हिंदी लेखक अन्य कलाओं के रसास्वादन से क्यों बचता है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी ने कलाओं को अंगीकार कर अपना सर्जनात्मक और बौद्धिक परिवेश नहीं बनाया. जो थोड़ा-बहुत कलाओं की शुद्ध भौतिक उपस्थिति के कारण अनजाने-अनचाहे बन गया था, उसे भी अपनी जिज्ञासाहीनता और अरुचि, उपेक्षा के कारण गंवा दिया या नष्ट कर दिया.

/
(पेंटिंग साभार: Ivan Radev Via deviantart.com)

कई दशकों से अपने कुख्यात कला प्रेम और आयोजन करने और उनमें जाने के अपने अनुभवों के आधार पर एक मोटा आकलन यह है कि हिंदी लेखक समाज का संभवतः एक प्रतिशत ही कलाओं में दिलचस्पी लेता है. दिल्ली में, जहां शायद किसी भी हिंदी हिंदी भाषी शहर से अधिक, सबसे अधिक लेखक रहते हैं और मैं स्वयं पिछले लगभग 33 वर्ष से रह रहा हूं, जहां संगीत, नृत्य, रंगमंच, ललितकला के आयोजन साल भर, लगभग हर दिन होते रहते हैं, वहां उनमें लेखकों की उपस्थिति लगभग नगण्य होती है.

कभी मित्रतावश कोई किसी आयोजन में भले चला जाए, रुचिवश बहुत कम जाते हैं. ऐसा भी है कि अब तो ज़्यादातर लेखक साहित्यिक आयोजनों में भी तभी जाते हैं जब उन्हें कुछ कहने बुलाया गया हो: दूसरे लेखकों को सुनने बहुत कम आते हैं. अलबत्ता, जब-तब विचारधारात्मक आयोजन हो तो वहां प्रतिबद्ध लेखक ज़रूर आते हैं.

इस पर सोचने की ज़रूरत है कि हिंदी लेखक की, सामान्यतः, दूसरी कलाओं का रसास्वादन करने, उन्हें समझने और उन पर विचार करने की रुचि इतनी कम क्यों है. कलाओं को शामिल कर अपना सर्जनात्मक और बौद्धिक परिवेश हिंदी ने बनाया ही नहीं. जो थोड़ा-बहुत कलाओं की शुद्ध भौतिक उपस्थिति के कारण अनजाने-अनचाहे बन गया था, उसे भी अपनी जिज्ञासा हीनता और अरुचि, उपेक्षा के कारण गंवा दिया या नष्ट कर दिया.

हिंदी साहित्य के लोकवृत्त में कलाएं नहीं हैं. एक नाटकीय कटूक्ति यह की जा सकती है कि हिंदी साहित्य का लोकवृत्त कलाहीन, कलाशून्य लोकवृत्त है. इसलिए वह विपन्न है इसका कोई सजग अहसास हिंदी में नहीं है. अपवादों को छोड़ दें, तो आमतौर पर हिंदी लेखक, कलाकारों के संघर्षों और कोशिशों को, अपने संघर्ष और कोशिशों से कमतर या हीनतर मानते हैं.

यह अकारण नहीं है कि हिंदी में कलाओं की आलोचना विकसित ही नहीं हुई. हमारी सारी आलोचना साहित्य पर एकाग्र है और उसमें इस बात की कोई पहचान नहीं है कि ठीक उस समय जब यह साहित्य रचा जा रहा है, कलाओं में, समवर्ती ढंग से, विचारणीय सृजन हो रहा है. कलाओं के प्रति ऐसे असंवेदनशील परिवेश में यह दिखाई दे रहा है कि शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य, रंगमंच, चित्र और मूर्तिकलाओं में नवाचारी, निर्भीक, प्रयोगशील युवा कलाकार बहुत कम हिंदी अंचल से आ रहे हैं. जो थोड़े-बहुत आ रहे हैं वे भी, हिंदी अंचल छोड़कर, कहीं और काम कर अपनी उपस्थिति दर्ज कर पा रहे हैं.

