नई दिल्ली: गुजरात के विकास मॉडल ने तेज़ औद्योगिक विस्तार के माध्यम से खूब आर्थिक समृद्धि हासिल की है, लेकिन साथ ही इसने सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को भी बढ़ा दिया है. स्वास्थ्य, शिक्षा और गरीबी प्रबंधन जैसे अन्य मानकों पर यह राज्य (गुजरात) बिहार के अधिक करीब है. यह निष्कर्ष एक नए शोध पत्र के माध्यम से सामने आया है.
‘इंडिया: द चैलेंज ऑफ कॉन्ट्रास्टेड रीजनल डायनामिक्स’ शीर्षक वाले इस शोध पत्र में क्रिस्टोफ़ जेफरलॉ, विग्नेश राजामणि और नील भारद्वाज ने बिहार, गुजरात और तमिलनाडु– इन तीन राज्यों का विश्लेषण किया है. उन्होंने ‘भारत के भीतर विभिन्न भारत’ की अवधारणा को समझने के लिए इन राज्यों की सामाजिक-आर्थिक और प्रशासनिक नीतियों की तुलना की है, जिन्होंने उनके विकास की दिशा तय की है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि जहां बिहार लगातार पिछड़ेपन का उदाहरण बना हुआ है, वहीं प्रति व्यक्ति आय के मामले में गुजरात देश का सबसे समृद्ध राज्य है. गुजरात का विकास पथ पूंजी-प्रधान उद्योगों, बुनियादी ढांचे में निवेश और व्यापार अनुकूल नीतियों पर आधारित रहा है. हालांकि, शिक्षा में कम निवेश के कारण राज्य में असमानताएं बनी हुई हैं.
रिपोर्ट में इन तीन राज्यों के सामाजिक कल्याण पर खर्च के पैटर्न का विश्लेषण किया गया है और इसे उनकी प्राथमिकताओं का संकेतक माना गया है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि सीमित संसाधनों के बावजूद बिहार इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश करता है, तमिलनाडु इससे भी अधिक धन आवंटित करता है. इसके विपरीत, गुजरात इस मामले में पीछे है, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास सहित विभिन्न क्षेत्रों के बजट न केवल तमिलनाडु से कम हैं, बल्कि बिहार से भी पीछे हैं.
सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के संदर्भ में रिपोर्ट बताती है कि समृद्ध होने के बावजूद गुजरात सामाजिक कल्याण पर खर्च की वृद्धि में पिछड़ गया है. भले ही वह बिहार से अधिक खर्च करता हो, लेकिन 2012-13 से 2019-20 के बीच उसका स्वास्थ्य देखभाल खर्च केवल 10.5% बढ़ा, जबकि बिहार में यह 29.5% बढ़ा. तमिलनाडु में यह वृद्धि 20.5% थी, जो गुजरात से दोगुनी थी.
बिहार में सामाजिक कल्याण पर हो रहे अधिक खर्च को रेखांकित करते हुए रिपोर्ट कहती है कि राजकोषीय सीमाओं के बावजूद सामाजिक निवेश को प्राथमिकता देने के कारण बिहार हिंदी पट्टी के राज्यों में एक विशिष्ट स्थान रखता है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार ने अपने सकल राज्य घरेलू उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा लगातार सामाजिक कल्याण पर खर्च किया है, जो 2021-22 में 22.25% तक पहुंच गया. यह दर्शाता है कि सीमित संसाधनों के बावजूद, राज्य विकासात्मक अंतर को पाटने पर जोर दे रहा है.
इसके विपरीत, गुजरात, जिसे बुनियादी ढांचे वाले विकास के लिए जाना जाता है, ने सामाजिक कल्याण पर अपेक्षाकृत कम खर्च बनाए रखा है, जो 2021-22 में 4.46% के आसपास स्थिर रहा. वहीं, तमिलनाडु, जिसके विकास का मॉडल ह्यूमन डेवलपमेंट पर केंद्रित है, ने सामाजिक क्षेत्र में निवेश के प्रति अपनी निरंतर प्रतिबद्धता दिखाई है और इसी अवधि के दौरान इसका खर्च 4.90% से 6.01% के बीच रहा.
