जो लोग भीमा-कोरेगांव युद्ध की याद में आयोजित समारोह के आयोजकों को राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर रहे हैं वो यह क्यों छुपा ले जाते हैं कि न जाने कितनी बार मराठों ने भी अंग्रेज़ों के साथ मिलकर अन्य राज्यों के ख़िलाफ़ लड़ाइयां लड़ी हैं.
इतिहास के मुद्दे तय करने के लिए अब इतिहासकारों की नहीं, भीड़ की जरूरत है. 21वीं सदी के ‘आधुनिक भारत’ में लोग अतीत का एक और बदला चुकाने के लिए तैयार हैं. पद्मावती से पद्मावत तक का सफर पूरा होते ही इतिहास का एक और गड़ा मुर्दा निकालकर बाहर लाया गया है. नए साल में इतिहास के उन्मादीकरण का एक और नया अध्याय मुबारक हो!
दो सौ साल पहले लड़ी गई एक हार का बदला वर्तमान में चुकाने की बिसात बिछ चुकी है. 1 जनवरी 1818 को भीमा-कोरेगांव युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी की एक छोटी टुकड़ी ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की अपेक्षाकृत बड़ी सेना को बुरी तरह हरा दिया था.
इस लड़ाई में कंपनी की तरफ से लड़ने वाले ज्यादातर सैनिक महाराष्ट्र की दलित महार जाति से ताल्लुक रखते थे. वैसे तो महार शिवाजी के समय से ही मराठा सेना का हिस्सा रहे थे लेकिन बाजीराव द्वितीय ने अपनी ब्राह्मणवादी संकीर्णता की वजह से उनको सेना में भर्ती करने से इनकार कर दिया था.
यह युद्ध ढलती हुई पेशवाई के लिए एक निर्णायक पराजय सिद्ध हुआ. मराठों की पेशवा परंपरा के सबसे कमजोर प्रतिनिधि बाजीराव द्वितीय की इस हार के बाद मराठा पेशवा कंपनी सरकार के वेतनयाफ्ता कैदी होकर रह गए. एक तरह से यह शिवाजी के स्वराज का औपचारिक अंत था.
महाराष्ट्र की उच्चवर्णीय सांस्कृतिक चेतना में मराठे और पेशवा महानायक की तरह याद किए जाते हैं. समाज-सुधार आंदोलन के पुरोधा ज्योतिबाराव फुले ने पहली बार महारों के भीतर जातिगत अस्मिता का बोध पैदा किया. बीसवीं सदी के दूसरे दशक में महारों के बीच से डॉ० आंबेडकर जैसे प्रखर बुद्धिजीवी नेता उभरकर सामने आने लगे.
दलित समाज के बीच से उभरे इस नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना के खिलाफ लड़ते हुए अपना आत्मसम्मान वापस पाना था. इस संधान में भीमा-कोरेगांव का युद्ध एक मजबूत प्रतीक बनकर सामने आया. इस युद्ध को डॉ आंबेडकर ने कंपनी सरकार के बजाय महारों द्वारा ब्राह्मणवादी पेशवाई को उखाड़ फेंकने वाली घटना के तौर पर याद किया.
दलित नायकों में ज्योतिबाराव फुले से लेकर बाबासाहेब आंबेडकर तक भारत में ब्रिटिश राज को दलितों के दृष्टिकोण से मुक्तिदायी मानते हैं. उनका मानना है कि अंग्रेजी राज ने आकर जिस राजनीतिक व्यवस्था को उखाड़ फेंका उसका मूल आधार ब्राह्मणवादी था.
हालांकि भारत में अंग्रेजी राज के ‘अच्छे’ प्रभाव की यह व्याख्या कई महत्वपूर्ण तथ्यों को सिरे से नजरअंदाज करती है. विषय की गहराई में जाए बिना एक बात का उल्लेख करना यहां जरूरी है.
विलियम डिग्बी और माइक डेविस के शोध बताते हैं कि अंग्रेजी राज से पहले के इतिहास के उलट गुलाम भारत के दो सौ सालों के दौरान अकाल और भुखमरी की वजह से करोड़ों लोग असमय मौत के मुंह में समा गए.
अमर्त्य सेन की मानें तो अकाल पर होने वाली मौतों की वजह अनाज खरीद पाने की सामर्थ्य का न होना था. तो क्या यह पूछा जा सकता है कि इस ‘भले’ अंग्रेजी साम्राज्य में मरने वाले ये गरीब और फटेहाल लोग दलित और कमजोर तबकों से नहीं थे तो भला और कौन थे?
यानी दलित अस्मिता की राजनीति के लिए जो ब्रिटिश राज ‘भला’ था, आम दलितों के लिए वही मौत का कहर बनकर बरपा था.
बहरहाल, दलितों की सामाजिक दशा ब्राह्मणवादी रूढ़ियों की वजह से जितनी खराब थी उस हालत में ऐसी किसी भी व्याख्या को या तो विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया जा सकता है या अति विनम्रतापूर्वक तर्क से चुनौती दी जा सकती है.