इस धारणा से मुक्त होना संभव नहीं लगता कि अगर आज हिंदी अंचल, कुल मिलाकर, धर्मांधता, जातिवाद, पिछड़ी रूढ़िवादिता, अशिक्षा, घृणा-झूठ और हिंसा से ग्रस्त है तो इसका कुछ मूल उसका कलाओं की मानवीय संस्पर्शिता से अपने को वंचित रखने के कारण भी है.

हिंदी शहरों की बढ़ती अभद्रता, उग्र व्यवहार, संवाद के बजाय प्रवाद, सच के बजाय अफ़वाह, समरसता के बजाय घृणा फैल रहे हैं और वह व्यापक रूप से शिक्षा-मीडिया-सामाजिक व्यवहार-राजनीति-धर्म आदि क्षेत्रों में भारत का सबसे आक्रामक और अभद्र हिस्सा बन गया है.

मराठी साहित्य सम्मेलन

तीर बरस पहले 1995 में परभणी नाम के शहर में जो अखिल भारतीय मराठी सम्मेलन हुआ था उसका उद्घाटन करने का सुयोग मुझे मिला था. इसी अधिवेशन में मराठी के मूर्धन्य कवि नारायण सुर्वे सम्मेलन के अध्यक्ष हुए थे. तीस हजार से अधिक लोग एकत्र हुए थे. मैं उस समय भारत सरकार के संस्कृति विभाग में संयुक्त सचिव था. मेरा व्‍याख्‍यान अक्षरशः एक निबंध के रूप में ‘साहित्य का पक्ष’ शीर्षक से मेरी पुस्तक ‘सीढ़ियां शुरू हो गई हैं’ (1996) में संकलित है. उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं:

‘ऐसा हुआ है कि मनुष्य की उम्मीद का सारा स्थापत्य ही बदल गया है- इस स्थापत्य में साहित्य के लिए जगह कम बची है. लेकिन एक दिलचस्प अंतर्विरोध यह है कि बावजूद इसके, ऐसा लगता है कि अभी भी जीवन, अस्तित्व, नियति, नश्वरता, प्रेम, जिजीविषा आदि को समझने-बूझने के लिए और रोज़मर्रा की जिंदगी में रसे-बसे गहरे आशयों को विन्यस्त करने के लिए हम प्रायः साहित्य के पास ही जाते हैं. सीधे जीवन के अलावा जीवन की असंख्य छवियां और प्रतीतियां हमें साहित्य और कलाओं में ही मिलती हैं.’

***

‘साहित्य की लड़ाई कई मोर्चों पर हो जाती है. पहला यह कि साहित्य निस्संकोच राजनीति को एक बड़ी शक्ति मानने को तैयार रहा है, पर उसका उपनिवेश बनने को न तो वह अपनी नियति मानता है, न ही आकांक्षा. दूसरा यह कि साहित्य अगर कभी-कभार राजनीति या राजनीतिक सच को कठघरे में खड़ा करता है तो इसलिए नहीं वह अपने को किसी ऊंचे नैतिक स्तर पर मानता है. साहित्य की अदालत में अभियोग की इजाज़त नहीं होती- उसमें आत्माभियोग का ही अवसर होता है. साहित्य अपने पर, अपने औचित्य और सच पर लगातार खरा संदेह करता है और इसी संदेह से कभी-कभार दूसरों से प्रश्न पूछने का सहज पर नैतिक अधिकार अर्जित करता है.

