‘बेटा नहीं हूं, मैं बेटी हूं. जो इज़्ज़त बेटों को मिलती है, वो बेटियों को भी मिलनी चाहिए.’
यह डायलॉग ‘मिसेज़’ फ़िल्म का है, जो इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई है. इस फिल्म की स्क्रीनप्ले राइटर अनु सिंह चौधरी हैं, जिन्होंने इससे पहले आर्या, ग्रहण, सजनी शिंदे का वायरल वीडियो और अन्य कई फिल्मों की पटकथा लिखी है. अनु सिंह चौधरी नीला स्कॉर्फ, मम्मा की डायरी, भली लड़कियां-बुरी लड़कियां जैसी किताबें भी लिख चुकी हैं. पत्रकारिता से अपने सफर की शुरुआत करने वाली अनु आज सिने जगत में एक जाना-पहचाना नाम हैं. प्रस्तुत है उनसे द वायर हिंदी की खास बातचीत…
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मिसेज़ ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ का रीमेक है, दोनोंं फिल्मोंं का प्लॉट ज़रूर एक है, लेकिन कहानी कहने का अंदाज़ अलग है, ऐसे में ये आपके लिए कितना मुश्किल या आसान रहा और इस दौरान आपकी विचार प्रक्रिया क्या थी?
मैंने जब ग्रेट इंडियन किचन देखी, तो इसकी कहानी ने मुझे अंंदर तक झकझोर दिया, लेकिन फिर भी ऐसा लगता था कि ये किसी एक क्षेत्र और अलग परिवेश की कहानी है, ये सब हर जगह नहीं होता. ऐसे में मिसेज़ लिखते वक्त जो सबसे पहली चीज़ हमारे जहन में थी वो ये कि इसे एक ऐसी कहानी बनाना है, जो सबको अपनी लगे, जिसके किरदार हमारे बीच के हों और हम उनसे जुड़ सकें.
हमारे यहां साउथ से कई चीज़ें अलग हैं, जैसे सबरीमाला में महिलाओं को नहीं जाने दिया जाता, लेकिन हमारे उत्तर भारत की महिलाओं के लिए ये एक अलग बात है. हमारे यहां करवा चौथ बहुत लोकप्रिय त्यौहार है, जो खुशी के साथ मनाया जाए तो कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन इसके साथ ही परंपराओं के नाम पर जब कई चीज़ें महिलाओं पर थोपी जाती हैं, वो भी हमारे सामने है. जैसे उसे बताया जाता है कि शादी में तुम्हारी क्या जगह है, तुम्हें कैसे परफेक्ट बनना है, कैसे समाज में फिट होना है.
मिसेज़ हम सबकी कहानी है, मैं खुद बिहार हूं, मैंने अपने आस-पास बहुत कुछ देखा है. इस कहानी के किरदार से हर महिला जुड़ी हुई है, क्योंकि ये सबसे साथ होता है. हमें बाहर से इसमें कुछ जोड़ने की जरूरत ही नहीं थी. क्योंकि ये एडेप्टेशन बहुत पर्सनल था, बस मुझे अपने ही आस-पास की चीज़ों को सामने रखना था.
फिल्म खत्म होने के बाद भी कई सीन और डायलॉग हमारे अंदर बस जाते हैं, जैसे ऋचा का गंदे पैरों के निशान के साथ घर छोड़ना, डांस कोई प्रोफेशन नहीं, बस हॉबी है या प्राइम नंबर का कॉन्सेप्ट. क्या ये वास्तव में ऐसे ही लिखा गया था या बाद में बदला गया?
ये वास्तव में ऐसा नहीं था. दरअसल, उत्तर भारत में बहुओं के ससुराल में शगुन के आलते के साथ प्रवेश की एक जानी-मानी प्रथा है, इसी को महिला संघर्ष के साथ जोड़ते हुए उसका मेटाफर रखा गया कि जब वो घर से जाती है, तो क्या छोड़ के जाती है, उसके घर से निकलते वक्त गंदे पानी के निशान वाला सीन दिखाया गया, जो चुपचाप एक तरीके से पूरी कहानी कह गया.
और ये सच्चाई है कि हमारे समाज में डांस, गाना या लिखना इन सबको पेशा नहीं माना जाता. मैंने कई बार खुद के लिए सुना है, अच्छा हो तो राइटर लेकिन करती क्या हो. किसी भी आर्ट फॉर्म को जब आप अपना करिअर बनाना चाहते हैं, तो ये तो सुनना ही पड़ता है.
