ऐसा बहुत कम होता है कि कोई फ़िल्म आपके जेहन में कहीं अटक-सी जाए. गुलज़ार की नज़्म से लबरेज़, निर्देशक राज राचकोंडा की फ़िल्म ‘8 एएम मेट्रो‘ज़िंदगी के फ़लसफ़े को बड़े पर्दे पर उतारती है. यह रोजमर्रा जीवन की कथा को लेकर आगे बढ़ती है, और मानवीय संवेदना के साथ गहन मनोवैज्ञानिक पड़ताल भी करती है. अगर आप गुलज़ार के शब्दों से प्रेम करते हैं, तो यह फ़िल्म आपके लिए है.
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कहानी के आगाज़ से ऐसा प्रतीत होता कि सब कुछ पहले से मालूम है पर अपेक्षा से कुछ अलग घटित होता है और आश्चर्यचकित कर देता है. आदमी की आदमियत को सैयामी खेर और गुलशन देवैया ने क्या खूब रचा है. इस सिनेमा में देखने से ज्यादा महसूस करने का अहसास है. गुलज़ार की कविता परत दर परत इसे खोलते चली जाती है. कहानी को कब दर्शक स्वयं जीना शुरू कर देता है, पता भी नहीं चलता. 8 एएम मेट्रो एक ऐसी ट्रेन का सफर जो अपने गंतव्य की या सफर की दास्तान नहीं बल्कि ‘साथ’ की बात करती है. ‘सफर जरूरी है या मंज़िल- साथ’ पूरा सिनेमा एक काव्य के रूप में बस संकेत देता चला जाता है. गुलज़ार साहब की नज़्म सब कुछ बयां कर जाती है :
‘कभी-कभी दो लोग, रात में गुज़रने वाले जहाज़ों की तरह होते हैं जो संयोग से एक-दो बार मिलते हैं और फिर ज़िंदगी में फिर कभी नहीं मिलते…’
इसमें समानांतर चलने वाली दो ज़िंदगियों की कहानियां है, जो एक प्लेटफार्म से शुरू होती है. जहां दोनों इस सफर में अपनी-अपनी परेशानियों को साझा करते हैं. ये प्लेटफार्म दरअसल एक रूपक है. इसमें लड़की (सैयामी खेर) की ज़िंदगी में बचपन के एक सदमे का असर है, वह उससे उभर नहीं पाई है. जिसे वह लड़का (गुलशन देवैया) बहुत जल्द भांप लेता है. एंग्जायटी से जुड़ी परेशानी की ज़्यादा समझ न होने के बाद भी वह एंग्जायटी पर जाकर चिंतन मनन करता है. उसके मूल कारण और खास लक्षण को जानने का प्रयास करता है. वह समाज द्वारा दी जाने वाली नसीहतों की गिरफ़्त से दूर है, बनी बनाई धारणा को नहीं स्वीकारता बल्कि घबराहट से कैसे निजात पा सकते हैं, उसके उपाय पर फोकस करता है. गुलज़ार के शब्दों ने एंग्जायटी और उसके कारण होने वाले पैनिक अटैक को क्या बेहतरीन शब्दों में गढ़ा है – वो कोई खौफ़ था या नाग था काला/मुझे टखनों से आ पकड़ा था जिसने/मैं जब पहली दफा तुमसे मिली थी.
रिश्तों को कई दफा नाम देना आसान नहीं होता पर कुछ छोटी मुलाकातें भी बहुत कुछ बदलने में कारगर होती हैं. इस दुनिया में शायद सुनने वालों की कमी बड़ी तेज़ी से हो रही है, सभी के पास कॉन्टैक्ट लिस्ट तो भरी पड़ी है पर वास्तव में सुनने, समझने वाला कोई नहीं.
