कहानियां कही जाती रही हैं, जब भाषा नहीं थी तब भी कहानियां थीं : दिव्या विजय

युवा लेखिका दिव्या विजय अपने कहानी-संग्रह ‘तुम बारहबानी’ को लेकर कहती हैं कि कहानियां एक समांतर संसार रचती हैं, जिसकी अधिकतर बातें इस संसार से मेल खाती हैं लेकिन जो मेल नहीं खातीं, वह कहानी की आत्मा होती हैं , जिसकी खोज सबको होती है, पर सब न उसे पहचान पाते हैं न स्वीकार.

दिव्या विजय की किताब 'तुम बारहबानी'. (फोटो साभार: सोशल मीडिया/फेसबुक)

युवा लेखिका दिव्या विजय को उनके कहानी संग्रह ‘सगबग मन’ के लिए वर्ष 2023 के प्रथम जानकीपुल ‘शशिभूषण द्विवेदी स्मृति सम्मान’ से सम्मानित किया गया था. प्रस्तुत है उनके हालिया प्रकाशित कहानी संग्रह ‘तुम बारहबानी’ से उनका प्राक्कथन.

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कहानियों की एक और किताब आपके हाथ में है. हर साल कहानियों की कितनी किताबें आती हैं, कोई गिनती नहीं. असमंजस होता होगा किसे पढ़ें और किसे नहीं. मेरा मानना है, बग़ैर हिसाब रखे जितनी कहानियां पढ़ी जा सकें, उतनी पढ़ी जानी चाहिएं. कहानियों के लिखे जाने की भी कहानी होती है और उनके पढ़े जाने की भी. कहानियां दुनिया बचाए रखती हैं, लिखने वाले की, पढ़ने वाले की. प्रश्न उठता है दुनिया बचाना क्यों आवश्यक है और क्या बचाने के प्रयत्न से वह बच जाती है! जब तक जीवन है उसे बचाने की क़वायद बनी रहती है. जो नहीं बच पाता, वह कोई और रूप धर लेता है. ऊर्जा की भांति जो अपना स्वरूप बदलती है लेकिन नष्ट नहीं होती या हमारे डीएनए की तरह जो हमसे पहले भी था और हमारे बाद भी विद्यमान रहेगा. कहानियों का भी डीएनए अनुस्यूत होता है. छपे हुए शब्द भले ही तिरोहित हो जाएं लेकिन कहानियां नष्ट नहीं होतीं. वे कालविद्ध होते हुए भी कालातीत होती हैं और स्वयं को हस्तांतरित करती चलती हैं. पीढ़ी-दर-पीढ़ी चक्कर काटती हुईं, बदलते समय के संग स्वयं को बदलती हुईं लेकिन अपना मूल स्वरूप अक्षुण्ण रखती हुईं.

दुनिया के निपट दो विपरीत सिम्तों पर बैठे दो परिचयहीन व्यक्ति एक-से अनुभव जी रहे होते हैं. उनके अनुभव अलहदा होते हुए भी एक होते हैं और एक होते हुए भी मुख़्तलिफ़. वे अपने अनुभव लिखें तो हम पाएंगे एक ही बात कितनी तरह से कही जा सकती है और हर बात की लताफ़त, आब-ओ-ताब एक-दूजे से जुदा होती है. यूं कि बात पहचानी होने पर भी नई-सी लगती है. किसी मनुष्य के बीज से पनपे नए मनुष्य की भांति, जो पुराना सब समेटे हुए भी एक अलग व्यक्तित्व, एक अलग मिज़ाज रखता है. कहानियों का भी अपना व्यक्तित्व, एक निजी विशिष्टता होती है. लेखक की जीवन दृष्टि,  छाया के रूप में उनमें अवश्य होती है लेकिन देह कहानियों की अपनी होती है. छाया को देह से अलगा नहीं सकते लेकिन छाया देह से बंधी-बंधी चलकर भी देह को प्रतिस्थापित नहीं कर सकती. कोई एक क्षण होता है जब दोनों विलग हो जाते हैं, कोई एक क्षण होता है जब दोनों एकाकार हो जाते हैं. ऐसे ही क्षणों में कहानी अपनी दिशा मुड़ती है, अपनी गति लेती है.

