विशेष रिपोर्ट: क्या बस्तर में भी भारतीय संविधान लागू है? क्या माओवाद से लड़ाई के नाम पर ग्रामीणों के फ़र्ज़ी एनकाउंटर, महिलाओं से बलात्कार, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमले और जेल आदि सब जायज़ हैं?
हाल ही में बस्तर में सुकमा पुलिस के एसपी इंदिरा कल्याण एलेसेला ने कहा कि ‘ईशा खंडेलवाल और शालिनी गेरा जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को वाहन से सड़क पर कुचल देना चाहिए.’ नक्सलवाद उन्मूलन पर भाषण देते हुए एसपी का यह बयान सुनकर लोकतंत्र में आस्था रखने वाले स्तब्ध रह गए. लेकिन लोकतंत्र के अलंबरदारों को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा.
इस बयान के एक दिन पहले बस्तर के पूर्व आईजी एसआरपी कल्लूरी पर आरोप लगा कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थन में एक वीडियो वायरल कराया. कल्लूरी पर बस्तर में भयानक दमन के आरोपों के बीच उन्हें कुछ दिन पहले ही बस्तर से हटाकर हेडक्वार्टर अटैच किया गया है. मीडिया में छपी ख़बरों में कहा गया कि उनके द्वारा वायरल कराए गए वीडियो में नरेंद्र मोदी को बाहुबली फिल्म के हीरो के रूप में दिखाया गया है, मोदी बाहुबली की ही तरह भारी-भरकम शिवलिंग उठा रहे हैं और सारे विपक्षी नेता भयभीत होकर उन्हें देख रहे हैं.
इस वीडियो के प्रसारित होने के बाद छत्तीसगढ़ कांग्रेस ने सिविल सेवा आचरण संहिता का हवाला देते हुए उनके ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग की थी. हालांकि, कल्लूरी का कहना है कि उन्होंने कुछ ग़लत नहीं किया. कल्लूरी पर फ़र्ज़ी एनकाउंटर करवाने, आदिवासियों के गांव जला देने जैसे गंभीर आरोप लगे लेकिन कल्लूरी का तब भी मानना था कि वे ग़लत नहीं हैं.
किसी को फ़र्क़ तो तब भी नहीं पड़ता जब सुरक्षाकर्मियों द्वारा महिलाओं का सामूहिक बलात्कार करने की ख़बरें आती हैं, जब बच्चों के एनकाउंटर की ख़बरें आती हैं, किसी महिला का गुप्तांग चीर देने की ख़बरें आती हैं या किसी कार्यकर्ता, पत्रकार या किसी शोधकर्ता को फ़र्ज़ी केस में जेल में ठूंस दिया जाता है.
छत्तीसगढ़ में एक संभाग है बस्तर. बस्तर नक्सल प्रभावित क्षेत्र है. नक्सल की आड़ में जारी युद्ध के बीच से जब भी कोई आवाज़ दिल्ली तक सुनाई पड़ती है तो वह किसी आदिवासी की चीख़ होती है. जिस वक़्त एसपी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को वाहन से कुचल देने की इच्छा ज़ाहिर कर रहे हैं, उसी वक़्त भीमा और सुखमती की लाशें एक महीने से न्याय का इंतज़ार कर रही हैं. उन्हें फ़िलहाल दो ग़ज़ ज़मीन भी नहीं मिल सकी है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के प्रयास से ही हाईकोर्ट ने आदेश दिया है कि उनका फिर से पोस्टमार्टम किया जाए.
दंतेवाड़ा के गमपुर में 28 जनवरी को दो आदिवासियों भीमा और सुखमती को नक्सली बताकर पुलिस ने एनकाउंटर कर दिया था. गांव के लोगों ने इसे फ़ज़ी मुठभेड़ बताया और दोनों के शव का दाह-संस्कार करने से इनकार कर दिया. वे शव अब भी रखे हुए हैं और ग्रामीण लाशें रखकर न्याय मांग रहे हैं. ग्रामीणों ने इसके लिए आदिवासी नेता सोनी सोरी के नेतृत्व में 20 किलोमीटर तक यात्रा की, किरंदुल थाने का घेराव किया और अंतत: कोर्ट ने प्रशासन को पोस्टमार्टम का आदेश दिया.
ग्रामीण आरोप लगा रहे हैं कि सुखमती की हत्या के पहले उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. वे सामान्य ग्रामीण थे, जिन्हें पुलिस ने फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मार दिया है. गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का आरोप है कि पुलिस ने भीमा के बड़े भाई बामन को धमकाया कि वह सबको बताए कि भीमा नक्सली था. बामन जब इस मामले में कोर्ट जाने लगा तो रास्ते में पुलिस ने उसे पकड़ लिया और बुरी तरह पीटा और उसे भी नक्सली होने के आरोप में जेल में डाल दिया है.’
हिमांशु कुमार के मुताबिक, ‘गमपुर गांव की 14 साल की लड़की सुखमती के साथ पुलिस के सिपाहियों नें सामूहिक बलात्कार किया और फिर गोली मार दी. विरोध करने पर सुखमती के संबधी भीमा को भी पुलिस ने गोली से उड़ा दिया. बाद में सरकार ने झूठ बोला कि यह दोनों नक्सलवादी थे और मुठभेड़ में मारे गए. मारे गए दोनों आदिवासियों की माताएं हाईकोर्ट गईं. हाई कोर्ट ने दोनों के शव का दोबारा पोस्टमार्टम करने का आदेश दिया है. 7 मार्च को जगदलपुर मेडिकल कॉलेज में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में दोनों का पोस्टमार्टम होगा.’
भीमा और सुखमती का फ़र्ज़ी एनकाउंटर बस्तर जैसी जगह पर कोई नई बात नहीं है. बस्तर में ऐसे दर्जनों दर्जन केस हैं जो जांच और न्याय का इंतज़ार कर रहे हैं. तमाम आदिवासी ऐसे हैं जिनके परिजनों को अचानक पुलिस ने उठाया और नक्सली बताकर मार दिया. इसके अलावा आदिवासी महिलाओं का सुरक्षाबलों द्वारा सामूहिक बलात्कार भी वहां पर आम घटना है. हाल ही में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने बलात्कार की शिकार 28 आदिवासियों की याचिका स्वीकार करते हुए राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है. राष्ट्रीय आदिवासी आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अपने स्तर पर यह मान चुके हैं कि प्रथमदृष्टया साक्ष्य कहते हैं कि सुरक्षाबल के जवानों ने महिलाओं से दुराचार किया.
जून, 2016 में बस्तर में पुलिस ने कथित मुठभेड़ में एक हार्डकोर महिला नक्सली को मार गिराने का दावा किया. यह गोमपाड़ गांव की मड़कम हिड़मे थी. लेकिन पुलिस ने इस दावे के साथ जो तस्वीर जारी की, उसे लेकर विवाद शुरू हो गया. मड़कम को 20 गोली मारी गई थी. लेकिन उसके बदन पर एक साफ सुथरी वर्दी थी जिसपर गोली के एक भी निशान नहीं थे. ग्रामीणों ने आरोप लगाया कि हिड़मे अपने घर में धान कूट रही थी तभी सुरक्षाबल के जवान उसे घर से उठा कर ले गए, उसका बलात्कार किया और बाद में उसकी हत्या कर दी. इस मामले में भी सोनी सोरी की अगुआई में आदिवासियों ने लंबा आंदोलन चलाया था. बाद में कोर्ट ने युवती का दोबारा पोस्टमार्टम कराकर जांच का निर्देश दिया. यह मामला अभी कोर्ट में है.
