नई दिल्ली: छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच चल रही मुठभेड़ के बीच नागरिक संगठनों ने एक बार फिर से शांति वार्ता और युद्ध विराम की अपील की है. बीजापुर और तेलंगाना की सीमा से सटे पुजारी कांकेर क्षेत्र की कर्रेगुट्टा पहाड़ियों में बीते कई दिनों से सुरक्षाबलों का नक्सल विरोधी अभियान जारी है. पुलिस के मुताबिक अब तक तीन माओवादी मारे जा चुके हैं.
शांति वार्ता की मांग को लेकर साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस, युद्धविराम की अपील
भारत सरकार और माओवादीयों के बीच शांति वार्ता की मांग को लेकर 27 अप्रैल को नागरिक समाज के संगठनों और व्यक्तियों के एक व्यापक गठबंधन ने एक वर्चुअल प्रेस कॉन्फ्रेंस सह जनसभा आयोजित की. इस कार्यक्रम में माओवादी पक्ष द्वारा घोषित एकतरफा युद्धविराम को आधार बनाते हुए सरकार से भी युद्धविराम की घोषणा और संवाद शुरू करने की मांग की गई.
वक्ताओं ने बताया कि जब तक माओवादियों पर हमला नहीं किया जाता, वे किसी प्रकार की जवाबी हिंसा नहीं करेंगे, और यह घोषणा शांति वार्ता का अनुकूल अवसर प्रदान करती है.
कार्यक्रम में जी. हरगोपाल (शांति संवाद समिति), बेला भाटिया (छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन), सोनी सोरी (आदिवासी कार्यकर्ता), मनीष कुंजाम (पूर्व विधायक), डी. राजा (महासचिव, भाकपा), सासिकांत सेंथिल (कांग्रेस सांसद), राजा राम सिंह (भाकपा-माले सांसद), डॉ. मीना कंडासामी (लेखिका) सहित कई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया.
वक्ताओं ने विशेष रूप से कर्रेंगुट्टा/दुर्गमेट्टा पहाड़ियों पर चल रहे अब तक के सबसे बड़े सैन्य अभियान और झारखंड के डीजीपी द्वारा ‘15-20 दिनों में माओवादी सफाया’ जैसे बयानों पर आपत्ति जताते हुए कहा कि इस तरह की सैन्य कार्रवाई संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है और अपने ही नागरिकों के खिलाफ रक्तपात को बढ़ावा देती है.
बस्तर की सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी और बेला भाटिया ने बताया कि पिछले 16 महीनों में 400 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है, जिनमें बच्चे और नागरिक शामिल हैं. कई गिरफ्तारियां, फर्जी मुठभेड़ और युवाओं के लोकतांत्रिक मंच ‘मूलवासी बचाओ मंच’ पर प्रतिबंध जैसी घटनाएं दर्शाती हैं कि राज्य की कार्रवाई ने आदिवासियों की आवाज़ को कुचलने का प्रयास किया है.
प्रोफेसर हरगोपाल ने ज़ोर दिया कि माओवादी आंदोलन की जड़ें सामाजिक-आर्थिक असमानताओं में हैं और इसे केवल सैन्य दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि राजनीतिक दृष्टिकोण से समझने की ज़रूरत है. शांति वार्ता से पहले हथियार डालने या आत्मसमर्पण जैसी शर्तें थोपना न्यायोचित नहीं है. वक्ताओं ने यह भी स्पष्ट किया कि जल, जंगल और ज़मीन पर पहला अधिकार वहीं के निवासियों का होना चाहिए, न कि कॉरपोरेट्स का.
300 से अधिक ‘चिंतित नागरिकों’ की ओर से किए गए बैठक में यह संकल्प लिया गया कि नागरिक समाज के सदस्यों और सभी राजनीतिक दलों, प्रगतिशील-लोकतांत्रिक ताकतों और व्यक्तियों को सामूहिक रूप से भारत सरकार और विपक्षी दलों सहित सभी राजनीतिक ताकतों पर शांति वार्ता के लिए दबाव डालना चाहिए. उन्होंने तत्काल युद्धविराम और सभी अर्धसैनिक अभियानों को रोकने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला.
प्रधानमंत्री को पत्र में की गई युद्धविराम की मांग
26 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजे गए एक खुले पत्र में भी 300 से अधिक संगठनों और नागरिकों ने युद्धविराम की मांग दोहराई थी. पत्र में उल्लेख किया गया कि बस्तर, गढ़चिरौली और पश्चिम सिंहभूम जैसे आदिवासी बहुल इलाकों में सैन्य कार्रवाई ने गंभीर मानवीय संकट पैदा किया है. अकेले बस्तर में 2024 से अब तक 400 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. पत्र में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि यह संकट बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक है और इससे संवैधानिक दृष्टिकोण से निपटना आवश्यक है.
पत्र में कहा गया कि सरकार द्वारा लगातार सैन्य कार्रवाई जारी रखना और साथ ही बातचीत की इच्छा जताना एक विरोधाभासी संदेश है. अगर सरकार वास्तव में शांति चाहती है, तो उसे पहले युद्धविराम घोषित करना होगा और बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना होगा.
इससे पहले 4 अप्रैल को नागरिक संगठनों ने पत्र लिख कर युद्ध विराम और शांति वार्ता की अपील की थी.
पत्र में छह मुख्य मांगें रखी गईं थी- (1) आदिवासी इलाकों में सैन्य अभियान तत्काल बंद किए जाएं; (2) माओवादी पक्ष सभी हिंसक गतिविधियां रोकें; (3) दोनों पक्षों के बीच वार्ता शुरू की जाए; (4) स्वतंत्र संगठनों और मीडिया को क्षेत्र में पहुंच मिले; (5) आजीविका और संवैधानिक अधिकारों पर तुरंत ध्यान दिया जाए; और (6) उन आदिवासी कार्यकर्ताओं को रिहा किया जाए जो लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रहे हैं.
नक्सलियों ने की थी शांति वार्ता की अपील
इससे पहले कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों में चल रहे इस अभियान के बीच माओवादियों ने शांति वार्ता की अपील की थी.
माओवादियों ने अप्रैल 25 को एक बयान जारी कर बीजापुर – तेलंगाना सीमा पर जारी ‘घेराव उन्मूलन सैनिक अभियान’ को तुरंत रोकने का आह्वान किया था और कहा था कि सरकार को शांति वार्ता के लिए आगे आना चाहिए.
माओवादियों ने सरकार से उनके द्वारा चलाए जा रहे अभियान को एक महीने के लिए स्थगित करने की अपील की थी.