द ग्रेट इंडियन किचन की कहानी और मिसेज की तुलना और ट्रोलिंग को लेकर क्या कहेंगी?
जीओ बेबी कमाल के लेखक और फिल्ममेकर हैं. द ग्रेट इंडियन किचन बहुत बढ़िया फिल्म है, लेकिन उसका गेज़ दूसरा था, वो कहानी दूसरी थी. वो दुनिया दूसरी थी. मिसेज़ में जब मुझे लिखने का मौका मिला और महिला डायरेक्टर आरती आईं. साथ ही क्रू में भी काफी महिलाएं थीं, तो यही खास बात रही कि हम सब अपने-अपने अनुभवोंं को इस फिल्म में लेकर आ पाए. हम सबने अपने जिए हुए पलोंं को सामने रखा. इसमें कुछ भी बनावटी नहीं है, इसलिए ये सबकी कहानी है, जो सबको जोड़ती है.
हमें खुशी है कि ये कहानी इतने लोगों तक पहुंच पा रही है और इस मुद्दे पर फिर से बहस शुरू हो रही है. जो भी लोग इसे कबीर सिंह या एनिमल जैसी फिल्मों से जोड़ रहे हैं, या ट्रोल करते हुए ये कहते हैं कि ‘अरे, इससे दो लोगों का खाना नहीं बनता’, ‘ये लोग हर जगह फेमिनिज्म का झंडा लेकर चले आते हैं ‘ तो ये उनकी समझ का दोष है, इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता.
इस फिल्म के माध्यम से हमें जो कहना था हमने कह दिया है, ये हम सब के साथ सालों से होता आया है. हम भेदभाव सहते आए हैं. जब भी आप पावर को चैलेंज करते हैं, पितृसत्ता को आईना दिखाते हैं, तो उन्हें बुरा लगना लाज़मी है. इससे क्या डरना.
इसी बहाने अगर फिल्म लोगों को कुछ कहने, सोचने पर मजबूर करती है, तो समझिए हमारा काम हो गया है. पूरी दुनिया में महिलाओं ने सबको खुश करने का ठेका नहीं ले रखा है.
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आपकी किताबों की बात करें, तो नीला स्कार्फ, भली लड़कियां-बुरी लड़कियां, मम्मा की डायरी एक तरह से महिलाओं की ही कहानी कहती हैं, पितृसत्ता की व्यवस्था को ध्वस्त करने की कोशिश करती हैं, क्या महिलाओं के लिए लेखन के बारे में पहले से सोच रखा था या इस तरफ आपके अनुभवों ने मोड़ा?
मैं जब दिल्ली आई, तो अपने घर से बहुत लड़-झगड़ के आई थी, मुझे लगा था कि अगर घर वापस चली गई तो मेरी शादी हो जाएगी. और इससे बचने का उस वक्त मुझे रास्ता नज़र आया नौकरी, जिसके लिए मैंने भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) से पत्रकारिता की पढ़ाई की. हालांकि इस ओर झुकाव तो बहुत पहले से था.
मैंने बहुत छोटी उम्र से लिखना शुरू कर दिया था. मैं कविताएं लिखती थी, कहानियों में रुचि थी. और जब भी छुट्टियों में मौका मिलता अखबारों के लिए लिखती, रेडियो पर कहानी कहती. तो वाकई करना तो यही था, क्योंकि ये पता था कि कलम की बहुत ताकत होती है. मेरा झुकाव भी जेंडर और बाल अधिकार की ओर ही था, फिर एक के बाद एक मौके मिलते गए और मैं उसी रास्ते पर आगे बढ़ती चली गई. मैंने पत्रकारिता में भी जेंडर मुद्दों को तवज्जो दी. मुझे रामनाथ गोयनका अवार्ड भी एक ऐसी ही झारखंंड में लड़कियों की रिपोर्ट को लेकर मिला था, जो एक नक्सल प्रभावित इलाके के कस्तूरबा गांधी विद्यालय में पढ़ती थीं और बिना जूतों के भी भारतीय क्रिकेट टीम में शामिल होने का जज्बा रखती थीं.