पिछले सालों में छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से नक्सल समस्या पर लिखने वाले पत्रकारों और प्रोफ़ेसरों, आदिवासियों की आवाज़ उठाने वाले कार्यकर्ताओं, आदिवासी समाज का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं, आदिवासी ग्रामीणों की क़ानूनी मदद करने वाले वकीलों को फ़र्जी मामलों में फंसाकर उन्हें प्रताड़ित किया गया. सवाल उठता है कि क्या छत्तीसगढ़ में भारतीय संविधान लागू नहीं है?
सुरक्षा के सिपाही ही बलात्कारी हैं
हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने छत्तीसगढ़ सरकार को एक नोटिस जारी किया. मसला था पुलिसकर्मियों द्वारा 16 महिलाओं के बलात्कार का. आयोग ने बस्तर में पुलिसकर्मियों द्वारा 16 आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार और छेड़छाड़ की रिपोर्ट का संज्ञान लेकर जांच की और इसे प्रथमदृष्टया सही मानते हुए राज्य को नोटिस जारी किया.
छत्तीसगढ़ में पुलिस के जवानों द्वारा आदिवासी महिलाओं के बलात्कार की खबरें अक्सर आती रहती हैं. हालांकि, राज्य सरकार और प्रशासन इस बात से हमेशा इनकार करते हैं. नवंबर, 2015 में राज्य के बीजापुर के पांच गांवों 40 पुलिस के जवानों द्वारा आदिवासी महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार की ख़बर आई. इस पर मानवाधिकार आयोग ने संज्ञान लिया और छत्तीसगढ़ सरकार को नोटिस जारी किया. इस नोटिस पर राज्य सरकार ने जवाब दिया कि मामले की रिपोर्ट दर्ज करके जांच की जा रही है.
बीबीसी के मुताबिक, जब यह जांच चल रही थी, उसी दौरान मानवाधिकार आयोग को पता चला कि बीजापुर, सुकमा और दंतेवाड़ा जिलों में बड़ी संख्या में ऐसी घटनाएं दोहराई गई हैं. 2016 में 11 से 14 जनवरी के बीच इन जिलों में कई जगह सुरक्षाबल के जवानों ने आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार किए और उन्हें शारीरिक प्रताड़ना दी. यह सब नक्सलियों के ख़िलाफ़ अभियान के नाम पर हुआ.
इसके बाद आयोग ने अपने अन्वेषण और विधि विभाग के एक जांच दल को मौक़े पर जाकर जांच के निर्देश दिए थे. आयोग ने अपने बयान में कहा कि जांच दल ने 16 महिलाओं के बयान दर्ज किए, जबकि 20 अन्य के बयान दर्ज नहीं हो सके. आयोग के जांच विभाग को एक जांच दल बनाकर सभी प्रताड़ित महिलाओं के बयान दर्ज करके रिपोर्ट पेश करने का आदेश दिया गया है.
इस मामले पर नज़र रख रहे छत्तीसगढ़ के एक पत्रकार ने कहा, ‘मानवाधिकार आयोग की नोटिस के बाद आईजी कल्लूरी को आयोग के सामने पेश होना था. वे पेश नहीं हुए, बल्कि मेडिकल लीव का अप्लीकेशन लगाया, जबकि वास्तव में उस दिन वे काम पर थे और एक समर्पण के कार्यक्रम में मौजूद थे. साफ है कि मानवाधिकार आयोग के नोटिस को भी प्रशासन गंभीरता से नहीं ले रहा है.’
सुरक्षाबलों ने जला दिए थे आदिवासियों के घर
बस्तर के ताड़मेटला, तिम्मापुर और मोरपल्ली गांवों में 11 से 16 मार्च 2011 के दौरान आदिवासियों के घर जला दिए गए थे. इन घरों को जलाने का आरोप सुरक्षाबलों पर था. यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो कोर्ट ने 5 जुलाई 2011 को इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी. जांच के दौरान सीबीआई अफसरों पर भी हमला हुआ. अक्टूबर, 2016 को सीबीर्आ ने चार्जशीट पेश की और सुप्रीम कोर्ट को बताया कि ‘आदिवासियों के घर सुरक्षाबलों ने ही जलाए थे. दंतेवाड़ा के तत्कालीन एसएसपी और बस्तर के वर्तमान आईजी एसआरपी कल्लूरी के आदेश पर इन गांवों में पुलिस का गश्ती दल भेजा गया था. इस सुनवाई के दौरान जस्टिस मोहन बी लोकुर और आदर्श गोयल की बेंच ने सरकार से कहा कि बस्तर में शांति स्थापना की कोशिश की जाए और नक्सलियों से बातचीत की प्रक्रिया शुरू की जाए, हालांकि, अभी तक ऐसा कोई प्रयास शुरू नहीं हुआ है.
सीबीआई ने अपने हलफ़नामे में कहा, ‘ताड़मेटला, तिम्मापुर और मोरपल्ली गांवों में आगजनी और हिंसा फोर्स ने की. मोरपल्ली गांव के माड़वी सुला तथा पुलनपाड़ गांव के बड़से भीमा और मनु यादव की हत्या की गई. तीन महिलाओं से रेप किया गया, जिनमें दो मोरपल्ली गांव की हैं और एक ताड़मेटला की है. मोरपल्ली में 33 घर, तिम्मापुर में 59 तथा ताड़मेटला में 160 घरों को आग लगाकर नष्ट कर दिया गया. 26 मार्च 2011 को स्वामी अग्निवेश जब मदद लेकर उन गांवों में जाने की कोशिश कर रहे थे तो दोरनापाल में उन पर तथा उनके सहयोगियों पर जानलेवा हमला किया गया. इस घटना में जुडूम के नेता शामिल थे. रेप व मर्डर के मामलों की जांच अभी जारी है.’ छत्तीसगढ़ पर नज़र रखने वाले कार्यकर्ताओं के मुताबिक, बस्तर में सुरक्षाबलों द्वारा अब तक 600 से ज़्यादा गांव जलाए जा चुके हैं.
सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमले
महिलाओं से बलात्कार के मामले में मानवाधिकार आयोग की टीम जब बस्तर पहुंची तो जांच टीम के साथ सामाजिक कार्यकर्ता शोधकर्ता बेला भाटिया भी थीं. आयोग की टीम के वापस लौटने के बाद 23 जनवरी को बेला भाटिया पर हमला किया गया. हमलावरों ने उनपर दबाव बनाया गया कि वे तुरंत बस्तर छोड़ दें.
बस्तर में मौजूद सूत्रों ने बताया कि बेला भाटिया जब अपने घर में अकेली थीं, उसी समय जीप और बाइक पर सवार कुछ लोग आए और उन्हें बस्तर छोड़कर चले जाने को कहा. उन्हें ‘काट डालने’ की धमकी दी गई. कुछ मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि जब ऐसा हुआ, उस समय वहां पर पुलिस मौजूद थी. पुलिस के सामने ही हमलावरों ने बेला भाटिया से एक समझौते पर दस्तख़त करवाया कि वे 24 घंटे के अंदर घर ख़ाली कर दें. आदिवासियों की हत्या, सुरक्षाकर्मियों द्वारा बलात्कार, यौन प्रताड़ना और माओवाद के ख़िलाफ़ अभियान के नाम पर जो भी फ़र्ज़ी मुठभेड़ हुईं, उन मामलों को उठाने वालों में से एक नाम बेला भाटिया का है. वे बस्तर के जगदलपुर में किराए का मकान में रहती हैं. बेला के प्रयासों से 2013 में बने नये क़ानून के तहत बस्तर में बलात्कार के 13 मामले दर्ज हुए हैं.