फ़कत तुम थे
कुछ ऐसे रिश्ते भी होते हैं
जिनकी न उम्र होती है
न नाम होता है
वो जीने के लिए कुछ लम्हें होते हैं’
8 एएम मेट्रो की पटकथा समाज की नजरों से ओझिल हो गए प्रश्न को नया आयाम देती है. कभी इनके संवाद वसंत के आगमन की हल्की धूप का एहसास कराते हैं, वहीं कभी ये ज़िंदगी का प्रतिबिंब बनकर आगे का मार्ग प्रशस्त करते हैं. यहाँ ऐसे मध्य वर्ग के जीवन की गाथा को पर्दे पर उतारा गया है, जिसमे स्त्री-पुरुष या जेंडर के प्रश्न से ऊपर उठकर इंसानियत को तरजीह दी गई है. कहानी साधारण-सी दिखती है और बहुत धीमी आंच में पकती है. यह ठहराव, धीमापन ही इसकी ख़ासियत है. ज़िंदगी की भाग-दौड़ से बिलकुल अलग रुककर ठहरकर देखने वाली पटकथा. जहां गुलज़ार के शब्द परत-दर-परत कहानी को बयां करते चलते हैं. इस पूरी कहानी में एक बारीक-सी लकीर है, जहां यह दर्शक स्वयं तय करता है कि क्या हर रिश्ते को एक ही सामाजिक लेंस से देखना चाहिए? क्या सैयामी और देवैया का लगाव प्रेम है या मानवीय संवेदना की पहल? क्यों इतने संकुचित दायरों से समाज निकल नहीं पाता? व्यक्ति बहुत जल्दी किसी के प्रति धारणा क्यों बना लेता है? इसी धारणा बनाने और आंकने की प्रकिया में कई दफ़ा बहुत कुछ खो जाता है. इस कहानी में इतनी सारी परतें हैं कि इसकी पटकथा किसी अलसायी एकांत दोपहर-सी एकाग्रता की मांग करती है. कहानी में एक खास किस्म की गर्माहट है, जो बांधे रखती है. इसे देखते हुए ऐसा महसूस होता है कि ये कुछ खास वर्ग के (.0-20 प्रतिशत) लोगों को ध्यान में रख कर लिखी गई है, जिन्हें ठहराव पसंद है. जिन्हें इंस्टेंट की आदत नहीं पर पूरी तन्मयता से चाय-काफ़ी की एक-एक घूंट को हलक में उतारना ही वास्तविक सुकून देता है.
गुलज़ार की नज़्म और अक्स की तलाश:
गुलज़ार की नज़्म को जीने वाली लड़की सैयामी अपने अक्स को ढूंढ रही है. सतही तौर पर देखने में लगता है कि उसके जीवन में कहां कुछ कमी है. वह एक मध्यवर्गीय वैवाहिक स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है. उसे कविता पढ़ने-लिखने का शौक है. रोज़मर्रा के जीवन में भी समय निकाल कर वह ज़रूर लिखती है पर उसके लेखन को एक दिशा की दरकार है. किसी के भरोसे की तवज्जो है. उसे लिखने की तबियत अपने बाबा से मिली है.
नज्में मेरी उजाले देखें सुबह के
मगर ये जिंदगी की शाम में
ये जानकर जो नज्में मेरी रगों जान में बहती थीं
तुम्हारी उंगलियों पर अब उतरने लग गई हैं
तसल्ली हो गई है
मैं जाते जाते क्या देता तुम्हें सिवा अल्फाज़ के
मगर इतनी सी ख्वाहिश है कि मेरे बाद भी पिरोते रहना तुम अल्फाज़ की लड़ियां
तुम्हारी अपनी नज्मों में’
सैयामी को अपने परिवार से बाहर किसी अनजान व्यक्ति से आत्मीयता बढ़ने पर एक अजीब-सा डर सताता है. यह उसकी मेंटल कंडीशनिंग को दिखाता है, उसकी दुनिया इतनी सीमित है कि किसी बाहरी के साथ हंसना- बोलना या पसंदीदा विषयों पर बात कर लेना भी ग्लानि से भर देता है. ये स्त्री होने का दायरा जन्म से तो नहीं आता, पर आख़िर किस तरह अंदर तक धस जाता है. इसीलिए सिमोन द बोउआर ने कहा था– ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है’. जिस मेंटल कंडीशनिंग के तहत सैयामी अब तक एक खास किस्म की ग्रंथि की शिकार थी, उसे उसकी यात्रा ने बदल दिया. अपनी जिंदगी की किताब वह अब खुद लिखेगी. दरअसल काफ्का की अंतिम चिट्ठी – सैयामी की ही दास्तान है. इस सही गलत के दरमियान वह खुद को ढूंढ लेती है. नैतिकता के प्रश्नों से टकराते-टकराते अपने मन की सुनती है और स्वयं से गुफ्तगू करती है –
‘ऐ फिक्र, क्यों मेरी तू फिकर करे …….