मुझे हमेशा से लगता था कि मुझे हाशिए पर खड़ी औरतों की कहानी को सामने रखना है, वंचितों की हिम्मत और बदलाव की कहानी कहना मुझे आकर्षित करता था और फिर मेरी किताबों में भी इसलिए महिला किरदारों की कहानियां है. ज्यादातर उन महिला किरदारोंं की जो धीरे-धीरे बदलाव की ओर बढ़ीं, जिन्होंने समाज के दायरे, पितृसत्ता और सामंतवाद से संघर्ष कर अपने लिए एक बदलाव की आवाज़ उठाई.
मैंने पुरुषों के नज़रिये से भी लिखा, जैसे मेरी कहानी सहयात्री और मुक्ति. जिसके मुख्य किरदार पुरुष हैं, लेकिन यहां भी महिलाएं ही कैटलिस्ट हैं क्योंकि हमारे आस-पास ज्यादातर यही होता है और मेरी लेखनी आस-पास के लोगों से ही प्रेरित रही है.
और सबसे जरूरी बात अगर हम आधी आबादी से होते हुए भी आधी आबादी की कहानियां नहीं कहेंगे, तो कौन कहेगा. सत्यजीत रे से लेकर गुलजार तक सब ने सशक्त महिलाओं के किरदारोंं को गढ़ा है, जिसे हमें और आगे ले जाने और इससे जुड़ने की जरूरत है.
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खबरों को लिखने से लेकर किताब और फिर स्क्रीनप्ले लेखन, सबसे ज्यादा किसमें मज़ा आया और दिल के सबसे करीब क्या है?
मुझे हर विधा में बहुत मज़ा आता है, मैंने सबसे सीखा और उसका अनुभव मुझे आगे ले गया. मैं कई बार एक से बचने के लिए दूसरी ओर जाती हूं. अगर स्क्रीनप्ले से थक गई, तो किसी अखबार के लिए कुछ लिखने लगती हूं. वहां बोरियत हुई, तो किताबों की कहानियों पर लौट आती हूं, तो वो लगातार आवाजाही बनी रहती है विधाओं के बीच में.
2015 में मैंने अपनी आखिरी रिपोर्टिंग की थी, एक पत्रकार होने के नाते मुझे पता है कि फैक्ट चैकिंग और रिसर्च कितना जरूरी है. मैं आज भी 5 डब्ल्यू 1 एच को अपनी लेखनी में शामिल करती हूं. स्क्रीनप्ले लिखते वक्त भी मेरे दिमाग में यही रहता है कि क्या इन जरूरी सवालों के जवाब मुझे मिल पा रहे हैं या नहीं. आपके अंदर बस सीखते रहने और लगे रहना का जज्बा होना चाहिए.
आकाशवाणी से आपको पहली तनख्वाह मिली थी, रेडियो खासकर ऑल इंडिया रेडियो में आपका काम करने का अनुभव कैसा रहा?
मैं 10 साल की थी, जब रेडियो पर मैंने कुछ पढ़ा था, और मुझे शायद 60-70 रुपये मिले थे. और इसके लिए मेरा बैंक अकाउंट भी खोला गया, जो कमाल की बात थी. मेरा आकाशवाणी में काम करने का अनुभव बहुत मज़ेदार रहा. वहां लोग बहुत अच्छे थे. रविवार को एक बच्चों का कार्यक्रम ‘फुलवारी’ आता था, जिसमें बच्चे कविताएं- कहानियां पढ़ते थे या अपनी बात रखते थे. ये घर पर जब लोग सुनते थे, तो बहुत अच्छा लगता था.
मैंने दूरदर्शन पर भी बाद में काम किया. लेकिन रेडियो का माध्यम एक अलग और खास माध्यम है, जहां आपकी आवाज़ ही आपकी पहचान बन जाती है. बाद में मुझे रेडियो के लिए कहानियां लिखने का भी मौका मिला, मैंने करीब 50 के आस-पास कहानियां लिखीं. ‘यादों का इडियट बॉक्स विद नीलेश मिसरा’ से जुड़ी और यहां का काम भी खास रहा, जहां लोग हमारी कहानियां सुनते और पसंद करते थे.
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लोगों को अक्सर एक्टर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर के नाम और काम नज़र आता है, लेकिन लेखक, जो सबसे बुनियादी और महत्वपूर्ण काम करता है, उसे वो क्रेडिट नहीं मिल पाता, जिसका वो हकदार है.
