लखनऊ जाकर ‘दरियादिल’ कहलाए नवाब आसफउद्दौला फैजाबाद में अभी तक ‘तंगदिल’ क्यों बने हुए हैं?

अवध के नवाब आसफउद्दौला की छवियों में दो ध्रुवों का कहें या आकाश पाताल का अंतर है. लखनऊ में वे नायक हैं, जबकि फैजाबाद में खलनायक. लखनऊ ने जहां उनके वक्त में उनके प्रति खासे कृतज्ञ होकर उनकी प्रजावत्सलता, दरियादिली व दानवीरता का भरपूर बखान किया, वहीं फैजाबाद उन्हें माल व जर की हवस में अपनी हरदिलअजीज मां (बहू बेगम) का खजाना लूटने के लिए अंग्रेजों से मिलकर दल-बल से उन पर चढ़ाई कर देने व उनके दूध को लजाने वाला कपूत तक करार देता आया है.

नवाब आसफउद्दौला. (1775-1797) (फोटो साभार: Google Arts)

विविधताओं से भरे इस देश ने अपने लंबे इतिहास में प्रजा का अपनी संतानों जैसा खयाल रखने के लिए मशहूर शासक देखे हैं तो ऐसे क्रूर शासक भी, जिनके अत्याचारों की कोई इंतिहा नहीं रही. क्रूर शासकों के कारण ही देश के प्राचीन साहित्य में ऐसी अनेक कथाएं हैं, जिनमें उनसे ‘त्राहिमाम’ करती पृथ्वी भगवान के पास जाती और प्रार्थना करती है कि वे जैसे भी बने, उसे उस भार से मुक्ति दिला दें, जो उनके पापों व अत्याचारों के चलते उस पर आ लदा है. इतना ही नहीं, इन कथाओं में भगवानों के ज्यादातर अवतार पृथ्वी को शासकों/राजाओं के अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए ही हुए बताये गए हैं.

लेकिन अवध के नवाब आसफउद्दौला इन सबसे अलग इकलौते ऐसे शासक हुए हैं, फैजाबाद व लखनऊ स्थित अवध की दोनों राजधानियों में जिनकी छवियां एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं. इतनी कि कई बार उन पर यकीन ही नहीं होता.

गौरतलब है कि इन दोनों राजधानियों के बीच डेढ़ सौ किलोमीटर की भी दूरी नहीं है, लेकिन इनमें प्रचलित आसफुद्दौला की छवियों में दो ध्रुवों का कहें या आकाश पाताल का अंतर है. साफ शब्दों में कहें तो लखनऊ में वे नायक हैं, जबकि फैजाबाद में खलनायक. लखनऊ ने जहां उनके वक्त में उनके प्रति खासे कृतज्ञ होकर ‘जिसको न दे मौला, उसको दे आसफउद्दौला’ जैसी कहावत से उनकी प्रजावत्सलता, दरियादिली व दानवीरता का भरपूर बखान किया, वहीं फैजाबाद उन्हें, और तो और, माल व जर की हवस में अपनी हरदिलअजीज मां (बहू बेगम) का खजाना लूटने के लिए अंग्रेजों से मिलकर दल-बल से उन पर चढ़ाई कर देने व उनके दूध को लजाने वाला कपूत तक करार देता आया है.

वैसे, यह भी कुछ कम खेदजनक या आश्चर्यजनक नहीं है कि आसफउद्दौला, ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक, अपनी इन दोनों ही छवियों से ‘न्याय’ करते दिखते हैं. अलबत्ता, परिस्थितियों के हेर-फेर से.

इतिहास बताता है कि 26 जनवरी, 1775 को अपने ‘पिदर-ए-मोहतरम’ शुजाउद्दौला के निधन के बाद सूबा-ए-अवध की नवाबी हाथ आते ही आसफउद्दौला शुजा के फैजाबाद से ‘बेवजह’ और ‘जरूरत से ज्यादा’ लगाव के विरुद्ध हो गए थे. कारण यह कि एक ओर उनकी अपनी मां से एकदम से पटरी नहीं खाती थी, जबकि दूसरी और वे अपने ‘फैजाबादी और फसादी’ वजीरों की रोज-रोज की सिरफुटव्वल से आजिज आ जाते थे.

