क्या ज़्यादातर न्यूज़ चैनलों ने चुनाव के दिन जान-बूझकर ‘आईएसआईएस के कथित इंदौर-उज्जैन या लखनऊ मॉड्यूल’ का हौव्वा खड़ा किया ताकि मतदान को प्रभावित किया जा सके!
सात मार्च की शाम टीवी खोलते ही किसी आतंकी घटना की ब्रेकिंग न्यूज़ से साक्षात्कार हुआ. शुरू में मैंने बहुत गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि घटना साधारण सी लग रही थी. एक पैसेंजर ट्रेन में कम तीव्रता का बम फटा था, जिसमें आठ लोगों को साधारण चोटें आई थीं.
लेकिन कुछ ही देर बाद घटना ‘असाधारण’ बनकर सामने आईः ‘भारत में आईएसआईएस का पहला आतंकी हमला. उज्जैन ट्रेन बम विस्फोट के तार उत्तर प्रदेश के लखनऊ से जुड़े. आतंकियों ने सीरिया में भेजे थे फोटोग्राफ्स’
फिर ख़बर आई, ‘आईएसआईएस के मॉड्यूल का एक आतंकी सैफुल्लाह एटीएस के हाथों मारा गया. कुछ और आतंकियों के लखनऊ के ठाकुरगंज स्थित अड्डे में छिपे होने की संभावना.’
इस मामले से जुड़ी ख़बरें लगातार नया मोड़ लेती रहीं. सात और आठ मार्च के बीच इससे जुड़े समाचार ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर दिखाए जाते रहे. सभी अख़बारों ने लीड स्टोरी के रूप में लिया.
आठ मार्च को सभी प्रमुख चैनलों ने मतदान से ज्यादा प्रमुखता ठाकुरगंज के कथित एनकाउंटर, प्रधानमंत्री मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के सोमनाथ मंदिर दौरे और पूजा के कवरेज को दी. लेकिन यूपी में आख़िरी चरण का मतदान पूरा होते ही इस ‘महा-ब्रेकिंग न्यूज़’ का लोच ज़ाहिर होने लगा.
देर शाम तक ख़बर आई कि सैफुल्लाह या अन्य कथित आतंकियों के आईएसआईएस से रिश्तों को लेकर यूपी पुलिस और केंद्रीय गृह मंत्रालय से कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं है. फिर मीडिया ने कथित आतंकियों के आईएसआईएस से रिश्तों की ख़बर किस आधार पर चलाई?
कुछ ही देर बाद यह बात साफ़ हो गई कि लगभग सभी चैनलों और अख़बारों ने आईएसआईएस से रिश्तों की ख़बर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और राज्य के गृह मंत्री के बयान के आधार पर चलाई. यह ‘महा-ब्रेकिंग न्यूज़’ और इसका फॉलोअप यूपी की 40 सीटों के मतदान पूरा हो जाने तक सभी प्रमुख चैनलों पर चलता रहा.
आख़िर मतदान से कुछ घंटे पहले और मतदान के दिन ठाकुरगंज आतंकी एनकाउंटर को भ्रामक सूचनाओं के साथ लगातार ‘लाइव’ या ‘विलम्बित प्रसारण’(डेफर्ड टेलीकास्ट) के रूप में ‘स्क्रीन’ पर बनाए रखने का क्या औचित्य था?
इस कथित आतंकी वारदात का कवरेज क्या भारत सरकार की उस दिशा-निर्देशावली का उल्लंघन नहीं है, जिसके तहत किसी आतंकी वारदात के लाइव प्रसारण की मनाही की गई है?
इस कथित एनकाउंटर के अलावा प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के सोमनाथ मंदिर में जाकर पूजा आदि करने का लाइव प्रसारण भी मतदान के वक़्त लगातार जारी रहा. लेकिन उस दिन की तीसरी बड़ी ख़बर को ‘ब्रेक’ करने में चैनलों ने कोई तेजी नहीं दिखाई.
वह ख़बर थी, 2007 के अजमेर दरगाह बम-विस्फोट कांड में ‘भगवा-आतंक’ के आरोपी असीमानंद सहित साल लोगों का विशेष एनआईए कोर्ट से बरी होना और एक आरएसएस प्रचारक सहित संघ से जुड़े दो आरोपियों का सजा सुनाया जाना.
सिविल सोसायटी और न्यायिक क्षेत्र में भी विवादास्पद स्वामी असीमानंद के बरी होने पर अचरज प्रकट किया जा रहा है, जिन्होंने कई मौकों पर अपना गुनाह कबूल किया था.
कोर्ट ने जिन तीन व्यक्तियों को इस मामले में गुनहगार पाया, उनमें दो के संबंध आरएसएस से रहे बताए गए हैं, दिनेश गुप्ता संघ के प्रचारक रहे हैं और सुनील जोशी भी संघ से जुड़े रहे, जिनकी दिसंबर, 2007 मे ही हत्या हो गई थी.
प्रिंट और वेब ने इस मामले को प्रमुखता से कवर किया लेकिन टेलीविजन में वैसी तवज़्जो नहीं मिली.
बड़ा सवाल उठता है, क्या ज़्यादातर न्यूज़ चैनलों ने मतदान के दिन जान-बूझकर ‘इस्लामी आतंक’ और ‘आईएसआईएस के कथित इंदौर-उज्जैन या लखनऊ माड्यूल’ का हौव्वा खड़ा किया ताकि मतदान के वक़्त किसी समुदाय-विशेष के ख़िलाफ़ बहुसंख्यक समुदायों को गोलबंद करने में कुछ शक्तियों को मदद मिले!