वकील और सामाजिक कार्यकर्ता शालिनी गेरा ने बताया, ‘छत्तीसगढ़ में जंग छिड़ी हुई है. वहां पर मानवाधिकारों का ज़बरदस्त हनन हो रहा है. सरकार नहीं चाहती कि उन मामलों पर कोई आवाज़ उठाए. सुरक्षाबलों द्वारा यौन हिंसा की तीन घटनाएं हुईं, तीनों में बेला भाटिया ने पीड़ितों की मदद करते हुए मामले की एफआईआर दर्ज करने में मदद की. ईशा और मैंने क़ानूनी मदद मुहैया कराई थी. पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम ने इन मामलों की रिपोर्टिंग की. सोनी सोरी, जो आदिवासियों की नेता हैं, भाषा आदि में दिक्कत न हो, इसलिए उनको भी साथ लिया गया था. हम सभी को पुलिस प्रताड़ित कर रही है. मुझे और ईशा को हमले करके बस्तर छोड़ने को मज़बूर किया. मालिनी को वहां से भगाया गया. अब बेला भाटिया पर हमला हुआ. सोनी सोढ़ी पर भी हमला हुआ.’
बेला भाटिया के घर पर हमला करने वाले लोग सादे ड्रेस में थे. लेकिन बेला भाटिया समेत अन्य कार्यकर्ताओं का आरोप है कि वे पुलिस के ही लोग हैं. पुलिस ने इस हमले के सिलसिले में किसी और पर कार्रवाई तो नहीं की, उल्टा बेला भाटिया से पूछताछ हुई. हिमांशु कुमार ने बताया, ‘पुलिस कार्यकर्ताओं से डरकर उन्हें परेशान कर रही है. लूट, हत्या, बलात्कार और फ़र्ज़ी एनकाउंटर हो रहे हैं. आप इस पर सवाल करेंगे तो आपको जेल में डाल दिया जाएगा. पुलिस हमला करने वाले गुंडों को पकड़ने की बजाय बेला भाटिया से सफाई मांग रही है.’
स्थानीय पत्रकार कमल शुक्ला ने बताया, ‘वहां पर जो कोई भी सरकार, पुलिस या प्रशासन पर सवाल उठाएगा, उसे प्रताड़ित किया जाएगा. ऐसा दर्जनों लोगों के साथ हो चुका है. स्थिति ये है कि शालिनी गेरा, प्रियंका शुक्ला आदि वकील हाईकोर्ट के आदेश पर एक एनकाउंटर में मारे गए व्यक्ति का पोस्टमार्टम कराने बस्तर गए थे. उनके साथ एसडीएम और अन्य अधिकारी भी थे. इसके बावजूद उन लोगों पर आरोप लगाया कि ये लोग बस्तर में नक्सलियों का पैसा बदलने आए हैं. इस शिकायत का आधार मात्र इतना है कि एक व्यक्ति ने शिकायत दर्ज कराई कि मुझे ऐसा लगता है. ऐसा लगने के आधार पर मुकदमा दर्ज हो गया.’
प्रोफेसरान के ख़िलाफ़ हत्या का केस
नवंबर, 2016 में छत्तीसगढ़ पुलिस ने दिल्ली यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर नंदनी सुंदर, जेएनयू की प्रोफेसर अर्चना प्रसाद समेत 11 लोगों के ख़िलाफ़ हत्या का आरोप लगाया. सुकमा के नामा गांव में सोमनाथ बघेल नाम के आदिवासी की हत्या हुई थी. इसे लेकर पुलिस ने इन सामाजिक कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ मुकदमा दर्ज किया.
मुकदमा दर्ज करने के कुछ माह पहले नंदिनी सुंदर, अर्चना प्रसाद आदि प्रोफसरों और कुछ कार्यकर्ताओं ने गांव वालों के साथ एक सभा की थी. सभा के बाद एक लिखित शिकायत दर्ज कराई गई. इसमें आरोप लगाया गया कि इन कार्यकर्ताओं ने नक्सलियों के पक्ष में ग्रामीणों को डराया धमकाया है. बाद में इस शिकायत के फ़र्ज़ी होने का आरोप लगा. सोमनाथ की हत्या को इसी घटना से जोड़कर पुलिस ने इन सभी पर आरोप लगाया.
छत्तीसगढ़ की समस्याओं को लेकर ‘द बर्निंग फॉरेस्ट: इंडियाज वॉर इन बस्तर’ शीर्षक से किताब लिखने वाली नंदिनी सुंदर के ख़िलाफ़ कई बार सुरक्षाकर्मियों ने प्रदर्शन किया. यह अपने आप में अद्भुत मामला था जब सामाजिक कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ सुरक्षाबलों के लोग प्रदर्शन करें.
इस कार्रवाई के बाद नंदिनी सुंदर ने अपने बयान में कहा, ‘ये एफआईआर पूरी तरह बकवास है. हम पर हत्या और दंगा भड़काने का आरोप कैसे लग सकता है, जबकि हम वहां पर थे ही नहीं. स्पष्ट तौर पर यह पत्रकारों, वकीलों, शोधकर्ताओं, नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को डराने और प्रताड़ित करने का आईजी कल्लूरी का प्रयास है, क्योंकि उन लोगों ने बस्तर में फ़र्ज़ी एनकाउंटर, सामूहिक बलात्कार आदि की सत्ता को नंगा किया है.’
जेएनयू की प्रोफेसर अर्चना प्रसाद ने फोन पर बातचीत में कहा, ‘हम सब शोधकर्ता हैं. उनको हमारे लिखने-पढ़ने से भी परेशानी है. इसलिए वे हर शोधकर्ता, छात्र या सामाजिक कार्यकर्ता को परेशान करते हैं. वे हम पर हत्या जैसे बेहूदा आरोप लगा रहे हैं. वे हमेशा पत्रकारों, अध्यापकों, शोधकर्ताओं पर ऐसे आरोप लगाते रहे हैं. सच्चाई यह है कि छत्तीसगढ़ सरकार खुद संविधान का उल्लंघन कर रही है. लोगों को नक्सल के नाम पर मार रहे हैं. आजकल छत्तीसगढ़ सरकार जो बर्ताव कर रही है, वे किसी पर भी कुछ भी आरोप लगा सकते हैं. ऐसी निकम्मी सरकार जो लोगों की समस्या नहीं सुलझा सकती, लेकिन जो भी लोगों के हक में आवाज उठाता है, उसे फंसाने की कोशिश करती है.’
मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा ने फोन पर बातचीत में कहा, ‘अभी कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई जांच में पाया गया कि सुरक्षा बलों के लोग गांव जलाने, स्त्रियों के बलात्कार करने और हत्याओं में शामिल हैं. वहां बच्चों तक की हत्या की गई. इस जांच से बौखला कर पुलिसकर्मियों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं का पुतला फूंका था. पुलिस कार्यकर्ताओं को घेरने के लिए बेहूदा तरीक़ा अपना रही है.’