‘कहानियां पढ़ते हुए कहानी हो जाना चाहिए’

कहानियां कही जाती रही हैं, कही जाती रहेंगी. जब भाषा नहीं थी तब भी कहानियां थीं, भाषा के साथ कहानियों का लुत्फ़-अंदोज़ संसार और विस्तृत हुआ. कहानियों में कितनी बात असल है, कितनी नहीं इसे मापने का कोई पैमाना नहीं होता. लिखने वाले झूठ मान कर सच्ची बात लिख सकते हैं. पढ़ने वाले सच मान कर झूठी बात पढ़ सकते हैं. सच-झूठ का यह घालमेल बड़ा रस-भरा, बड़ा इंद्रधनुषी होता है. सच-झूठ की इस चढ़ती-ढलती धूप को मापने की ज़िद नहीं होनी चाहिए. व्यावहारिक रूप से संकोची-संयत लेखक अपने मिज़ाज को बालाए-ताक़ पर रख रूमानी कहानियां लिखे तो क्या अचरज. कहानियां पढ़ते हुए कहानी हो जाना चाहिए, एक पूर्ण समर्पण. कहानी में प्रवेश करते हुए सारे पूर्वग्रह बाहर रख छोड़ने चाहिएं.

कहानियां कलात्मक प्रकार से एक समांतर संसार रचती हैं. ऐसा रचाव जिसकी अधिकतर बातें इस संसार से मेल खाती हैं लेकिन जो बातें मेल नहीं खातीं, वही होती हैं कहानी की आत्मा, जिसकी खोज सबको होती है पर सब न उसे पहचान पाते हैं न स्वीकार. यथार्थ की अनुपस्थिति कहानियों की अयोग्यता मान, उन्हें स्वप्नाभासी कह दिया जाता है लेकिन असमर्थता हमारी है जो अपना इकहरा यथार्थ ही अंतिम मान लेते हैं और बस उसी को अनिवार्य और नैसर्गिक मान ऊपर से आरोपित करने की कोशिश करते हैं.

हम ग़लत शब्दों को सही समझ कर वर्षों तक ग़लत बोलते रहते हैं. किसी दिन सही शब्द से परिचय होता है और हम ग़लत को भूलने का प्रयत्न करते हुए सही शब्द का अभ्यास करने लगते हैं. हमारे दिमाग़ में खुबा हुआ इतने दिनों का सही, क्षण-भर में ग़लत में बदल जाता है. यथार्थ भी स्थिर इकाई नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति के लिए वह क्षण-क्षण बदलता है. क्या हम जानते हैं किसी और की दुनिया का यथार्थ क्या है? हम ख़ुद को वहीं तक क्यों सीमित रखें जो हमें दिखाई पड़ता है. अक्सर यह बहस सुनाई पड़ती है कि अमुक कहानी जीवन से निकली अथवा कल्पना से लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि कल्पना की धारा भी तो जीवन से ही फूटकर निकली. आप इस पर लेखक से नहीं झगड़ सकते क्योंकि कल्पना की जड़ें कहीं न कहीं ज़िंदगी से जा जुड़ती हैं. ज़िंदगी- अपनी जी हुई, किसी और की जी हुई अथवा जो हम जीना चाहते हैं. ऊपर-ऊपर से कल्पना मंडित लगती कहानियां भी भीतर-भीतर सच पुंजीभूत रखती हैं, किसी बंजर ज़मीन की गहराई में छिपे उपजाऊपन की भांति. न हमें सच की पछाड़ से भागना चाहिए न कहानियों को प्रेम देने से.

किताबी होने में हर्ज़ क्या है?

ख़ारिज तो कुछ लोगों को भी कर दिया जाता है, किताबी कहकर. मैं सोचती हूं किताबी होने में हर्ज़ क्या है. किताबी होना कब से असफल या दुनिया में अनुपयुक्त होने की निशानी होने लगी बल्कि किताबें तो इस चिंता से निर्भीक करती हैं. कहानियों से किसी आदर्श की स्थापना, सौंदर्य का यत्न और नैतिकता का आग्रह हमारे अवचेतन में सदा रहता है लेकिन आवश्यक नहीं कि कहानियां वैसी ही हों जैसी हम उम्मीद करते हैं. कहानियां लाठी नहीं हैं, जिसे टेकते हुए किसी सुंदर, निष्कलंक अंत तक पहुंचना है. कोई अंत तिलमिलाहट और कचोट भी छोड़ सकता है तो कोई कोमल टीस. और वही अपनी अर्थमयता में संपूर्ण होता है. कहानियां दर्पण हैं, जिसका स्वभाव ही तिमसालदारी है. उसमें ठीक वही प्रतिबिंबित होगा जो उसके सामने है.

