निर्देशक संजय लीला भंसाली को लिखे एक ख़त में फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने पद्मावत फिल्म को सती और जौहर प्रथाओं का महिमामंडन बताते हुए सवाल उठाए हैं.
प्रिय भंसाली साहब,
सबसे पहले आपको बधाई कि आप आखिरकार अपनी भव्य फिल्म ‘पद्मावत’- बिना ई की मात्रा और दीपिका पादुकोण की खूबसूरत कमर और संभवतः काटे गए 70 शॉटों के बगैर, रिलीज करने में कामयाब हो गए. आप इस बात के लिए भी बधाई के पात्र हैं कि आपकी फिल्म रिलीज भी हो गई और न किसी का सिर उसके धड़ से अलग हुआ, न किसी की नाक कटी.
और आज के इस ‘सहिष्णु’ भारत में, जहां मीट को लेकर लोगों की हत्याएं हो जाती हैं और किसी आदिम मर्दाने गर्व की भावना का बदला लेने के लिए स्कूल जाते बच्चों को निशाना बनाया जाता है, उसके बीच आपकी फिल्म रिलीज हो सकी, यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है. इसलिए आपको एक बार फिर से बधाई.
आप इसलिए भी बधाई के हकदार हैं, क्योंकि आपके सभी कलाकारों- प्रमुख और सहायक, ने गजब का अभिनय किया है. और बेशक, यह फिल्म किसी अतिभव्य, आश्चर्यचकित करनेवाले नजारे की तरह थी. लेकिन बात यह भी है कि हर चीज पर अपनी छाप छोड़ देनेवाले आपके जैसे शानदार फिल्म निर्देशक से यही उम्मीद की ही जाती है.
बहरहाल सर, हम दोनों एक दूसरे को जानते हैं. मुझे नहीं पता कि आपको यह याद है या नहीं, लेकिन मैंने आपकी फिल्म गुजारिश में एक छोटा सा किरदार निभाया था. ठीक-ठीक कहूं, तो उसमें मेरी भूमिका दो दृश्यों की थी. मुझे याद है कि मेरे संवादों को लेकर मेरी आपसे एक छोटी सी बातचीत हुई थी और आपने संवादों को लेकर मेरी राय पूछी थी.
मुझे याद है कि मैं एक महीने तक इस बात पर गर्व महसूस करती रही कि संजय लीला भंसाली ने मुझसे मेरी राय पूछी थी. मैंने एक दृश्य में आपको जूनियर कलाकारों को और दूसरे में जिमी जिब ऑपरेटर को शॉट की बारीकी के बारे में उत्तेजित होकर समझाते हुए देखा. और मुझे याद है, उस समय मेरे मन में ख्याल आया था- ‘वाह, यह आदमी अपनी फिल्म की छोटी सी छोटी बारीकी की वास्तव में परवाह करता है.’’ मैं आपसे काफी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी थी.
मैं आपकी फिल्मों के उत्साही दर्शकों में से हूं और जिस तरह से आप अपनी हर फिल्म से अपने ही बनाए गए मानकों को और ऊपर उठाते हैं और जिस तरह से आपके समर्थ निर्देशन में सितारे जानदार, गहरे अभिनेताओं में तब्दील हो जाते हैं, वह बात मुझे आश्चर्यचकित करती है.
यादगार प्रेम कहानी कैसी होनी चाहिए, इसको लेकर मेरे विचारों को गढ़ने में आपकी भूमिका रही है. मैं उस दिन का सपना देखा करती थी जब आप मुझे किसी फिल्म के मुख्य किरदार के तौर पर निर्देशित करेंगे. मैं आपकी फैन थी और फैन हूं.
और मैं आपको यह बताना चाहूंगी कि मैंने वास्तव में आपकी फिल्म के लिए लड़ाई लड़ी. उस समय जब इसे पद्मावती से ही पुकारा जा रहा था. मैं बताना चाहूंगी कि मैंने लड़ाई के मैदान में तो नहीं लेकिन ट्विटर टाइमलाइन पर लड़ाई जरूर लड़ी, जहां ट्रॉल्स से मेरा झगड़ा हुआ, लेकिन फिर भी मै आपके लिए लड़ी.
