प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि यह किसानों, गरीबों व वंचितों का बजट है तो उन्हें याद दिलाना होगा कि उन्होंने पिछले बजट को ‘सबके सपनों का बजट’ बताया था.
अब कोई इसे वोट और नोट के बीच संतुलन साधे रखने के लिए वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा की गई साधना का फल कहे या जैसा कि सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है भाषाओं के जिमनास्टिक में उनकी जीत का पुरस्कार, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनके नए और नरेंद्र मोदी सरकार के अंतिम बजट में देश के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति से लेकर उसके अन्नदाता किसान तक सबके लिए कुछ न कुछ है.
अलबत्ता, यह ‘कुछ न कुछ’ कुछ के लिए तुरंत उपलब्ध हो सकने वाली सौगात के रूप में है और ज़्यादातर के लिए ऐसे वायदों के रूप में, सरकारें जिन्हें पूरे करने की तभी तक चिंता करती हैं, जब तक उनसे प्रभावित होने वाले मतदाता के रूप में दिखाई दें.
यकीनन, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपालों और सांसदों के वेतन व भत्तों संबंधी घोषणाओं को अमल में लाने के रास्ते में कोई बाधा नहीं आने वाली. लेकिन सरकार के आख़िरी साल में 50 करोड़ लोगों को पांच लाख रुपये के कैशलेस इलाज की सुविधा और 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने, उनकी उपजों के लागत से डेढ़ गुने दाम दिलाने, दो हज़ार करोड़ रुपयों से कृषि बाज़ार बनाने, 500 करोड़ रुपयों से आॅपरेशन ग्रीन चलाने और पशुपालकों तक को क्रेडिट कार्ड उपलब्ध कराने जैसी बजट घोषणाओं को वोटरों से किए गए वायदों की श्रेणी में ही डाला जा सकता है.
वोटर इनकी बिना पर या जैसा कि वित्तमंत्री कह रहे हैं, देश की अर्थव्यवस्था के 2.5 लाख करोड़ रुपये वाली दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बन जाने की खुशी में गर्वोन्मत्त होकर 2019 में सरकार के चुनाव निशान वाला बटन दबा आते हैं तो क्या प्रधानमंत्री और क्या वित्तमंत्री, सबके सब इसे अपनी सफलता ही मानेंगे.
क्या कीजिएगा, अब देश की राजनीति में जनता की नहीं, वोटर की चिंता का ही रिवाज है. हां, इस रिवाज के लिहाज़ से थोड़ा आश्चर्य ज़रूर होता है कि वित्तमंत्री ने कर छूट की आयसीमा नहीं बढ़ाई और सरकारी कर्मचारियों को स्टैंडर्ड डिडक्शन का लाभ देकर ही रह गए.
लेकिन आप अभी भी महंगाई रोकने और नौकरियां देने जैसे वायदों को गांठ से बांधे हुए हैं तो शायद भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह का वह कथन भूल गए हैं जिसमें उन्होंने विदेशों से कालाधन वापस लाने और देशवासियों के खातों में 15 लाख रुपये जमा कराने के प्रधानमंत्री के वादे को जुमला बताया था.
प्रसंगवश, आप सिर्फ़ वोटर होने में यकीन नहीं करते और जनता का हिस्सा हैं तो यह भुलक्कड़पन आपकी सेहत के लिए कतई ठीक नहीं.
आपको याद रखना होगा कि भूमंडलीकरण की नीतियों ने गत 28 सालों में जैसे इस देश की परिस्थितियों को, वैसे ही अर्थव्यवस्था को भी नाना प्रकार की जटिलताओं से भर डाला है.
ऐसे में जैसे जीडीपी वृद्धि दर आम देशवासियों की ख़ुशहाली या बदहाली का सच्चा आईना नहीं रह गई है, बजट के आंकड़े व प्रावधान भी बताने कम और छिपाने ज़्यादा लगे हैं.
उस जादूगरी या चमत्कार का पता तो वे एकदम से नहीं लगने देते, जिसकी बिना पर वित्तमंत्री उन्हें गढ़ते हैं. इस बात के मद्देनज़र बजट घोषणाओं को उनकी द्वंद्वात्मकता में देखना ज़्यादा तर्कसंगत होगा.
प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि यह किसानों, गरीबों व वंचितों का बजट है तो उन्हें याद दिलाना होगा कि उन्होंने पिछले बजट को ‘सबके सपनों का बजट’ बताया था.
बताना होगा कि उनकी यह टिप्पणी इस अर्थ में उनके वित्तमंत्री की कड़ी आलोचना है कि वे इस बार सबके सपनों वाला बजट नहीं ला पाए. तभी तो प्रधानमंत्री के अपनों में शुमार पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा उनकी सरकार पर किसानों को भीख मांगने की हालत में छोड़ने का आरोप लगा रहे हैं.
आख़िर प्रधानमंत्री कब तक किसानों या पशुपालकों को क्रेडिट कार्डों के भरोसे रखना चाहते हैं? उनका ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा इस तो क्या, उनकी सरकार के किसी भी बजट से चरितार्थ क्यों नहीं हुआ? बडे़-बड़े बदलावों के उनके वादे अंततः वादे ही क्यों रह गए?
