मेरा वक़्त पुलिस थाने में हाजिरी देने के उस रूप में लटका हुआ है जब अंग्रेज़ों का कंपनी राज चल रहा था. जब वक़्त के माथे पर लिखी हुई जाति की इबारत हमें पृथक कर चिह्नांकित करती थी, सार्वजनिक रास्ते पर आने-जाने पर प्रतिबंध लगाती थी, सबके हिस्से की सड़क पर सबको चलने की आज़ादी नहीं देती थी. मिलती थी पेशवाई में प्रताड़ना. मेरा वक़्त लहूलुहान होकर पानी की चंद बूंदों की तलाश में रेगिस्तान में भटक रहा है. सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि यह सब, सब लोगों को दिखाई नहीं दे रहा है. उनका वक़्त, उनका आसमान, उन्होंने अलग कर लिया, मान लिया जबकि वक़्त और आसमान अलग-अलग नहीं हो सकते हैं. अलग नहीं हो सकती है पानी की प्यास, सम्मान से जीने की हसरत, मनुष्य जीवन की आस और चैन की नींद.
वो नींद जो विवशता के ज्वालामुखी के भीतर होती है, वो लोगों को सुकून की नींद लगती है. वे ईर्ष्या करने लगते हैं कि ‘इन लोगों’ को किसी भी जगह नींद आ जाती है. लेकिन प्रताड़ना के साथ कोई कैसे जी सकता है? भेदभाव, प्रताड़ना, दुख-निराशा को भूलने के लिए नींद एक तात्कालिक उपाय है.
हम ऐसे समूह, व्यक्ति या परिवार के साथ रहते हैं, काम करते हैं, जो यह मान चुके हैं कि अब नहीं रहा भेदभाव. अब नहीं होती है जाति, वर्ण, रंग, जेंडर आदि के आधार पर प्रताड़ना. फिर उन्हें समझाना मुश्किल है. वे कभी किसी गांव, क़स्बा, शहर के किसी मकान का दरवाज़ा खटखटाकर कहें कि ‘मैं अनुसूचित जाति में वर्णित उस जाति का व्यक्ति हूं. आपका किराएदार बनना चाहता हूं. जो बाज़ार भाव है उस अनुसार किराया दे दूंगा.’
मकान के मालिक/मालकिन को वे जातिवाचक पहचान वाले सरनेम बताइए जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के मान लिए गए है. कभी किरायेदार बनने का ‘प्रयोग’ कर लेना चाहिए. ‘प्रयोग’ किए बिना लोगों की सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा करना अंधविश्वास ही होता है. मेरे समय में ऐसे तमाम प्रयोग होने चाहिए.
क्या आप ‘प्रयोग’ करना चाहते हैं, चूँकि दावा आप वैज्ञानिक मानसिकता का करते हैं?
विज्ञान कहता है, आओ प्रयोग करके सीखें. आपको विरासत में मिला हुआ ज्ञान, अंतिम नहीं है, पूरा सच नहीं है, इसीलिए सीखना है. सीखने के साथ-साथ यह भी सीखना है कि जो सीख गए हैं, उसे कैसे भूल जाएं. कभी अपने घर के भीतर अपने ख़ानदान में उस मित्र को जो ऊपर वर्णित ‘प्रयोग’ के ज़िक्र में आए हैं, अपने साथ खाना खिलाने से पहले घर वालों को उसकी जाति बता दें, उसका पेशा बता दें. यह वाला ‘प्रयोग’ तो कभी भी बाआसानी कर सकते हैं.
हालांकि, आप करेंगे नहीं क्योंकि आप अपने घर वालों को अच्छी तरह से जानते हैं. आप विवशता की प्रतिमूर्ति बनकर भी फैसला दे सकते हैं कि हमारे घर में ‘कुछ’ लोग ऐसी ‘सोच’ के हैं, लेकिन ज़माना बदल गया है. अब कहीं नहीं होती है- छुआछूत और भेदभाव.