लेकिन पिछले कुछ दिनों में जितनी तेजी से कॉरपोरेट मीडिया ने भीमा-कोरेगांव के मुद्दे को राष्ट्रवाद और राष्ट्रद्रोह से जोड़ दिया है, वो बहुत दिलचस्प है. कहा जा रहा है कि कोरेगांव में इकट्ठी हुई भीड़ अंग्रेजों की जीत का जश्न मना रही थी इसलिए उन पर हमला हुआ.
सवाल उठता है कि क्या इस लड़ाई में पेशवा और मराठे ‘विदेशी’ अंग्रेजों के खिलाफ ‘देश’ को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे? अगर ऐसा नहीं था तब आज कोरेगांव को याद करने वाले किस आधार पर ‘देशद्रोही’ सिद्ध किए जा रहे हैं?
यह हास्यास्पद है कि 1925 में संगठन बनाकर भी जिनका आजादी की लड़ाई से कोई रिश्ता नहीं रहा, 1818 के एक युद्ध में अंग्रेजों की जीत के तथाकथित जश्न का दर्द भी सबसे ज्यादा उन्हीं को हो रहा है.
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में राजनीतिक रूप से भारतीय राष्ट्र जैसी कोई चीज मौजूद ही नहीं थी. मराठे किसी भारतीय राष्ट्र के लिए नहीं बल्कि अपना क्षेत्रीय राज्य को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे. उस समय का भारत राजनीतिक रूप से कई छोटे- बड़े राज्यों में बंटा था जो आपस में प्रभुत्व के लिए लगातार लड़ते रहते थे.
आज जो प्रवक्ता टीवी चैनल्स पर बैठकर इस समारोह के आयोजकों को राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर रहे हैं वो यह क्यों छुपा ले जाते हैं कि न जाने कितनी बार मराठों ने भी अंग्रेजों के साथ मिलकर अन्य राज्यों के खिलाफ लड़ाइयां लड़ी हैं.
अभी कितने ही दिन बीते होंगे जब यही लोग अंग्रेजों के विरुद्ध अनवरत लड़ने वाले टीपू सुल्तान को देशद्रोही ठहराने के लिए गले फाड़कर चीख रहे थे. जबकि इन्हीं मराठों ने अंग्रेजों से मिलकर टीपू सुल्तान और उनके पिता हैदर अली के विरुद्ध अनेकों लड़ाइयां लड़ी थीं. जबकि उस समय शायद एक अकेले हैदर अली और टीपू सुल्तान ही थे जिन्होंने अंग्रेजी राज के खतरे को पहचानते हुए उनके साथ कभी समझौता नहीं किया.
वैसे भी गुलामों को मालिक की नहीं, अपनी आजादी की लड़ाई लड़नी चाहिए. 1818 के कोरेगांव युद्ध में पेशवा की सेनाओं के खिलाफ महारों ने ठीक यही किया था. अपने ही समाज में गले में मटका और कमर में झाड़ू बांधने को मजबूर महारों का भला कौन-सा राष्ट्र हो सकता था जिसको बचाने के लिए लड़ना उनका धर्म था?
जिस तरह कुछ हिंदूवादी संगठनों ने भीमा-कोरेगांव में इकठ्ठा भीड़ पर हमले किये, वो निश्चित ही देश में प्रतिक्रियावाद के हमलों की और कड़ी है. आरएसएस जैसे संगठनों ने हाल के दिनों में दो प्रवृत्तियों को आम बना दिया है-एक इतिहास के मुद्दों को सड़कों पर सुलझाना और दूसरा, अपने से असहमत लोगों पर हिंसक जानलेवा हमले करना.
इन हमलों के बाद से इस संघर्ष को पूरी तरह दलित बनाम मराठा संघर्ष के तौर पर प्रचारित करने की योजना है.
दरअसल हिंदू सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाले लोग ही भारतीय संविधान को बदलने और उसकी जगह मनुस्मृति लागू करने की बात करते हैं. यानी सांप्रदायिकता और जातिवाद का गठजोड़ मिलकर देश को कई स्तरों पर विभाजित करना चाहता है.
इस खतरे का मुकाबला करने की रणनीति अस्मितावादी राजनीति के पास नहीं है, यह पिछले कुछ सालों में सिद्ध हो चुका है. कहा जाता रहा है कि दलित-पिछड़ा-मुस्लिम गठजोड़ बनाकर आरएसएस राजनीति के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ा जा सकता है.
लेकिन मुस्लिम जो कि आरएसएस के सीधे निशाने पर होने की वजह से उसके स्वाभाविक विरोधी हैं, को छोड़कर बाकी दोनों वर्गों का सामाजिक आधार सांप्रदायिक योजना के झंडे तले बड़ी आराम से गोलबंद किया जा चुका है.