मैंने टीवी कैमरा के आगे वे बातें कहीं, जो मुझे लग रहा था कि आप 185 करोड़ रुपये फंसे होने के कारण नहीं कह पा रहे थे. यहां इसका प्रमाण हैः
और मैंने जो कहा, उस पर पूरी सच्चाई के साथ यकीन किया. मैंने पूरी सच्चाई के साथ यह यकीन किया कि और आज भी करती हूं कि इस देश के हर दूसरे व्यक्ति को वह कहानी कहने का हक है, जो वह कहना चाहता है और जिस तरह से कहना चाहता है.
वह अपनी नायिका के पेट को जितना चाहे उघाड़ कर दिखा सकता है और ऐसा करते उन्हें अपने सेटों को जलाए जाने का, मारपीट किए जाने, अंगों को काटे जाने, जान जाने का डर नहीं सताएगा.
साथ ही, साधारण शब्दों में कहें, तो लोगों के पास फिल्म बनाने और उसे रिलीज करने की क्षमता बची रहनी चाहिए और बच्चों के सुरक्षित तरीके से स्कूल जाने पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए. और मैं चाहती हूं कि आप यह जानें कि मैं सचमुच चाहती थी कि आपकी फिल्म को जबरदस्त कामयाबी मिले.
यह बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के सारे रिकॉर्ड तोड़ दे. इस फिल्म की कमाई अपने आप में करणी सेना के आतंकवादियों और उससे सहानुभूति रखनेवालों के चेहरे पर किसी तमाचे की तरह होती. और इसलिए काफी उत्साह और काफी पूरी गर्मजोशी के साथ मैंने पद्मावत के पहले दिन के पहले शो का टिकट बुक कराया और अपने पूरे परिवार और कुक को साथ लेकर फिल्म को देखने गई.
शायद फिल्म के साथ इस जुड़ाव और इस सरोकार के कारण ही इसे देखने के बाद मैं सन्न रह गई. और शायद इसी कारण मैं आपको आजाद होकर लिखने का दुस्साहस कर रही हूं. मैं अपनी बात सीधे और संक्षेप में कहने की कोशिश करूंगी, वैसे तो कहने के लिए काफी कुछ है.
- सर, बलात्कार होने के बाद भी स्त्री के पास जिंदा रहने का अधिकार है.
- पतियों और उनकी यौनिकता के पुरुष रक्षकों, स्वामियों, नियंत्रकों… चाहे जिस रूप में आप पुरुष को देखना चाहें..की मृत्यु के बाद भी स्त्री को जीने का अधिकार है.
- पुरुष जीवित हों या न हों, स्त्रियों को इस तथ्य से स्वतंत्र होकर जीने का अधिकार है.
- स्त्री के पास जिंदा रहने और मासिक धर्म का अधिकार है.
यह वास्तव में काफी बुनियादी बात है. कुछ और बुनियादी बिंदु इस तरह हैं:
- स्त्रियां चलती-फिरती, बतियाती योनियां नहीं हैं.
- हां, स्त्रियां योनियां धारण करती हैं, मगर वे इससे कहीं ज्यादा हैं. इसलिए उनके पूरे जीवन को योनि से बाहर रखकर, उसे नियंत्रित करने, उसकी हिफाजत करने और उसका रख-रखाव करने से बाहर रखकर देखे जाने की जरूरत है. (हो सकता है कि 13वीं सदी में ऐसा होता रहा हो, लेकिन 21वीं सदी में ऐसे विचारों का अनुसरण करने की हमे कोई जरूरत नहीं है. और हमें इसका महिमामंडन तो निश्चित तौर पर नहीं करना चाहिए.)
- यह अच्छा होता अगर योनियों का सम्मान किया जाता, मगर अगर दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से ऐसा न हो, तो भी स्त्रियां अपना जीवन जी सकती हैं. उन्हें सजा के तौर पर इस कारण मृत्यु देने की जरूरत नहीं है कि दूसरे व्यक्ति ने उसकी मर्जी के खिलाफ उसकी योनि का अपमान करने की जुर्रत की.
- योनि के बाहर भी जिंदगी है इसलिए बलात्कार के बाद भी एक जीवन हो सकता है. (मुझे मालूम है कि मैं यह दोहरा रही हूं, लेकिन इस पर जितना जोर दिया जाए, कम है.)
