में सोशल मीडिया पर अश्लीलता का मुद्दा उठाया है. कमेटी के सदस्यों का रुख क्या था?

समिति के सदस्य इस बात पर एकमत रहे हैं कि किसी भी प्रकार की अश्लीलता, अश्लील सामग्री, अनुचित टिप्पणियों को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए और हमें यह सुनिश्चित करने के तरीके खोजने चाहिए कि ऐसी चीजें दोबारा न हों.

ऐसे विनियमन (regulation) की आलोचना यह है कि यह दर्शकों की पसंद और स्वतंत्रता छीनता है. इस पर क्या कहेंगे, क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है?

खैर, अगर अपने माता-पिता को सेक्स करते हुए देखना और यह कहना कि क्या आप इसमें शामिल होना चाहेंगे, हमारे समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानी जाती है, तो मेरे पास कहने के लिए और कुछ नहीं है.

इंडियाज़ गॉट लेटेंट शो के मुद्दे को अगर व्यापक तौर पर देखें, तो ऐसे प्लेटफॉर्मों पर कई तरह के अनुचित चुटकुले बनाए गए हैं. ऐसे चुटकुले जो जातिवादी, सांप्रदायिक या महिलाओं या एलजीबीटीक्यूआई समुदायों के खिलाफ हैं, लेकिन वे जांच से बच गए हैं. इस विशेष मामले पर ऐसी प्रतिक्रिया क्यों हुई कि सांसद भी इससे हैरान हो गए?

मैं यह नहीं कहूंगा कि यह सब जांच से बच गए हैं. और अगर वे जांच से बच गए हैं तो जांच कड़ी की जानी चाहिए.

जहां तक ​​सिर्फ इसी मुद्दे की बात है तो मैं सिर्फ इसी मुद्दे पर बात नहीं कर रहा हूं. मैं ऐसे हर मुद्दे के बारे में बात कर रहा हूं जो समाज के बुनियादी लोकाचार को प्रभावित करता है.

मैं सांस्कृतिक पुलिसिंग के बारे में बात नहीं कर रहा हूं बल्कि अनुच्छेद 19(2) में दिए गए उन प्रतिबंधों के बारे में बात कर रहा हूं जो मौलिक अधिकारों के भीतर कुछ उचित प्रतिबंध लगाता है. तो क्या अब हम ये कहेंगे कि संविधान ने भी प्रतिबंध लगाकर गलती की है. क्या लोगों ने अनुच्छेद 19(2) तैयार किया है? क्या यह प्रतिबंधों की बात नहीं करता है?

इंडियाज़ गॉट लेटेंट शो पर की गई टिप्पणियों पर चौतरफा प्रतिक्रिया देखी है, जिसमें कई एफआईआर दर्ज की गई हैं. क्या ऐसे आचरण का अपराधीकरण ज़रूरी है?

ऐसे आचरण को कोई भी अपराध नहीं ठहरा सकता. यदि कानून में कोई प्रावधान है, जो इस आचरण, या ऐसे किसी भी आचरण को अपराधीकरण करने का प्रावधान करता है, तो कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए. तो फिर क्या कानून को विशेष रूप से इसके अधीन कर दिया जाना चाहिए या इसे किस पर लागू होना चाहिए और किस पर लागू नहीं होना चाहिए? क्या यह तरजीह के आधार पर  होना चाहिए?

मैं यह कहने वालों में से नहीं हूं कि एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए या नहीं. मैं किसी और के लिए कैसे निर्णय ले सकता हूं? मैं यह कहने वाला कौन होता हूं कि किसी को एफआईआर दर्ज करनी चाहिए या नहीं? लेकिन जहां तक ​​कानून के अमल, कानून की प्रक्रिया का सवाल है, तो यह अदालतों पर निर्भर करता है.