स्वतंत्रता आंदोलन की वह सर्वसमावेशी परपंरा उन्हें और उनके लोगों को अब क्यों याद नहीं आती, जिसका कभी वे बार-बार ज़िक्र करते थे? उनकी सरकार जहां शेष अर्थव्यवस्था में ‘एक देश, एक कर, एक बाज़ार’ का जाप कर रही है, रेलों में सारे यात्रियों के लिए एक जैसे सुविधाजनक कोचों की ओर एक क़दम बढ़ाना भी गवारा क्यों नहीं करती? क्या रेलें इस ‘एक देश’ से ऊपर या अलग हैं?
चुनाव वर्ष में भी जब लोग लोकलुभावन नीतियों की उम्मीद कर रहे हैं, सरकार को रेलों को नई आर्थिक नीतियों की कोख से जन्मे नए प्रभुवर्ग की सेवा में समर्पित रखने की नीति बदलना क्यों मंजूर नहीं?
पिछले साल रेल हादसों की झड़ी लगी रहने के बावजूद इस बजट में आम यात्रियों की सुरक्षा पर ज़्यादा ज़ोर क्यों नहीं है? क्यों वित्तमंत्री ने ‘अमीरों के लिए अलग और ग़रीबों के लिए अलग’ ट्रेनों की नीति को पलटने का जोख़िम इस बार भी नहीं उठाया और पक्का कर दिया कि राजधानी, दुरंतो, युवा और शताब्दी आदि तीव्रगामी एक्सप्रेस ट्रेनों के वातानुकूलित कोच ऐसे ही पैसेंजर ट्रेनों के एक जैसे अनारक्षित सीटिंग दर्जे के कोचों के विलोम बने रहेंगे.
अमीरों की ट्रेनें ऐसे ही ग़रीबों को मुंह चिढ़ाती निकल जाया करेंगी और गांवों के इस देश के महानगरों को ही जोड़ने को प्राथमिकता देंगी.
यों, सवाल यहीं ख़त्म नहीं होते. वित्तमंत्री ने वह नीति भी जस की तस क्यों रहने दी, जिसमें एक स्टैंडर्ड यात्री ट्रेन में आम यात्रियों के लिए कुल चार अनारक्षित कोच होते हैं, जिन्हें ‘जनरल’ कहा जाता है? अन्य दर्जों के कोच तो मांग व ज़रूरत के हिसाब से घटाए-बढ़ाए जाते रहते हैं पर ये चार के चार ही क्यों रहते हैं?
क्या रेलवे की कोई सामाजिक ज़िम्मेदारी नहीं है? भले ही ऊंचे दर्जे के यात्रियों से होने वाली उसकी आय भी कुछ ख़ास न हो. क्या इतिहास निर्माण के काम को आम बजट पेश करने की तारीख़ भर बदलकर ख़त्म मान लिया गया और उसे फरवरी के आख़िरी के बजाय पहले दिन पेश करने व रेल बजट को उसमें समाहित करने भर से ‘औपनिवेशिक परंपरा’ का वांछित ध्वंस संपन्न हो गया है?
हक़ीक़त तो यह है कि सरकार एक अप्रैल से 31 मार्च तक चलने वाले वित्त वर्ष की अवधि भी भारतीय खरीफ व रबी फसलों के हिसाब से पुनर्निर्धारित करने की ओर एक भी क़दम नहीं बढ़ा सकी है.
सवाल यह भी कि क्यों देशवासियों की ऐसे ठोस उपायों की अपेक्षा पूरी होने को नहीं आ रही, जिनसे आम लोगों की मेहनत-मज़दूरी व रोज़ी-रोटी के निरंतर बंद होते जा रहे दरवाज़े खुलें और अमीरों के इंडिया व गरीबों के भारत के बीच की खाई घटाने की जुगत संभव हो सके?
वित्तमंत्री कैसे कह सकते हैं कि उनके इस बजट से भी उन एक प्रतिशत को ही लाभ नहीं होने वाला, जिन्होंने उनके पिछले बजटों का फायदा उठाकर देश की 73 प्रतिशत संपत्ति पर कब्ज़ा जमा लिया है?
क्या भाजपा विपक्ष में रहने के दौरान इस सिलसिले में जो भली-भली बातें किया करती थी, उनमें किसी का भी चुनावी जुमले से ज़्यादा महत्व नहीं था?
क्यों वित्तमंत्री अनेक पापड़ बेलकर भी नोटबंदी और जीएसटी जैसे प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी क़दमों के लाभों की सूची भी कर दायरे में बढ़ोतरी से आगे नहीं ले जा पा रहे?
फिर इस बजट का उन ग्रामीणों व ग़रीबों के लिए क्या संदेश है, जो कर निर्धारण योग्य आय तक पहुंचने के लिए हड्डियां तोड़-तोड़कर विफल हुए जा रहे हैं? क्यों सरकार उनकी संख्या तक को विवादास्पद बना दे रही है और ‘मनरेगा’ तक को लेकर अन्यमनस्क है?
क्यों वित्तमंत्री अपना एक भी ऐसा बजट प्रावधान नहीं बता सकते, जो उस कालेधन के स्रोत पर प्रहार करता हो, चार साल पहले उनकी सरकार जिसके उन्मूलन की रट लगाती हुई सत्तासीन हुई थी.
कालाधन जिस अर्थव्यवस्था का प्रोडक्ट है, उसे बनाए रखते हुए वे डिजिटल लेन-देन जैसे टोटकों से उसका बाल भी बांका कैसे कर सकेंगे? नहीं कर पाएंगे तो यह वायदाख़िलाफ़ी होगी और उससे फैली निराशा का अंजाम वही होगा, जिसका संकेत राजस्थान और पश्चिम बंगाल के वोटरों ने अभी-अभी दिया है.