सुन डर पीछे -पीछे क्यों चले?
छोड़के कल की गली मैं नए रास्ते चली, ढूंढने दुनिया नई, आहटें हैं नई —’
कहानी के अंत में वह एक सशक्त स्त्री है जिसे कोई भय नहीं, जिसने अपने ‘स्व’ को ढूंढ लिया है और इस ढूंढने की प्रक्रिया में लर्न (learn), अनलर्न (unlearn) और रीलर्न (relearn) के सिद्धांत से गुज़रती है. सैयामी कहती है: ‘जिंदगी में पहली बार ऐसा लग रहा है कि कोई मेरे शब्दों को समझ रहा हो. अब मुझे कोई शामिंदगी या डर नहीं है, पिछले दो हफ्तों में कोई पैनिक अटैक नहीं आया लेकिन अगर आ भी गया तो डॉक्टर के पास जाने से डर नहीं रही हूं’.
आखिर ज़िंदगी में हमनवा मिलना इतना मुश्किल क्यों हैं ?
सैयामी को खुद इस बात का अहसास नहीं कि उसके जीवन में क्या कमी है. घर और बाहर के बीच उसे स्वयं की तलाश है और इसमें उसकी मदद करता है देवैया- एक ऐसा साथी, सहयात्री जो उसे ख़ुद पर आत्मविश्वास दिलाता है. देश-दुनिया की बातों से उसके सीमित ज्ञान का परिमार्जन करता है. अमूमन घर, परिवार में बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के क्रम में कई बार एक अजीब-सी दूरी या यूं कहें छोटी- छोटी ख्वाहिशें बहुत पीछे छूट जाती हैं. शायद ही इससे पहले सैयामी की बातों को किसी ने इतने गौर से सुना हो और हौसलाआफ़ज़ाई की हो. बातों-बातों में वह फिल्टर काफी का जिक्र बहुत तन्मयता से करती है और ऐसा महसूस होता है, जैसे कोई काव्य बुन रहा हो. वह कहती है: ‘अच्छी फिल्टर कॉफ़ी बनाना एक कला है – पूरा प्रोसेस न एक मेडिटेशन की तरह है’.
सैयामी का फिल्टर कॉफ़ी का ज़िक्र उसके किरदार को खोलता है कि उसे चीज़ें कितनी शिद्दत से महसूस करके करना पसंद है. उसे अपने जीवन में एक हमनवा की दरकार है. जो बिना आंके उसे सुने. दहैया इसलिए उसे इतना भाता है क्योंकि वह उसे काफ्का की दुनिया में ले जाता है. काफ्का और छोटी बच्ची के बीच के पत्रों की दास्तान सुनाता है. वह उसे आदिवासी समाज तो कभी डच कवियों की दुनिया में घुमा लाता है. उसे घर-गृहस्थी से अलग उस साहित्यिक दुनिया में ले जाता है, जहां जानने-समझने, बोलने-बतियाने के लिए बहुत कुछ है और कोई किसी के प्रति कोई राय नहीं बनाता या धारणा नहीं गढ़ता. इन्हीं संदर्भों में वैवाहिक जीवन की उधेड़बुन और घर चलाने की जद्दोज़हद को क्या खूब रचा है, निर्देशक राज रचकोंडा ने. एकरसता अक्सर जीवन को उबाऊ बना देती है और कॉरपोरेट कल्चर की भाग दौड़ में चाहकर भी व्यक्ति घर-परिवार को समय नहीं दे पाता. फिर भी सैयामी को कोई शिकायत नहीं ख़ुद से या अपनी ज़िंदगी से. उसने तो जिंदगी का कभी वो रूप देखा ही नहीं जहां उसकी रुचि-अरुचि का किसी ने ख्याल रखा हो. कविता लिखना उसका शौक रहा है,पर किसी ने उसके लेखन पर कभी भरोसा ही नहीं किया. भरोसे की दरकार न केवल रिश्तों में बल्कि कामकाज में भी होती है. देवैया सैयामी से पूछता है कि क्या उसने कभी किसी को अपनी कविता सुनाई है और अगर सुनाई है तो उनकी क्या प्रतिक्रिया रही?