मुझे बहुत दुख होता है, क्योंंकि स्क्रीनराइटर्स वो प्लॉट, वो बुनियाद तैयार करते हैं, जहां पर आप एक रियल स्टेट बिल्डिंग (प्रोजेक्ट) खड़ा कर पाते हैं. लेकिन वहां पर भी लोग क्रेडिट शेयर करने आ जाते हैं. आपके प्रोड्यूसर, आपके डायरेक्टर क्रेडिट शेयर करने लगते हैं. ये एक अलग लड़ाई है, क्योंकि राइटिंग में सबको क्रेडिट चाहिए और सबको लगता है कि सब लोग राइटर हैं.
यहां, क्रेडिट, न्यूनतम बेसिक कॉन्ट्रैक्ट को लेकर एक अलग जद्दोजहद जारी है. आप 500 लोगों के लिए लिखते हैं, लेकिन जब फिल्म बनती है, तो सबसे पहले आपको दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया जाता है. आपका एक्टर नहीं जानता कि वो किसकी लिखी लाइंस बोल रहा है. कई बार एक्टर और लेखक का संवाद तक नहीं होता और राइटर का पूरा क्रेडिट ले लिया जाता है. फिल्म मे कई बार लेखक का नाम तक नहीं होता, जब तक आप हल्ला न मचाएं.
एक फिल्म के लिए लिखना शारीरिक और मानसिक तौर पर बहुत तकलीफदेह प्रक्रिया है. इसलिए लेखन और लेखक को सेलिब्रेट करना बहुत जरूरी है. और इसलिए लेखकों के संगठन का होना, वूमेन कलेक्टिव, एसोसिएशन का होना बहुत जरूरी है. क्योंकि इसके बिना बदलाव नहीं आएगा. अगर हमें बदलाव चाहिए तो हमें एकजुट और संगठित होना पड़ेगा.
जब बात सिनेमा की होती है, तो कास्टिंग काउच जैसे उत्पीड़न के मुद्दे भी सामने आते हैं, मलायलम फिल्म इंडस्ट्री में दिल दहलाने वाली हेमा समिति की रिपोर्ट सामने आई. क्योंकि आप एसोसिएशन से भी जुड़ी हुई हैं, क्या स्क्रीनप्ले राइटिंग के क्षेत्र में भी महिलाओं को इस तरह के संघर्ष का सामना करना पड़ता है?
महिलाओं के लिए संघर्ष पूरी दुनिया में और हर फील्ड में है. लेकिन ये जरूर है कि जब सामने वाले को आपके बारे में पता है कि आप गलत बर्दाश्त करने वालों में से नहीं हैं, तो फिर आपको इसका सामना कम करना पड़ता है. लेकिन इससे इस सच्चाई को नहीं नकारा जा सकता कि महिलाओं का शोषण-उत्पीड़न नहीं होता. सबसे जरूरी है कि आप इससे डील कैसे करते हैं. और इसलिए जरूरी है कि सब एकजुट रहे, अपने साथ हो रहे किसी भी गलत व्यवहार को सामने रखें, जिससे सबको पता चले.
मैं हमेशा अपने साथ काम कर ही महिला लेखिकाओं और जूनियर राइटर्स से कहती हूं कि प्लीज़ आपस में बात करें, अपनी समस्याएं बताएं, किस डायरेक्टर के साथ काम करने में क्या दिक्कतें है, ये सब साझां करें, तभी इन समस्याओंं का हल निकल पाएगा.
औरतों को पर्सनल और प्रोफेशनल फ्रंट पर संघर्ष का सामना करना पड़ता है, बात समान वेतन, समान अवसर और समान इज्जत की हो तो एक बड़ा जेंडर गैप नज़र आता है. इस खाई को पाटने के लिए क्या किए जाने की जरूरत महसूस होती है?
हर रोज़ हमें लड़ाई लड़नी पड़ेगी इस बदलाव के लिए, अपने हक़ों के लिए. छोटी शुरुआत ही सही, लेकिन शुरुआत सबको करनी पड़ेगी. ये संघर्ष का सफर अंतहीन है. महिलाओं के लिए समान वेतन हो, उन्हें for granted न लिया जाए. हमें सिर्फ ‘महिला’ लेखक की नज़र से नहीं बल्कि एक लेखक की नज़र से देखा जाए.
