नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (फरवरी 28) को एक फैसले में मध्य प्रदेश की दो महिला न्यायिक अधिकारियों की बर्खास्तगी को रद्द करते हुए कहा कि महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर अधिक संवेदनशील होने का समय आ गया है.
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस बीवी नागरत्ना की अगुवाई वाली खंडपीठ ने जिलास्तर पर न्यायपालिका में महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की. उनका कहना था कि इस स्तर पर महिला अधिकारियों पर काम का बोझ अधिक होता है और उन्हें लंबित मामलों और लंबे समय तक काम करने के कारण कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि केवल महिला न्यायिक अधिकारियों की बढ़ती संख्या से संतोष प्राप्त करना पर्याप्त नहीं है, जब तक कि उन्हें काम करने के लिए एक संवेदनशील माहौल न मिले. इसके साथ ही जस्टिस नागरत्ना ने मौखिक टिप्पणी में यह भी कहा कि हमें महिलाओं की चिंताओं और कठिनाइयों को समझने की जरूरत है.
मालूम हो कि ये यह फैसला मध्य प्रदेश की दो महिला न्यायिक अधिकारियों द्वारा दायर याचिका पर आया, जिन्हें ‘अक्षमता’ और ‘कदाचार’ के लिए बर्खास्त कर दिया गया था, जबकि उनमें से एक को लगातार व्यक्तिगत आघात झेलना पड़ा था, जिसमें गर्भपात भी शामिल था और वे कई दिनों तक आईसीयू में रभी रही थीं.
शीर्ष अदालत ने कहा कि हालांकि, महिला न्यायिक अधिकारियों के खराब कार्य प्रदर्शन के लिए लिंग कोई बहाना नहीं हो सकता, लेकिन यह निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण विचार है.
जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि यह मामला न्यायपालिका के भीतर एक संवेदनशील और समावेशी कार्य माहौल प्रदान करने की आवश्यकता को दर्शाता है, जिसमें अधिक से अधिक महिला कानूनी पेशेवर और न्यायाधीश शामिल हो रहे हैं.
शीर्ष अदालत ने कहा कि न्यायपालिका को अधिक महिला प्रतिनिधित्व और समानता की भावना के साथ सरकार और विधायिका के लिए एक उदाहरण स्थापित करना चाहिए. जस्टिस नागरत्ना वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में केवल दो महिला न्यायाधीशों में से एक हैं, जिसकी स्वीकृत न्यायिक शक्ति यानी कुल जजों की संख्या 34 है.
न्यायाधीश के अनुसार, अधिक महिला प्रतिनिधित्व से लैंगिक रूढ़िवादिता में बदलाव आएगा. इसके साथ ही अधिक महिला संख्या बल से न्यायपालिका में वरिष्ठ स्तर पर, दृष्टिकोण और पितृसत्तात्मक धारणाओं में भी बदलाव आएगा.
अदालत का मानना है कि न्यायिक अधिकारियों के रूप में महिलाओं की दृश्यता सरकार की विधायी और कार्यकारी शाखाओं जैसे अन्य निर्णय लेने वाले पदों में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व का मार्ग प्रशस्त कर सकती है.
जस्टिस नागरत्ना ने कहा, ‘अधिक संख्या और महिला न्यायाधीशों की अधिक दृश्यता से महिलाओं में न्याय पाने और अदालतों के माध्यम से अपने अधिकारों को लागू करने की इच्छा बढ़ सकती है.’
बर्खास्तगी को अदालत ने बताया ‘मनमाना कदम’
शीर्ष अदालत ने इस फैसले से संबंधित दो सिविल जजों सविता चौधरी और अदिति कुमार शर्मा की बर्खास्तगी के आदेशों को ‘दंडात्मक, मनमाना और अवैध’ करार देते हुए रद्द कर दिया.
कोर्ट ने दोनों महिलाओं को उनकी वरिष्ठता के अनुसार 15 दिनों के भीतर बहाल करने का आदेश दिया है. इन महिला न्यायिक अधिकारियों की ओर से पेश हुईं वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा कि यह फैसला न्यायपालिका में महिलाओं के लिए ‘सक्षम वातावरण’ प्रदान करने में मदद कर सकता है.
न्यायिक अधिकारी अदिति शर्मा के मामले की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि गर्भपात एक महिला के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर करने वाला हो सकता है.
जस्टिस नागरत्ना ने कहा, ‘गर्भपात एक व्यक्ति की पहचान को प्रभावित करता है, जिससे मातृत्व की पहचान और भूमिका, लांछन और अलगाव सहित निराशा और चुनौतियां पैदा होती हैं.’