कभी आपने ग़ौर किया है कि कहानियों में सुख की बातें कम होती हैं. वहां होती हैं उदास उलझनें, दुःखी बातें और उनसे उबरने के स्वप्न कहानियों के अंत में जो झिलमिलाता-सा सुख कभी-कभार चला आता है वह दुःख से छूटने की अर्ज़गुज़ारी के कारण या दुःख से लड़ते-झगड़ते आता है लेकिन दुःख भला छूटता है! वह बना रहता है एक तड़प की तरह. बारीक-सँकरी दरारों से भीतर आता हुआ और बड़ी जगहों पर क़ब्ज़ा जमाता हुआ. लेखक अपनी यातना शब्दों में तहा कर रख देता है, पाठक उस को जज़्ब कर लेता है. उन दुखों से टकरा कर पाठक की अपनी पीड़ाएँ-यातनाएँ भी स्खलित हो जाती हैं. गणित के किसी सिद्धांत पर शायद यह बात अधसमझी ठहरती हो पर ज़िंदगी का नियम तो यही है. कहानियां ज़िंदगी की उथल-पुथल का समाधान भले ही नहीं होतीं लेकिन वे ज़िंदगी के अंधेरों में दियासलाई जितनी रोशनी तो दे ही सकती हैं. एक भाव चैतन्य, एक नूतन कलात्मक दृष्टिकोण-सा कुछ.

हमारे मन के खोजी सैलानीपन पर कभी-कभी एक पूर्ण-विराम लग जाता है. हम इस रहस्य से दो-चार होते  हैं कि कहीं कुछ भी बदलने वाला नहीं. सब ऐसे ही चलता जाएगा, घिसटता-रगड़ता हुआ. सारी उम्मीदें एक झूठ हैं, सारी आशाएं अपने आवरण के पीछे असल में निराशाएं हैं. तब एक आत्यंतिक बेचैनी जकड़ लेती है जिसका निवारण शब्दों से ही संभव है. चाहे लिखकर अथवा पढ़कर. एक समय मैं सोचती थी कि लेखक तो अपनी परेशानियों से निजात पाने के लिए शब्दों की उधेड़-बुन किया करते हैं, यही उनका मशग़ला है और उसका बोझ पाठकों को उठाना पड़ता है. मगर धीरे-धीरे मैंने जाना यह तो सिंबियोटिक है- अन्योन्याश्रित एक संबंध.

साहित्यधर्मी संस्कार में लेखक और पाठक दोनों कुछ न कुछ पाते हैं

लेखक कुछ पाता है तो पाठक भी तो पाता है, साहित्यधर्मी संस्कार इसी को तो कहते हैं. याद करिए, जो कहानियां आपने पढ़ीं उनका आप पर कुछ असर हुआ? क्या कोई किरदार आपके भीतर उतरा या किसी किरदार में आप जा उतरे? किसी पात्र की भाषा ज़ुबान पर चढ़ी या किसी के भावों ने आंखों में आंखें डाल कर विचलन पैदा किया? किसी ने ठेल दिया होगा, किसी ने दुलराया होगा या किसी ने घेर लिया होगा. पढ़ते हुए, आंखों के रास्ते कोई रागात्मिका कभी तो बह निकली होगी. कभी तो किसी पात्र से अपनाइयत महसूस कर उस को कस कर गले लगाने का मन हो आया होगा. मैंने दोनों ही सूरतों में बहुत कुछ आत्मलीन किया है, वैचारिक स्तर पर भी और कर्म के स्तर पर भी. मैं उन सारे लेखकों की शुक्रगुज़ार हूं जिन्हें पढ़ कर मैं वह हुई जो वर्तमान में हूं और अपने सारे पाठकों की भी जो मेरे जीवन की वे छायाएं ओढ़ लेते हैं जिन्हें अकेले ओढ़ते मैं डरती हूं.

इस किताब में ग्यारह कहानियां हैं जो अलग-अलग समय में अलग-अलग पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. कहानियों का चयन और अनुक्रम कालक्रमिक नहीं है पर इनमें सबसे पुरानी और नवीनतम कहानी देखूं तो ये तकरीबन आठ वर्ष का समय लांघ जाएंगी. इस बीच बहुत घटित-व्यतीत हुआ. कहानियों के लिखने में लंबा अंतराल भी रहा पर इस अंतराल में भी उस ठंड ने नहीं पकड़ा जो आतिशदान के आगे से हट जाने के तुरंत बाद पकड़ती है, एकालाप की ऊष्मा साथ थी. दीर्घ अंतराल में जीवन के उत्तरदायित्त्वों ने (हालांकि उनकी अपनी रम्यता थी) लिखने का अवकाश तो बहुत नहीं दिया पर एकालाप कहां शांत रहने वाला था. उमड़ते-घुमड़ते अनगढ़ बिंब निरंतर गढ़न के लिए कोंचते थे. कभी-कभी विचारों की केंचुल से निकल पन्नों पर सरसराते शब्दों को देखने का आनंद अपूर्वानुमेय होता था, बाहरी अनुभवों और मन के प्रतिप्रश्नों में एक संगति तलाशने का प्रयास जैसा लगता था. उसी प्रयास का हासिल है ये कहानियां.