तीसरा मोर्चा यह है कि राजनीति का सच कितना ही बड़ा, शक्तिशाली और अकसर दैत्याकार क्यों न हो, उसे कई छोटे-खरे सचों को अंतर्भूत करने या रौंदने से साहित्य रोकता है- साहित्य इस गहरे अर्थ में प्रतिरोध है, भले उसकी मुद्रा शांत और धीरोदात्त क्यों न नजर आती हो. चौथा मोर्चा है संवाद का- वह राजनीति से बात-बहस-जिरह करना लगातार जारी रखता है. राजनीति की तरह साहित्य को फैसला देने की हड़बड़ी नहीं होती. उसमें धीरज है- वह चीजों के स्थिर होने की प्रतीक्षा कर सकता है. साहित्य मनुष्य की अथक प्रतीक्षा का भी एक नाम है.’

***

‘हम अकसर यह भूल जाते हैं कि मनुष्य, उसके अस्तित्व और संसार की जो अपार और असमाप्य बहुलता है उसे किसी सत्य में एकीकृत करना शायद ही संभव हो. हो भी तो ऐसा सत्य बहुत काम का न होगा. साहित्य अपने स्वभाव से ही प्रजातांत्रिक और बहुलतावादी है- उसके पास एक नहीं अनेक रास्ते हैं. वह दुनिया और आदमी को, उनके संघर्ष और संबंध को, प्रकृति और मृत्यु को, किसी एक दृष्टि से देखने का आग्रह नहीं करता है. उसका आग्रह अगर है तो इस पर कि मनुष्य की कई दृष्टियां हैं और उन्हें किसी सत्य के लिए, किसी एकीकृत या एकाग्र सत्य के लिए बलि नहीं दिया जाना चाहिए. साहित्य समाज की स्मृति है- याद भी और समझ भी.

बीसवीं शताब्दी के अंत के निकट साहित्य नहीं भूल सकता कि इस दौरान सत्य के नाम पर, किसी एक सत्य की तानाशाही के लिए हमारे समय में मनुष्य की कितनी अवज्ञा-अपमान, कितना दमन और संहार हुआ है. साहित्य का काम ऐसे दैत्याकार सत्यों की खोज या उनकी सेवाटहल या जीहुजूरी करने के बजाए उन पर उंगली उठाना है, उन्हें कठघरे मे खड़ा करना है. इसीलिए साहित्य को सत्य की तानाशाही या सर्वसत्तावादिता के बरक़्स सचाई की किंचित् अराचक बहुलता चाहिए. यह अदम्य और अचूक बहुलता ही साहित्य का सच्चा अध्यात्म है. साहित्य मानवीय अस्तित्व की बहुलता का ही अनुष्ठान है. वह एकेश्वेर के मंदिर में नहीं, असंख्य देवताओं के आँगन में ही अधिक सहज अनुभव कर सकता है.’

***

‘विडंबना यह है कि उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी इतिहासकारों द्वारा साम्राज्यवादी आवश्यकताओं के लिए रचे गए रूपक को आज हमारे सामने यों पेश किया जा रहा है मानो वह एक प्राचीन अवधारणा हो. आख़िर उससे पहले हमारे शास्त्रों में, तत्त्वचिंतन और साहित्य में, हमारी कलाओं में भारतीयता का विचार क्यों नहीं मिलता है?’

‘पता नहीं किसे और क्यों भारतीयता की, उसकी किसी नई परिभाषा की ज़रूरत है. अगर है तो वह उसकी खोज में परंपराहीन संस्कारच्युत राजनीति के पास क्यों जाता है? वह जाए हमारे साहित्य, हमारे चिंतन, हमारे संगीत और नृत्य के पास. वहां उसे भारतीयता का वह सच मिलेगा जो कालजयी है, वह भारतीयता नहीं जो हफ्ते-पखवारे बदलती रहती है और जिसे वे गढ़ रहे हैं. (नोट करें- परंपरा से पा नहीं रहे हैं) जिनकी नज़र में संकीर्णता, असहिष्णुता और अनुदारता भारतीयता के चारित्रिक गुण हैं. असली भारतीयता अंततः जीतेगी क्योंकि जो काल से नहीं हारी वह मनुष्यता-विरोधी उन्माद से हार जाएगी ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है.’

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)