क्या आश्चर्य कि एक दिन उन्होंने अपनी आजिजी के सारे ठीकरे फैजाबादवासियों के सिर पर फोड़ते हुए सूबे की राजधानी लखनऊ स्थानांतरित करने की घोषणा कर दी. इस स्थानांतरण के बाद फैजाबाद का सारा वैभव जाता रहा. क्योंकि अनेक महानुभावों को सत्ता के चाक्चिक्य के बिना फैजाबाद में रहना इतना खराब लगने लगा कि वे नई राजधानी में जा बसने की आपाधापी में फैजाबाद की अपनी आलीशान हवेलियों में लगे झाड़ फानूस ही नहीं, बेशकीमती दरवाजे तक उखाड़ ले गए. दूसरी ओर जो लोग फैजाबाद में रह गए, उनका तकिया कलाम सा हो गया कि बाप (शुजाउद्दौला) के बसाये इस शहर को उसके बेटे (आसफउद्दौला) ने ही उजाड़ डाला.

बहू बेगम ने अपने इस बेटे के साथ लखनऊ जाने से साफ इंकार कर दिया और अपने बड़े खजाने के साथ फैजाबाद में ही बनी रहने का फैसला किया तो उससे यह भी बर्दाश्त नहीं हुआ. नवाब के तौर पर वह उन पर समानांतर सत्ता केंद्र चलाने की तोहमत लगाता और बारंबार धन की मांगकर उन्हें दिक्कत करता रहा.
लेकिन जैसे इतना ही काफी न हो, 28 जनवरी, 1782 को तो आसफउद्दौला ने हद ही कर दी. अंग्रेज गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स से मिलीभगत करके बहू बेगम के आलीशान मोती महल की सैन्य घेराबंदी करा दी तो मजबूर होकर उनको अपना ज्यादातर खजाना उनके हवाले कर देना पड़ा. एक बेटे द्वारा दुश्मन से मिलकर अपनी मां को लुटवा देने की इतिहास की उस विरलतम घटना को फैजाबाद में आज भी आसफउद्दौला पर कलंक लगाने वाली कथा के रूप में याद किया जाता है.

प्रसंगवश, इस गर्हित कर्म में भागीदारी को लेकर बाद में वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध ब्रिटिश पार्लियामेंट में महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया था, जबकि आसफउद्दौला लखनऊ में अपनी तमाम दरियादिली के बावजूद फैजाबाद की निगाह में उसको नीचा दिखाने वाले खलनायक और गिद्ध की तरह अपनी मां के खजाने पर झपटने वाले लालची बेटे ही बने रहे थे. फैजाबाद के लोग आज भी फैजाबाद का नाम तक मिटा डालने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जैसों के साथ ही उनका नाम लेते हैं.

दूसरी ओर लखनऊ में आसफउद्दौला की प्रजा वत्सलता तब परवान चढ़ी, जब 1784 में सूबे में भयंकर अकाल पड़ा और उन्होंने राहत कार्यों के लिए दरियादिली से अपना खजाना खोल दिया.

अकाल के वक्त

तब अकाल पीड़ितों को रोजी-रोटी देने के लिए उन्होंने लखनऊ में गोमती के तट पर वह बड़ा इमामबाड़ा और भूलभुलैया बनवाई, जो अब जर्जर हो जाने के बाद भी आकर्षण के केंद्र बने हुए हैं. जानकारों के अनुसार, इनका निर्माण 1791 में पूरा हुआ और कहते हैं कि इस दौरान दिन-रात काम होता रहा, ताकि अकाल के बावजूद ‘भूख से ज्यादा इज्जत के मारे’ लोग (जो दिन में मजदूरी करने नहीं आ सकते थे) रात में मेहनत मजदूरी करके अपने पेट की आग बुझा सकें.
इससे पहले कुछ वजीरों का सूबे के भूखे-नंगों को खैरातें बाँट देने का सुझाव आसफउद्दौला ने यह कहकर नामंजूर कर दिया था कि इससे लोगों को हराम की खाने की आदत पड़ जाएगी!

बहरहाल, इस इमामबाड़े का मुख्य भवन 50 मीटर लंबा, 16 मीटर चौड़ा और 15 मीटर ऊंचा है, जिसके बीचोबीच आसफउद्दौला का मकबरा स्थित है! भूल-भुलैया इमामबाड़े के ऊपरी हिस्से में 330 फीट लंबाई में फैला उसका ऐसा ‘अभिन्न अंग’ है, जिसमें एक जैसे दिखने वाले अनेक दरवाजे और रास्ते हैं.

