खेती-किसानी पर कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा से द वायर के संस्थापक संपादक एमके वेणु की बातचीत.
मोदी सरकार आने के चार साल बाद बजट में जो वादे किए गए हैं उसे आप कैसे देखते हैं?
हम अगर किसानों की बात करें, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के साथ 50 प्रतिशत लाभ की घोषणा की गई है. मैंने जब वित्त मंत्री को यह कहते सुना तो मुझे झटका लगा, क्योंकि अगर इस चीज़ को सामान्य ढंग से समझें तो ये मालूम पड़ता है कि किसानों को सिर्फ़ गुमराह ही नहीं किया गया बल्कि धोखा दिया गया है.
धोखा भी ऐसे स्टेज पर दिया गया जब चार साल से वह इंतज़ार कर रहा था. मोदी जी ने अपनी 500 रैलियों में से कम से कम 300 रैलियों में वादा किया था कि अगर उनकी सरकार आएगी तो वो न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ 50 प्रतिशत लाभ देंगे, यानी लागत के ऊपर 50 प्रतिशत.
उन्होंने रैलियों में कहा था कि जो काम किसी ने नहीं किया, उसे वे करेंगे और लोगों ने उनकी इस बात पर वोट भी दिया. इन लोगों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की परिभाषा को ही बदल दिया और न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का फॉर्मूला भी बदल दिया.
ये लोग एक ही चीज़ बार-बार बोलते हैं और जब एक ग़लत बात को अगर 100 बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है. मैं बता देना चाहता हूं कि किसान इतना बेवकूफ़ नहीं. उसे समझ आ रहा है कि उनके साथ कितना अन्याय हुआ है.
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दिया था कि लागत के ऊपर 50 प्रतिशत देना मुश्किल है. फिर मोदी सरकार ने कहा कि वे किसानों की आमदनी को 2022 तक डबल कर देंगे. सरकार ने हलफ़नामे में इससे इनकार करने के बाद बजट में इसे कैसे शामिल कर लिया?
मोदी सरकार ने साल 2015 में जो हलफ़नामा दायर पर कहा था कि वे न्यूनतम समर्थन मूल्य के ऊपर 50 प्रतिशत लाभ नहीं दे सकते, क्योंकि यह क़दम बाज़ार को बर्बाद कर देगा. दो महीने पहले सरकार ने संसद में भी कहा है कि लागत के ऊपर 50 प्रतिशत लाभ नहीं दे सकते हैं.
जब इन पर दबाव बढ़ने लगा तब इन्होंने गोलपोस्ट (लक्ष्य) बदल दिया कि साल 2022 तक किसानों की आमदनी डबल कर देंगे. 2016 के बजट में सरकार ने किसानों की आमदनी तो दोगुनी करने को कहा था. तब इनसे पूछा गया था कि ये तो ठीक है लेकिन अभी ये बता दो कि किसानों की आमदनी कितनी है?
साल 2016 के इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार, भारत के 17 राज्यों में किसानों की सालाना आमदनी 20,000 की है. एक परिवार अगर 1700 रुपये महीने से कम में अपना गुज़ारा करता है तो इससे भयानक और क्या हो सकता है?
हरित क्रांति के बाद भी अगर इतने कम पैसे में एक किसान परिवार को गुज़ारा करना पड़ रहा है, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है?
अगर हम उसे डबल कर दें तो वो 40,000 रुपये हो जाएगी और पांच साल के बाद वो मुद्रास्फीति के चलते एडजस्ट हो जाएगी. इसलिए किसान सबसे निचले स्तर पर ही रह जाएगा.
चुनाव भी नज़दीक आ रहा है और गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान भी केंद्र सरकार को बहुत स्पष्ट संदेश मिला है.
ग्रामीण इलाकों में भाजपा को जनता ने नकारा. गुजरात ने ज़ोर का झटका धीरे से दिया. अब कहीं सरकार को ज़ोर का झटका ज़ोर से न लग जाए.
2018 में चार राज्यों के चुनाव भी होने हैं और ये सभी राज्य किसान बहुल हैं. अगर यहां झटका लगा तो 2019 में मोदी सरकार सत्ता से बाहर हो जाएंगी.
किसानों की मदद नहीं की जा रही है बल्कि उन्हें यह संदेश दिया जा रहा है कि हमने आपके लिए इतना किया और आपके साथ खड़े हैं.
मुझे लगता है किसान इतना नासमझ नहीं है और अगर बैक फायर हुआ तो कहीं 2004 के लोकसभा चुनाव वाली परिस्थिति न आ जाए.