- सामान्य शब्दों में कहें, तो जीवन में योनि के अलावा भी काफी कुछ है.
आप यह सोच कर परेशान हो रहे होंगे कि आखिर मैं इस तरह से योनि में ही क्यों अटक गई हूं… क्योंकि सर, आपकी भव्य फिल्म को देखने के बाद मुझे योनि जैसा होने का एहसास हुआ. मुझे ऐसा लगा कि मैं महज एक योनि में सीमित कर दी गयी हूं.
मुझे ऐसा लगा कि पिछले कई वर्षों में स्त्रियों और स्त्री आंदोलनों ने जो ‘छोटी-मोटी’ सफलताएं अर्जित की हैं, जैसे, वोट देने का अधिकार, संपत्ति के स्वामित्व का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, समान काम के लिए समान वेतन का अधिकार, मातृत्व अवकाश, विशाखा फैसला, बच्चे को गोद लेने का अधिकार, ये सारी सफलताएं निरर्थक थीं क्योंकि हम घूम फिर कर बुनियादी सवाल पर पहुंच गए हैं.
हम सब जीवन के अधिकार के बुनियादी सवाल पर पहुंच गए हैं. मुझे ऐसा लगा कि आपकी फिल्म ने हमें अंधकार युग के इस सवाल पर पहुंचा दिया है- क्या स्त्री- विधवा, बलत्कृत, युवा, बूढ़ी, गर्भवती, नाबालिग… को जिंदा रहने का अधिकार है?
मैं यह समझती हूं कि जौहर और सती हमारे सामाजिक इतिहास का हिस्सा हैं. ये वास्तविकताएं हैं. मैं यह समझती हूं कि ये सनसनीखेज, डरावनी, नाटकीय घटनाएं हैं, जिन्हें भड़कीले और सम्मोहक दृश्यों में ढाला जा सकता है खासकर अगर इसे आपके जैसे सधे हुए फिल्मकार द्वारा परदे पर उतारा जाए.
लेकिन, फिर 19वीं शताब्दी में हत्यारे श्वेत गिरोहों द्वारा अश्वेतों को पीट-पीटकर मार देने का दृश्य भी इसी तरह से सनसनीखेज, डरावनी और नाटकीय सामाजिक घटनाएं थीं. क्या इसका मतलब यह है कि किसी को नस्लवाद की कुरूप सच्चाई को ध्यान में रखे बगैर ही इस विषय पर फिल्म बना देनी चाहिए?
या ऐसी फिल्म बना देनी चाहिए, जिसमें नस्लीय नफरत पर कोई टिप्पणी न हो? इससे भी खराब बात कि क्या किसी के गर्म खून, शुद्धता और शौर्य के प्रतीक के तौर पर पीट-पीटकर जान ले लेने को महिमामंडित करनेवाली कोई फिल्म बनानी चाहिए- मुझे नहीं पता है. मेरे लिए यह समझ से परे है कि आखिर कोईऐसे जघन्य अपराध को कैसे महिमामंडित कर सकता है?
सर, मेरा यह पक्का यकीन है कि आप इस बात से इत्तेफाक रखते होंगे कि सती और जौहर की प्रथा महिमामंडित किए जाने की चीजें नहीं हैं. यकीनन, आप इस बात से इत्तेफाक रखते होंगे कि प्रतिष्ठा, त्याग, शुद्धता के चाहे जिस आदिम विचार के कारण स्त्री और पुरुष ऐसी परंपराओं में शामिल होते हैं, मगर सती और जौहर- स्त्री खतने और आॅनर किलिंग की ही तरह गहरे तक पितृसत्तात्मक, स्त्री विरोधी और समस्या से भरे विचारों में डूबा हुआ है.
यह वह मानसिकता है, जो यह मानती है कि किसी स्त्री का मूल्य उसके योनि में निहित है, जो यह मानती है कि अगर स्त्रियों पर किसी पुरुष मालिक का नियंत्रण नहीं है या उनके शरीरों को अगर किसी ऐसे पुरुष के स्पर्श या यहां तक कि नजरों से, जिसे समाज ने स्त्री पर स्वामित्व जताने या नियंत्रित करने का अधिकार नहीं दिया है, अपवित्र कर दिया गया हो, तो स्त्री जीवन मूल्यहीन है.
