दुष्प्रचार की सारी युक्तियों के अलावा उर्दू के बहाने भी मुसलमानों को तरह-तरह से निशाना बनाना विभाजनकारी राजनीति का महबूब मश्ग़ला रहा है.
इस सियासत में अब ‘कठमुल्ला’ हिंदुत्व की हालिया चर्चित शब्दावली है.
ठीक ऐसे समय में सिख समुदाय से आने वाली पत्रकार और लेखिका रोहिणी सिंह की किताब ‘उर्दू में मेरा दूसरा जन्म’ कई मानों में नफ़रत की इस सियासत के लिए आईना है.
दरअसल, विभाजन की त्रासदी में पाकिस्तान के रावलपिंडी से अविभाजित बिहार के हज़ारीबाग आने वाले रोहिणी के पुरखे इसी ज़बान में लिखते-पढ़ते थे और उनके घर में पढ़ी जाने वाली पवित्र किताब ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ की ज़बान भी यही थी, मगर नए हालात में धीरे-धीरे उर्दू इनके घर से लुप्तप्राय हो गई और अब वो अपने ख़ानदान की पांचवीं पुश्त से ताल्लुक़ रखती हैं, जिन्होंने न सिर्फ़ उर्दू से अपना रिश्ता बहाल किया, बल्कि इस ज़बान में पत्रकारिता के अपने पेशे को भी आगे बढ़ा रही हैं.
ये सामान्य सी घटना भी कही जा सकती थी कि कोई कभी भी किसी ज़बान को सीख सकता है, ऐसे में रोहिणी की उर्दू उपलब्धि और कारनामे जैसी बात क्यों है? क्या हिंदुस्तान में ग़ैर-मुस्लिमों का उर्दू लिखना-पढ़ना भी कोई ख़बर है?
दूसरे सवाल पर पहले आते हैं, और इसके लिए मोदी-युग के नए हिंदुस्तान की सियासत के कुछ पन्नों को खोलना ज़रूरी है.
बात ये है कि जब मैं रोहिणी की किताब सामने रखकर इस नए हिंदुस्तान के सियासी पन्ने खोलने की बात कर रहा हूं तो उसी वक़्त ये भी सोच रहा हूं कि जाने कब सियासी पलड़े में उर्दू और मुसलमान एक-दूसरे के बराबर कर दिए गए?
इसका कोई एक और स्पष्ट जवाब नहीं है — अलबत्ता मौलवी अब्दुल-हक़, तारा चंद, महात्मा गांधी और भगत सिंह के विचारों और ज्ञानचंद जैन के बाद समकालीन भाषा-विमर्श तक में इस सियासत के रंग-रूप की चर्चा यहां की जा सकती है.
जिसका हासिल बस ये है कि मौक़ा ग़नीमत जानते हुए सियासत और बदनीयती ने हर बार उर्दू और मुसलमानों को एक ही ख़ंजर से क़त्ल करने की कोशिश की है.
ऐसे में ज़ाहिर है कि इस सियासी क़वायद की ढ़ेरों मिसालें हैं, लेकिन उत्तरप्रदेश के वज़ीर-ए-आला योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में इस सियासी ख़ंजर के दोनों किनारों को धार देते हुए उर्दू पढ़ने वालों ख़ास तौर पर मुसलमानों को ‘कठमुल्ला’ की पदवी से नवाज़ दिया है.
हालांकि, वो शर्तिया तौर पर सिर्फ़ मुसलमानों को ‘कठमुल्ला’ कह रहे थे, लेकिन इसकी ज़द में वो भी आ ही गए हैं जो मुसलमान नहीं हैं, और उर्दू उनकी ज़बान है या किसी भी तरह से उर्दू से उनका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रिश्ता है.
दरअसल, उत्तरप्रदेश विधानसभा की कार्यवाही में दूसरी स्थानीय भाषाओं के साथ उर्दू को भी एक भाषा के तौर पर शामिल करने के सवाल से बौखलाए वज़ीर-ए-आला ने अपने सियासी एजेंडा पर अमल करने की चिरपरिचित कोशिश की और हार्डकोर हिंदुत्व की विचारधारा से भी कहीं आगे बढ़कर उस उर्दू ज़बान के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलकर बैठ गए जिस उर्दू ज़बान में उनकी पार्टी और आरएसएस के लोग अपने विचारों का प्रोपेगेंडा करने से ज़रा गुरेज़ नहीं करते और इसके लिए भारत सरकार के अंतर्गत आने वाले उर्दू के सबसे बड़े इदारे राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद का बेजा इस्तेमाल करने से भी बाज़ नहीं आते.
