लोगों को यक़ीन दिलाया गया कि नेताजी इसलिए भूमिगत रहे क्योंकि नेहरू ने ब्रिटिश सरकार से गुपचुप समझौता किया था कि अगर नेताजी कभी जीवित मिलते हैं तो उन्हें एक युद्ध अपराधी के रूप में तत्काल ब्रिटेन को सौंप दिया जाएगा.
एक बार तकरीबन सत्तर साल के एक बुजुर्ग मिले. घरों में अखबार डालने वाले इन बुजुर्ग की शर्ट पर एक बिल्ला टंका था. उस पर नेताजी की तस्वीर के साथ लिखा था- नेताजी जिंदा हैं.
यह बात लगभग आठ बरस पुरानी रही होगी. मैंने हिसाब लगाया कि 23 जनवरी 1897 को कटक में पैदा हुए नेताजी अगर वाकई जिंदा होते तो आज कितने बरस के होते? यकीनन उनकी उम्र तब लगभग 113 बरस होती. किसी भी व्यक्ति के लिए इतनी लम्बी उम्र तक सक्रिय रहना तो दूर, ठीक से जीना ही असंभव होता है.
लेकिन उन अर्धशिक्षित बुजुर्ग के लिए नेताजी अभी जिंदा थे. यह पूछने पर कि इतने निडर नेताजी आखिर किससे डरकर भूमिगत हैं, बड़ा भोला-सा जवाब मिला- वो अंदर ही अंदर तैयारी कर रहे हैं. जिस दिन उनकी तैयारी पूरी हो जायेगी, वो प्रकट हो जायेंगे.
उनसे पूछना बेकार था कि क्या तैयारी और किस चीज़ की तैयारी? भारत जैसे देशों में महानायक आस्था का विषय बन जाते हैं. नेताजी एक महानायक थे जिनके भीतर आम लोगों को एक मुक्तिदाता दिखाई देता था.
बाद के दिनों में यह समझने की भरसक कोशिश की कि नेताजी के जिंदा होने के पीछे का राज़ क्या है?
कई लोगों ने गांधी को अपने सीने पर तीन गोलियां खाते देखा था. कईयों ने गोलियों से छलनी उनके शरीर की फोटो देखी थी. लेकिन नेताजी की विमान दुर्घटना के बाद उनके न होने की सिर्फ खबर आयी थी. किसी ने उनकी लाश नहीं देखी, कोई उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुआ.
जब आज के ताइवान में ताईहोकू एरोड्रम पर उनका ओवरलोड प्लेन क्रैश हुआ तो उनके साथ कई लोग थे. जिनमें से कर्नल हबीबुर्रहमान और जापानी मेजर कोनो ने अपने बयानों में नेताजी के बुरी तरह झुलस जाने और फिर संघर्ष करते हुए अचेत हो जाने की पुष्टि की थी.
हबीबुर्रहमान का कहना है कि नेताजी ने अंतिम समय में उनसे कहा कि- “हबीब, मेरा अंत बहुत जल्द निकट आ रहा है. मैंने अपनी पूरी जिंदगी देश की आज़ादी के लिए लगा दी. मैं अपनी मातृभूमि भूमि के लिए ही प्राणों का उत्सर्ग भी कर रहा हूँ. जाओ और मेरे देशवासियों से कहो कि वो भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ते रहें. भारत बहुत जल्द आज़ाद होगा.”
नैनमोन आर्मी हॉस्पिटल के डॉ० तानेयोशी योशिमी ने उनकी मृत्यु के बाद उनका डेथ सर्टिफिकेट बनाया. जापानी भाषा में ‘चन्द्र बोस’ की मृत्यु का यह प्रमाणपत्र बाद में स्थानीय म्युनिसिपल ऑफिस में जमा किया गया. लेकिन बाद के दिनों में जब उसे खोजने की कोशिश की गयी तो नहीं मिला क्योंकि ताइवानी इतिहास के इस दौर के ज्यादातर जापानी रिकॉर्ड नष्ट कर दिए गए थे.
सिर्फ़ आंखों को छोड़कर पूरे शरीर में लिपटी पट्टियों वाले नेताजी के शव की कोई फोटो भी नहीं खींची गयी थी. हालांकि उनके शरीर को संरक्षित करने के लिए होमोलिन के इंजेक्शन दिए गए थे. योजना यह थी कि उनके शव को सिंगापुर या टोकियो पहुंचाया जा सके.
लेकिन उस समय जापान आत्मसमर्पण की शर्तें तय कर रहा था और अमेरिका ने औपचारिक रूप से कब्ज़ा नहीं जमाया था, इसलिए अंततः उनका शव का ताइपे में ही 20 अगस्त 1945 को अंतिम संस्कार कर दिया गया.
नेताजी की मृत्यु पर यकीन न करने के पीछे कुछ और घटनाएं भी ज़िम्मेदार हैं. जिस तरह 1941 में अंग्रेजी खुफिया विभाग को धता बताकर नेताजी देश छोड़कर निकल भागे थे, उसने उन्हें चमत्कारिक नायक का दर्जा दे दिया था. फिर 1942 में खबर आयी कि एक प्लेन क्रेश में नेताजी की मृत्यु हो गयी है.
यह खबर इतनी ज्यादा फ़ैली कि गांधीजी ने नेताजी की मां को चिठ्ठी लिखकर इस अफवाह पर अपनी चिंता प्रकट की. फिर बाद में यह खबर भी झूठ निकली और इस घटना ने नेताजी की छवि एक ऐसे नायक की बना दी जो अपने दुश्मन को बार-बार धता बताने में माहिर था.