‘क्या ठीक से सुना उन्होंने क्योंकि दिल की गहराइयों से जब शब्द निकलते हैं तो उसे समझने में वक्त लगता है. आपकी शैली इमोशनल रॉ और पियुर है.’
दरअसल देवैया और सैयामी दोनों ही अलग अलग ट्रॉमा के शिकार हैं. दो समानांतर कहानी कैसे एक दूसरे की ज़िंदगी को रोशन करते हुए आगे बढ़ती है, यह देखने वाली बात होगी. देवैया सैयामी के मानसिक डर से परिचित है, पर वह उसकी मदद इस तरह से करता है कि उसे दया और सहानुभूति का इल्म न हो. ये भाव कई बार व्यक्ति में आत्मविश्वास जगाने की जगह हीन भावना भर देते हैं. देवैया की यह मनोवैज्ञानिक पहल ही उसे हमनवा बनाती है. वह मंडला थरैपी का जिक्र इतनी सजहता से करता है कि असहज भी न लगे और सैयामी की झिझक दूर हो सके. दोनों ही बातों के क्रम में अपने वैवाहिक जीवन का ज़िक्र बार-बार लाते हैं. जो स्पष्ट इंगित करता है की वें रिश्तों में मिलावट नहीं करना चाहते. ये कहानी दरअसल स्त्री पुरुष इकाई की नहीं बल्कि इंसानियत की है. देवैया एक लाइफ कोच की भूमिका में आता है, जहां वह सैयामी को उसकी मनोग्रंथियों से अगर आज़ाद नहीं करता तो कम से कम उसकी रहनुमाई करना ज़रूर सिखा जाता है.
वो मेरे खौफ सारे जिनके लंबे नाखून
गले में चुभने लगे थे
तुम्हीं ने कांट फेंके सारे फन उनके
मैं खुल के सांस लेने लग गई थी
न मांजी देखा न मुस्तकबिल की सोची
वो दो हफ्ते तुम्हारे साथ जीकर
अलग एक ज़िंदगी जी ली
कई प्रश्न हैं सैयामी के मन में, वह स्वयं से एकालाप करती है- क्या एक आदमी और एक औरत के बीच ऐसा रिश्ता मुमकिन है जहां आप एक दूसरे को बिना आँके कुछ भी और सब कुछ बता सके? जहां कोई राज़, झूठ, फरेब नहीं बस एक दूसरे को सुनना समझना ही काफी हो.
‘जो सोन मछली का बदन लेकर, डूबी रहती इस झील की तह में
तुम चांद की तरह आते इस झील के पानी पर और रोशनी कर देते अंधेरे मेरे घर में,
तुम तैरते और कहते इस झील की तन्हाई में और काश कोई होता जो प्यार तुम्हें करता
और मैं आती किनारे तक और दोस्ती कर लेती
सोन मछली तुम्हारी तन्हाई को भर देती
और तुमको सुकून मिलता
और तुम सोचते काश इस झील में सोन मछली रहा करती. ‘
मानसिक अवसाद या घुटन:
कितने साधारण से दिखने वाले ये सवाल कितने तीक्ष्ण है? आजकल मेंटल हेल्थ को लेकर इतनी चर्चा हो रही है पर क्या वास्तविकता में ये हमें जागरूक करने में कारगर हैं? क्यों आज का पढ़ा-लिखा शिक्षित वर्ग भी इस मुद्दे पर तंज कसता नज़र आता है? क्यों इसकी गंभीरता को नज़रंदाज़ किया जाता है. सैयामी और देवैया के बीच का प्रहसन संवाद इसकी गंभीरता से रूबरू करवाता है:
‘समाज -तुम्हारा प्रोब्लम क्या है इरा?
