अनवर जलालपुरी को याद करते हुए मशहूर शायर मुनव्वर राना कहते है कि एक टीचर के बतौर वो हमेशा यही चाहते थे कि मुशायरे का स्तर ख़राब न हो. वो सांप्रदायिकता और अश्लीलता की तरफ न जाये.
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अनवर भाई ने बड़ी मुश्किल ज़िंदगी गुज़ारी. ये शोहरत जो अब मीडिया में दिखाई देती है, ये सब बहुत बाद की चीज़ें थीं. पूरी ज़िंदगी उन्होंने दौड़-भाग में गुज़ारी. चार-चार बच्चे. उन्हें बच्चों को पढ़ाने का बहुत शौक था. बेटी को पढ़ाया, जो पॉलिटिकल साइंस, उर्दू, अंग्रेज़ी में टॉपर रही. छोटे बेटे ने भी जेएनयू से पढ़ाई की, आईएएस हो गया. जिसने अपनी ज़िंदगी इतनी मामूली तरह से शुरू की, प्राइवेट कॉलेज में अंग्रेज़ी का लेक्चरर रहा, कितनी मशक्कत से उसने ज़िंदगी गुज़ारी होगी. इतनी मशक्कत वाली ज़िंदगी गुज़ारने के बाद भी अदब को मालामाल करने का भी कोई काम करे, तो यह बहुत बड़ा काम होगा.
मैंने शुरू की बात इसलिए बताई कि समझ सकें कि उन्होंने कितनी मुश्किल ज़िंदगी गुज़ारी. ज़ाहिर सी बात है कि उन दिनों जितनी सैलरी रहा करती थी, उसमें बच्चों को इतनी अच्छी तालीम देने का तसव्वुर भी नहीं था. मुझे याद है कि वे रात को मुशायरा पढ़ते और तुरंत बस, टैक्सी ट्रक जो मिल जाये उससे जलालपुर (अंबेडकर नगर) भागते कि सुबह कॉलेज जॉइन करना है.
उनके अंदर साहित्य का खज़ाना तो बहुत भरा हुआ था लेकिन उनको छुट्टी नहीं मिल पाती थी. 2005 तक लगभग उनकी ज़िंदगी इसी तरह थी. इस बीच एक मशहूर लेखक के छोड़ देने पर उन्होंने संजय खान के एक टीवी सीरियल के लिए 10-12 एपिसोड भी लिखे थे. इस तरह बहुत मेहनत से उन्होंने बहुत काम किए.
2005-06 के बाद जब उनका रिटायरमेंट का समय आया, तब वो लखनऊ आकर आबाद हुए तो उन्हें लिखने का पूरा मौका मिला. तब उन्होंने गीता और तमाम किताबों का तरजुमा कर डाला. इस दौरान उनकी 12-14 किताबें आई होंगी.
हमसे उनकी बिल्कुल बेतकल्लुफ़ी थी. दोस्ती से ज़्यादा हमारे बीच बड़े भाई-छोटे भाई का रिश्ता था. तो हमने उनसे कहा कि लखनऊ में आप वहीं उसी अपार्टमेंट में आ जाइये, जहां हम रहते हैं. तो वो कहने लगे कि यार इतने पैसे नहीं हैं. मैंने कहा पैसे का कोई मसला नहीं है, आप आइये. मेरी परेशानी ये है कि मेरे पास ज़िंदगी में बड़ा भाई नहीं है. आप की परेशानी ये है कि आपको लखनऊ में घर चाहिए, तो आप यहीं आ जाइये. इस तरह हमारे बीच अपनापन बढ़ा.
फिर जब उन्होंने ये 12-14 किताबें लिखीं अलग-अलग विषयों पर, नात में, ग़ज़ल में, गीत में, हर तरह की शायरी की. तब हम उनसे मज़ाक में कहा भी करते थे कि आपके यहां हर 8 महीने के बाद एक बच्चा पैदा हो जाता है. तो वो ज़ोर से हंसते और कहते कि नहीं यार काम तो हमें लगता है कि मुनव्वर तुमने अपनी उम्र से ज़्यादा कर डाला है. कहने का मतलब है कि अभी उनसे बहुत तवक़्कुआत (उम्मीदें) थीं.
आज ही मैं अपने एक दोस्त से कह रहा था कि अनवर भाई की अचानक मौत के बाद ज़िंदगी कच्चे ख़्वाब जैसी हो गई है, अच्छी नहीं लग रही है. कोई मक़सद नहीं रह गया.
वो मुझसे उम्र में बड़े थे. करीब 70 के हो गये थे. पिछले साल मार्च में उन्होंने मुझसे कहा कि फलां-फलां मार्च को मैं 70 का हो जाऊंगा लेकिन इस उम्र ने उनकी लेखनी पर कोई असर नहीं डाला था. वो बहुत ज़्यादा लिख रहे थे.
मेरी उनसे पहली मुलाक़ात सन 1975 में देवा शरीफ के एक मुशायरे में हुई थी. वहां वो मुशायरा संचालित कर रहे थे और मैं सुनने वालों में सबसे पिछली तरफ एक पत्थर पर बैठा उन्हें सुन रहा था. एक तरह से वो मेरे आइडियल थे.
