जब भी दलित अपने आत्मसम्मान, गौरव या अधिकार की बात करते हैं तो मौजूदा सरकार का रवैया हमेशा नकारात्मक दिखता है.
200 साल पुरानी जंग की वर्षगांठ पर भड़की हिंसा की वजह से महाराष्ट्र एक बार फिर जातिगत तनाव के मुहाने पर खड़ा है. भीमा-कोरेगांव युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पेशवा बाजीराव पर जीत हासिल की थी. यह जीत इसलिए बड़ी है क्योंकि मुट्ठी भर कंपनी के सैनिकों ने पेशवाओं की एक बड़ी सेना का सामना किया था.
जीतने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़ी टुकड़ी में ज़्यादातर महार समुदाय के लोग थे, जिन्हें अछूत माना जाता था. इसलिए महार जाति के लोग इसकी सालगिरह पर कार्यक्रम का आयोजन करते हैं.
इस जीत के याद में ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1857 के आसपास में भीमा-कोरेगांव विजय स्तंभ का निर्माण कराया था.
भीमा-कोरेगांव की लड़ाई एक जनवरी 1818 को लड़ी गई थी. एक जनवरी 1927 से भीमराव आंबेडकर ने यहां जाना शुरू किया था. विजय स्तंभ में मारे गए या शहीद सैनिकों का नाम भी लिखा है.
डॉक्टर आंबेडकर बार-बार लिखते हैं, ‘जब मैं इन नामों को पढ़ता हूं तो मेरा सीना गर्व से फूल जाता है कि मेरे पुरखों ने पेशवाओं को शिकस्त दी थी.’
पेशवाओं का राज दलितों के लिए बेहतर नहीं था. दलितों को किसी भी तरह का अधिकार नहीं था. कोई दलित बिना गले में घड़ा लटकाए सड़क पर नहीं जा सकता था. एक तरह से पेशवा राज ब्राह्मण राज की तरह था.
भीमा-कोरेगांव को एक तरह से दलित गौरव या महार गौरव के नाम पर मनाने की परंपरा की शुरुआत डॉ. भीमराव आंबेडकर ने ही की थी. हर साल के नए मौके पर देशभर के दलित कार्यकर्ता वहां इकट्ठा होते थे.
इसी के 200 साल पूरे होने पर इस बार तमाम दलित, बहुजन संगठनों ने एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया था. उनका कहना था कि इस कार्यक्रम के बहाने जो नई पेशवाई है हम उसको शिकस्त देंगे. यह इस कार्यक्रम का स्लोगन था. इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा हुए.
इस कार्यक्रम पर पहले कुछ हिंदुत्ववादी और ब्राह्मणवादी संगठनों ने ऐतराज जताया था. यह कार्यक्रम शनिवारवाड़ा के सामने आयोजित किया गया था जहां से पेशवा अपना राज चलाया करते थे.
हालांकि दो दिन पहले इन संगठनों ने अपना विरोध वापस ले लिया था. इन संगठनों के कुछ नेताओं ने दलित नेता प्रकाश आंबेडकर से भी जाकर मुलाकात की थी. लेकिन फिर संगठित रूप से हिंसा हुई.
प्रत्यक्षदर्शी यही बताते हैं कि उपद्रव फैलाने वाले लोग भगवा झंडा लिए हुए थे. हालांकि ये लोग किस संगठन के थे, कौन थे, ये पता लगाना पुलिस का काम है.
लेकिन मुझे लगता है इसे दो स्तर पर देखना जाना चाहिए. पहला, ये सरकार की लापरवाही है. जब आपको पहले से यह पता है कि इतने लोग इकट्ठा होने वाले हैं तो आपको पूरी तैयारी करनी चाहिए और ये भी पता किया जाना चाहिए कि क्या जान-बूझकर ये लापरवाही तो नहीं की गई थी.
क्योंकि करीब डेढ़ साल पहले कोपरडी में हुई घटना के बाद से पूरे राज्य में मराठा और दलित आमने-सामने हैं. कोपरडी में मराठा लड़की के साथ हुई गैंगरेप की घटना के बाद से पूरे राज्य में मराठाओं ने प्रदर्शन किया था. आरोप था कि घटना को अंजाम देने वाले लोग दलित समुदाय से थे.
ऐसे राज्य में जहां मराठा-दलित टकराव की स्थिति पहले से बनी हुई है तो सरकार को पूरी तैयारी करनी चाहिए थी, जो उन्होंने नहीं की.
दूसरी बात, दलित गौरव को लेकर मसलन जैसे उना, रोहित वेमुला, आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल मामले में हम जो देखते हैं या जब भी दलित अपने आत्मसम्मान, गौरव या अधिकार की बात करते हैं तो मौजूदा सरकार का रवैया हमेशा नकारात्मक दिखता है.
यहां लगातार एक ट्रेंड दिखा रहा है. हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही ख़ुद को भले ही डॉ. आंबेडकर का शिष्य कहते हैं लेकिन वाचा और कर्मणा में अंतर दिखाई दे रहा है.
इस मामले में ही जब तक ठीक से जांच नहीं होगी तब तक दोषियों को पकड़ा नहीं जाएगा.
एक और बात यह है कि पिछले तीन सालों के दौरान दलित तबका लगातार आंदोलित रहा है. तो यह दलित एकता को रोकने की कोशिश भी हो सकती है.
अब गुजरात चुनाव के दौरान भाजपा को वाकओवर नहीं मिला है और पूरे देश के अंदर मोदी की नीतियां एक्सपोज़ हो रही हैं. तो ऐसे में कुछ नए तरह की बहस शुरू करने की बात होती है.
यह मूल बहस से मामले को भटकाने की भी बात हो सकती है. लोग ग़रीबी, किसानी, बेरोज़गारी के बजाय इस पर बात करना शुरू कर दें ताकि सरकार की फजीहत कम हो.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं. यह लेख अमित सिंह से बातचीत पर आधारित है)