वकील शालिनी गेरा ने इन घटनाओं पर चर्चा करते हुए फोन पर बताया, ‘नंदिनी सुंदर समेत अन्य कार्यकर्ताओं पर पुलिस ने हत्या का आरोप लगाया गया. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि आप इनको नोटिस के बगैर जांच नहीं कर सकते, क्योंकि प्रथमदृष्टया कोई केस नहीं बनता. लेकिन वहां पर आईजी कल्लूरी बयान देते रहे कि हम शीघ्र ही नंदिनी सुंदर को गिरफ्तार करेंगे और जांच करेंगे. पुलिस अंधेरगर्दी पर उतारू है.’ हालांकि, इस मामले में प्रोफेसरों की ओर से एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ प्रशासन को निर्देश दिया है कि अगर पुलिस इस केस में कार्रवाई आगे बढ़ाती है तो चार हफ्ते पहले प्रोफेसरों को सूचित करेगी.
तेलंगाना के सात कार्यकर्ताओं को जेल में डाला
बीते 27 दिसंबर को छत्तीसगढ़ पुलिस ने तेलंगाना डेमोक्रेटिक फोरम के सात लोगों को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया. इनमें आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के दो वकील और एक पत्रकार भी शामिल हैं. बाक़ी चार लोग सामाजिक कार्यकर्ता हैं. गिरफ्तारी के बाद से ये सभी जेल में बंद हैं. सुकमा पुलिस का कहना है कि इन लोगों के ख़िलाफ़ नक्सलियों के समर्थक होने के पर्याप्त सबूत हैं. पुलिस उनके पास से माओवादी साहित्य और 1000 और 500 के पुराने नोटों में एक लाख रुपये ज़ब्त करने का दावा कर रही है.
गिरफ़्तार लोगों में सीएच प्रभाकर और रवींद्रनाथ वकील हैदराबाद हाईकोर्ट में वकील हैं और राजेंद्र प्रसाद पत्रकार हैं. इनके अलावा आर लक्ष्मिया, डी प्रभाकर, मोहम्मद नाजीम और दुर्गा प्रसाद सामाजिक कार्यकर्ता हैं. इस सभी ने पुलिस के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि उन्हें झूठे आरोप में फंसाया गया है क्योंकि वे लोग बस्तर में पुलिस बर्बरता का जायजा लेने आए थे. तेलंगाना डेमोक्रेटिक फोरम के समन्वयक प्रो. पीएल विश्वेश्वर ने मीडिया में बयान दिया कि गिरफ़्तार हुए सभी लोग उनके फोरम से जुड़े हैं.
फोरम से जुड़े मदन कुमारस्वामी ने फोन पर ‘द वायर’ को बताया, ‘यहां से कार्यकर्ताओं की टीम फ़र्ज़ी एनकाउंटर मामलों की फैक्ट फाइंडिंग के लिए गई थी. उनके पास से एक लाख रुपये और कुछ अख़बार मैग़जीन बरामद करके उन्हें नक्सलियों के लिए नोट बदलने के मामले में फ़ंसाया गया. उनके पास से कोई आपत्तिजनक साहित्य नहीं मिला है. उन्हें फ़र्ज़ी मामले में फंसाकर जेल में डाला गया है.’
सरकार सिविल सोसाइटी के लोगों पर कार्रवाई क्यों कर रही है, इस सवाल के जवाब में शालिनी कहती हैं कि ‘वहां पर कई फ़र्ज़ी एनकाउंटर हुए हैं. ग्रामीणों की तरफ से हम सबने मांग की कि इन एनकाउंटर की निष्पक्ष जांच हो. लेकिन सरकार ऐसा नहीं चाहती. इसलिए वह हम सभी को वहां से भगाने के लिए तमाम यत्न कर रही है.’
पत्रकार कमल शुक्ला ने कहा, ‘सिविल सोसाइटी के लोगों पर धड़ाधड़ फ़र्ज़ी कार्रवाई हो रही है. उधर, गृह मंत्रालय से लिखित में प्रशंसा पत्र आया कि नक्सल समर्थकों के ख़िलाफ़ कार्रवाई बहुत बढ़िया चल रही है. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों आईजी कल्लूरी की तारीफ़ करते रहे हैं. आंध्र से आए सात लोगों के पास से एक लाख रुपये के नोट बरामद करके उन्हें जेल में डाल दिया गया. आप बताइए कि हाईकोर्ट के वकील और सामाजिक कार्यकर्ता आंध्र से चलकर बस्तर में एक लाख का नोट बदलने आएंगे? लेकिन इसी तरह का मज़ाक किया जा रहा है.’
पुलिस समर्थिक नागरिक समूह
बस्तर में जितने भी कार्यकर्ताओं को पुलिस की ओर से प्रताड़ित किया गया है, सब मामलों में एक बात कॉमन है. सभी के घर पर प्रदर्शन, पथराव, धमकी, कुछ लोगों द्वारा उनके घर जाकर धमकी दी गई. मकान ख़ाली करने और बस्तर छोड़ने की चेतावनी दी गई. मकान मालिक को प्रताड़ित करके घर ख़ाली करने का दबाव बनाया गया. सोनी सोरी को रास्ते में रोककर उन पर केमिकल अटैक किया गया था, जिससे उनका चेहरा झुलस गया था.
वकील शालिनी गेरा कहती हैं, ‘सरकार के पास कानूनी तरीके से हमें रोकने के कोई तरीके नहीं हैं. इसलिए वह हमेशा गैरकानूनी तरीके अपनाती है. मालिनी के घर पर पथराव कराया. उन्हें घंटों थाने में बिठा कर रखा गया और जब तक लिखित में बस्तर छोड़ने का समझौता नहीं करवा लिया, उन्हें नहीं छोड़ा. बेला भाटिया के घर पर हमला हुआ. हमारे खिलाफ प्रदर्शन हुए. हम सभी के मकान मालिकों पर दबाव बनाकर हमें वहां से बाहर किया गया. सरकार चाहती है कि उसके गैरकानूनी कृत्यों को सामने वाले लोग वहां से हट जाएं और वो आदिवासियों को प्रताड़ित करती रहे.’
छत्तीसगढ़ सरकार पर आरोप है कि कुछ नागरिक संगठन बनाए गए हैं और जिन लोगों को वहां से भगाना होता है, सरकार इन संगठनों की मदद लेती है. यह सलवा जुडूम का नया रूप है. कार्यकर्ताओं पर हमले करने वाले इन्हीं संगठनों से थे. शालिनी कहती हैं, ‘दबाव और दमन बढ़ाने के लिए नये-नये तरीक़े अपनाए जा रहे हैं. हर बार इन्होंने नागरिक संगठनों की आड़ में यह सब किया है. पहले सामाजिक एकता मंच यह काम करता था, बाद में अग्नि (एक्शन ग्रुप ऑफ नेशनल इंटीग्रिटी) नाम का संगठन यह काम करने लगा. बेला भाटिया समेत अन्य मामलों में यह स्पष्ट है कि इन हमलों में पुलिस की खुली भूमिका है.’
अपने बारे में बताते हुए शालिनी कहती हैं, ‘हमारे मकान मालिक गाड़ी चलाते थे. पुलिस ने उनकी गाड़ी ज़ब्त कर ली और कहा कि जब तक आप इन्हें अपने घर से बाहर नहीं निकालेंगे तब तक गाड़ी नहीं छोड़ेंगे. साथ ही उन्होंने सामाजिक एकता मंच से हमारे घर पे प्रदर्शन करवाया और नारे लगवाए कि हम नक्सल समर्थक हैं. पर्चे छापे कि हम खूंखार नक्सलियों की पैरवी करते हैं. पहली बात तो ऐसा कुछ है ही नहीं, अगर हो भी तो हमारा संविधान सबको यह मूल अधिकार देता है कि हर किसी को क़ानूनी सहायता मिले. खूंखार नक्सली का भी अधिकार है कि उसको कोई वकील मिले. इस तरह की गंदगी फैलाकर हमें वहां से निकाला. हम वहां से निकल गए ज़रूर, लेकिन हम काम करते रहे.’