सती, जौहर, स्त्री खतना, ऑनर किलिंग आदि की प्रथाओं को महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि ये सिर्फ स्त्री से समानता का अधिकार नहीं छीनती हैं, बल्कि, ये किसी स्त्री से उसका व्यक्तित्व भी छीन लेती हैं.
वे स्त्रियों को मानवता से रिक्त कर देती हैं. वे स्त्रियों से जीवन का अधिकार छीन लेती हैं. और यह गलत है. हम यह मानकर चल सकते थे कि 2018 में इन बातों पर बात करने की भी जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन ऐसा लगता है, इसकी जरूरत बनी हुई है. यकीनन आप स्त्री खतना और ऑनर किलिंग का महिमामंडन करनेवाली फिल्म बनाने पर विचार नहीं करेंगे.
सर, आप कहेंगे कि मैं राई का पहाड़ बना रही हूं. आप कहना चाहेंगे कि मुझे फिल्म को इसके संदर्भ में देखना चाहिए. आप कहेंगे कि ये 13वीं सदी के लोगों के बारे में कहानी है. और 13वीं सदी में जीवन ऐसा ही था- बहुविवाह स्वीकृत था. मुसलमान जानवरों जैसे थे, जो मांस और स्त्री का भोग समान चाव से करते थे. और इज्जतदार महिलाएं खुशी-खुशी अपने पतियों की चिताओं में कूद जाया करती थीं और अगर वे पति के दाह-संस्कार में नहीं पहुंच पाती थीं, तो वे एक चिता तैयार करती थीं और इसमें छलांग लगा देती थीं. आप कहेंगे कि हकीकत में वे सामूहिक आत्महत्या के विचार को इतना पसंद करती थीं कि वे अपने दैनिक साज-श्रृंगार के दौरान इसके बारे में हंसते हुए बातें किया करती थीं. ऐसा संभव था, आप मुझसे कहेंगे.
नहीं सर, अपनी क्रूर प्रथाओं के साथ 13वीं सदी का राजस्थान बस उस महाकाव्य की ऐतिहासिक रंगमंच है, जिसका रूपांतरण आपने अपनी फिल्म पद्मावत में किया है. लेकिन, आपकी फिल्म का संदर्भ 21वीं सदी का भारत है; जहां देश की राजधानी में एक पांच साल की बच्ची का बच्ची के साथ चलती बस के भीतर सामूहिक दुष्कर्म किया गया.
उसने अपने सम्मान के अपवित्र हो जाने के कारण खुदकुशी नहीं की. बल्कि सर वह अपने छह बलात्कारियों के साथ लड़ी. उसकी इस लड़ाई में इतनी ताकत थी, कि उनमें से एक दरिंदे ने एक लोहे की छड़ उसके गुप्तांग के भीतर घुसा दी. वह सड़क पर पड़ी मिली, जहां उसकी अंतड़ियां तक बाहर आ गई थीं. यह ब्यौरा देने के लिए मैं माफी चाहूंगी, लेकिन सर, आपकी फिल्म का वास्तविक ‘संदर्भ’ यही है.
आपकी फिल्म के रिलीज होने से एक सप्ताह पहले, एक 15 वर्षीय दलित लड़की के साथ हरियाणा के जींद में बर्बरतापूर्व सामूहिक दुष्कर्म किया गया. यह अपराध खौफनाक तरीके से निर्भया दुष्कर्म से मिलता-जुलता था.
आपको यह भली-भंति पता है कि सती और स्त्री के साथ बलात्कार, एक ही मानसिकता के दो पहलू हैं. एक बलात्कारी, स्त्री को नियंत्रित करने के लिए, उस पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए या उसके अस्तित्व को मिटा देने के लिए उसके जननांगों पर हमला करने और उसका अनादर करने, उसे क्षत-विक्षत कर देने की कोशिश करता है.
सती-जौहर पर अगर-मगर करनेवाला या उसका कोई समर्थक स्त्री के अस्तिव को ही पूरी तरह मिटा देने की कोशिश करता है, अगर उसके जननांगों का अनादर किया गया हो, या फिर वे उसके ‘वैध’ पुरुष मालिक के नियंत्रण में नहीं रह जाते. दोनों ही स्थितियों में प्रयास और विचार यही होता है कि किसी स्त्री को उसके जननांगों में ही सीमित कर दिया जाए.
