बस्तर के लिए लोकतंत्र क्या है? सरकार, मीडिया और कुछ एनजीओ के दावों से लगता है कि यहां विकास की ऐसी बयार आई हैं, जिसमें नागरिकों को ज़मीन पर ही मोक्ष मिल गया है.
जब हम लोकतंत्र की बात करते हैं, तो प्रथमदृष्टया उसकी एक छवि हमारे ज़ेहन में बनती है कि वहां पर सरकार अंतिम व्यक्ति के उत्थान के लिए कार्य करती है और सभी तबकों के लोगों को साथ लेकर चलती है. लेकिन क्या ये व्यवस्था छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बस्तर संभाग के दंतेवाड़ा ज़िले के लिए कोई मायने रखती है?
इस ज़िले में रहने वाले आदिवासियों के जीवन को समझने का प्रयास किया जाए तो लोकतंत्र की हक़ीक़त आपके सामने आ जाएगी.
1) शिक्षा और मिड डे मील योजना
किसी भी समाज और व्यवस्था की बुनियाद होती है वहां की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था, जो बच्चों के सपनों को उड़ान देती है. इस संबंध में अगर दंतेवाड़ा को देखें तो यहां मूलतः चार आदिवासी समुदाय रहते हैं- गोंड़, हल्बी, मुरिया और माड़िया.
ये समुदाय सदियों से जंगल मे रहते आएं हैं. इनकी भाषा- गोंडी और हल्बी, द्रविड़ परिवार की भाषा से पुरानी है हालांकि इनका कोई व्याकरण नहीं है तो इसलिए हम इन्हें बोली कहते हैं.
विरोधाभास देखिए जितने शिक्षक बस्तर में नियुक्त किए गए हैं उनमें से अधिकतर गोंडी और हल्बी भाषा में बात तक नहीं कर सकते तो वो बच्चों को क्या पढ़ा पाएंगे ये प्रश्न हम सब के सोचने के लिए काफी है.
दंतेवाड़ा ज़िले के गदापाल तहसील के संकुल (स्कूलों का समूह) के संकुल समन्वयक राजेश बघेल से जब ये पूछा गया कि आपके यहां शिक्षकों को जब गोंडी और हल्बी नहीं आती तो आप उनसे बात कैसे करते है? इस पर उन्होंने कहा, ‘सब शिक्षक बाहर से हैं तो क्या करें. जैसे-तैसे काम चला रहे हैं. कोशिश कर रहे हैं उनकी भाषा समझने की, किसी बच्चे को ही पकड़ते हैं जो बाकी बच्चों को हमारी बात बता पाए.’
यहां के एक अन्य शिक्षक खुमान सिंह सोरी ने बताया कि यही दिक्कत है संवाद नहीं हो पाता. आदिवासियों की बोली सीखने की कोशिश की जारी है.
जब संवाद ही नहीं हो रहा तो बच्चों को कैसी शिक्षा मिल रही होगी, ये बड़ा सवाल है. बात अगर मिड डे मील योजना की हो जो इसका भी इस आदिवासी इलाके में बुरा हाल है.
स्कूल के शिक्षकों के अनुसार, योजना के तहत हर बच्चे को रोज़ाना राशन का 4.58 रुपये और गैस का 20 पैसा आता है. गदापाल तहसील के मिसोपारा गांव स्थित राजकीय प्राथमिक शाला के शिक्षक अनिरुद्ध बघेल ने बताया कि बच्चों का भोजन पकाने के लिए सरकार द्वारा गैस का पैसा देकर धुआंमुक्त स्कूल को इनाम मिल गया. लेकिन स्कूल में क्या हुआ इससे किसी को कोई मतलब नहीं.
खुमान सिंह सोरी ने बताया कि यहां मिड डे मील की स्थिति बहुत बुरी है. अपनी जेब से पैसा लगाना पड़ता है. बच्चे स्कूल में कम आते हैं. अब हम कैसे खाना खिलाएं जबकि यहां बच्चों की ख़ुराक भी ज़्यादा है क्योंकि उनको और कुछ खाने को नहीं मिलता. कब तक ऐसे ही चलेगा.