इरा -कभी कभी ट्रेन के क्रैश होने का या बस का पुल के नीचे गिर जाने का डर सताता है या फिर कभी कभी बिना कोई वजह ही पैनिक अटैक सा आ जाता है.
समाज – इरा ए ये तुम्हारा भ्रम है इरा. सबलोग तो ट्रैवल करते हैं तुम्हें ही क्यों इश्यू हो रहा है? सिंपैथी के लिए नाटक कर रही हो इरा. स्ट्रॉन्ग बनो , विल पावर लाओ’.
सभी को एक ही दौड़ में क्यों भागना पड़ रहा है, ये पैमाने इतने खोखले क्यों है? क्यों समाज को दर्द, वेदना, पीड़ा एक तरह का बहाना-सा लगता है. समाज क्यों ऐसा माहौल रचता है, जहां अपनी व्यथा कहने का स्पेस नहीं मिलता. कितनी अजीब बात है, कई दफ़ा सब कुछ देख कर भी दरकिनार करना किसका प्रमाण है, हमारे शिक्षित होने का या अबोध होने का?
वेदना के अलग-अलग पड़ाव :
ज़िंदगी के प्लेटफार्म पर एक-सी गाड़ी हमेशा नहीं होती, एक ही ट्रेन में अलग-अलग कहानियों व ईंधन के साथ हम सभी प्रवेश करते हैं. यहां विचारणीय है कि गाड़ी और प्लेटफार्म एक ही होते हैं पर हम सभी के जीवन का ईंधन अलग होता है. ईंधन अर्थात वह व्यक्ति, वो विशेष कारण जिनसे हमें ऊर्जा मिलती है. लेकिन अचानक से एक दिन उस कारण के समाप्त हो जाने के बाद जो वैक्यूम पनपता है, उस वैक्यूम को पर्दे पर क्या खूब रचा है निर्देशक रचकोंडा ने. उन्होंने उस रूदन, अकेलेपन, वो अंदर की छटपटाहट, साए के जैसी चौबीस घंटे चिपके रहने वाली टीस को गढ़ा है, जहां दूर-दूर तक रोशनी का कोई सिरा नहीं. किसी को खोने की पीड़ा को भी अलग-अलग पड़ाव में अंकित किया है.
सबसे पहला पड़ाव, जहां यह स्वीकार करना मुश्किल है कि मृत्यु जैसी कोई परिघटना घटित हुई है. मृत्यु को झुठला कर व्यक्ति ने अपनी एक काल्पनिक दुनिया बना रखी होती है और उसमें ही जी रहा होता है. यहां यह स्वीकार करने की स्थिति ही नहीं कि उसके जीवन से वह व्यक्ति जा चुका है. इस आभास को नकारना ही प्रथम चरण है. इसमें दूसरे चरण की लकीर बहुत गहरी खिंची है, जहां सब कुछ जानते-समझते हुए भी इंसान कितना कमज़ोर पड़ जाता है. वह कैसे बढ़े आगे? उन स्मृतियों का क्या, उन ख्वाहिशों का क्या, उन रास्तों का क्या- जहां साथ-साथ सफर किया. उन अधूरी ख्वाहिशों का बोझ व्यक्ति ताउम्र अपने साथ एक ग्लानि में ढोता है, जिन्हें समय रहते कभी तव्वजो नहीं दी. बार-बार उसी मन:स्थिति में ख़ुद को हमेशा के लिए उसमें डुबो देना. तीसरे चरण में धीरे-धीरे यह डिप्रेशन का रूप ले लेती है और अंततः चौथे चरण में व्यक्ति की जीने की चाह समाप्त हो जाती है. क्योंकि कई बार किसी से इतना लगाव होता है कि उनके लगाव के कारण जो ख़ालीपन ज़िंदगी में आता है, उससे हम निकल नहीं पाते. जिंदगी में आगे का रास्ता, ऐसा प्रतीत होता है मानो वह कहीं नहीं पहुंचता. दर्द हमारे अंदर इस कदर पहुंच जाता है कि सिर्फ सांसे ही नहीं बल्कि एक टीस भी समानांतर चल रही होती है. टीस अपनों के बिछड़ने की, यातना की. यह फ़िल्म एक वाजिब प्रश्न खड़ा करती है कि- ज़िंदगी जीने पर सभी ज़ोर देते हैं पर अपनों के जाने के बाद कैसे जीना है, क्यों ये हुनर कोई नहीं सिखाता?