वहां काम करने वाले लोगों का कहना है कि जिनको भी बस्तर छोड़ने को बोला गया, उन्हें आधिकारिक रूप से नहीं कहा गया. सीधे पुलिस नहीं कहती. पुलिस, कॉरपोरेट और व्यवसायी समर्थित अलग अलग ग्रुप बने हैं. पहले सामाजिक एकता मंच बनाया गया था. जब देश भर में उसकी आलोचना हुई तो अब नया ग्रुप सामने आया है ‘अग्नि’.
कमल शुक्ला बताते हैं कि ‘इस तरह के दर्जनों ग्रुप हैं. ये ग्रुप पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों आदि पर हमले करते हैं. जैसे कोई पत्रकार किसी फ़र्ज़ी मुठभेड़ की ख़बर छापना चाहे तो इस अग्नि ग्रुप के लोग सोशल मीडिया पर वातावरण बना देते हैं कि ये नक्सली है. जो भी मानवाधिकार का मसला उठाए, उसके ख़िलाफ़ माहौल बना देते हैं.’
बेला भाटिया पर हमले के बाद एक वक्तव्य में उन्होंने कहा, ‘अग्नि ग्रुप पुलिस से जुड़ा है. अग्नि छत्तीसगढ़ पुलिस का सहयोगी गैंग है, जैसे अन्य कई ग्रुप हैं.’ कार्यकर्ताओं पर कैसे फ़र्ज़ी मामले दर्ज किए जा रहे हैं, यह बताते हुए शालिनी कहती हैं, ‘हाल ही में एक बच्चे का फ़र्ज़ी एनकाउंटर हुआ था. उस मामले को हम हाईकोर्ट ले गए कि इस मामले की जांच हो. हमें कमिश्नर ने ही वहां पर कमरा दिलाया था. लेकिन हमारे ख़िलाफ़ भी झूठा एफआईआर दर्ज हुआ है. हम पर भी वही आरोप हैं जो तेलंगाना के लोगों पर हैं कि हमने नक्सलियों का पैसा बदला. जबकि जहां पर यह आरोप है हम वहां से 150 किमी दूर थे.’
हाल ही में आईजी एसआरपी कल्लूरी का बस्तर से तबादला कर दिया गया. उनके तबादले के ठीक बाद अग्नि ग्रुप भंग कर दिया गया. स्थानीय पत्रकार राजकुमार सोनी ने अपने एक लेख में लिखा, ‘बस्तर में कल्लूरी नाम की ऑक्सीजन जैसे ही बस्तर में बंद हुई माओवाद से लोहा लेने वाली अग्नि भी बुझ गई. अग्नि के सदस्यों ने इसके गठन के दौरान एक मशाल जलाकर शपथ ली गई थी कि जब तक बस्तर इलाके से माओवाद का ख़ात्मा नहीं कर देंगे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे. लेकिन बस्तर से आईजी कल्लूरी की विदाई के साथ ही अग्नि संस्था भंग कर दी गई.’
पत्रकारों को धमकी, जेल और प्रताड़ना
हाल ही में नंदिनी सुंदर पर हत्या का केस दर्ज होने के बाद हिंदुस्तान टाइम्स के रिपोर्टर रितेश मिश्रा ने आईजी एसआरपी कल्लूरी से सवाल किया तो उन्होंने धमकी भरे लहजे में जवाब दिया, ‘आप लोग ऐसे करेंगे तो हम आपको जाने ही नहीं देंगे. मेरे रिफरेंस से आप गए थे… आप लोगों के दिमाग में जो भी आता है, वही लिखते हैं. आपके लिए बस्तर एक मज़ाक है.’
हिंदुस्तान की ही रिपोर्ट के मुताबिक, ‘पिछले एक साल में चार पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया, जबकि रिपोर्टिंग करने आए बीबीसी के एक पत्रकार को बस्तर छोड़ने पर मज़बूर किया गया. एक अन्य पत्रकार को माओवादी संपर्क रखने का आरोप लगाकर इलाका छोड़ने के लिए मज़बूर किया गया.’
मई, 2016 में छत्तीसगढ़ के दर्जनों पत्रकार दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना देने पहुंचे थे. पत्रकारों का कहना था कि छत्तीसगढ़ में 2012 से लेकर इस दौरान तक छह पत्रकारों की हत्या हुई. इन हत्याओं के सिलसिले में कोई आरोपी गिरफ़्तार नहीं हुआ. तब तक चार पत्रकार जेल में थे. छह पत्रकार डर के मारे फ़रार थे. कुछ को धमकियां मिलीं और डराया गया. अन्य को कई तरीकों से प्रताड़ित किया गया. कुछ ने पत्रकारिता छोड़ दी. कुछ पर छोड़ने का दबाव बनाया गया. कुछ ने बस्तर छोड़ दिया. कुछ सिर्फ़ सरकारी विज्ञापन की ख़बर बनाने लगे और सवाल करना छोड़ दिया. कुछ ने पत्रकारिता छोड़ दी और ठेकेदार बन गए.
पत्रकार नितिन सिन्हा का कहना था, ‘ऐसे बहुत सारे मामले हैं जब ख़बर लिखने के बाद पत्रकारों पर केस दर्ज हुए, हमले हुए, धमकाया गया. यहां तक कि गोली भी मारी गई है. छत्तीसगढ़ में प्रशासनिक आतंक मचा हुआ है. अगर कोई पत्रकार किसानों को मुआवज़ा न मिलने का मसला उठाता है तो उसके ख़िलाफ़ फ़र्ज़ी मामले बनाकर कार्रवाई कर दी जाती है.’
पत्रकारों की ओर से राष्ट्रपति को सौंपे गए ज्ञापन में कहा गया था, ‘छत्तीसगढ़ में स्वतंत्र व निरपेक्ष पत्रकारिता के लिए माहौल लगभग समाप्त हो गया है. सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाले पत्रकारों को फ़र्ज़ी प्रकरण में जेल भेजा जा रहा है. बस्तर में नक्सली समर्थक बताकर एक वर्ष के भीतर चार पत्रकारों- सोमारू नाग, संतोष यादव, दीपक जायसवाल और प्रभात सिंह को जेल भेजा गया. कई अन्य के ख़िलाफ़ फ़र्ज़ी केस दर्ज किए गए. बस्तर में पत्रकार नेमीचंद जैन और साईं रेड्डी को नक्सलियों ने मार दिया. इनमें से साईं रेड्डी को नक्सली समर्थक बताकर पुलिस ने भी दो वर्ष जेल में बंद रखा था.’
पत्रकार कमल शुक्ला कहते हैं, ‘पूरे छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का माहौल ख़राब हो गया है. एक तरफ़ तो माओवादी दबाव बनाते हैं कि हम उनकी तरफ़ से रिपोर्ट करें, दूसरी तरफ़ सरकार दबाव बना रही है कि उनके हिसाब से रिपोर्ट करें. कोई खोजबीन या जांच पड़ताल न करें. जो भी ढंग के पत्रकार हैं, वे सब दबाव में हैं. हम पत्रकारों को अपने संस्थानों से भी सुरक्षा नहीं है. हमें फंसाया जाता है तो संस्थान हमसे पल्ला झाड़ लेते हैं.’ अब तक 25 से अधिक पत्रकारों को छत्तीसगढ़ प्रशासन द्वारा किसी न किसी रूप में प्रताड़ित किया जा चुका है.