उन्होंने बताया, यहां के अधिकांश प्राथमिक स्कूलों में 10-15 से ज़्यादा बच्चे नामांकित नहीं हैं. उनमें से उपस्थिति मुश्किल से 4-5 की होती है.
इस बात की तस्दीक भी होती है. जिस दिन हम मिसोपारा पहुंचे उस दिन प्राइमरी स्कूल में मात्र दो बच्चे मौजूद थे.
स्कूल के शिक्षक अनिरुद्ध बघेल ने बताया कि अब हम इन दो बच्चों को कैसे खाना खिलाएं क्योंकि सरकारी योजना के अनुसार, इन दो बच्चों के लिए 40 पैसे की गैस और 9 रुपये 16 पैसा मिला है. इतने में खाना कैसे बनेगा?
दंतेवाड़ा के कुम्हाररास स्थित मिडिल स्कूल के दो भाग हैं. प्राथमिक और मिडिल. ये स्कूल जो दंतेवाड़ा शहर से मात्र छह किलोमीटर दूरी पर है. यहां सहायक शिक्षक के तौर पर तैनात सरोजनी सिन्हा बताती है कि हमारे यहां 40-50 बच्चे नामांकित हैं. इनमें से जैसे-तैसे करके हम तकरीबन 20 बच्चों को स्कूल ले आ पाते हैं. बच्चों को टॉयलेट के इस्तेमाल के बारे में ज़्यादा पता नहीं है. कई बार बच्चे क्लास में ही गंदा कर देते हैं. इसे साफ करने के लिए स्कूलों को कोई स्वीपर भी नहीं मिला हुआ है. हम तो साफ करेंगे नहीं इसलिए हम उसे बच्चे से ही साफ करवाते हैं.
इस इलाके के अधिकांश स्कूलों का यही हाल है. डोगरीपरा प्राथमिकशाला की शिक्षक नंदिनी नेताम ने भी बताया कि हमारे यहां 20 बच्चे नामांकित है. यहां टॉयलेट तो है लेकिन कोई स्वीपर नहीं है. इसलिए सफाई बच्चों को ही करनी पड़ती है.
तोयलंका गांव के स्कूल का भी यही हाल है. यहां के शिक्षक अमित साहू ने बताया कि हमारे यहां न स्वीपर है और मिड डे मील योजना की स्थिति ठीक है.
2) बिजली, पानी और स्वास्थ्य
साफ और स्वच्छ पानी तो हर व्यक्ति के जीवन का आधार होता है. यह हमारा मूलभूत अधिकार भी है. बस्तर में आदिवासियों का जीवन अभिशाप बन गया है. यहां सर्दी में लोगों को पीने के पानी के लिए 9-10 किलोमीटर और 15-17 किलोमीटर गर्मी में पैदल चलना पड़ता है. वह भी नदी के प्रदूषित पानी के लिए.
यहां के आदिवासी कई स्तर पर शोषण के शिकार हैं. एक तो आदिवासी के नाम पर, पिछड़े होने के नाम पर, मुख्यधारा से कटे होने के नाम पर…
जब तोयलंका के गोंड आदिवासी बुधो से इस बारे में बात होती है. उनके पास राशन कार्ड नहीं है. प्रदूषित पानी पर वे कहते हैं कि सदियों से हमारे पुरखे यही पानी पीते आए हैं, अचानक इसे क्या हो गया पता नहीं. शायद ये प्रकृति हमसे नाराज़ हो गई.
इन लोगों को नहीं पता कि नदी का पानी बैलाडीला में लौह अयस्क के धुलने से प्रदूषित हुआ.