इससे पहले जब राजग (1999 और 2004) का कार्यकाल था तब किसानों की हालत बहुत ख़राब थी. मुझे याद है कि मैंने पश्चिम उत्तर प्रदेश में अटल बिहारी की एक चुनावी सभा देखी थी. उन्होंने कहा था कि किसानों को फसलों के अच्छे दाम नहीं मिल रहे हैं. उस समय राजग के आख़िरी साल में जीडीपी थोड़ी बढ़ी थी तो इंडिया शाइनिंग का नारा दे दिया गया. क्या आपको लगता है कि मोदी सरकार के आख़िरी सालों में जब अर्थव्यवस्था थोड़ी ऊंचाई पर है तो फिर कहा जा रहा है कि सब ठीक है. क्या फिर से इंडिया शाइनिंग के जाल में लोग फंसते दिख रहे हैं?
आपने बिल्कुल ठीक कहा है. देखिए जीडीपी का इस्तेमाल सरकारें ये बताने के लिए करती हैं कि सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा है. फील गुड फैक्टर और अच्छे दिन सब जीडीपी से जुड़े हैं. सभी जीडीपी को रिपोर्ट कार्ड की तरह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं.
मुझे अभी भी याद है कि अटल सरकार के अंतिम तीन सालों में शांता कुमार, जो उनके खाद्य मंत्री हुआ करते थे, ने एक बयान दिया था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य दरअसल अधिकतम सहयोग राशि है. ऐसा माहौल बनाया जा रहा था कि किसानों को बहुत मिल रहा है. किसानों को लागत से ज़्यादा दिया जा रहा है और अभी भी वैसे ही किया जा रहा है.
हम अगर गेहूं को देखें तो ऐसा दिखाया जा रहा है कि उन्हें 112 प्रतिशत मुनाफ़ा दिया जा रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है. मोदी जी कहा करते हैं कि ‘मेरा किसान दिवाली और ईद मना रहा है’ अगर ऐसा है तो वो क्यों नहीं मना रहा है?
हमनें बचपन में सुना था कि जब बिल्ली आती है तो कबूतर अपनी आंखें बंद कर लेता है, लेकिन आंखें बंद कर लेने से संकट नहीं ख़त्म होता. ये जीडीपी दिखाने से संकट टल नहीं जाएगा.
सरकार को चार साल के बाद ये याद आया है कि इस देश में मंडियों की ज़रूरत है. ये बहुत लोग कहते आ रहे हैं और आप भी कहते हैं कि इस देश को 40,000 मंडियों की ज़रूरत है, जबकि अभी लगभग 7000 मंडियां हैं. हर 5-10 वर्ग किलोमीटर पर एक मंडी होनी चाहिए और इस बजट में कहा गया है कि 22,000 ग्रामीण मंडियां बनाई जाएंगी. क्या आपको लगता है कि ये हो सकता है या ये सिर्फ वादा है?
देखिए, हम कई साल से मांगते आ रहे हैं कि 20,000 मंडियां बननी चाहिए लेकिन चलो कम से कम शुरुआत तो हुई. बजट में मैंने जब 22,000 मंडियां देखी, तो मुझे अच्छा लगा क्योंकि फिलहाल 7,600 मंडियां हैं और वो भी लगभग साढ़े तीन राज्यों में हैं. कुछ हरियाणा, पंजाब, पश्चिम उत्तर प्रदेश और कर्नाटक और यहां तक कि फिक्की और सीआईआई भी साढ़े तीन राज्य बताती है. मतलब मंडियां हमारे देश में बहुत कम है.
हम अगर 42,000 मंडी की बात करते हैं तो 5 किलोमीटर वर्ग में एक मंडी की स्थापना कर सकते हैं.
25 साल पहले मैं ब्राज़ील गया था. वहां मैंने सुझाव दिया कि हर 5 किलोमीटर पर मंडी बननी चाहिए और फिर उसको भोजन सुरक्षा से जोड़ा जाना चाहिए. ब्राजील ने 20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक मंडी बनाई और कोई भी किसान वहां अपनी फसल बेचने आ सकता है और सरकार को वो ख़रीदना ही पड़ेगा. भारत में अभी लगभग 150 वर्ग किलोमीटर पर है एक मंडी है, लेकिन वो भी तीन राज्यों में.
बजट में कहा गया है कि 23 कृषि उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा. पहले सिर्फ़ गेहूं और चावल पर ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रावधान था. इन 23 कृषि उत्पादों को शामिल करने के बाद इसके आर्थिक पहलू को आप कैसे देखते हैं?
ये बड़ी घोषणा है और मुझे लगता है ये उदारवादियों और शहरी आबादी को एक संदेश देने की कोशिश है कि सरकार किसानों के प्रति ज़िम्मेदार है.
सरकार ने जिन 23 फसलों की बात कही है. इसमें 40 प्रतिशत मूल्य की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को दे दी है. लेकिन सबसे अहम बात कि राज्य सरकार के पास तो पैसा ही नहीं है.
