टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान में एससी/एसटी छात्रों को मिलने वाली आर्थिक मदद को संस्थान ने ख़त्म कर दिया है. इसके विरोध में मुंबई, हैदराबाद, गुवाहाटी, तुलजापुर (महाराष्ट्र) कैंपस के छात्र-छात्राओं ने बंद का ऐलान किया है.
मुंबई: टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (टिस) के मुंबई, हैदराबाद, गुवाहाटी, तुलजापुर (महाराष्ट्र) कैंपस के सभी छात्रों ने 21 फरवरी से सांस्थानिक बंद का एेलान किया है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) के छात्रों को संस्थान से मिलने वाली आर्थिक मदद रोके जाने के बाद से ही छात्रों में रोष है जिसके चलते उन्होंने अनिश्चित काल के लिए बंद की घोषणा की.
टिस छात्र संघ ने 20 फरवरी को संस्थान को लिखे पत्र में कहा है कि संस्थान द्वारा एससी/एसटी समुदाय के छात्रों को भारत सरकार की पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप (जीओआईपीएमएस) योजना के तहत मिलने वाली आर्थिक मदद खत्म कर दी गई है और सभी छात्रों को फीस भरने का फरमान जारी किया गया है. पिछले लंबे समय से प्रबंधन से कई बार चर्चा और बैठकों के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि प्रबंधन ने अपनी योजना पर आगे बढ़ने का तय कर लिया है. सभी बातचीत और मध्यस्थता के प्रयास विफल हुए और प्रबंधन हमारी किसी भी मांग पर झुकने के लिए तैयार नहीं है.
केंद्रीय सरकार के सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय द्वारा 1944 में लाई गई पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना लंबे समय से एससी/एसटी तबके के छात्रों की आर्थिक रीढ़ रही है, जिससे हाई स्कूल से आगे की पढ़ाई करने में दलित और आदिवासी छात्रों को आर्थिक मदद मिलती है.
मुंबई कैंपस में डेवलपमेंट स्टडीज के छात्र रनीश खान ने द वायर से बात करते हुए बताया, ‘सरकार जीओआईपीएमएस ठीक से नहीं देती थी, इसलिए संस्थान खुद से आर्थिक मदद करता था और एससी/एसटी छात्रों की पढ़ने, रहने और खाने की फीस माफ़ हो जाती थी. संस्थान द्वारा 2015 में ओबीसी को मिलने वाली आर्थिक मदद बंद कर दी गई थी जिस पर अभी तक छात्र संघर्ष कर ही रहे हैं. अब अचानक से आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े एससी/एसटी छात्रों के लिए भी आर्थिक मदद बंद कर दी गई है.’
रनीश ने आगे बताया, ‘संस्थान ने यह निर्णय लेकर 200 से ज्यादा छात्रों का भविष्य खतरे में डाल दिया है. एससी/एसटी छात्रों को बड़ी मुश्किल से उच्च शिक्षा मिलती है और इनमें से कई तो अपनी पीढ़ी के पहले व्यक्ति हैं, जो इतने बड़े संस्थान में मेहनत करके पहुंचे हैं और जब इस तरह से उन्हें बीच में ही कहा जाएगा कि 70 हजार रुपये एक सेमेस्टर का भरो, तो एक छात्र कहां से भरेगा?’
आंदोलन का नेतृत्व कर रहे टिस छात्र संघ के महासचिव फहद आलम ने मोदी सरकार की आलोचना करते हुए कहा, ‘मोदी सरकार नहीं चाहती कि उच्च शिक्षा में दलित और पिछड़े पहुंचें. 2015 में ओबीसी छात्रों को मिलने वाली आर्थिक मदद को बंद करने के बाद उनके दाख़िला में कमी आई है और अब दलित और आदिवासी छात्रों को भी कोई आर्थिक मदद संस्थान से नहीं मिलेगी, तो वो भी धीरे-धीरे आना बंद कर देंगे.’
सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार, संस्थान में 2015 के बाद से ओबीसी छात्रों द्वारा दाखिला लेने के प्रतिशत में कमी आई है. 2014-15 में संस्थान में दाखिला लेने वाले कुल छात्रों में ओबीसी वर्ग के छात्रों का प्रतिशत 22 था जो 2015-16 में घटकर 20 हो गया. तो वहीं, 2016-17 में संस्थान में दाखिला लेने वाले ओबीसी छात्रों की संख्या घटकर 18 प्रतिशत ही रह गई.
फहद आगे कहते हैं, ‘संस्थान का यह पहला आंदोलन है. हम आंदोलन तब तक बंद नहीं करेंगे, जब तक कि संस्थान अपना फैसला वापस नहीं लेता.’
उन्होंने आगे कहा, ‘छात्रों को सरकार की छात्रवृत्ति मिलती ही नहीं है. क्योंकि सरकार में बैठे जिम्मेदार लोग दो-तीन हज़ार रुपये वाली छात्रवृत्ति की फाइल तो पास कर देते हैं, लेकिन यहां तो एक सेमेस्टर की फीस 70,000 रुपये है. मतलब कि सरकार अगर छात्रवृत्ति नहीं देगी तो क्या छात्र नहीं पढ़ेगा? दलित और आदिवासी उच्च शिक्षा में न पहुंचे सरकार इसका पूरा प्रयास कर रही है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘हमारी मांगे जब तक पूरी नहीं होती, तब तक हम आंदोलन जारी रखेंगे. जरूरत पड़ी तो हम सब दिल्ली आकर प्रधानमंत्री कार्यालय का भी घेराव करेंगे. ये कितने शर्म की बात है कि देश में छात्र शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं. पता नहीं सरकार की विकास की परिकल्पना क्या है? क्या शिक्षित देश विकसित नहीं माना जाएगा?