अरसे तक अवध के नवाब इसी इमामबाड़े में अपना दरबार लगाते थे. तब उसका छोटा हाल दीवान-ए-खास कहलाता था, जबकि बड़ा दीवान-ए-आम! दीवान-ए-खास में नवाब अपने खासमखासों से सलाह-मशवरा करते थे, जबकि दीवान-ए-आम में आम लोगों की फरियादें सुनते थे! दीवान-ए-खास के ऊपरी भाग में उनकी बेगमों के ‘सिंहासन’ भी थे! दीवान-ए-आम में जहां कभी नवाब का सिंहासन हुआ करता था, उस चबूतरे को अब ढक दिया गया है!

इमामबाड़े की दीवारों और छत की बनावट ऐसी है कि कोई आदमी उसके किसी कोने में खड़ा होकर धीमे से भी कुछ कहे तो वह दूसरे कोने में खड़े आदमी को बिलकुल साफ सुनाई देती है. कई लोग कहते हैं कि ‘दीवारों के भी कान होते हैं’ वाली कहावत सच्चे अर्थ में इस यहीं चरितार्थ होती है.

भूल-भुलैया के अंदर जाते ही सीधी, खड़ी और खासी ऊंची सीढ़ियों से सामना होता है. ये सीढ़ियां ऊपर जाकर एक छत पर खुलती हैं, जिसके बगल में ही बहुत से एक जैसे झरोखों और दरवाजों वाला गलियारा है! वहां से कुछ झरोखों से निकलकर एक ‘गुप्त’ दरवाजे से इमामबाड़े के ऊपरी हिस्से में पहुंचा जा सकता है, लेकिन बिना गाइड के नहीं.

चर्चा छिड़ जाए तो कई बजट विशेषज्ञ अकाल के वक्त आसफउद्दौला के इन इमारतों का निर्माण शुरू कराने को आम लोगों को रोजगार देने की उस वक्त की मनरेगा के रूप में देखते हैं. यह भी कहते हैं कि आज की सरकारें उनसे सीख सकती हैं कि संकट की घड़ियों में आम-आदमी के हाथ में नकदी कैसे दी जाये.
लेकिन कई जानकार यह भी बताते हैं कि आसफउद्दौला की इस दरियादिली के साथ एक बड़ी मुश्किल जुड़ी हुई थी, जो कई बार शाहखर्ची से आगे बढकर सनकभरी फिजूलखर्ची अथवा बेवकूफी में बदल जाती थी.

‘खाने दो मेरे नाम पर!’

बताते हैं कि एक दिन आसफउद्दौला लखनऊ में चौक स्थित ऐतिहासिक बारादरी में अपने पसंदीदा पतंगबाजों के करतब देख रहे थे तो उनके एक मुंहलगे मुसाहिब ने करीब आकर उनके कान में कहा, ‘आलीजाह, आपको खबर है कि कुछ मक्कारों ने आपकी नकली शाही मुहर बनवा ली है और उसका इस्तेमाल करके खूब रकमें खा रहे हैं?’

आसफउद्दौला कतई नावाकिफ थे, लेकिन उन्होंने इस बात को मुसाहिब पर कतई जाहिर नहीं होने दिया. पूछा, ‘मक्कारों की बनवाई नकली शाही मोहर में नवाब के तौर पर किसका नाम है?’ मुसाहिब ने अचकचाकर कहा, ‘आपका ही हुजूूर. यकीनन, आपका ही.’ सुनकर आसफउद्दौला मुसकराकर बोले, ‘तब दिक्कत क्या है दोस्त, खाने दो उन्हें रकमें. मेरे नाम पर ही तो खा रहे हैं. क्या फर्क पड़ता है जो उन्होंने इसके लिए मेरी इजाजत ले रखी है या नहीं?’ बेचारा मुसाहिब अपना-सा मुंह लेकर रह गया.

अपनी 22 साल की हुकूमत के दौरान उन्होंने लखनऊ में 32 बाग लगवाए. इनमें एक का नाम मूसाबाग है. अंग्रेज इतिहासकारों की मानें तो दरअस्ल, उसका नाम मोसियोबाग रखा गया था-उसका नक्शा बनाने वाले मोसियो मार्टिन के नाम पर. बाद में मोसियोबाग बिगड़कर मूसाबाग हो गया. लेकिन लखनऊ वाले इसका एक अलग ही किस्सा बताते हैं.