उस ज़माने में क्या आपका कुनबा शामिल नहीं है? जो ज़माना बदल गया, वो किसका ज़माना है? आप शादी के प्रस्ताव का ‘प्रयोग’ नहीं करेंगे क्योंकि आप जान चुके हैं कि इस आधुनिक प्रगतिशील समय के भीतर आपका घर परिवार कुनबा, उन सबको पता है कि लाल सिंह ने पराई जात के कुड़ी (कुड़े) के बारे में जो कहा था, उस आधार पर शादी के लिए सहमति नहीं मिलेगी. जबकि आपके रिश्तेदार-घरवाले सब सीधे हैं, सज्जन हैं, सच्चरित्र और श्रद्धावान हैं, दयालु हैं, उदारता संग प्रगतिशीलता से डूबे भरे पड़े हैं, लेकिन शादी के मामले में वे पराई जात को,वर्ण को स्वीकार नहीं करेंगे. जबकि आपको यह ‘सर्वमान्य’ तथ्य पता है कि वे भेदभाव नहीं मानते. लेकिन इस मामले में. छोड़िए जी.
सभ्य कहे जाने वाले युवा अपनी जात वाले से ही प्रेम करते हैं ताकि यदि गाहे-बगाहे ज़रूरत के वक़्त अगर उसे ही जीवनसाथी बनाना पड़े तो कोई इस तरह की ‘परेशानी’ ना आए. मेरे समय में सभ्य व्यक्ति, वर्चस्व के भिन्न-भिन्न स्थानों पर हैं. अपने मन-विरासत में मिले हुए विचार को अंतिम निर्णय के रूप में सुनाते हैं और इस तरह सुनाते हैं कि सामने वाले को असहमत होते हुए भी सहमत होना पड़ता है.
सोशल मीडिया की मित्र सूची में नज़र डालें, तो 80 फ़ीसदी से अधिक अपने ही वर्ण जाति वाले वहां मिलेंगे. यहां, जहां बड़ी-बड़ी बातें कही-सुनी-पढ़ी जाती हैं, वहां पर भी आपकी मित्रता सूची इतनी तंग हाल है कि आपकी सांस घुट जाना चाहिए, पर उसे आप नज़रअंदाज़ कर देते हैं.
मेरे समय के लोग उसे नज़रअंदाज़ करने और उन बातों पर सवाल-बहस करने या लिखने में अपना वक़्त ‘बर्बाद’ नहीं करना चाहते हैं. मेरे वक़्त में दोगले व्यक्तियों की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है. पढ़े-लिखे लेखन-सृजन कर्म से जुड़े लोग अपनी फ़ोटो में, खाने की मेज़ पर, अपनी किताब के भीतर, अपने मित्र संपादक की अनुक्रमणिका के अंदर, किसी मंच के ऊपर, वे ही दिखते हैं, वे ही लिखते हैं, जो समान जाति वर्ण में पैदा हुए होते हैं. उन नाम (नामों) को पढ़ने, फ़ोटो में निहारते वक़्त उन्हें यह सोचने-समझने के लिए स्पेस ही नहीं मिलता है कि विविधता में एकता से भरी हुई संस्कृति में इसी जगह विविधता क्यों नज़र नहीं आ रही है? क्यों हर जगह विविधता से भरी हुई नहीं दिखती है?
सवाल विविधता का है. सवाल प्रतिनिधित्व का है. सवाल सबके अपने अवसर को हासिल करने का है.
मेरे समय का रचनाकार अपने आपसे मुठभेड़ क्यों नहीं करता है? विविधता और प्रतिनिधित्व के मायने उसके व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और व्यवसायिक कार्यस्थल-सृजन स्थलों पर क्यों नहीं दिखाई देते हैं? मेरे वक़्त का सजग संवेदनशील रचनाकार कहां जाना चाहता है? क्या हासिल करना चाहता है? क्यों नहीं ‘असहज’ होना चाहता है? उसकी इस यात्रा में वह किस-किसके साथ जाना चाहता है? उसकी मंज़िल कौन-सी है?
इन सवालों के बीच, मेरे भीतर 1848 के साथ-साथ 1928 का वह सार्वजनिक तालाब भी है, जिसका पानी स्वाददार है लेकिन वह पानी सबके लिए नहीं है. वह पानी जो पिया जा सकता है वह अब बोतल बंद हो गया है. मेरे वक़्त की मानसिकता और व्यवहार भी किसी गटर से निकलकर बोतल में, दिमाग में बंद हो गई है. किसके साथ कैसा व्यवहार या बात की जाएगी, किसे कितना सम्मान दिया जाना चाहिए- इसका निर्धारण करने वाले तत्त्व विरासत में, घर-परिवार-समूह-पड़ोस समाज और तमाम संस्थाओं से वैसे ही मिलते हैं, जैसे जीवन जीने के लिए सांस लेना.