स्वास्थ्य की हालत और भी बदतर है. दंतेवाड़ा ज़िला अस्पताल के मेडिकल ऑफिसर डॉ. मोहित चंद्राकर बताते हैं कि हमारे यहां सीटी स्कैन और एमआरआई की सुविधा नहीं है. कुपोषण के शिकार बच्चों के इलाज की भी कुछ खास सुविधा नहीं है. हम तो कुपोषितों का हीमोग्लोबिन ठीक स्तर यानी लगभग 8 पॉइंट पर लाकर उनको अस्पताल से छुट्टी दे देते हैं, लेकिन उनके पास खाने को कुछ नहीं तो क्या करें? अस्पताल से जाने के बाद उनकी स्थिति फिर वैसी ही हो जाती है. वे कमजोर होते हैं और उनको फिर से बीमारियां भी जकड़ लेती हैं. हमारे यहां ज़िला अस्पताल में 100 बेड का हॉस्पिटल है मरीज़ बहुत ज़्यादा हैं कम से 300 बेड होने चाहिए. डॉक्टर तो 40 हो गए हैं.
तोयलंका में गोंड समुदाय का आठ-नौ साल एक आदिवासी बच्चा कुपोषण का शिकार है. उसका नाम बोमड़ी है. वह अस्पताल की जगह अपने घर में पड़ा हुआ है. इस कुपोषण के समय भी उसके घर में दो-दो दिन तक खाना नहीं बनता. खाने में उसे चावल का पानी नसीब होता है और शाम का चावल.
एक बार कोई उसे रायपुर के एक बड़े हॉस्पिटल में ले गया लेकिन बढ़ते ख़र्च को देखे कुछ दिनों बाद उसने भी बोमड़ी के परिवालवालों से कह दिया कि आगे आप संभालें. बोमड़ी की मां-बाबूजी झाड़ू बनाते है जो पैसा आता है घर चलाने में लग जाता है.
कहने को तोयंलका का नज़दीकी एक उप स्वास्थ्य केंद्र गदापाल में है. जो गांव से लगभग 8 किलोमीटर होगा जंगल से पैदल जाना होता है क्योंकि एंबुलेंस की व्यवस्था नहीं.
इस केंद्र की हालत भी बहुत बुरी है. यहां के एक कर्मचारी ने अस्पताल के अंदर ही अपना अस्थायी आवास बना रखा है. मरीज़ को तो किसी तरह भर्ती कर लिया जाता है लेकिन उनके परिजनों को सर्दी के दिनों में बाहर ज़मीन पर ही लेटना पड़ता है.
3) सामाजिक सुरक्षा सेवाएं
इस इलाके में मनरेगा योजना का हाल भी गड्ड-मड्ड है. दंतेवाड़ा के कुम्हाररास में मुरिया समुदाय के एक आदिवासी मनरेगा मज़दूर जोगा से बात हुई वह शहर के नज़दीक होने के कारण ठीकठाक हिंदी बोल और समझ लेता है.
जोगा ने बताया कि हम लोग पेट के लिए काम करते हैं. जब मज़दूरी ही नही मिलेगी तो भला कोई काम क्या करेगा? मुझे काम किए हुए एक साल होने को आ रहा है, अभी तक एक पैसा भी नहीं मिला है. सरपंच और सचिव से पूछता हूं तो वे कहते हैं कि ऊपर से नहीं आया है. मैं जब मर जाऊंगा तब उस पैसे का क्या करूंगा.
जोगा बताते हैं कि मेरे पास ज़मीन का पट्टा भी नहीं है. दूसरे के यहां मज़दूरी ही कर सकता हूं. अबकी बार इमली भी अच्छी नहीं लगी, वो एक महीने तक चलती है रोज़ 10-15 रुपये मिल जाते थे, वो भी नहीं हो रहा. तेंदूपत्ता इधर नहीं होता. जंगल से लकड़ी ले आते हैं, खाने के लिए धान इधर-उधर से मांग के लाते हैं.
जोगा आगे कहते हैं कि नौ लोगों के परिवार के एक हफ्ते का ख़र्च महज़ 50-60 रुपये में किसी तरह चलाना पड़ता है.