दिल्ली में जब प्रदूषण बढ़ा तो पराली जलाने पर रोक लगाने के लिए केंद्र से 2,000 करोड़ रुपये मांगे थे. तब केंद्र सरकार ने अपने हाथ खड़े कर दिए थे. अगर पंजाब को 10,000 करोड़ की ज़रूरत पड़ेगी, तो वो कहां से लाएंगे, जब उन्हें 2,000 करोड़ ही नहीं मिल रहा है.
वो अब तक किसानों का क़र्ज़ माफ़ नहीं कर पाए हैं. पंजाब में किसानों के क़र्ज के नौ हज़ार करोड़ रुपये में से सिर्फ़ 170 करोड़ रुपये ही माफ़ हो पाए हैं.
केंद्र सरकार सिर्फ़ दिखा रही है कि वे किसानों के लिए कर रहे हैं, दरअसल वे ज़िम्मेदारी राज्यों पर डाल रही हैं. किसान इस बात से इतना अनजान नहीं है.
क्या ऐसा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की ज़िम्मेदारी राज्यों पर डालने के बाद जो गैप बचेगा उसकी पूर्ति केंद्र सरकार करेगी?
ऐसा है कि केंद्र का कहना कि वे दो प्रमुख फसलों पर 40 प्रतिशत समर्थन मूल्य देंगे और बाकी पर 30 प्रतिशत. मान लिया जाए कि अगर एक राज्य पर 10,000 करोड़ रुपये का बोझ है और आपने उसमें से 3,000-4,000 करोड़ रुपये माफ़ भी कर दें, तो राज्य बाकी के 6-7 हज़ार करोड़ कहां से लाएगा. इतने पैसे तो बड़े राज्यों के पास हैं ही नहीं. न महाराष्ट्र के पास, न उत्तर प्रदेश और न ही पंजाब के पास. इसका मतलब केंद्र सरकार चाहती ही नहीं है.
अभी जो सामने आया है कि अगर ये 23 फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देना हो तो अतिरिक्त 33 हज़ार करोड़ रुपये का प्रावधान इस बजट में होना चाहिए था. अभी तो कृषि का बजट 46 हज़ार करोड़ है और अगर बजट में वो अतिरिक्त 33 हज़ार करोड़ भी जोड़ दिया जाता तो लगता कि आप किसानों को लेकर गंभीर हो.
इस बार के बजट में अतिरिक्त प्रावधान तौर पर सिर्फ़ 4,600 या 4,800 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. इसके अलावा आपको ये नहीं भूलना चाहिए कि आलू, प्याज़ और टमाटर के उत्पादन बढ़ाने के लिए आपने बजट में आॅपरेशन ग्रीन के नाम पर 500 करोड़ रुपये का भी प्रावधान किया है.
ऑपरेशन फ्लड की तर्ज पर ऑपरेशन ग्रीन का प्रावधान किया गया है. आॅपरेशन फ्लड के तहत ऑपरेटिव मॉडल में किसानों को फसलों की कीमत का कम से कम 70 प्रतिशत मिल जाता है. सब्ज़ियों के लिए अगर ऐसा होता है तो अच्छा रहेगा. क्या इस योजना को सोच-विचार कर लागू किया जा रहा है?
आजकल टर्म का चलन है कि ये नाम रख दो, वो नाम रख दो या ये नाम सुनने में अच्छा लगेगा. ये ऐसा समय है जब आलू और प्याज़ के दाम गिर गए हैं.
पंजाब में इन्होंने ऑपरेशन ग्रीन में 500 करोड़ दिए हैं और चलो मान भी लें कि ये शुरुआत है, लेकिन आपने देखा कि कोल्ड स्टोरेज वालों ने सब आलू उठाकर बाहर फेंक दिया क्योंकि दाम कम होने के चलते किसान आलू उठाने नहीं आ रहे थे. लगभग 250 करोड़ रुपये के आलू सड़कों पर फेंके गए हैं. अगर आप पूरे देश का इस तरह जोड़ें तो मुझे लगता है कि आलू का ही सिर्फ़ 10 हजार करोड़ रुपये पार कर जाएगा.
तो ये कहना कि हम 500 करोड़ रुपये में इसका प्रावधान कर देंगे या समस्या का समाधान कर देंगे तो मुझे लगता है कि इसे लेकर ठीक से सोचा नहीं गया है. बस एक संदेश देने की कोशिश की गई है कि हम बहुत चिंतित हैं.
लेकिन अगर हम देखें तो फल और सब्ज़ियों के लिए जो कोआॅपरेटिव मॉडल का प्रावधान किया गया था वो भी अब ठीक नहीं चल रहा है बल्कि अब तो आउटसोर्सिंग हो रही है.