कहने का अर्थ है कि जाति की लाइन पर अगर समाज में किसी तरह का ध्रुवीकरण होता है तो उसका फायदा निश्चित ही आरएसएस-भाजपा को होगा. क्योंकि उसके पास हर वर्ग, समुदाय और जाति को समेटने वाला हिंदुत्व का ग्रैंड प्रोजेक्ट है.
इसका मुकाबला किसी भी हालत में सामाजिक बंटवारे की राजनीति से नहीं हो सकता, यह बात अस्मितावादी राजनीति को आज नहीं तो कल समझनी होगी.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने अठारहवीं सदी में भारतीय समाज की आपसी फूट का फायदा उठाया था. इसीलिए न सिर्फ विभिन्न धर्मों बल्कि विभिन्न समुदायों को भी चिन्हित करके उसने उन्हें आपस में एक-दूसरे से लड़ाने की नीति अपनाई.
आजादी की लड़ाई ने तकरीबन सौ साल मेहनत करके भारतीयता को हर देशवासी की प्राथमिक पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की थी. भले ही हर भारतीय एक ही समय में कई तरह की द्वितीयक पहचानों को साथ लेकर चलता रहता है.
हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व ने यह समझ लिया था कि अंग्रेजी राज से मुकाबला करने के लिए एक साझा राष्ट्रवाद की जरूरत थी जो सबको एक सामान्य आधार पर जोड़ता हो.
आजादी की लड़ाई के बाद न सिर्फ गांधी-नेहरु आदि नेताओं ने बल्कि खुद डॉ आंबेडकर ने सामाजिक न्याय की लड़ाई को बड़ी खूबसूरती से साझा राष्ट्रवादी पहचान का हिस्सा बना दिया था.
पिछले काफी समय से हम लगातार पुरानी बीमारियों की ओर फिर से लौट रहे हैं. समाज को सांप्रदायिक और जातिगत खंडों-उपखंडों में बांटकर एक-दूसरे के सामने खड़े कर देने से कहीं हम फिर उसी दौर में वापस न चले जाएं जहां से यहां तक आने में हमें डेढ़ सौ साल लगे हैं. अगर ऐसा हुआ तो हमें बाहरी दुश्मनों की कोई जरूरत ही नहीं रह जायेगी. हमारे पतन के लिए हमारे आपसी संघर्ष ही बहुत होंगे.
भारत जैसे देश में जहां का राजनीतिक-सामाजिक तानाबाना बेहद जटिल है, आपसी वाद-विवाद और मत-मतान्तर स्वाभाविक हैं. लेकिन इतिहास की इन गुत्थियों को अगर खुले दिमाग से सुलझाने की कोशिश हो तो ही हम सबकी बेहतरी है.
खुलेआम मारपीट, हिंसा और संघर्ष का सहारा लेकर अतीत के बदले वर्तमान में चुकाने से तो जाने कितने संघर्ष आपसी खून-खराबे में बदल जायेंगे.
अपनी गलती स्वीकार करने और माफ कर देने का चलन आज खत्म हो चला है. वरना बेहतर तो यह होता कि एक समय महारों के साथ दुर्व्यवहार करने वाली जाति के लोग उनसे अपने पुरखों द्वारा किये गए बुरे व्यवहार के लिए माफी मांग लेते.
यह कहते कि उनके पूर्वजों से जाति के आधार पर दलितों के साथ जो अमानवीयताएं हुई हैं, उनके लिए वो शर्मिंदा हैं और प्रायश्चित करने को तैयार हैं.
क्या ही गजब होता कि इसके बाद दलित राजनीति के नेता सार्वजनिक रूप से अतीत की हार-जीत को भुलाकर मराठों और पेशवाओं को माफ कर देते. उन्हें बताते कि दलित अब समाज में किसी तरह की ऊंच-नीच और भेदभाव को कायम नहीं रहने देंगे.
और यह भी बताते कि हजारों सालों से बंधी गुलामी की बेड़ियां तोड़ने के लिए सबको मिलकर क्या करना और क्या नहीं करना होगा. यह निरा आदर्शवाद नहीं है. लोकतांत्रिक ढंग से जनचेतना के निर्माण की प्रक्रिया जिनको मालूम है वो जानते हैं कि इस बात का क्या महत्त्व है.
अंतोनियो ग्राम्शी समझाते हैं कि जनता तब तक राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं होती जब तक वो राजनीतिक विचारधाराओं में बांधी नहीं जाती है.
याद रखिये बात-बात में आस्तीनें चढ़ाने से एक दिन आयेगा जब पूरे देश में लोग हथियार लेकर सड़क पर मसले सुलझाने लगेंगे. जिन्हें गृह युद्ध की सफाई के बाद तानाशाह का उदय नजर आता है उनकी बांछें खिल जायेंगी और देश में राजनीतिक मुद्दों के हिंसक समाधान की संस्कृति बनाकर लोकतंत्र का मर्सिया फिर ठाठ से पढ़ा जाएगा.
(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)