क्या विधानसभा पहुंचकर कम होंगी आदिवासियों की मुश्किलें?

सोनभद्र ज़िले की दो सीटें ऐसी हैं जहां आदिवासियों की अच्छी संख्या है. प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इस इलाक़े की सुंदरता को दुहने पर तो सबकी नज़र है, लेकिन विकास पर किसी का ध्यान नहीं है.

सोनभद्र ज़िले की दो सीटें ऐसी हैं जहां आदिवासियों की अच्छी संख्या है. यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर तो सबकी नज़र है, लेकिन लोगों की चिंता किसी को नहीं है.

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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पहली बार सोनभद्र जिले की दो सीटें ओबरा और दुद्धी अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित की गई हैं. 403 विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में दो प्रतिनिधि अब आदिवासी भी होंगे. वैसे उत्तर प्रदेश में आदिवासी मतदाता बिखरे हुए हैं, लेकिन दुद्धी में क़रीब 36 प्रतिशत और ओबरा में क़रीब 18 प्रतिशत आदिवासी मतदाता हैं.

उर्जांचल के नाम से प्रसिद्ध इस इलाक़े में लंबे समय से अलग ज़िले की मांग को लेकर संघर्ष चल रहा है. सोनभद्र ज़िले के म्योरपुर बाज़ार के रहने वाले उमेश का कहना है, ‘खनिज संसाधनों के लिहाज से यह इलाक़ा उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश में धनी है. यहां पर रिहंद बांध, शक्तिनगर में एनटीपीसी, अनपरा पाॅवर प्लांट, विंध्यनगर पाॅवर प्लांट, ओबरा में पाॅवर प्लांट, रेणुसागर पाॅवर प्लांट, पिपरी पाॅवर प्लांट है. इसके अलावा इस इलाक़े में तक़रीबन 200 क्रशर प्लांट हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘ अगर हम इंडस्ट्री की बात करें तो डाला सीमेंट फैक्ट्री, हिंडाल्को एल्यूमीनियम प्लांट, कनौडिया केमिकल्स, ककरी, कृष्णशिला, बीना, अमलोरी और दुद्धीचुआ कोल प्लांट हैं. इसके अलावा सोन नदी, कनहर में रेत और मोरंग का खनन होता है. लेकिन अगर यहां के आम लोगों की बात करें तो उनके हाथ कुछ नहीं है. अगर आपका घर शक्तिनगर के इलाक़े में हैं तो ज़िला मुख्यालय जाने में आपको 120 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है. इसलिए हम दुद्धी को अलग ज़िला मुख्यालय बनाए जाने की मांग करते हैं. अंग्रेज़ों के ज़माने में दुद्धी के लिए अलग से एडमिनेस्ट्रेशन था लेकिन आज़ादी के बाद इसे मिर्ज़ापुर के हवाले कर दिया गया. वैसे भी 4 मार्च 1989 में जब सोनभद्र अलग हुआ तब भी यह मांग ज़ोर पकड़ी लेकिन प्रशासन ने ध्यान नहीं दिया. अब पिछले कुछ समय से लेकर इसकी मांग ने जोर पकड़ा है.’

फ़िलहाल दुद्धी सीट इससे पहले 2012 तक अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थी. वहीं ओबरा सीट 2008 में परिसीमन के बाद बनी. 2012 में यह सामान्य सीट थी. लेकिन इस बार दोनों सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. हालांकि इस पर रोक के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की गई. लेकिन अदालत ने चुनाव आयोग के इस फ़ैसले पर रोक लगाने से इंकार कर दिया.

दुद्धी के रहने वाले मंगल खरवार बताते हैं,‘ इस इलाक़े से तेंदु पत्ता, महुआ, क़ीमती लकड़ियां और विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियां बाहर भेजी जाती हैं. यह इलाक़ा जितना संपन्न है यहां का स्थानीय निवासी उतना ही ग़रीब है. सारे संसाधनों पर बड़ी कंपनियों का क़ब्ज़ा है. यह आज से नहीं है. पहले अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा था अब पूंजीपतियों का क़ब्ज़ा है. कुछ सड़कें अच्छी बनी हैं लेकिन वह भी इसलिए क्योंकि कंपनियां यहां का खनिज बाहर ले जा सकें. यहां पर न तो बेहतर अस्पताल है, न बढ़िया स्कूल है. यह तो छोड़िए पीने का साफ़ पानी तक उपलब्ध नहीं है, जबकि इन कंपनियों के चलते यहां पूरा इलाक़ा धूल से भरा रहता है. यहां के सरकारी नल से ख़राब पानी निकलता है.’

फ़िलहाल दुद्धी विधानसभा सीट पर मुख्य मुक़ाबला बसपा प्रत्याशी विजय सिंह गौड़, भाजपा के हरिओम और कांग्रेस के अनिल कुमार सिंह समेत आठ प्रत्याशियों के मध्य है. वहीं ओबरा सीट पर मुख्य मुक़ाबला सपा के रवि गौड़ और भाजपा के संजीव कुमार समेत 11 प्रत्याशियों के मध्य है.

ओबरा के राम सिंह कहते हैं,‘ इस इलाक़े की तरफ़ सबका ध्यान सिर्फ लूट के लिए है. यहां पर बाॅक्साइड, लाइमस्टोन और कोयला प्रचुर मात्रा में है, लेकिन आम आदमी खनिज का क्या करेगा. उसे तो रोटी से मतलब है. यहां का विकास नहीं किया गया है. अगर इसे सिर्फ़ पर्यटन के हिसाब से विकसित कर दिया जाए तो बड़ी संख्या में यहां के लोगों को रोज़गार मिल जाएगा. यहां पहाड़, झरने और प्राकृतिक ख़ूबसूरती बिखरी पड़ी है. लेकिन न तो हमारे जनप्रतिनिधि इस दिशा में ध्यान दे रहे हैं और न ही सरकार इस पर काम कर रही है. जवाहर लाल नेहरू जब इस इलाक़े में रिहंद बांध के उदघाटन के समय आए थे तो उन्होंने कहा था कि प्राकृतिक ख़ूबसूरती के लिहाज से यह भारत का स्विटरजरलैंड है, लेकिन किसी का कोई ध्यान इस पर नहीं है.’

फ़िलहाल इस पूरे इलाक़े में कई प्राचीन क़िले हैं जो अपने तिलिस्म के लिए मशहूर हैं. इसके अलावा कई प्राचीन मंदिर भी है. स्थानीय लोगों का कहना है कि बरसात के मौसम में इस इलाक़े की ख़ूबसूरती देखने लायक होती है. सोनभद्र ज़िले की सीमाएं बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की सीमाओं को छूती हैं. संसाधनों की अधिकता होने और स्थानीय निवासियों के साथ भेदभाव के चलते कुछ इलाक़ों को प्रशासन ने नक्सल प्रभावित घोषित किया है.