इसीलिए जब 1945 में नेताजी की मृत्यु हुई तो आम जनमानस ने इसे सच मानने से सिरे से इनकार कर दिया. इसके बाद नेताजी के जीवित होने की खबरें उनके नायकत्व के प्रति अपार आदरभाव से भरे लोगों के लिए एक सच्चाई बन गयीं.
फिर भारत में तब तक एक ऐसी विचारधारा तैयार खड़ी हो गयी थी जो नेहरू को खलनायक बनाने पर तुली हुई थी. आरएसएस ने नेताजी की मृत्यु और गुमनामी की अफवाह में झूठ और फरेब का तड़का लगाकर उसे आम जनता के बीच सत्य बना देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी.
आरएसएस ने सोचा कि इस ग़लतफ़हमी को ही वैकल्पिक इतिहास बनाकर परोसा जाए. एक ऐसा वैकल्पिक इतिहास जिसे नेहरू के प्रशंसक वामपंथी इतिहासकार जानबूझकर छिपा ले जाते हैं.
लोगों को यकीन दिलाया गया कि नेताजी इतने लंबे समय तक इसलिए भूमिगत रहे क्योंकि नेहरू ने ब्रिटिश सरकार से गुपचुप अंदरूनी समझौता कर लिया था. यह समझौता था कि अगर नेताजी कभी जीवित मिलते हैं तो उन्हें एक युद्ध अपराधी के रूप में तत्काल ब्रिटेन को सौंप दिया जाएगा.
दरअसल, ब्रिटिश सरकार नेताजी की मृत्यु की खबर को लेकर बहुत सतर्क थी. वो हर तरह से जांच-परखकर ही इस मुद्दे पर यकीन करना चाहती थी. इसलिए उसने अपने दो खुफिया अधिकारियों को खबर की सत्यता की जांच के लिए ताइवान भेजा था.
ब्रिटिश सरकार नेताजी की लोकप्रियता को देखते हुए यह तय करने की उधेड़बुन में थी कि विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद अगर कहीं नेताजी जीवित वापस आ गए तो उनके साथ क्या सलूक किया जाए?
लेकिन ब्रिटिश सरकार की नीति को आज़ाद भारत में नेहरू की सरकार पर भी मनमाने ढंग से थोप दिया गया क्योंकि इससे स्वाधीनता आंदोलन के दो कद्दावर साथियों को एक-दूसरे के बरक्स आसानी से खड़ा किया जा सकता था.
इस बात की फ़िक्र किसे थी कि आज़ाद हिन्द फौज के कैदियों पर दिल्ली के लालकिले में चले ऐतिहासिक मुकदमे के वक़्त सैनिकों के बचाव में नेहरू ने दशकों के बाद अपना बैरिस्टरी वाला कोट पहना था.
इसके अलावा यह इतिहास भी छिपा लिया गया कि 1920 के दशक के मध्य से ही नेहरू और सुभाष की जोड़ी ने ही बड़ी संख्या में युवाओं को राष्ट्रीय आंदोलन की ओर आकर्षित किया था. यह तथ्य भी गुमनाम हो गया कि दोनों ने मिलकर जाने कितनी बार कांग्रेस की बुजुर्ग पीढ़ी के सामने नयी ऊर्जा और तेवर वाली राजनीति की पैरवी की थी.
अव्वल तो नेताजी को ब्रिटेन को सौंपने की बात ही सरासर गप्प है. लेकिन अगर कुछ समय के लिए यह मान भी लें तो क्या इतनी बड़ी राजनीतिक हैसियत और अपार जनसमर्थन वाले नेताजी को नेहरू ब्रिटेन को सौंपने का जोखिम ले सकते थे?
या क्या दुनिया की सबसे ताकतवर सत्ता के टकराने का साहस रखने वाले नेताजी इतने बुजदिल हो सकते थे कि ब्रिटेन को सौंपे जाने के डर से भूमिगत रहकर गुमनामी की जिंदगी गुजार लेते?
अभी पिछले साल की तो बात है जब नेहरू द्वारा नेताजी की जासूसी सम्बन्धी फ़र्जी फाइलें दिखाकर भाजपा सरकार ने अपनी किरकिरी कराई थी.
नेताजी के दूरदराज के कुछ रिश्तेदारों को सत्ता की रेवड़ियां दिखाकर उन्हें आरएसएस के एजेंडे पर खेलने के लिए टीवी चैनल्स के सामने पेश किया गया था. जबकि उनके सबसे करीबी रिश्तेदार जिनमें प्रसिद्ध इतिहासकार सुगाता बोस भी शामिल हैं, बार-बार नेताजी की मृत्यु और जासूसी से जुड़ी खबरों का खंडन करते रहे.
जिन लोगों ने भी नेताजी को पढ़ा-समझा-जाना है वो जानते हैं कि नेताजी कुछ भी हो सकते थे, अप्रासंगिक नहीं हो सकते थे. चुपचाप या गुमनाम बैठकर तमाशा देखना उनकी फ़ितरत नहीं थी.
नेताजी अगर जिंदा होते तो सबके सामने अपने चिर-परिचित तेवरों के साथ खड़े होते भले ही वो नेहरू के साथ होते या स्वतंत्र भारत में नेहरू के विरुद्ध क्योंकि नेताजी, नेताजी थे. वो दिलों में जिंदा थे, हैं और रहेंगे. और जो दिलों में जिंदा रहते हैं वो जिंदा रहते हुए छुपकर हरगिज नहीं रहते.
(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)