इस बारे में गांव के सरपंच जोगा कश्यप से बात की गई तो उन्होंने कहा कि आगे से पैसा नही आया है, इसलिए मनरेगा मज़दूरों को उनकी मज़दूरी का पैसा नहीं मिला. इसमें मैं क्या कर सकता हूं.
राशन और राशन कार्ड की बात करें तो किसी पारा (गांव के हिस्से) में जाएंगे तो पता चलेगा कि आदिवासियों को चार महीने से मिट्टी का तेल नहीं मिला है. चने मिले तीन महीने हो गए. बस धान मिलता है. जोगा को भी पिछले तीन महीने से मिट्टी का तेल नहीं मिला है.
गदापाल के कीडो नाम की आदिवासी महिला से बात हुई. उनके पति तीन साल पहले गुज़र गए. घर में तीन और पांच साल के दो बच्चे हैं. न तो उन्हें विधवा पेंशन का लाभ मिल रहा है और न ही उनके पास कोई राशन कार्ड है ताकि धान तो मिल सके.
वह बताती है कि कोई भी सरकारी सुविधा गांव में नहीं मिल पाती है. बारिश के दिनों में घर की छत टपकती है. कपड़े भी नहीं हैं. सर्दी में पुआल जलाकर ठंड से बचाव करती हूं.
वह कहती हैं कि ज़मीन का पट्टा नहीं है इसलिए धान भी नहीं उपजा सकती. एक समय किसी तरह चावल खाकर गुज़ारा करना पड़ता है. दो रुपये की कमाई का भी साधन नहीं है. मनरेगा का भी सहारा नहीं. पति के जाने के बाद तमाम कार्यालयों का चक्कर काटा लेकिन कोई मदद नहीं मिली. इसलिए गांव के लोगों से ही मांगकर काम चलाती हूं.
इसके बाद है हम गदापाल के मीसोपारा गांव के एक गोंड आदिवासी के घर गए. उनका नाम आयतु है, वो करीब 90 वर्ष के होंगे. उनकी पत्नी की भी 80-85 वर्ष उम्र रही होंगी. उनके साथ उनकी लड़की रहती हैं, जिसके पति अब नहीं हैं.
यहां भी हाल वही है. वह बताते हैं कि न उन्हें वृद्धावस्था पेंशन मिलती हैं और न ही उनकी बेटी की विधवा पेंशन. राशन कार्ड भी नहीं है. परिवार का ख़र्च महुवा की शराब. जंगल से महुआ लाकर बनाते हैं. एक हफ्ते में तीन बोतल शराब 90 रुपये में बिकती है. उसी से घर का ख़र्च चलता है.
4) रोज़मर्रा का जीवन
आदिवासियों के रोज़मर्रा के जीवन से रूबरू हों तो पता चलता है कि वे हर दिन किसी न किसी शोषण का शिकार हो रहे हैं. दंतेवाड़ा से तकरीबन 55 किलोमीटर दूर कटे कल्याण ब्लॉक के साप्ताहिक बाज़ार में एक गोंड आदिवासी महिला बुमड़ी से बात हुई.
वह बाज़ार में शकरकंद बेचने आई हुई थीं. उन्होंने बताया कि मैं जो शकरकंद बाज़ार में बेचने लाई हूं उसकी कुल कीमत 20 रुपये हैं, लेकिन इस बाज़ार में बैठने के लिए ही 10 रुपये किराया देना पड़ता है.
ये है उनके जीवन की त्रासदी. जंगल उनके थे, जल भी उनका था और ज़मीन भी उन्हीं की थी, पहले जंगल से अधिकार समाप्त हुआ फिर जल को छीना गया. अब साप्ताहिक बाज़ार में ज़मीन पर बैठने का भी 10 रुपये देने पड़ते हैं.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और दंतेवाड़ा में आदिवासियों के लिए काम करते हैं.)