क्या इसी तरह के हौव्वे के दबाव में यूपी पुलिस ने एक संदिग्ध आतंकी (मारे जाने के बाद जिसके पास हथियार के नाम पर एक देसी पिस्तौल मिली है!) को गिरफ्त में लेने की कोशिश करने के बजाय हड़बड़ी मे मार गिराया?
न्यूज़ चैनलों पर तकरीबन 20 घंटे यह वारदात सबसे बड़ी ख़बर के रूप में दिखाई जाती रही. यही नहीं, ज़्यादातर चैनलों ने तमाम स्वनामधन्य सुरक्षा-विशेषज्ञों के साथ इस वारदात के अलग-अलग पहलुओं पर लंबी-लंबी बहसें भी कराईं.
पर इन बहसों में यह सवाल सिरे से गायब रहा कि केंद्रीय गृह मंत्रालय या यूपी पुलिस के अधिकृत सूत्रों से ‘आईएसआईएस कनेक्शन’ की पुष्टि अगर नहीं की गई थी तो सिर्फ मध्य प्रदेश सरकार के कुछ मंत्रियों के बयान के आधार पर ‘आईएसआईएस कनेक्शन’ की ख़बर आठ मार्च की सुबह से शाम तक (मतदान ख़त्म होने तक) क्यों चली? और केंद्रीय मंत्रालय या संबद्ध एजेंसियों ने उसी वक़्त इस ख़बर पर सफाई क्यों नहीं भेजी कि जांच के बगैर भारत में आईएसआईएस का हौव्वा क्यों खड़ा किया जा रहा है!
सबसे पहले उत्तर प्रदेश के एक क्षेत्रीय चैनल और फिर देश के अनेक बड़े चैनलों ने इसका लाइव प्रसारण किया और कुछ ‘समझदारों’ ने उन तमाम तस्वीरों को विलम्बित (डेफर्ड) के तौर पर पेश किया.
कुछ ने उक्त क्षेत्रीय चैनल के ‘विजुअल्स’ साभार लिए तो ज्यादा ने एएनआई या स्वयं अपनी टीम के विजुअल्स के साथ कवर किया. इस कवरेज में ऐसे अनेक विजुअल्स हैं, जिसमें ठाकुरगंज स्थित आतंक विरोधी आॉपरेशन के दौरान घटनास्थल से महज पांच या दस फीट की दूरी पर पुलिस के उच्चाधिकारियों को संवाददाताओं और छायाकारों से बड़े सहज भाव से बात करते दिखाया गया है.
थोड़ी देर के लिए हम मान लेते हैं कि कुछ चैनलों ने इसे लाइव दिखाया और ज़्यादातर ने ‘लाइव’ के बजाय ‘डेफर्ड’ प्रसारण के तौर पर पेश किया. लेकिन वे तस्वीरें तो आॉपरेशन होते हुए ली गई हैं.
इसका मतलब साफ़ है कि सुरक्षा बलों या उच्च प्रशासनिक स्तर से चैनलों या अख़बारों को आॅपरेशन होते वक़्त भी घटनास्थल पर आकर फोटोग्राफी करने का पूरा मौका दिया गया.
दूसरी तरफ, पठानकोट आतंकी हमले के कथित कानून-विरोधी कवरेज के लिए पिछले दिनों एनडीटीवी-इंडिया के ख़िलाफ़ सरकारी स्तर पर कार्रवाई का ऐलान हुआ. एक दिन के लिए उसका प्रसारण ठप करने का सरकारी फरमान आया.
बाद में चौतरफा दबाव के बाद सरकार ने इस बारे में अपना फैसला स्थगित किया. यहां यह बताना ज़रूरी है कि 26/11 के नाम से कुख्यात मुंबई आतंकी हमले के बाद गठित भारत सरकार की उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी, जिसे सरकार ने मंज़ूर कर लिया कि भविष्य में किसी भी ‘एंटी-टेरर आॉपरेशन’ का लाइव-कवरेज नहीं करने दिया जाएगा.
विशेषज्ञ समिति ने यह सिफारिश उस पड़ताल की रोशनी में की थी, जिसमें पाया गया कि मुंबई के ताज होटल के आसपास के इलाके में चले एंटी-टेरर आॉपरेशन के दौरान न्यूज़ चैनलों के लाइव-प्रसारण के चलते एनएसजी सहित हमारी सुरक्षा एजेंसियों को जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा.
लेकिन आठ मार्च को लखनऊ के ठाकुरगंज आॅपरेशन का कवरेज इतना सतही दिख रहा था कि यह तय कर पाना कठिन था कि यह सब क्यों, कहां से और कैसे हो रहा है? मुठभेड़ स्थल से पांच-सात फीट की दूरी पर खड़े पुलिस के उच्चाधिकारी पत्रकारों, ख़ासकर छायाकारों से मुस्करा-मुस्करा कर बाइट देते नज़र आए.
इतनी सहज, सरल और तनावमुक्त मुठभेड़ भला कहां दिखती है? आईएसआईएस के खूंखार आतंकी के मारे जाने के बाद उसके अड्डे से मुंगेर (बिहार) की बनी देसी पिस्तौल (कट्टे) मिली.
पता नहीं, इस पूरे प्रकरण की जांच से किस तरह का सच सामने आएगा, लेकिन एक बात तो आईने की तरह साफ़ है कि यूपी के आख़िरी चरण के चुनावी मुकाबले के दौरान, जिसके सिर्फ़ एक शहर के लिए माननीय प्रधानमंत्री जी ने अपने बहुमूल्य तीन दिन दिए, भारतीय न्यूज़ चैनलों पर ‘इस्लामी आतंक’, मंदिर में पूजा-टीका-आरती और मतदान का अनोखा कोलॉज उभरता रहा.