आखिरी मुलाकात बीती 24 तारीख को हुई. मेरे घर में नीचे दफ्तर और लाइब्रेरी है, जहां हम दोपहर बाद बैठते हैं. शाम को सात बजे के करीब वो आये और बोले कि आप बिसवां चल नहीं रहे हैं. बिसवां सीतापुर में एक मुशायरा था. मैंने कहा अनवर भाई तबियत ही नहीं ठीक है. तो कहने लगे कि यार तबियत ठीक करो. उस वक़्त उनके साथ उनका बेटा भी जा रहा था. जाने मैंने क्या महसूस किया कि मैंने उस कहा कि बेटा अपने पापा के साथ रहा करो. इन्हें अकेले मत छोड़ा करो.
उनके परिवार से ऐसा ही अपनापन था. आज से 8-10 साल पहले एक मुशायरे के सिलसिले में लंदन जाना हुआ था. तब उनकी बेटी भी वहीं थी. वो हमसे मिलने आई और बोली छोटे अब्बू, आप चलिए और हमारे साथ रहिये. हम समझेंगे कि अब्बू आये हैं. इस तरह का प्यार था उनके परिवार से.
ऐसे में अचानक एक आदमी बीच से उठ जाए तो अफ़सोस तो होता ही है. उनसे जुड़ा कोई एक किस्सा नहीं है, जो दिल को अज़ीज़ हो. रोज़मर्रा का मामला था. घर में किसी तरह की कोई बात हो, किसी की तबियत ख़राब हो, अगर हमें गुस्सा आ जाये, हम लड़ रहे हों तो तुरंत मेरी बीवी कहती थीं कि जाओ अनवर भाई को बुला लाओ. वो घर के बड़े-बुज़ुर्ग की तरह थे.
कभी हम परेशान हो जाएं, तो अनवर भाई समझाते थे कि अमां यार सब ठीक हो जाएगा. हिम्मत से काम लीजिये. आप दुनिया को समझाते हैं और खुद परेशान हो जाते हैं. हम बेटी की शादी कर रहे थे. उन दिनों कोई परेशानी थी, तो वो आये और तकिये के नीचे एक लाख रुपये रखकर चले गये. बोले रख लो, जब हों, तब दे देना. जब मैंने लौटाए तो बोले यार अब ये सब मत करो. तुमने भी तो मकान दे दिया तो, हम तुमको धीमे-धीमे पैसे देते रहे. ये सब बातें कहां आपके ज़माने में होती हैं! उस ज़माने में मकान की रजिस्ट्री, लिखापढ़ी कुछ नहीं हुई थी, उन्होंने ऐसे ही 4-5 लाख रुपये दे दिए थे. ये सारी पुरानी कद्रें उनके साथ दफन हो गईं.
असल में इस ज़माने में कब्र में आदमी नहीं जाता है, उसके साथ पूरी कद्रें, पूरे संस्कार, पूरी तहज़ीब दफन हो जाती है. इसका दुःख ज़्यादा होता है. इसका मातम ज़्यादा रहता है. बाकी दुनिया आने-जाने का सिलसिला है. हमेशा से लोग आते रहे हैं, जाते रहे हैं, लेकिन अनवर जलालपुरी जैसे लोग जब जाते हैं तो अपने साथ एक पूरी दुनिया उठाकर ले जाते हैं.
मुझे ऐसा लगता है कि अगर उनकी ज़िंदगी में परेशानियां कुछ कम रही होतीं तो अदब की दुनिया में उन्होंने और बहुत कुछ किया होता. मुझे लगता है कि हाल ही में हुई उनकी बेटी की मौत ने उन्हें बहुत परेशान किया. वो घर में सबसे बड़े थे, तो नतीजे के तौर पर वो रो भी नहीं सकते थे और वो रोये भी नहीं.
जो मिलने आया उससे एक ही बात कहते कि पहली बार अंदाज़ा हुआ कि दुःख क्या होता है. पर वो रोये नहीं. इस वाकये ने उनके ऊपर बेहद असर डाला. बिल्कुल टूट गये थे वो.
अहमद फ़राज़ का एक मशहूर शेर है कि,
ज़ब्त लाज़िम है पर दुख है क़यामत का ‘फ़राज़’
ज़ालिम अब के भी न रोएगा तो मर जाएगा
उनके साथ यही हुआ कि वो रोये नहीं और मर गए.
मैं एक बात और कहना चाहता हूं कि उनकी मौत से जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ है वो ये कि मुशायरे का टीचर चला गया. एक टीचर के बतौर वो हमेशा यही चाहते थे कि मुशायरे का स्तर ख़राब न होने पाए. मुशायरा सांप्रदायिकता या अश्लीलता की तरफ न जाये.
वो एक संचालक के बतौर नहीं बल्कि एक टीचर की तरह मुशायरे को चलाते थे. कभी किसी ने ख़राब शेर पढ़ा, गलत वाक्य बोला, तो उन्होंने टोक दिया. ये खूबी किसी एनाउंसर में नहीं मिलती, वो केवल एनाउंसर होता है. लेकिन जो टीचर होता है, वो इस ज़िम्मेदारी को महसूस करता है कि जब हम बैठे हुए हैं तब ऐसे नहीं होना चाहिए. ऐसे ढेरों किस्से हैं जिनसे अनवर भाई सालों याद किये जाएंगे.
(मीनाक्षी तिवारी से बातचीत पर आधारित)