प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई अवसरों पर कहा है कि हम इसी संविधान और संवैधानिक व्यवस्था में विकास करेंगे. ऐसे में उनका कोई मंत्री इससे अलग बात करता है तो उसे मंत्रिमंडल से बाहर कर देना चाहिए.
नरेंद्र मोदी सरकार के केंद्रीय रोज़गार और कौशल विकास राज्य मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने कहा है कि भाजपा संविधान बदलने के लिए ही सत्ता में आई है और निकट भविष्य में ही ऐसा किया जाएगा. मेरे ख्याल से यह अनंत कुमार हेगड़े का निजी विचार है और सामूहिक उत्तरदायित्व का उल्लंघन है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के पहले, चुनाव के बाद और कई अवसरों पर यह कहा है कि हम इसी संविधान और इसी संवैधानिक व्यवस्था में विकास करेंगे. ऐसे में उनका कोई मंत्री इससे अलग बात करता है तो वह अज्ञानी है, नासमझ है या फिर अगर वो जान-बूझकर कर रहा है तो उसे पहले मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना चाहिए.
हमारा जो संविधान है, हमारी जो सरकार है वो सामूहिक उत्तरदायित्व के दायरे में चलती है. कोई भी मंत्री अलग विचार अपने मन में तो रख सकता है लेकिन जब वो बोले तो उसे वही बात कहनी चाहिए जो दरअसल सरकार की नीति है. अगर उससे अलग वह कुछ कहना या करना चाहता है और राजनीतिक रूप से इस बात को समझता है कि हम जो कह रहे हैं उसका मतलब क्या है तो उसे मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना चाहिए.
एक उदाहरण से इस बात समझिए. जनता पार्टी की सरकार में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को मंत्रिमंडल में शामिल होने का निमंत्रण मिला था लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया. इस पर मोरारजी देसाई और जयप्रकाश नारायण ने उनसे पूछा कि आपने ऐसा क्यों किया?
चंद्रशेखर ने इस बात को अपने संस्मरणों में लिखवाया है उन्होंने जवाब दिया कि मोरारजी देसाई को मैं प्रधानमंत्री मानता हूं, अपना नेता नहीं मानता हूं. इसलिए कई बातों में हमारी असहमति है. ऐसे में अगर मैं मंत्री बनता हूं तो अपनी असहमति प्रकट करने का अवसर नहीं मिलेगा इसलिए मैंने मंत्री पद अस्वीकार किया.
ऐसे में अनंत कुमार हेगड़े के बयान के तीन मतलब हो सकते हैं. या तो उन्हें इन सब बातों की समझ नहीं है या फिर जो बोल रहे हैं उसका अर्थ नहीं समझते. इसके अलावा या तो वह ऐसा जान-बूझकर कर रहे हैं. एक चौथी बात हो सकती है जो शायद अभी वह कहें कि उनकी बात को तोड़-मरोड़कर मीडिया में लाया गया है.
अगर अनंत कुमार हेगड़े को संविधान बदलने का अभियान चलाना है तो सबसे पहले वो सरकार से इस्तीफा दें और संविधान बदलने का प्रारूप पेश करें और अभियान चलाएं. उन्हें कौन रोक रहा है. मंत्री बनकर वो यह सब नहीं कर सकते हैं.
धर्मनिरपेक्षता से भाजपा की असहजता
जहां तक बात धर्मनिरपेक्षता की है तो धर्मनिरपेक्ष और सेकुलर ये दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्याय माने जाते हैं लेकिन पहले दिन से ही हमारे यहां इसकी परिभाषा पर विवाद रहा है. अंतत: यह हुआ है कि सेकुलर होने का अर्थ नास्तिक हो जाता है.
नास्तिक होना और धर्मनिरपेक्ष होना, दोनों दो चीजें हैं. नास्तिक वह होता है जो किसी धर्म में विश्वास नहीं करता है और धर्मनिरपेक्ष का भाव यह है कि हम सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु हैं और उसकी मूल भावना का आदर करते हैं. हमारे यहां जो धर्मनिरपेक्ष है वह सही शब्द है या नहीं, इस पर अलग विवाद है लेकिन मेरे हिसाब से सर्वधर्म समभाव सही शब्द है.
