चंद्रशेखर आज़ाद की मां ने मन्नत मानकर दो उंगलियों में धागा बांध रखा था. कहती थीं कि आज़ाद के आने के बाद ही धागा खोलेंगी.
(यह लेख मूल रूप से 27 फरवरी 2018 को प्रकाशित हुआ था.)
उनके अरमानों को मंज़िल तक पहुंचाने के नारों के बीच क्यों देश में ऐसी स्थितियां बन गईं कि अब कर्णधारों को उनके सपनों से किंचित भी अपनापा नहीं रह गया?
लेकिन जब भी यह सवाल पूछा जाता है, जवाब बुद्धिमत्तापूर्वक साध ली गई चुप्पी में मिलता है या विचलित करके रख देने वाली निराशाजनक टिप्पणियों में.
लेकिन जहां तक आज़ाद की बात है, वे क्रांतिकारी आंदोलन के लिए धन जुटाने की कवायद में नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ के निकट काकोरी में ट्रेन पर ले जाया जा रहा अंग्रेज़ी हुकूमत का खज़ाना लूटने के ऐतिहासिक ऑपरेशन को लेकर कई घनिष्ठ साथियों को शहीद कर दिए जाने के बाद भी कतई निराश नहीं हुए थे.
अंग्रेज़ों द्वारा की जा रही क्रूरतम दमनात्मक कार्रवाइयों के बीच 1928 में उन्होंने अपने संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के ‘द रिवोल्यूशनरी’ शीर्षक संविधान/घोषणा पत्र में ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़कर ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (आर्मी)’ का गठन किया तो कमांडर-इन-चीफ के तौर पर साफ़ ऐलान किया था, ‘हमारी लड़ाई आख़िरी फ़ैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत.’
ग़ौरतलब है कि उनका यह ऐलान इस तथ्य के बावजूद था कि काकोरी कांड की सुनवाई के दौरान इस ‘द रिवोल्यूशनरी’ को ही उसमें शामिल क्रांतिकारियों के ख़िलाफ़ अंतःसाक्ष्य के रूप में पेश किया गया था, जो आगे चलकर उन्हें एक से बढ़कर एक कड़ी सज़ाओं का आधार बना.
विडंबना देखिए कि अपने अन्यतम साथियों- रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, शचींद्रनाथ सान्याल, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और योगेश चंद्र चटर्जी आदि के साथ मिलकर स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष संचालित करते हुए ‘आज़ाद’ जिस समाजवादी व्यवस्था की स्थापना का सपना देख रहे थे, उनकी शहादत ने उन्हें उसे साकार करने से वंचित कर दिया.
फिर उनकी शहादत के सोलह वर्षों बाद हासिल हुई आज़ादी के कर्णधारों ने उसे साकार करना ग़ैरज़रूरी मान लिया और यात्रा की दिशा ही विपरीत कर दी.
1931 में 27 फरवरी को यानी आज ही के दिन इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में, जिसे अब ‘आज़ाद पार्क’ कहा जाता है, गोरे शासकों की वफ़ादार पुलिस द्वारा घेर लिए जाने पर आज़ाद ने ख़ुद ही ख़ुद को शहीद कर लिया.
कहते हैं तब समूचा इलाहाबाद उमड़ पड़ा था, लेकिन पुलिस की हिमाक़त कि वह शहर के रसूलाबाद श्मशानघाट पर उनके अंतिम संस्कार में भी अपमानजनक रवैया अपनाने से बाज़ नहीं आई.
अलबत्ता, बाद में देशाभिमानी युवकों ने उस स्थल पर जाकर उनकी अस्थियां चुनीं और उनके कलश के साथ विशाल जुलूस निकाला.
तब उस जुलूस को संबोधित करते हुए शचींद्र नाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने कहा था कि आज़ाद की अस्थियों को बंगाल के शहीद खुदीराम बोस की अस्थियों जैसा सम्मान दिया जाएगा.
उनके शहादत दिवस पर अभी भी उक्त पार्क में उत्सवी माहौल दिखाई देता है, लेकिन लगता है कि देश के सत्ताधीशों को यह माहौल भी अच्छा नहीं लगता. तभी उन्होंने वहां लगाई गई आज़ाद की प्रतिमा के पास पहुंचकर उसे पुष्पांजलि अर्पित करना भी निःशुल्क नहीं रहने दिया है.
अब इसके लिए बाक़ायदा टिकट काटकर उगाही की जाती है, ताकि इलाहाबाद विकास प्राधिकरण को ‘आज़ाद पार्क’ के रखरखाव में अपनी ओर से पैसे न ख़र्च करने पड़ें.
छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत के शब्दों में कहें तो यह वैसा ही है जैसे आत्मा का अपमान कर प्रेत और छाया से रति की जाए. आज़ाद के नाम वाले पार्क की इतनी फ़िक्र और जिस उद्देश्य के लिए वे बलिदान हुए, उसकी जी भरकर हेठी!