मैं एक ऐसा समाज चाहती हूं, जहां बराबरी के लिए मुझे बार-बार अपनी छाती पीटकर अपनी पहचान न साबित करनी पड़े, अवसर सबको मिले. हमें अपने टैलेंट के दम पर काम मिले, उसे सराहा जाए, उसकी कद्र हो. घर और काम की जगह पर हमें महिला होने के नाते सहानुभूति नहीं चाहिए, सिर्फ बराबरी चाहिए. जो स्वाभाविक हो, उसके लिए संघर्ष न करना पड़ा.
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बिहार की पैदाइश, झारखंड में परवरिश, फिर दिल्ली और अब मुंबई. कौन सी जगह दिल के सबसे करीब रही, जो कभी दिल से निकली नहीं?
सभी शहरों से अलग-अलग नाता है. मैं सिवान में पैदा हुई. मैं सिवान से शिद्दत से मोहब्बत करती हूं. लेकिन उससे ज्यादा ही नफरत भी करती हूं क्योंकि मुझे लगता है कि यहां कुछ बदल क्यों नहीं रहा. मेरी वहां बड़ी लड़ाइयां होती हैं. ऐसा ही कुछ खट्टा-मीठा रिश्ता मेरा पूर्णिया से है, जहां मेरा ससुराल है. उसी तरह का रिश्ता मेरा पटना से है. मैं जब भी जाती हूं तो निराश हो जाती हूं, इसकी यही वजह है कि मैं यहां से प्यार बहुत करती हूं लेकिन यहां कुछ बदल क्यों नहीं पा रहा, इसे लेकर गुस्सा भी आता है. हर कोई अपनी मिट्टी और संस्कृति से प्यार करता है और इसलिए ये मेरा भी प्यार है.
रांची में मैं युवा हुई और इसलिए ये दिल के सबसे करीब भी है क्योंकि ये शहर मुझसे छूट गया और मैं यहां दोबारा नहीं जा पाई. ये शहर यादों का शहर है. दिल्ली से वही रिश्ता है कि ये शहर कभी दिल्ली से निकला नहीं और इस शहर ने कभी अपनाया नहीं. सबसे लंबा समय यही निकाला है मैंने. यहां बहुत प्यार और अपनापन मिला है. जब भी दिल्ली आती हूं तो ऐसा लगता है कि महबूब शहर आ गए. लेकिन यही है कि महबूब शहर आए महबूब को गले लगाया और फिर लौट गए.
मुंबई कर्म भूमि है और ये आपको बहुत निचोड़ती है. यहां कभी नहीं लगा कि मैं इस शहर में अपनी पूरी जिंदगी गुजार दूंगी. तो मेरा तो यही मानना है कि जहां आपका दिल लग गया, वहीं आपका घर है.
आज भी मुझे सबसे ज्यादा यही लगता है कि कहानीकार कहीं के नहीं होते. वहीं आप सबसे ज्यादा अपने करीब होते हैं, जहां आप किसी के नहीं होते.
आपकी चुनौतियोंं और सफलताओं के सफर में परिवार का कितना साथ रहा?
मैं परिवार के मामले में बहुत ख़ुशक़िस्मत रही. जब मैं लगातार अपना करिअर बदल रही थी और 2015 में मेरे पिता जी ने पूछा तुम्हें करना क्या है, तो मैंने कहा कि मुझे फिल्म लिखनी है. फिर उन्होंने कहा कि फिर रुकी क्यों हो. इस पर मैंने कहा कि इसके लिए मुझे सैलरी नहीं मिलेगी, लगातार बिना पैसों के लिखना होगा. जवाब में उन्होंने मुझसे बड़ी उदारता से कहा, कितना समय लगेगा छह महीने इसकी सैलरी मैं तुम्हें देता हूं, तुम फिल्म लिखो जाकर.. ये बहुत बड़ी बात है क्योंकि वो बिहार के पितृसत्ता के परिवेश में रहे और फिर भी मुझे लगातार समझने की कोशिश करते रहे.
कुछ इसी तरह जब मैं अपने काम के सिलसिले में जब एक बार विदेश में थी और उसी दौरान ससुराल में किसी का निधन हो गया, तो पिताजी ने फोन करके कहा, तुम जो कर रही हो ध्यान उसी में लगाओ यहां हम सब संभाल लेंगे.
मेरे भाई, मेरे बच्चे मेरा सबसे बड़ा सपोर्ट रहे हैं. ससुरालवालों से बहुत सहयोग मिला और सबने बहुत प्यार दिया.