कमल शुक्ला कहते हैं, ‘मुझे ख़ुद वहां से भगा दिया गया है. मैं बस्तर नहीं जा पा रहा हूं. मैं विलासपुर में रह रहा हूं. मैं जैसे ही बस्तर जाता हूं, ये लोग मुझे परेशान करते हैं. पत्रकार प्रभात और मालिनी सुब्रमण्यम को भी वहां से निकाल दिया गया है. सारे वो पत्रकार, सारे कार्यकर्ता जो सरकार की आलोचना करते हैं, वे बस्तर नहीं जा पा रहे हैं. पूरी तरह से वहां पर क़ानून व्यवस्था ख़त्म कर दी गई है.’
बस्तर समेत पूरे छत्तीसगढ़ में काम करने वाले पत्रकारों के लिए प्रशासन ख़ासी मुश्किलें खड़ी कर रहा है. फ़िलहाल पांच पत्रकार जेल काटकर बाहर आ चुके हैं. पत्रकार संतोष यादव 17 महीने से जेल में बंद थे, जिन्हें पिछले हफ्ते ही रिहा किया गया है. संतोष पर जनसुरक्षा अधिनियम लगाया गया था.
अधिकांश एनकाउंटर फ़र्ज़ी
नक्सल समस्या और उसके ख़िलाफ़ अभियान पर भी गंभीर सवाल हैं. शालिनी कहती हैं, ‘जितना हमने देखा है वह तो संदिग्ध है. प्रशासन कह रहा है कि हमने पिछले साल में 134 नक्सलियों को मारा है. इसमें सबका तो मुआयना नहीं किया जा सकता, लेकिन जितनी भी फैक्ट फाइंडिंग टीम गई हैं, चाहे कांग्रेस की हो, चाहे एआईपीएफ की हो, चाहे पीयूसीएल की हो या किसी दूसरे संगठन की, काफ़ी सारे एनकाउंटर फ़र्ज़ी दिखे. हमारा आकलन है कि आधे एनकाउंटर फ़र्ज़ी हैं.’
शालिनी ने बताया, दिसंबर में हम बीजापुर में थे. वहां पर एक हफ्ते में छह एनकाउंटर हुए. तीन का पूरा दस्तावेज़ीकरण हुआ कि वे फ़र्ज़ी हैं. बाक़ी तो वहां पर स्थिति ऐसी है कि हम सब हर मामले की जांच नहीं कर सकते. पुलिस पर किसी को विश्वास नहीं है कि वह सही बात बताएगी. कोई और साधन है नहीं कि हम हर मामले की सच्चाई जान लें. लेकिन जो दमन और आतंक फैला हुआ है, वह तो सबको प्रभावित कर रहा है. पुलिस द्वारा लूट, लोगों को पीटना, महिलाओं के साथ दुराचार आदि तो सबको प्रभावित कर रहा है. पूरा का पूरा गांव तो नक्सली नहीं है. पुलिस का आकलन है कि नक्सलियों की संख्या करीब दो हज़ार है. तो पूरी आबादी को कैसे प्रताड़ित किया जा सकता है.’
कमल शुक्ला बताते हैं कि 90 प्रतिशत मुठभेड़ फ़र्ज़ी ही हैं. इतने सालों से जितने मामले उठाए गए, किसी की जांच नहीं हुई. कुछ लोगों को धोखे से मार दिया गया. एक व्यक्ति जेल में बंद था. जमानत मिलने के एक हफ्ते बाद उसे मार दिया. जो कोर्ट से बरी हो रहे, उनका भी एनकाउंटर कर रहे हैं. जिसका मामला कोर्ट में चल रहा था, जो बराबर पेशी पर आ रहे, उनको ईनामी नक्सली बताकर मार दिया. स्थिति बहुत बुरी है और मैं काफ़ी हताश हो चुका हूं. सरकार घोषणा कर रही है कि अब नक्सल समर्थकों पर लगाम कसी जाएगी. इनके लिए नक्सल समर्थक वही है जो फ़र्ज़ी मुठभेड़, बलात्कार, लूट, प्रताड़ना आदि के मामले उठाते हैं. यहां पुलिस के लिए सारे सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार आदि नक्सल समर्थक हैं.’
आईजी को अभयदान और उनकी अभद्रता
आईजी एसआरपी कल्लूरी छत्तीसगढ़ के सबसे बदनाम अफसर हैं. बेला भाटिया पर हमले के बाद सुप्रीम कोर्ट की वकील गुनीत कौर ने कल्लूरी को व्हाट्सअप मैसेज भेजा, इसके जवाब में आईजी ने लिखा, ‘स्टॉप बिचिंग’. सुप्रीम कोर्ट की एक दूसरी महिला वकील पयोली ने उनको मैसेज भेजा तो उन्होंने जवाब दिया, ‘F – U’.
फरवरी, 2016 में बीबीसी संवाददाता आलोक प्रकाश पुतुल रिपोर्टिंग के सिलसिले में बस्तर में थे. उनके कहा गया कि आपकी तलाश हो रही है, आप अपनी सुरक्षा का इंतज़ाम कर लें. उन्होंने आईजी कल्लुरी से संपर्क करने की कोशिश की तो उन्होंने जवाब भेजा, ‘आपकी रिपोर्टिंग निहायत पूर्वाग्रह से ग्रस्त और पक्षपातपूर्ण है. आप जैसे पत्रकारों के साथ अपना समय बर्बाद करने का कोई अर्थ नहीं है. मीडिया का राष्ट्रवादी और देशभक्त तबका कट्टरता से मेरा समर्थन करता है, बेहतर होगा मैं उनके साथ अपना समय गुजारूं. धन्यवाद.’
आई कल्लूरी द्वारा कुछ पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के अभद्रता के मसले पर शालिनी कहती हैं, ‘जब पढ़े लिखे जागरूक लोगों के साथ इनका यह बर्ताव रहता है तो सोचिए ग्रामीणों के साथ ये क्या करते होंगे, जहां इनको थोड़ा भी प्रतिरोध का डर नहीं रहता होगा?
यह सब किसकी शह पर हो रहा है, इस सवाल पर शालिनी कहती हैं कि कल्लूरी ख़ुद से तो यह सब कर नहीं सकते. लेकिन कल्लूरी का बयान आता रहता है कि उन्हें पीएम ने वहां भेजा है. क्या सही है, पता नहीं, लेकिन कहीं न कहीं से तो उनको सुरक्षा प्राप्त है. क्योंकि इतने दमन के बाद भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता.’
प्रशासन पर जिन पत्रकारों को फ़र्ज़ी मामलों में फंसाने का आरोप लगता है, कमल शुक्ला भी उनमें से एक हैं. वे कहते हैं, ‘अभी वहां पर जिस तरह से चीज़ें चल रही हैं, मुझे साफ़ लगता है कि केंद्रीय गृहमंत्रालय से खुली छूट मिली हुई है कि क़ानून संविधान किसी चीज़ की कोई परवाह करने की ज़रूरत नहीं है.