प्रसंगवश, मध्य प्रदेश के अलीराजपुर ज़िले में स्थित जिस भांबरा ग्राम में वे 23 जुलाई, 1906 को पैदा हुए थे, उसका नाम भी उनके नाम पर चंद्रशेखर आज़ाद नगर कर दिया गया है.
इतना ही नहीं, उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के जिस बदरका से जाकर वहां बसे थे, आज़ाद के कारण उसे भी पर्याप्त प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि हासिल हो चुकी है.
इससे स्वाभाविक ही गुमान होता है कि ‘आज़ाद’ देश के उन शहीदों में शामिल नहीं हैं, जिनकी स्मृतियों से अन्याय करते हुए उन्हें विस्मृति के गर्त में दफ़न कर दिया गया.
लेकिन दूसरे पहलू पर जाएं तो आज़ाद के सपनों को साकार करने की दिशा में कहीं कोई प्रयत्न होता नहीं दिखता. वह जज्बा तो कहीं दिखता ही नहीं.
13 अप्रैल, 1919 को बैशाखी के दिन पंजाब के जलियांवाला बाग़ में हुए भयावह नरसंहार कांड से उद्वेलित होने के बाद जिससे प्रेरित होकर ‘आज़ाद’ स्वतंत्रता के संघर्ष में कूद पड़े थे.
इतिहास गवाह है, महात्मा गांधी ने 1922 में चौरीचौरा की घटना के बाद अचानक वह असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, जिसमें आज़ाद सक्रिय भागीदारी कर रहे थे, तो नाराज आज़ाद ने अपने संघर्ष की दिशा बदल ली.
नौ अगस्त, 1925 को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के बैनर पर उन्होंने लखनऊ के पास काकोरी में उसके पहले बड़े कांड को सफलतापूर्वक अंजाम दिया और लंबे मुक़दमे के बाद उसके कई नायकों को फांसी और काले पानी जैसी सज़ाओं के बावजूद उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों का सिलसिला रुका नहीं.
भगत सिंह के साथ लाहौर में सांडर्स का वध करके लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया तो दिल्ली पहुंचकर असेंबली बमकांड को अंजाम दिया. अलबत्ता, असेंबली बम कांड में वे चाहते थे कि भगत सिंह की जगह कोई और बम फेंकने जाए, लेकिन भगत सिंह की ज़िद के आगे उनकी एक नहीं चली थी.
उनकी शहादत के बाद उनकी माता जगरानी देवी ने हमारी सामाजिक कृतघ्नता की बड़ी भारी कीमत चुकाई. तंगहाली के चलते उनको बहुत दिनों तक कोदो खाकर अपने पेट की आग बुझानी पड़ी.
किसी तरह पंडित जवाहरलाल नेहरू को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने उनके लिए 500 रुपये भिजवाए. हां, बाद में सदाशिव मल्कारपुरकर जैसा बेटा पाकर जगरानी धन्य हो गईं.
जानना दिलचस्प है कि सदाशिव आज़ाद के सबसे विश्वासपात्र सैनिकों में से एक थे और उन्होंने 22 मार्च, 1951 को अपने सेनापति की जन्मदात्री के निधन और अंतिम संस्कार तक उनके प्रति अपने सारे फ़र्ज़ निभाए. यहां तक कि अपनी आस्थाओं के प्रतिकूल उन्हें तीर्थयात्राएं भी करायीं.
जानना दिलचस्प है कि माता जगरानी आज़ाद को संस्कृत का प्रकांड विद्वान बनाना चाहती थीं. उनकी इच्छा के विपरीत वे क्रांतिकारी बनकर शहीद हो गए तो भी माता को किसी दिन उनके अचानक लौट आने का अंधविश्वास था.
उन्होंने इसके लिए मन्नत मानकर अपनी दो उंगलियों में धागा बांध रखा था और कहती थीं कि उसे आज़ाद के आने के बाद खोलेंगी. आज़ाद के लिए रोते-रोते उन्होंने अपनी आंखें भी ख़राब कर डाली थीं.
लेकिन बाद में सदाशिव की सेवाओं से इतनी ख़ुश रहने लगी थीं कि अपने आसपास के लोगों से कहतीं, ‘चंदू (यानी चंद्रशेखर आज़ाद, वे उन्हें इसी नाम से संबोधित करती थीं) रहता तो भी सदाशिव से ज़्यादा मेरी क्या सेवा करता?’
क्रांतिकारी सदाशिव को ऐतिहासिक भुसावल बम केस में 14 साल का काला पानी हुआ था और उनकी सज़ा के दौरान ही उनकी मां इस संसार को छोड़ गई थीं.
जगरानी में वे अपनी दिवंगत मां की छाया महसूस करते थे और उन्हें गर्व था कि उनके काला पानी के दिनों में भूख-प्यास तक भूल जाने वाली इस मां ने अंततः उनकी गोद में ही आख़िरी सांस ली.
लेकिन, झांसी में इस वीर माता की समाधि का सन्नाटा कभी-कभी ही टूटता है. अन्यथा वह लावारिस-सी पड़ी रहती है और वहां कोई उसे प्रणाम करने नहीं जाता.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)