किसी भी कला का संदर्भ वह समय और स्थान होता है, जहां/जब उसका निर्माण और उपभोग किया जाता है. यही कारण है कि सामूहिक दुष्कर्म से पीड़ित यह भारत, बलात्कारों की अनदेखी करनेवाली मानसिकता, पीड़ित पर ही दोष मढ़नेवाला समाज ही आपकी फिल्म का असली संदर्भ है. सर, निश्चित तौर पर अपनी फिल्म में सती और जौहर की कोई आलोचना पेश कर सकते थे.
आप यह कहेंगे कि आपने फिल्म की शुरुआत में एक डिस्क्लेमर दिया था, जिसमें यह कहा गया था कि फिल्म सती या जौहर का समर्थन नही करती है. ये बात सही है, लेकिन आपने इसके बाद 2 घंटे 45 मिनट तक आप राजपूती आन-बान-शान, चिता में जल कर मर जाने का रास्ता चुननेवाली सम्माननीय राजपूत स्त्रियों के साहस का जयगीत सुनाते रहे.
ये स्त्रियां अपने पतियों के अलावा किसी दुश्मन द्वारा छुए जाने, जो संयोग से मुस्लिम थे, की जगह चिता में जल कर मर जाने का रास्ता चुनती हैं. तीन बार से ज्यादा आपकी कहानी के अच्छे चरित्रों ने सती/जौहर को एक सम्मान के लायक विकल्प बताया.
आपकी नायिका, जो सुंदरता और बुद्धि का साक्षात उदाहरण है, अपने पति से जौहर करने की इजाजत मांगती है, क्योंकि वह उसकी इजाजत के बगैर यह भी नहीं कर सकती थी. इसके ठीक बाद, उसने सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म के बीच युद्ध को लेकर एक लंबा भाषण दिया और सामूहिक सती को सत्य और धर्म के रास्ते के तौर पर पेश किया.
और उसके बाद क्लाइमेक्स में, जिसे बेहद भव्य तरीके से फिल्माया गया है, देवी दुर्गा की तरह लाल रंग के कपड़ों में सजी सैकड़ों स्त्रियां जौहर की आग में छलांग लगा देती हैं.
दूसरी तरफ एक उन्मादी मुस्लिम मनोरोगी खलनायक उनकी ओर देखता रहता है और पीछे से एक फड़कता हुआ संगीत बजता है, जिसमें किसी राष्ट्रगान जैसी शक्ति है- इस दृश्य में दर्शकों को अचंभित कर देने और इस खेल का प्रशंसक बना देने की क्षमता थी. सर, अगर यह सती और जौहर का महिमामंडन करना नहीं है, तो मुझे सचमुच नहीं पता कि आखिर किस चीज को ऐसा कहा जाएगा?
मुझे आपकी फिल्म का क्लाइमेक्स देखते हुए, गर्भवती महिलाओं और छोटी बच्ची को आग में कूदते हुए देख काफी असहजता का अनुभव हुआ. मुझे लगता कि मेरा पूरा अस्तित्व ही गैरकानूनी है, क्योंकि अगर भगवान न करे, मेरे साथ कुछ गलत हो जाता है, तो मैं उस आग के गड्ढे से बाहर निकल आने के लिए कुछ भी करूंगी- भले ही इसका मतलब खिलजी जैसे राक्षस की हमेशा के लिए गुलाम बन कर रहना ही क्यों न हो.
लेकिन, उस समय मुझे ऐसा लगा कि मृत्यु के ऊपर जीवन को चुनना मेरी गलती थी. मुझे लगा कि जीवन की इच्छा रखना गलत है. सर, यही तो सिनेमा की ताकत है.
सर, आपक सिनेमा खासतौर पर प्रेरणादायक, भावनाएं जगानेवाला और ताकतवर है. यह दर्शकों को भावुकता के ज्वार-भाटे में धकेल सकता है. यह सोच को प्रभावित कर सकता है और सर, यही कारण है कि आपको इस बात को लेकर पूरी तरह जिम्मेदार रहना चाहिए कि आप फिल्म में क्या कर रहे हैं और क्या कह रहे हैं.