गौतम नवलखा का मानना है कि ‘आप साफ देख सकते हैं कि किस तरह की अराजकता और पुलिस राज आज बस्तर में है. न वहां संविधान है, न सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन हो रहा है. तमाम चीजों की अवहेलना की गई है. यह अवमानना भी नहीं है, यह अपने आप में एक अपराध है. पुलिस महकमे की एकदम साफ भूमिका है. आईजी कल्लूरी पहले भी ऐसा करते रहे हैं. अपने को देशभक्त कहकर, दूसरे को देशद्रोही और गद्दार कहने वाले ऐसे घटिया अफसर की वहां तैनाती अपने आप में बताती है कि किस तरह का शासन वहां पर लागू है.’
हालांकि, बेला भाटिया पर हमले के बाद छत्तीसगढ़ प्रशासन की हुई फ़ज़ीहत के बाद आईजी कल्लूरी को एक महीने पहले बस्तर से हटाकर रायपुर पुलिस मुख्यालय में अटैच कर दिया है. इसके बाद आईजी कल्लूरी के कुछ बयानों, गतिविधियों और सोशल मीडिया एक्टीविटीज को लेकर अनुशासनहीनता का नोटिस जारी किया गया है.
क्या छत्तीसगढ़ में संविधान लागू नहीं है?
जो सामाजिक कार्यकर्ता दिल्ली, मुंबई या देश के दूसरे हिस्से में सम्मान की निगाह से देखे जाते हैं, वे बस्तर पहुंचते ही देशद्रोही, नक्सली, नक्सल समर्थक आदि कैसे हो जाते हैं? स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटेकर, हिमांशु कुमार, ज्यां द्रेज, बेला भाटिया, प्रो. नंदिनी सुंदर, प्रो. अर्चना प्रसाद, शालिनी गेरा समेत दर्जनों सामाजिक कार्यकर्ताओं पर वहां पहुंच कर हमले हुए. जिन एनकाउंटर पर सवाल उठे, जहां पर ग्रामीणों की हत्या हुई, जहां पर गांव के गांव जला दिए गए, या जहां भी पुलिस की भूमिका संदेह के घेरे में आई, उनकी जांच तभी शुरू हुई जब कोर्ट ने हस्तक्षेप किया. इन मामलों को उठाने वाले हर व्यक्ति पर पुलिस ने कार्यवाई करने की कोशिश की.
शालिनी कहती हैं, ‘छत्तीसगढ़ के गांवों में कई सालों से क़ानून व्यवस्था जैसी कोई चीज़ नहीं है. अब यह सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ताओं के साथ हो रहा है. बेला भाटिया और हम सब तो यह बोल भी रहे थे कि बस्तर के गांवों में आतंक फैला है. जो भी थोड़ी सी आवाज उठाता है, उसे मार दिया जाता है. यह लंबे समय से हो रहा है. हमें अब लग रहा है क्योंकि अब यह हम तक पहुंच रहा है.’
कमल ख़ुद को लेकर डर जताते हुए दुख से कहते हैं, ‘बस्तर में संविधान आख़िरी सांसें गिन रहा है. वहां पर क़ानून की पूरी तरह से धज्जियां उड़ा दी गई हैं. वहां क़ानून का शासन ख़त्म कर दिया गया. जब पुलिस और प्रशासन के लोग बड़े लोगों के साथ ऐसा करते हैं तो सोचिए कि ये ग्रामीणों के साथ क्या करते होंगे. शिकायत करने वाले ग्रामीणों को लगातार धमकाया जा रहा है. 16 महिलाओं के साथ बलात्कार समेत जितने मामलों की जांच चल रही है, उनके गवाहों को रायपुर आने नहीं दिया जा रहा है. अब दबाव बनाया जा रहा है कि मामले सुनवाई बस्तर में हो. बस्तर में सुनवाई होने पर बाहर के वकील जैसे ही जाएंगे, वैसे ही उनको फंसाया जाएगा. कभी नक्सलियों को पैसा सप्लाई का बहाना लेकर कभी कुछ और. एक तेरह साल के बच्चे को नक्सली बताकर उसका एनकाउंटर हुआ था. तेलंगाना से एक टीम उसकी फैक्ट फाइंडिंग के लिए आई थी. जिसे जेल में डाल दिया गया.’
मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की छत्तीसगढ़ ईकाई के अध्यक्ष डॉक्टर लाखन सिंह ने बीबीसी से कहा कि ‘बस्तर में सुरक्षाबलों का जिस तरह से आतंक चल रहा है, यह केवल उसका एक नमूना है. ऐसे सैकड़ों मामले हैं जो गांवों की सरहद में ही दम तोड़ देते हैं. संकट ये है कि जब मानवाधिकार संगठन और वकील इस तरह के मामलों में हस्तक्षेप करते हैं तो पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश पर उन्हें डराया-धमकाया जाता है, उन्हें प्रताड़ित किया जाता है और फ़र्ज़ी मामले बना कर उन्हें जेल में डाल दिया जाता है.’
बेला भाटिया पर हमले के बाद बस्तर में पुलिस बर्बरता को लेकर हुए एक कार्यक्रम में शामिल होने दिल्ली आईं सोनी सोढ़ी ने कहा, ‘हम और बेला भाटिया जैसे तमाम लोग बस्तर कभी नहीं छोड़ेंगे. बस्तर में नक्सलवाद के नाम पर लोकतंत्र की हत्या की जा रही है. हमें बस्तर के बारे में सिर्फ़ चिंता करने की नहीं, वहां पर लोकतंत्र बचाने के लिए पुख़्ता प्लान की ज़रूरत है.’
बेला भाटिया ने बताया, ‘एक नाबालिग बच्चे को, जो अपनी बुआ के घर अपनी बहन की मौत का संदेश लेकर गया था, पुलिस ने उसे उठा लिया और उसका एनकाउंटर कर दिया. इस तरह वहां पर अनेक घटनाएं हो रही हैं जिन्हें एनकाउंटर का जामा पहनाया जाता है. मैं बस्तर नहीं छोड़ूंगी और लोकतंत्र व आज़ादी के लिए लडूंगी.’
न कम कांग्रेस, न कम भाजपा
छत्तीसगढ़ में यह संघर्ष कई वर्षों से चल रहा है. यूपीए कार्यकाल में जब पी चिदम्बरम गृहमंत्री हुआ करते थे, तभी से ग्रीन हंट आॅपरेशन चल रहा है. अकादमिक जगत के लोगों और कार्यकर्ताओं को तब भी गिरफ़्तार किया जाता रहा है. तो सवाल उठता है कि क्या छत्तीसगढ़ में जो कुछ हो रहा है, उसे लेकर भाजपा और कांग्रेस में मूक सहमति है? एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने बताया, ‘जंग तो वहां पहले से छिड़ी है. सलवा जुडूम तब छिड़ा था, जब केंद्र में यूपीए थी. लेकिन अभी राज्य में विपक्ष में बैठी कांग्रेस विरोध कर रही है. जब केंद्र में कांग्रेस थी और राज्य में कांग्रेस विपक्ष में थी तब भी राज्य कांग्रेस ने इसका विरोध किया था. राज्य कांग्रेस और चिदंबरम में झगड़ा भी हुआ था. कांग्रेस का कहना था कि ग्रामीणों की हत्या की जा रही है, आप कोई नक्सल के ख़िलाफ़ अभियान नहीं चला रहे.’