अमूल का मॉडल अगर सच में कोआॅपरेटिव की तरह चलता तो मुझे लगता है कि इन समस्या का समाधान हो सकता था. वर्गीज़ कुरियन से भी जब बात करते थे और इस मॉडल को लेकर बहुत स्पष्ट थे लेकिन बाद में ठेकेदारों के चक्कर में सब बर्बाद हो गया.
अमेरिका की जीडीपी भारत के मुकाबले 10 से 20 गुना बड़ी है. कृषि क्षेत्र का समर्थन किए बिना उनका भी गुज़ारा नहीं है. 2014 में यूएस कांग्रेस ने एक बिल लाया था जिसमें कृषि क्षेत्र को एक ट्रिलियन डॉलर दिया था. यह अगले दस साल के लिए भारत की आधी जीडीपी है. कितना भी विकसित राष्ट्र हो वो किसानों की आमदनी को सुनिश्चित कर रहा है लेकिन भारत की नीतियां उनको समझने को क्यों नहीं तैयार हैं?
दो चीज़ों को समझना ज़रूरी है. हम यह समझते हैं कि अगर कृषि क्षेत्र का जीडीपी में 14 प्रतिशत हिस्सा है तो हमें उसकी तरफ़ नहीं देखना चाहिए और यह हमारी आम धारणा बन चुकी है.
अमेरिका में वह सिर्फ चार प्रतिशत है तो फिर उनको बिल्कुल ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है. हम अगर डब्ल्यूटीओ के माध्यम से देखें या फिर उनकी नीतियों को देखें तो यह उन्हें भी पता है कि जिसके पास खाना है उसके पास ताकत है. वे भले ही परमाणु की बात करें, लेकिन कृषि उत्पाद पर उनका ध्यान केंद्रित है.
अमेरिका में हर पांच साल में एक फार्म बिल आता है. 2014 में उन्होंने अगले दस साल के लिए 962 बिलियन डॉलर का प्रावधान किया है. डब्ल्यूटीओ के माध्यम से मिलने वाला सीधा समर्थन उन्होंने हटा दिया है. तरीका बदल गया है लेकिन वे अभी भी दे रहे हैं.
इस तरह यूरोप इस मामले में शीर्ष पर है. जापान में भी मिलती है. पश्चिमी देशों में लगभग 65 हजार डॉलर हर किसान को डायरेक्ट सब्सिडी मिलती है. भारत में लगभग 300 डॉलर मिलती है और वो भी इन डायरेक्ट जैसे बिजली पर है पानी पर है.
अमेरिका में कमोडिटी एक्सचेंज है और वॉलमार्ट भी है तो फिर उन्हें सब्सिडी की ज़रूरत नहीं है. उसके बावजूद भी इतनी सब्सिडी दी जाती है.
हमारे देश में अब वक़्त आ गया है कि हम प्राइस पॉलिसी से हटकर आमदनी को लेकर नीतियां बनाएं.
न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की बात करें तो हमारे सिर्फ़ 6 प्रतिशत किसानों को एमएसपी मिलता है. सरकार सिर्फ़ 30 प्रतिशत गेहूं और धान ख़रीद पाती है और उसका फायदा सिर्फ़ 30 प्रतिशत को ही मिलता है, लेकिन पूरे भारत में देखा जाए तो ये 6 प्रतिशत है.
मुझे लगता है कि वक़्त आ गया है कि हमें किसानों की आमदनी के लिए एक आयोग का गठन करना चाहिए. यह सुनिश्चित करना होगा कि किसानों की इतनी आमदनी होनी ही चाहिए और सरकार को अपना ध्यान उचित मूल्य से ज़्यादा उचित आमदनी पर ले जाना होगा.
डब्ल्यूटीओ के अनुसार हम ख़रीद को बढ़ा नहीं दे सकते. हमनें वहां कहा है कि हम फसलों की खरीद को बढ़ाएंगे नहीं. इसलिए 23 फसलों को एमएसपी बहुत सच नहीं लगती. इसलिए अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य से बदलकर न्यूनतम आमदनी पर नीतियां बनाई जाएं, तो डब्ल्यूटीओ की समस्या दूर हो जाएगी.
मेरा मानना है कि जो कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइसेस है उसे बदल दिया जाना चाहिए. उसको बदलकर कमीशन फॉर फार्मर्स इनकम एंड वेलफेयर कर देना चाहिए.
आयोग को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसानों की कम से कम मासिक आमदनी 18,000 रुपये होनी चाहिए. हम जीडीपी 7.6 प्रतिशत की बात करते हैं अगर किसानों की इस तरह का समर्थन दे दिया जाए तो हमारी जीडीपी 20 प्रतिशत के पार हो जाएगी.