सबसे आगे रहने, बोलने, बताने की होड़ की श्रेष्ठता ग्रंथि उसे मनुष्य बनने ही नहीं देती है. वह मनुष्य होने का सिर्फ ढोंग भर करता है लेकिन वह मनुष्य नहीं हो पाता.
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अदृश्य माने जाने वाली अस्पृश्यता का वायरस समय के साथ-साथ अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में स्थान व्यक्ति और समय के हिसाब से अपना असर दिखाता है. कौन कितना पीड़ित प्रभावित होता है, यह उसकी इम्युनिटी (कम्युनिटी?) से तय होता है. सब इस वायरस से पीड़ित हैं, लेकिन स्वीकार नहीं करते.
वह वायरस अलग-अलग रूप में प्रताड़ित करने के लिए हर जगह मौजूद है. पर सब उसकी पहचान के लिए ज़रूरी उपकरण और साधन अपने साथ नहीं रखते. वे ना पहचानना चाहते हैं, न परीक्षण करना चाहते हैं. वे इस सामाजिक महामारी की आपदा में सुरक्षित स्थानों पर चले जाते हैं. मन को ढक लेते हैं. नाक बंद कर लेते हैं. दरवाज़े-खिड़की बंद कर लेते हैं कि वह उन विचारों, व्यक्तियों से दूर रहने के लिए ‘क्वारंटीन’ हो जाते हैं.
पुणे के प्लेग से लेकर कोरोना तक या फिर भेदभाव के अधिकांश अवसर पर अपने मन को, मत को, विरासत के विचार और मान्यता को, सुरम्य सौंदर्य और सुख शांति से लदे-फदे किसी गांव की ऊंची पहाड़ी, किसी शहर की ऊंची इमारत की छत पर छोड़कर आते-जाते हैं. बोलते और सुनाते हैं. लिखते हैं और बोलते हैं. उनके पास मंच है, पत्र-पत्रिकाएं हैं, माइक है, रूपहला पर्दा है, चीखने-चिल्लाने वाला बुद्धू बक्सा है. वे सभी की ओर से अपने आपको ‘अधिकृत” कर लेते हैं, जैसे किया था गोलमेज़ के वक़्त गांधीजी ने.
इन लोगों का वर्चस्व साधन-संसाधन पर है. इनके बौद्धिक तंत्र के ‘वायरलेस’, ‘पेपरलेस’ सिस्टम के साथ एल्गोरिथम से रूप बदल रहे समाज की सोच और साहित्य है. इस समय को अपना समय (1970-2025) कह सकता हूं जबकि इस समय से बहुत-बहुत पहले का मेरा समय, वर्तमान में भी वैसा ही है,वही है. भले ही समय को सुविधा के लिए सालों, वर्षों, सदियों में विभाजित किया गया है, लेकिन हमारे लिए तो समय सतत है. मानो मैं आसमान और उस आसमान में अपने घर की तलाश में भटक रहा एक परिंदा हूं. मैं अपने वक़्त के भीतर अपने आप को अकेला पाता हूं.
मेरा घर कहां है? इस तलाश में एक सुकून की चाह है. एक मनुष्य रूप में जानने-समझने की पहचान का संकट है. जेंडर, जाति, धर्म, वंश, क्षेत्र, जन्मस्थान के साथ अन्य जो भी विभाजनकारी तत्त्वों को मानते हैं, उनसे उम्मीद करता हूं कि वे सभी मनुष्यों को मनुष्य मानें. उनके साथ गरिमामय व्यवहार करें. अपनी मर्ज़ी से जीने दें. स्वयं जिएं और अपने आपको जानने-समझने के लिए, अपने जीवन के मायने की तलाश करते हुए शांति से पूरे वैश्विक समाज को जीने दें. एक मासूम दुनिया की बेहतरी के लिए सहभागी बने. मेरे वक़्त में न्याय, समता, स्वंत्रता, अपने-अपने हिस्से का वक़्त, स्पेस, अवसर, साधन सबको मिले.
(कैलाश वानखेड़े कथाकार हैं और भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत हैं.)
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