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बहरहाल, योगी जी अपनी इस कोशिश से कोई बड़ा और स्पष्ट संदेश देना चाहते हैं, भले से इसकी ज़द में मोहन भागवत या ख़ुद प्रधानमंत्री ही क्यों न आ गए हों.
नहीं मालूम वो भागवत और प्रधानमंत्री के इस कथित और सियासी उर्दू प्रेम को ‘कठ-मुल्लाइयत’ से ताबीर करेंगे या नहीं, लेकिन उन्हें याद दिलाया जा सकता है कि उर्दू लिखने-पढ़ने वाले इंद्रकुमार गुजराल और मनमोहन सिंह जैसे ग़ैर-मुस्लिम इस मुल्क के वज़ीर-ए-आज़म हुए हैं.
ख़ैर, यूपी विधानसभा में उर्दू के ख़िलाफ़ योगी जी की तक़रीर का हवाला देते हुए लोगों ने अपनी मासूमियत में लफ़्ज़ चुनने बल्कि छांटने की कोशिश की और ‘तबक़े, पायदान, सरकार, बच्चों और दुनिया’ जैसे अरबी-फ़ारसी लफ़्ज़ों की पहचान करते हुए कहा कि वो उर्दू के ख़िलाफ़ उर्दू में ही बोल रहे थे.
लफ़्ज़ों को इस तरह अलग से चुनकर दिखाना किसी भी भाषा के लिए कई कारणों से अच्छी बात नहीं है.
मिसाल के तौर पर योगी जी की ही तक़रीर से तमाम लफ़्ज़ इसी तरह चुन लिए जाएं तो हम अरबी, फ़ारसी और संस्कृत जैसी ज़बानों के मोटे-मोटे शब्दकोष का बोझ उठाने वाले विद्वान नज़र आएंगे या फिर मौक़ापरस्त सियासतदां.
हालांकि, ज़बान शब्दकोष से अलग कोई और शय है. और ये दो-दो चार की तरह तो बिलकुल नहीं है.
सच तो ये है कि योगी जी अपनी बे-तकल्लुफ़ ज़बान में बोल रहे थे, जिसमें उर्दू, हिंदी और हिंदुस्तान की वही मिली-जुली तहज़ीब मौजूद थी जो मसलन आज भी इस मुल्क की सबसे बड़ी पहचान है.
कोई चाहे भी तो इस पहचान से पीछा नहीं छुड़ा सकता, हिंदुस्तान की भाषा-संस्कृति ऐसी ही है.
जाने कौन से लफ़्ज़ कहां से आकर हमारी बू-बास का हिस्सा बन गए और बनते रहेंगे.
इसलिए लफ़्ज़ों की शहरियत और नागरिकता तय करने वाले उनसे अलग कहां हैं, जो हिंदुत्व के नाम पर इस मुल्क की विविधता और रंगारंगी को नुक़सान पहुंचाना चाहते हैं.
फिर हैरत नहीं होनी चाहिए कि योगी जी भी अपने सियासी ख़ंजर से क़त्ल और करामात एक साथ करना चाहते हैं, वर्ना उन्हें उर्दू के साथ ‘कठमुल्ला’ के बजाय उस ग़ैर-मुस्लिम ‘मुल्ला’ की याद आती जो उन्हीं के प्रदेश लखनऊ में पैदा हुए, उर्दू पढ़ी, आला दर्जे की शायरी की, अंग्रेज़ी से उर्दू में अनुवाद के दफ़्तर लगाए और इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज हुए.
और तो और लोकसभा सदस्य चुने गए, और यही ‘मुल्ला’ इस समय योगी सरकार के अंतर्गत काम करने वाली उत्तरप्रदेश उर्दू अकादमी के पहले चेयरमैन भी थे.