देवैया के जीवन में सैयामी की लेखनी एक उम्मीद है. उसकी सकारात्मक सोच उसकी ज़िंदगी के दर्द को नहीं कम कर पाई, पर सैयामी की ज़िंदगी को रोशन कर गई. कई बार हमारे अंदर सब कुछ मौजूद होता है पर किसी एक के वैलीडेशन की दरकार होती है. सैयामी की ज़िंदगी की वैलीडेशन देवैया है. वह यह समझती है जो काफ्का ने कहा था: ‘Everything you love, you will lose one day. But in the end, love will come back in a different form’
कभी-कभी कुछ फ़िल्मों को समझने में देर हो जाती या यूं कहें- उन्हें समझने के लिए जिस संवेदना की दरकार होती है, वह ज़रा देर से विकसित होती है. 8 एम मेट्रो स्त्री-पुरुष समीकरण की अभिव्यक्ति है. एक सामान्य से मेट्रो के सफर से कहानी की शुरुआत होती है पर इसका अंत ज़िंदगी के सफर की दास्तान है. कहानी बहुत खूबसूरती से पूर्वाग्रह से बचने की ओर भी इशारा करती है. कभी भी किताब के कुछ पन्ने पसंद न आने पर पूरी किताब को ही खारिज़ कर देना कहाँ तक सही है? ग़ौरतलब है कि अमूमन अपनी ज़िंदगी में भी व्यक्ति एक छोटी-सी ग़लतफ़हमी या पूर्वाग्रह के कारण कितनी जल्दी अपनी राय बना लेता है. सिर्फ इतना ही नहीं अपनी कमियों को छुपाने के लिए व्यक्ति हमेशा एक आवरण की तह में होता है. हमारे कई चहरे हैं, एक अपनों के लिए, एक दुनिया के लिए और एक ख़ुद के लिए. सोशल मीडिया आने के बाद तो ये समस्या और बढ़ी है. असली चेहरे को हमेशा दुनिया से छुपाते हैं- छुपाते हैं ताकि लोग हमें आंकें नहीं, हमारी कमियाँ हमारे खिलाफ़ इस्तेमाल न करें. कैसे धोखाधड़ी, जलन, द्वेष, ईर्ष्या, नकलीपन एक सभ्य समाज की निशानियां हो सकती हैं? ख़ुद के अंदर इतनी सारी कमियां होने के बावजूद दूसरों को आंकना या उनके प्रति राय बनाना कितना उचित है? यह खोखली मानसिकता का रूपक है.
8 एएम मेट्रो के संवाद काव्य के रूप में आगे बढ़ते हैं. कहानी को सतही तौर पर देखने में ऐसा मालूम होता है कि एक साधारण सी कथा के इरगिर्द कहानी घूमेगी पर यही साधारण को जीना इसमें असाधारण है.
तन्हाई में भी तुम अकेले तो नहीं हो,
मुड़ के देखो साथ साथ एक नज़्म चलती है,
हाथ बढ़ाओ, हाथ पकड़ लो,
घबराहट हो या खौफ की आहट हो तो,
नज़्म की उंगली थाम के चलते रहना तुम,
पूरा चांद निकल आए जब
रुक के चांद पे लिख देना तुम
(डॉ. शांभवी स्वतंत्र लेखक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी की है और फिलहाल अमेरिका के वॉशिंग्टन डी.सी में हिंदी से जुड़ी गतिविधियों में सक्रिय रहती हैं.)