अगर धर्म निरपेक्षता को लेकर भाजपा के मंत्री असहज होते हैं तो इसका कारण इस शब्द की प्रचलित परिभाषा है. अभी धर्मनिरपेक्ष यानी सेकुलर यानी नास्तिक या नई परिभाषा हिंदू विरोधी होना है. भाजपा नेता इसी कारण असहज होते हैं. इसके अलावा आजकल नेताओं की पढ़ाई-लिखाई कम हो रही है तो अहसज होने का यह भी एक कारण है.
नास्तिकता, धर्मनिरपेक्षता, पंथनिरपेक्षता जैसे शब्दों पर विवाद तो लंबे वक्त से चल रहा है लेकिन मोटी बात यह है कि भारत में धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विविधता बहुत पहले से रही है. आज भी है और उस विविधता का आदर होना चाहिए. धार्मिक दृष्टि विविधता को ही धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्म समभाव के रूप में प्रकट करता है.
संविधान में बदलाव
जहां तक यह सवाल है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए तो मैंने उनका यह बयान नहीं पढ़ा है लेकिन जितना मैं उन्हें जानता हूं तो मुझे लगता है यह बयान सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया जा रहा है.
मोहन भागवत आरएसएस के शिखर पुरुष हैं. अगर वे कोई बयान संविधान में बदलाव को लेकर दे रहे हैं तो बड़ा तूफान खड़ा हो जाएगा. उनका व्यक्तिगत विचार जो भी हो लेकिन सार्वजनिक रूप से वे बहुत सुलझे व्यक्ति हैं. वे अपने बयानों को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं.
बात जहां तक संविधान में बदलाव की है तो मैं संविधान का विद्यार्थी रहा हूं. मेरा इतना कहना है कि जब संविधान बन रहा था तब भी उसमें कुछ सवाल रह गए थे. वो सवाल आज भी बने हुए हैं. 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ था लेकिन यह 25 नवंबर 1949 को बनकर तैयार हो गया था. जब संविधान बन रहा था तो उस दौरान के बड़े नेताओं के आलेख पढ़ें तो यह स्पष्ट हो जाएगा. मान लीजिए जैसे दीनदयाल उपाध्याय का अभी वांग्मय आया है. उसमें पांच-छह लेख संविधान पर हैं.
महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान सभा में सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट नहीं थे. हिंदू महासभा का कांग्रेस के माध्यम से प्रतिनिधित्व हुआ था लेकिन संविधान सभा के 86 प्रतिशत सदस्य कांग्रेस के थे और जब मुस्लिम लीग संविधान सभा से अलग हो गई यानी पाकिस्तान बन गया तो यह अनुपात और बढ़ गया. इसके अलावा कुछ नॉमिनेटेड सदस्य थे.
संविधान के निर्माण के समय जो परिस्थितियां थीं वो भी बहुत उथल-पुथल की भरी थीं. यानी ज्ञात इतिहास में ऐसा कोई देश आपको खोजें नहीं मिलेगा जहां मात्र तीन महीने में डेढ़ करोड़ लोग इधर-उधर हुए. कम से कम 15 से 20 लाख लोग मारे गए. हमारा संविधान भी उन्हीं दिनों में बन रहा था. इसलिए कुछ सवाल रह गए.
इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने संविधान के कार्यों की समीक्षा के लिए एक आयोग बनाया था.
कहने का मतलब यह कि संविधान के सवालों का पटाक्षेप नहीं हुआ है यह चलता रहता है. हम और आप नागरिक के रूप में संविधान पर बहस कर सकते हैं लेकिन भारत सरकार का कोई मंत्री संविधान पर सवाल उठाएगा तो कायदे से उसे मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया जाना चाहिए.
क्योंकि प्रधानमंत्री का कहा हुआ इस सरकार का नीतिगत निर्णय है और प्रधानमंत्री इसी संवैधानिक व्यवस्था में कार्य करने के लिए वचनबद्ध हैं. जैसे मोहन भागवत कोई सवाल उठाते हैं तो नागरिक के रूप में उन्हें इसका अधिकार है लेकिन भाजपा और संघ के संरक्षक के रूप में सवाल उठाते हैं तो यह गंभीर विषय बन जाता है.
(राम बहादुर राय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष हैं. यह लेख अमित सिंह से बातचीत पर आधारित है.)