दरअसल, अकबर इलाहाबादी के नाम से उनका इलाहाबाद छीन लेने की कोशिश करने वालों को पंडित आनंद नारायण ‘मुल्ला’ के बारे में जानना ही चाहिए, जिन्होंने कभी जामिया के एक उर्दू सम्मलेन में कहा था, ‘उर्दू मेरी मादरी ज़बान है, मैं मज़हब छोड़ सकता हूं अपनी मादरी ज़बान नहीं…’
और यक़ीन मानिए उन्हें मज़हब से ज़रा भी चिढ़ नहीं थी, बस ये अपनी ज़बान के लिए बेपनाह प्रेम दिखाने का उनका एक अंदाज़ था.
फिर भी मान लेते हैं कि भगवा सियासत इस ‘मुल्ला’ को नहीं जानती, लेकिन क्या वो अपने हिंदुत्व विचारक विनायक दामोदर सावरकर से भी परिचित नहीं, जिनके उर्दू लिखने-पढ़ने और इसी ज़बान में उनकी कच्ची-पक्की शायरी की बदौलत उनके देशभक्त होने का दावा किया जाता है.
ऐसे तो यहां उर्दू लिखने-पढ़ने वाले बड़े-बड़े ग़ैर-मुस्लिम नामों की सूची बनाई जा सकती है, लेकिन सियासत विशेष तौर पर भगवा सियासत से उर्दू के हक़ में कोई भी सकारात्मक उम्मीद कैसे की जा सकती है.
क़िस्सा ये है कि उर्दू का नाम सुनते ही योगी जी को मुसलमान और पाकिस्तान नज़र आने लगता है, शायद इसलिए वो अपनी तरफ़ से इक़बाल को मुसलमानों का आदर्श मानते हुए ‘मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा…’ जैसी पंक्तियों के सहारे भी अपने सियासी एजेंडा का ज़ोरदार प्रोपेगंडा करना चाहते हैं.
इक़बाल के इस रूप से शिकायत तो आनंद नारायण ‘मुल्ला’ को भी थी, लेकिन उन्होंने इसको लेकर कभी सांप्रदायिक राजनीति नहीं की और उर्दू से मुंह नहीं फेरा. बहरहाल, देखिए वो इक़बाल को क्या कह गए हैं;
‘तू काबे का दिलदादा था तो बुत-ख़ाने में क्यों आया
मय से तुझको परहेज़ अगर था मय-ख़ाने में क्यों आया
हिंदी होने पर नाज़ जिसे कल तक था हिजाज़ी बन बैठा
अपनी महफ़िल का रिंद पुराना आज नमाज़ी बन बैठा’
मुल्ला यहां इक़बाल को ‘कठमुल्ला’ नहीं कह रहे हैं बल्कि उर्दू के सेक्युलर मिज़ाज को मज़हबी जामा पहनाने के ख़िलाफ़ ‘शिकवा’ कर रहे हैं.
शायद इसलिए भी इस कविता का शीर्षक ‘इक़बाल से शिकवा’ है, और शिकवा एक अफ़सोस के साथ अपने महबूब से ही किया जाता है.
खैर, नए हिंदुस्तान में उर्दू की सियासत पुराने हिंदुस्तान से ज़्यादा अलग नहीं है, निशाने पर असल में मुसलमान हैं, और मक़सद ध्रुवीकरण है . वर्ना उर्दू में नाम पैदा करने वाले और लिखने-पढ़ने वाले हर रंग और नस्ल के ग़ैर-मुस्लिम तो भारत से फ्रांस तक और पूरी दुनिया में जाने कहां-कहां आबाद हैं.
यहां रोहिणी की किताब और उनकी उर्दू पर बात करने की कोशिश में फ़िलहाल ये कहना चाहता हूं कि उनकी उर्दू भी मेरे लिए उपलब्धि या कारनामा इसी वजह से है कि हमारी सियासत जब भी इसे सिर्फ़ मुसलमान और अब ‘कठमुल्ला’ बनाना चाहती है उर्दू अपने अलग-अलग रंगों के साथ ज़ाहिर हो जाती है.
उर्दू में रोहिणी की आमद असल में उर्दू के उन्हीं रंगों का अर्थपूर्ण इज़हार है और शायद नफ़रत की सियासत के सामने प्रतिरोध का आईना भी.