रिपोर्ट आगे कहती है कि ये रुझान दिखाते हैं कि जहां तमिलनाडु ने अपने अन्य दक्षिणी राज्यों की तरह सामाजिक कल्याण को प्राथमिकता दी है, वहीं गुजरात मॉडल ‘अभी भी बुनियादी ढांचे के विकास पर ही जोर दे रहा है.’
द वायर से बात करते हुए जेफरलॉ ने कहा कि गुजरात मॉडल भारत का प्रतिनिधित्व करता है, जहां विकास हुआ है, लेकिन वह नौकरियों के बिना हुआ है.
जेफरलॉ कहते हैं,
‘जब आप गुजरात और तमिलनाडु की तुलना करते हैं, तो आप पाएंगे कि बुनियादी ढांचे और उद्योग के मामले में गुजरात तमिलनाडु के बहुत करीब है. बिजली उत्पादन और सड़कों के मामले में यह तमिलनाडु से बेहतर प्रदर्शन कर रहा है. सड़कों में शायद नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री रहते हुए सबसे ज्यादा निवेश किया. लेकिन कई मायनों में गुजरात बिहार के भी नजदीक है, जैसे कुपोषण, गरीबी की खाई— यानी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की दर. शिक्षा दर भी खास अच्छी नहीं है, खासतौर पर अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा बहुत कमजोर है. यह देखना दिलचस्प है कि अगर भारत में आज कोई मॉडल है, तो वह तमिलनाडु है. यह एक ऐसा राज्य है, जिसने लगभग गरीबी मिटा दी है, तेज़ी से औद्योगीकरण किया है और जहां सेवाएं अब उद्योगों की जगह ले रही हैं. यह चीज गुजरात में देखने को नहीं मिलती.’
उन्होंने यह भी जोड़ा कि भाजपा को केवल एक हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में देखने के बजाय, एक अभिजात्यवादी पार्टी के रूप में भी देखना चाहिए.
चीन पर भारत की निर्भरता
एक दूसरे शोध पत्र ‘India’s Industrial Ambitions: Will They Materialize with the Help of China or with That of the West? Ten-Year Scenarios’ में जेफरलॉ बताते हैं कि ‘मेक इन इंडिया’ पहल 2014 में औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई थी. लेकिन एक दशक बाद भी चीन पर इसकी निर्भरता भारत की औद्योगिक दिशा और वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं (ग्लोबल सप्लाई चेन) पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर महत्वपूर्ण सवाल खड़े करती है, खासकर जब भारत आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रहा है.
जेफरलॉ ने द वायर से बातचीत में कहा, ‘मेक इन इंडिया ने भारत को चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं रखा है, बल्कि इसके समानांतर इसे चीन पर अधिक निर्भर बना दिया है. भारत जितना अधिक निर्यात करता है, उतना ही अधिक आयात भी करता है. चाहे दवाएं हों या इलेक्ट्रॉनिक्स. भारत को दुनिया में निर्यात करने के लिए चीन से आयात करना पड़ता है. और यही सबसे बड़ा सवाल है— क्या भारत खुद को चीन की निर्भरता से मुक्त कर सकता है?’
उन्होंने आगे कहा, ‘आत्मनिर्भर शब्द का इस्तेमाल हर समय किया जाता है, लेकिन आत्मनिर्भर बनने के लिए भारत को औद्योगिक घरानों से निवेश की जरूरत है और लोगों को क्रय शक्ति (पर्चेजिंग पावर) देने की आवश्यकता है.’
जेफरलॉ ने अगले दशक के लिए दो संभावित परिदृश्य पेश किए— एक, जहां भारत की चीन पर निर्भरता और बढ़ेगी, और दूसरा, जहां भारत आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे बढ़ेगा.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)