यह कि आसफउद्दौला को शीशमहल से गोमती तट तक हवाखोरी की आदत थी. वे सिकंदर नाम के घोड़े पर सवार होकर वहां आया-जाया करते थे. एक दिन जैसे ही गऊ घाट से थोड़ा आगे पहुंचे, एक बड़ा-सा चूहा अचानक उनके घोड़े की टापों के नीचे आया और कुचलकर मर गया. उनको रंज होने लगा तो मुसाहिबों में से एक ने कहा, ‘रंज न करें गरीबपरवर! दरअस्ल, यह चूहा बहुत खुशनसीब था. इसीलिए उसे सिकंदर की शाही टापों के नीचे शहादत नसीब हुई. हां, इस शहादत का तकाजा है कि उसका मजार तामीर कराया जाये. साथ ही उसकी याद में शानदार बाग लगवाया जाये. इससे एक तो उस गरीब की रूह को सुकून मिलेगा, दूसरे आपके नाम की शोहरत होगी.’

चूहे की याद में!

आसफउद्दौला को मुसाहिब की बात इतनी जंची कि उन्होंने इसके लिए तुरंत शाही हुक्म जारी करा दिया. चूंकि अवध में चूहों को मूस भी कहा जाता है, इसलिए उक्त चूहे की याद में बाग लग गया तो लोग उसे मूसाबाग कहने लगे.

आसफउद्दौला की ‘दरियादिली’ का एक और किस्सा यों है कि एक शाम वे अपने दौलतखाने में दोस्तों के साथ बैठे थे तो देखा कि सामने मस्जिद में एक बुढ़िया तलवार हाथ में लिये बेकरार-सी उनकी नजर-ए-इनायत का इंतजार कर रही है. जैसे ही उन्होंने उसकी ओर देखा, उसने उन्हें जोरदार सलाम पेश किया. यह समझकर कि बुढ़िया उन्हें तलवार भेंट करना चाहती है, उन्होंने चोबदार की मार्फत तलवार अपने पास मंगवा ली. लेकिन पाया कि वह मामूली लोहे की बनी हुई है और जंग खा चुकी है, तो लौटा दी. यह कहकर कि उसकी कोई मुराद हो तो बताये, पूरी कर दी जायेगी, लेकिन वह तलवार तो उनके किसी काम की नहीं.

लेकिन यह क्या? चकित बुढ़िया बिना कुछ बोले तलवार को उलट-पलटती और देखती रही. फिर तो आसफउद्दौला थोड़े झुंझलाए हुए से बोले, ‘क्या तुम्हें शक है कि हमने तलवार बदल ली या उसमें से कुछ निकाल लिया है?’ बुढिया बोली, ‘नहीं बन्दापरवर, नहीं. मैंने सुना था कि आप पारस हैं, जिस लोहे को छू देते हैं, सोना हो जाता है. लेकिन मेरी बदकिस्मती कि मेरी तलवार आपके हाथों में पहुंचकर भी लोहे की ही रह गई.’

आसफउद्दौला मुसकुराये और आदेश दिया कि बुढ़िया को तलवार के वजन के बराबर सोने की मोहरें दे दी जाएं. फिर क्या था, बुढ़िया की झोली भर गई और वह उन्हें दुआएं देती हुई वहां से चली गई.

फूलों के रंग से होली

फैजाबाद की अपनी खलनायक की छवि के विपरीत लखनऊ में आसफउद्दौला ने शुजाउद्दौला की ही तरह गंगा-जमुनी तहजीब को आगे बढ़ाया. होली आती तो वे अपने सारे दरबारियों के साथ फूलों के रंग से होली खेला करते थे और उनकी डाली यह परंपरा अंग्रेजों द्वारा नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ व निर्वासित किये जाने तक मजबूत बनी रही थी.

आसफउद्दौला की बेगम शम्सुन्निसा उर्फ दुल्हन बेगम (जो ‘दुल्हन फैजाबादी’ नाम से शायरी भी करती थीं) को भी रंग खेलने का बड़ा शौक था. शम्सुन्निसा 1769 में फैजाबाद में ही आसफुद्दौला से शादी रचाकर दुल्हन बेगम बनी थीं और उनकी सबसे चहेती बेगम थीं. एक होली पर आसफुद्दौला लखनऊ में शीशमहल स्थित दौलतसराय सुल्तानी पर रंग खेल रहे थे तो हुरियारों ने दुल्हन बेगम पर भी रंग डालने की ख्वाहिश जताई. तब बेगम ने अपने उजले कपड़े बाहर भेजे और हुरियारों ने उन पर जी भर रंग छिड़का. फिर वे रंग सने कपड़े वापस महल में ले जाये गए, जहां बेगम उन्हें पहनकर खूब उल्लसित हुईं और दिन भर उन्हें ही पहने घूमती रहीं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)