शीर्ष अदालत ने आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय अनुबंध के अनुच्छेद 10 का उल्लेख किया जो प्रसव से पहले और बाद में उचित अवधि के दौरान माताओं को विशेष सुरक्षा प्रदान करता है.
महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर अंतरराष्ट्रीय अनुबंध के अनुच्छेद 11 ने राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य किया है कि महिलाओं को काम पर पूर्वाग्रह का सामना न करना पड़े.
जस्टिस नागरत्ना ने अदालत में फैसला सुनाए जाने के बाद टिप्पणी की कि महिला न्यायाधीशों को उस परेशानी का भी सामना करना पड़ता है, जब उन्हें पूरे दिन अदालती काम के लिए बैठना पड़ता है और ‘कभी-कभी पीरियड्स के दर्द को कम करने के लिए गोलियां लेनी पड़ती हैं.’
ज्ञात हो कि इससे पहले भी इस मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस नागरत्ना ने कई सख्त टिप्पणियां की थी.
पूरा मामला क्या था?
गौरतलब है कि मध्य प्रदेश में छह महिला सिविल जजों की बर्खास्तगी पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया था. सितंबर में शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप के बाद बर्खास्त की गई छह में से चार महिला जजों को बहाल कर दिया गया था.
इस मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा था, ‘काश पुरुषों को पीरियड्स (मासिक धर्म) होता, तभी वे समझ पाते.’
जस्टिस नागरत्ना ने आगे कहा था, ‘यह कहना आसान है कि मामला खारिज हो गया और घर जाओ. अगर हम इस मामले की विस्तृत सुनवाई कर रहे हैं, तो क्या वकील कह सकते हैं कि हम धीमे हैं? खासकर तब, जब महिला जज शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान हों. आप यह मत कहिए कि वे धीमी हैं और उन्हें हटा दिया जाए.’
ज्ञात हो कि पीठ सिविल जज अदिति कुमार शर्मा और सरिता चौधरी के मामलों पर विचार कर रही थी, जो क्रमशः 2018 और 2017 में एमपी न्यायिक सेवा में शामिल हुई थीं. इन दोनों अधिकारियों को 2023 में बर्खास्त कर दिया गया था.
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की पूर्ण अदालत ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपे गए सीलबंद लिफाफे में प्रतिकूल टिप्पणी दर्ज करते हुए उनके खिलाफ बर्खास्तगी का आदेश रद्द करने से इनकार कर दिया था.
हाईकोर्ट के अधिवक्ता अर्जुन गर्ग द्वारा प्रस्तुत रिकॉर्ड से में बताया गया था कि सिविल जज अदिति शर्मा का प्रदर्शन 2019-20 में ‘बहुत अच्छे’ और ‘अच्छे’ रेटिंग से गिरकर बाद के वर्षों में ‘औसत’ और ‘खराब’ हो गया. 2022 में उनके पास 200 से कम निपटान दर वाले लगभग 1,500 मामले लंबित थे. उन्होंने सिविल मामलों के लिए 44.16 यूनिट और आपराधिक मामलों के लिए 269 यूनिट अर्जित कीं.
अदिति शर्मा ने हाईकोर्ट को सूचित किया था कि 2021 में उनका गर्भपात हो गया था. इसके बाद उनके भाई को कैंसर होने के बारे में पता चला था.
मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस नागरत्ना और जस्टिस एन. कोटिस्वर सिंह की पीठ ने कहा था, ‘पुरुष न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के लिए समान मानदंड होने चाहिए, फिर देखेंगे. आप जिला न्यायपालिका के लिए टारगेट यूनिट कैसे रख सकते हैं.’
शर्मा का प्रतिनिधित्व कर रही वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने कहा था कि उनकी मुवक्किल का रिकॉर्ड बेदाग है और पेशेवर व व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता के कारण शिकायतों का सामना करना पड़ा है.
न्याय मित्र गौरव अग्रवाल ने कहा था कि शर्मा की 2022 की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट जबलपुर क्षेत्र की तत्कालीन जिला न्यायाधीश (निरीक्षण) अनुराधा शुक्ला द्वारा दर्ज की गई थी, जो बाद में रतलाम की प्रधान जिला न्यायाधीश बनीं और अब एमपी उच्च न्यायालय की न्यायाधीश हैं.
अदालत ने सिविल न्यायाधीशों को बर्खास्त करने के मानदंडों पर हाईकोर्ट से स्पष्टीकरण मांगा था. महिला जजों ने दावा किया था कि उनकी बर्खास्तगी अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता का अधिकार) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.