वकील शालिनी कहती हैं कि ‘मतलब जब कांग्रेस विपक्ष में होती है तो नरम होती है. लेकिन जब सत्ता में थी तो वही कर रही थी जो अभी एनडीए सरकार कर रही है. छत्तीसगढ़ जाने पर मेधा पाटेकर पर हमला, स्वामी अग्निवेश पर हमला यूपीए में ही हुआ था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जांच में साबित भी हुआ कि सलावा जुडूम ने ही अग्निवेश पर हमला करवाया था. हिमांशु कुमार का वहां पर आश्रम था. वे सलवा जुडूम का विरोध कर रहे थे तो पुलिस ने उनका आश्रम तोड़ दिया और उन्हें वहां से बाहर निकाल दिया. पुलिस का अत्याचार तब भी था. लेकिन अब राहुल गांधी भी बेला भाटिया का समर्थन कर रहे हैं. जब आप सत्ता में होते हैं, तब आप दमन करते हैं, जब सत्ता में नहीं होते तब आवाज़ उठाते हैं. दोनों में अंतर बस इतना है कि कांग्रेस कम से कम यह कह रही थी कि यह ग़लत हो रहा है. भाजपा न कुछ कहती है, न किसी की बात सुनती है.’
जल, जंगल, जमीन की लड़ाई
छत्तीसगढ़ का मुख्यत: जल, जंगल जमीन का संघर्ष है. सरकार बड़े पैमाने पर कॉरपोरेट घरानों को जमीन बेच रही है. आयरन, मैंगनेट, बाक्साइड आदि के लिए ज़मीनें लीज पर दी जा चुकी हैं. आदिवासी समुदाय के ग्रामीण और कार्यकर्ता अपनी ज़मीनें छोड़ने को तैयार नहीं हैं. सरकार ज़मीनें कंपनियों को देने के लिए प्रतिबद्ध है. जो इसके रोड़ा अटकाता है, सरकार उसे निपटाने का यत्न करती है.
कमल शुक्ला ने कुछ आरटीआई सूचनाओं और अपनी छानबीन के हवाले से बताया, ‘बस्तर के लगभग आधे जंगल और पहाड़ खनन की प्रक्रिया में हैं. गांव गांव में जाकर प्रशासन जबरन जनसुनवाई करा रहा है. जो भी लोग इसका विरोध करते हैं, उन पर फ़र्ज़ी मामले बनाकर उन्हें परेशान किया जा रहा है. दूसरे, जिन स्थानों पर खनन होना है, उन्हीं गांव के लोगों को नक्सल के नाम पर परेशान किया जा रहा है. सलवा जुडूम के समय भी बाक़ायदा 650 गांवों को इसी तरह ख़ाली कराया था. बाद में कोर्ट में सरकार ने इसे स्वीकार किया. यह आज भी जारी है. तरह तरह से कार्रवाई करके लोगों को गांवों से भगाना जारी है. जिन गांवों में महिलाओं के साथ बलात्कार हुए या बच्चों का एनकाउंटर हुआ, वे सभी गांव खनन के लिए चिन्हित हैं और उन्हें ख़ाली कराना है. ग्रामीणों को डराने की नीति लागू की जा रही है.
हिमांशु कुमार कहते हैं, ‘पुलिस को सरकार की नीति के तहत ऐसा निर्देश है और उन्हें खुली छूट है. बलात्कार कर देना, हत्या कर देना, यौन प्रताड़ना, बच्चों की उंगली काट देना, ये सब ऐसे ही नहीं हो रहा है. कैसे भी करके लोगों को डराकर वहां से भगाना है.’
माओवादी इलाक़ों के फ़ैलाव में वृद्धि
सरकार पूरे देश को यह बताती है कि वह वामपंथी आतंकवाद से लड़ रही है. बस्तर के गांवों में जो संघर्ष है, सरकार उसे नक्सलवाद के खिलाफ अभियान कहती है. लेकिन वहां पर काम करने वाले लोग इस अभियान पर सवाल उठाते हैं.
आदिवासी नेता सोनी सोरी कहती हैं, ‘अगर सरकार नक्सल आतंकवाद से लड़ रही है तो उसे बताना चाहिए कि पिछले सालों में कितने नक्सली नेताओं को पकड़ा, कितने को मारा? वे तो सिर्फ ग्रामीणों को मार रहे हैं. सरकार नक्सल के नाम पर आदिवासियों की ज़मीन छीनना चाहती है. सरकार नहीं चाहती है कि नक्सल आतंकवाद ख़त्म हो, नक्सल के नाम पर अरबों रुपये आते हैं. अगर नक्सलवाद ख़त्म हो जाएगा तो नेताओं का घर कैसे भरेगा?’
पत्रकार कमल शुक्ला कहते हैं, ‘मुझे तो नहीं लगता कि सरकार माओवादियों से कोई लड़ाई लड़ रही है. 2001 में पूरे बस्तर में मात्र छह नक्सली डिवीज़न थे, आज नौ डिवीज़न हैं. पहले एक ज़ोनल कमेटी थी, आज दो ज़ोनल कमेटी है. पुलिस ख़ुद मानती है कि नक्सलियों की वार ग्रुप संख्या में काफ़ी वृद्धि हुई है. पार्टी के सदस्यों की संख्या में काफ़ी वृद्धि हुई है. माओवादी इलाक़ों के फ़ैलाव में वृद्धि हो गई है. माओवादी इलाका बस्तर से बढ़ते—बढ़ते महासमुंद, रायगढ़ तक चला गया है. आप हर साल नक्सलवाद ख़त्म करने की बात कर रहे हैं, लेकिन माओवादी इलाक़े बढ़ रहे हैं. फिर उनके ख़िलाफ़ अभियान क्या चल रहा है? माओवाद से निपटने के लिए और पैसा, और सैनिक, और सुरक्षाबल क्यों आ रहे हैं?’
बातचीत में अन्य पत्रकारों ने बताया कि नक्सल समस्या के लिए लाए गए सुरक्षाबलों को वास्तव में खनन कंपनियों की सुरक्षा में लगाया गया है. अधिकांश पैरामिलिट्री फोर्सेज को वहीं वहीं लगाया गया है, जहां जहां खनन हो रहा है. रावघाट माइनिंग के चारों तरफ 22 केंद्र हैं. चारगांव माइनिंग है निको का, उसके आसपास आठ केंद्र बनाए गए हैं. ज्यादातर सुरक्षाबलों को खनन की सुरक्षा में लगा रखा है. यहां तक कि जहां अवैध खनन हो रहा है वहां भी सुरक्षाबलों को लगा रखा है. उनका काम यही है कि गांव वालों को डराकर वहां से भगाना. अब सरकार क्यों चाहेगी कि वहां जो किया जा रहा है, वह सब बाहर आए?
बस्तर की लड़ाई बहुस्तरीय है. जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई को माओवादी हिंसा का जामा पहनाकर युद्ध छेड़ा जा रहा है जिसका ख़ामियाज़ा आदिवासी समाज को भुगतना पड़ता है. आईजी कल्लूरी के बस्तर में रहने के दौरान जितनी अमानवीय घटनाओं को प्रशासन की तरफ से अंजाम दिया गया, उनपर सरकार मौन रही. अंत में सारे आरोपों से निजात पाने के लिए कल्लूरी का तबादला कर दिया गया. अब सवाल उठता है कि जब बस्तर के आईजी एसआरपी कल्लूरी को वहां से हटा दिया गया है, बलात्कार मामलों की जांच चल रही है, क्या सरकार, कॉरपोरेट और नक्सलियों के बीच जारी युद्ध की विभीषिका से आदिवासियों को निजात पाएगी?