टिस शिक्षक संघ की अध्यक्ष मीना गोपाल ने छात्रों को आंदोलन में समर्थन देते हुए कहा कि प्रशासन को अपना निर्णय वापस लेना होगा.
टिस की कार्यवाहक निदेशक शालिनी भारत से छात्रों के एक समूह ने मुलाकात कर निर्णय वापस लेने की मांग की, लेकिन उन्होंने दलील दी कि संस्थान के पास धन का अभाव होने के चलते यह निर्णय लिया गया है.
टिस के पीएचडी छात्र सुनील यादव ने बताया, ‘हमारी मांग है कि 2016-2018 और 2017-2019 सत्र के छात्रों पर ये निर्णय लागू नहीं होने चाहिए, क्योंकि दाख़िला लेते वक़्त सूचीपत्र में इसका कोई जिक्र नहीं था कि फीस भरनी होगी. संस्थान का कहना है कि एससी/एसटी/ओबीसी छात्रों को आर्थिक मदद देते-देते संस्थान लगभग 20 करोड़ के नुकसान में चल रहा है.’
सुनील ने आगे बताया, ’20 करोड़ के लिए इतने छात्रों का भविष्य खतरे में डाला जा रहा है. टाटा सामाजिक दायित्व गतिविधियों (सीएसआर) के तहत विदेशी विश्वविद्यालयों को पैसा दे देता है, क्या वो 20 करोड़ रुपये नहीं दे सकता? सामाजिक न्याय राज्य मंत्री रामदास अठावले आए थे, पर सिर्फ राजनीतिक आश्वासन देकर चले गए. केंद्र सरकार ने दलित और आदिवासी छात्रों की छात्रवृत्ति के लिए महाराष्ट्र को 300 करोड़ रुपये की राशि दी है, लेकिन महाराष्ट्र में छात्रों की इतनी बड़ी संख्या को सरकार ने 300 करोड़ रुपये देकर उनका मजाक बनाया है.
सरकार पर जातिवाद का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा, ‘ये मनुवादी सरकार है और ऐसा हर संस्थान उन्हें खटकता है, जहां दलित, पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक के लिए अच्छा माहौल है. इसलिए जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय भी उनके निशाने पर है, क्योंकि वहां भी दलित और आदिवासी समाज के बच्चों को मान-सम्मान के साथ अच्छी और लगभग मुफ्त शिक्षा मिलती है.’
स्टूडेंट वेलफेयर के डीन शाहजहां ने द वायर से बात करते हुए बताया, ‘हमने एससी/एसटी छात्रों की फीस अब भी माफ़ कर रखी है, बस उन्हें हॉस्टल और मैस की फीस भरनी होगी. हम बहुत सालों से एससी/एसटी छात्रों की फीस, हॉस्टल और मैस की फीस माफ़ करते आए हैं, लेकिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने हमारे इस कदम को गैर कानूनी ठहराया और कहा कि छात्रवृत्ति सीधा छात्रों के बैंक खातों में जाती है. इसलिए हम इस मद में आर्थिक मदद नहीं दे सकते. कैग की ऑडिट में भी हमारी इस प्रक्रिया पर सवाल उठा है. सरकार का कहना है कि वे हमें इस तरह की आर्थिक मदद करने के लिए पैसा नहीं दे सकते. हमें खुद यह ख़र्च उठाना होगा, अगर हम आगे भी जारी रखना चाहते हैं तो. लेकिन हमारा संस्थान 26 करोड़ के नुकसान में चल रहा है और जब सरकार मदद नहीं करेगी, तो पैसा आएगा कहां से?’
उन्होंने आगे कहा, ‘हम मानते हैं कि 2016-18 सत्र के छात्रों को ये पता नहीं था कि उन्हें हॉस्टल और मैस का पैसा भरना पड़ेगा. हम उनकी मदद का प्रयास कर रहे हैं. और एक बात मैं बताना चाहता हूं कि अगर इस सत्र के छात्र पैसा नहीं भरते हैं, तो उन्हें परीक्षा देने से नहीं रोका जाएगा, बल्कि वे जब नौकरी करने लगेंगे, तब वे चुका सकते हैं. इसके लिए भी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है. 2017-18 बैच के लिए हॉस्टल और मैस फीस माफ करने की मांग को नहीं माना जा सकता है, क्योंकि हमने 25 मई, 2017 को दाखिले के वक़्त ही ये फैसला बता दिया था.’
शाहजहान ने कहा, ‘हम सामाजिक न्याय के मसले को समझते हैं और पूरी कोशिश कर रहे हैं कि छात्रों की मदद की जा सके. हम कॉरपोरेटर से पैसे जुटा रहे हैं, ताकि छात्रों के सिर से भार कम हो सके. हम पूरी कोशिश कर रहे हैं और समस्या का हल निकाल रहे हैं, लेकिन छात्रों ने हमारे सुझाव को अस्वीकार कर दिया है.’
वहीं, छात्र संघ ने मांग की है कि 2011-2017 के बीच में संस्थान को यूजीसी से मिली हर मदद का ब्यौरा सार्वजनिक होना चाहिए. साथ ही, 2016-2018 और 2017-19 के सत्रों की हॉस्टल और मैस की आमदनी और खर्च भी सार्वजनिक होना चाहिए.
रजिस्ट्रार द्वारा एक पत्र में बताया गया है कि जीओआईपीएम के नियमानुसार छात्रों को अनिवार्य गैर-वापसी योग्य फीस की प्रतिपूर्ति, स्टडी टूर, रिसर्च स्कॉलर के लिए थीसिस टाइपिंग और प्रिंटिंग, किताबों के खर्च की भरपाई सरकार करेगी. छात्रों को केवल हॉस्टल और मेस फीस भरनी होगी.