केंद्रीय सूचना और प्रसारण, रेलवे और इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्री, अश्विनी वैष्णव ने नवंबर में लोकसभा में एक जवाब में सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्मों को नियंत्रित करने वाले मौजूदा कानूनों को और सख्त करने की बात कही और कहा कि संसदीय स्थायी समिति को इसे प्राथमिकता के रूप में लेना चाहिए. क्या ऐसा विनियमन, यदि आ गया, तो सरकार को ओटीटी पर जो दिखाया जाता है उसे नियंत्रित करने की अनुमति देगा?

वर्तमान में स्थायी समिति के समक्ष हमारे पास चर्चा करने के लिए कोई विनियमन नहीं है. उदाहरण के लिए, शिक्षा के लिए संसदीय स्थायी समिति के सामने एनईपी (राष्ट्रीय शिक्षा नीति) थी और हमने इस पर चर्चा की. संचार और आईटी समिति में हमारे सामने ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है. जब तक ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं आता, या समिति स्वयं कोई दस्तावेज़ लेकर नहीं आती, तब तक हवा में सिद्धांत बनाने के बजाय उस पर चर्चा करना उचित होगा.

आपने हमसे पहले एक बातचीत में कहा है कि ‘संभवतः किसी यूट्यूबर या प्रभावशाली व्यक्ति से जुड़े कोड को देखने की आवश्यकता है’. आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि यह आवश्यक है?

सबसे पहले, जब सूचना और प्रसारण के तहत विभिन्न वैधानिक निकायों की बात आती है तो वे आम तौर पर प्रसारित होने से पहले सामग्री की जांच करते हैं. आप एक प्राथमिक दस्तावेज़ की जांच करते हैं और उसके बाद इसे प्रसारित किया जाता है. जब यूट्यूबर इंफ्लूएंसर का सवाल होता है, तो वे पहले प्रसारित होती है और फिर इसकी जांच की जाती है. तो मॉडल अलग है.

फिल्मों के लिए वैधानिक निकाय हैं, साथ ही समाचार पत्रों और प्रिंट मीडिया के लिए भी, लेकिन यहां यूट्यूबर्स पर जिम्मेदारी है कि वे अपनी समझ के आधार पर चीजों को प्रसारित करें और फिर सरकार की मंशा सामने आती है कि यह सही है या गलत. मैं किसी कानून या प्रतिबंधात्मक चलन के बारे में बात नहीं कर रहा हूं. मैं एक विशिष्ट कोड के बारे में बात कर रहा हूं क्योंकि यूट्यूब स्वयं एक बहुत अलग प्लेटफॉर्म पर काम करता है. यह टेलीविजन से भिन्न और जुड़े मॉडल पर काम करता है.

एक बार जब यह हो जाता है तभी सरकार आती है. संभवत: किसी कानून की नहीं, बल्कि एक संहिता (मॉडल कोड) की जरूरत है, जो विशेष तौर पर यूट्यूब इन्फ्लुएंसर के लिए हो.

कई प्रभावशाली लोग ऐसे हैं जो खुद को मौत के खतरे में डालकर खतरनाक स्टंट करते हैं. क्या यह जीवन का अधिकार है? हालांकि यह पसंद का अधिकार हो सकता है, क्या तब राज्य कहेगा कि आप चट्टान से कूद सकते हैं और क्या यह दिमागों को प्रभावित नहीं करेगा?

फिल्में भी युवा मन को प्रभावित करती हैं. ये तत्व दोनों में हैं. यूट्यूबर्स जुनून से प्रेरित होते हैं और उन्हें अधिक ध्यान आकर्षित करने या क्लिक पाने की जरूरत होती है. ऐसे में एक कोड होना चाहिए जो इन सबका विश्लेषण करे और इसे उनके सामने रखे. पहले से ही कुछ दिशानिर्देश मौजूद हैं लेकिन मैं विशेष रूप से यूट्यूब के लिए एक कोड के बारे में बात कर रहा हूं.

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