1829 से 1861 के बीच कुछ सुधारवादी सोच रखनेवाले भारतीयों के समूह और ब्रिटिश प्रांतीय सरकारों और रजवाड़ों ने कई फैसलों के द्वारा सती-प्रथा को समाप्त किया और इसे अपराध घोषित किया. आजाद भारत में इंडियन सती प्रिवेंशन एक्ट (1988) ने सती में किसी तरह की मदद पहुंचाने, उसके लिए उकसाने और सती का किसी तरह से महिमामंडन करने को अपराध की श्रेणी में लाया.
आपके द्वारा बिना सोचे-विचारे इस स्त्री विरोधी आपराधिक प्रथा का जिस तरह से महिमामंडन किया गया है, उसके लिए आपको जवाब देना चाहिए. सर, टिकट खरीद कर आपकी फिल्म देखनेवाले दर्शक के तौर पर मुझे आपसे यह पूछने का अधिकार है कि आपने ऐसा कैसे और क्यों किया?
आपको यह बात भली-भांति पता होगी कि आधुनिक भारत में भी जौहर जैसे कृत्यों के ज्यादा ताजा उदाहरण मिलते हैं. भारत और पाकिस्तान के रक्त-रंजित विभाजन के दौरान करीब 75,000 औरतों के साथ बलात्कार, अपहरण किया गया, उन्हें ‘दूसरे’ धर्म के पुरुष द्वारा बलपूर्वक गर्भवती बनाया गया.
उस दौर में स्त्रियों द्वारा स्वैच्छिक तरीके से या मदद देकर करवाई गई आत्महत्याओं की कई घटनाएं मिलती हैं. कुछ मामलों में ‘दूसरे’ धर्म के लोग स्त्रियों को छू पाएं, इससे पहले पतियों और पिताओं ने खुद अपनी पत्नियों और बेटियों का सिर कलम कर दिया.
पंजाब के थोआ खालसा में दंगे के भुक्तभोगी बीर बहादुर सिंह ने आत्महत्या करने के लिए औरतों के गांव के कुएं में कूदने के दृश्य का वर्णन किया था. उन्होंने बताया था कि किस तरह से आधे धंटे में वह कुआं पूरा भर गया था. जो औरतें ऊपर थीं, वे बच गईं. उनकी मां भी बचनेवालों में से थीं.
सिंह ने उर्वशी बुटालिया की 1998 में प्रकाशित किताब, द अदर साइड ऑफ साइलेंस में याद करते हुए कहा कि वे अपनी मां के जिंदा रह जाने को लेकर लज्जित थे. यह भारतीय इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक है और इसे शर्म, डर, दुख, आत्मचिंतन, सहानुभूति, सतर्कता के साथ याद किए जाने की जरूरत है, बजाय इसका विचारहीन, सनसनीखेज महिमामंडन करने के.
विभाजन की ये दुखद कहानियां भी भले उतने प्रत्यक्ष रूप में न सही, लेकिन आपकी फिल्म पद्मावत का संदर्भ बनती हैं. भंसाली सर, मैं शांति से अपनी बात खत्म करना चाहूंगी; आपको आपकी इच्छा के अनुसार और फिल्में बनाने, उनकी शूटिंग करने और उन्हें रिलीज करने की शुभकामनाएं दूंगी. मैं चाहूंगी कि आप, आपके अभिनेता, प्रोड्यूसर, स्टूडियो और दर्शक धमकियों और उपद्रवों से महफूज रहें.
मैं आपकी अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ट्रॉल्स और टीवी टिप्पणीकारों से लड़ने का वादा करती हूं. लेकिन, मैं आपसे यह भी वादा करती हूं कि आप जनता के लिए जो कला रचेंगे, उसके बाबत सवाल पूछने से मैं नहीं चूकूंगी. इसके साथ ही हमें यह उम्मीद भी करनी चाहिए कि करणी सेना या मरणी सेना के किसी उन्मादी सदस्य के मन में सती प्रथा को अपराध की श्रेणी से हटाने की मांग करने का विचार न आये!
आपकी
स्वरा भास्कर
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