आफ्स्पा के ख़िलाफ़ जब इरोम की लड़ाई शुरू हुई तब मणिपुर के हालात अलग तरह के थे. 16 साल पहले का मणिपुर अब काफी बदल चुका है.
मणिपुर की आयरन लेडी कहलाने वाली इरोम शर्मिला जब चुनाव प्रचार कर रही थीं, तब लोगों ने उन्हें आदर और सम्मान तो बहुत दिया पर ये आदर-सम्मान वोटों में तब्दील नहीं हो सका.
इसकी वजह शायद ये है कि राज्य के तमाम लोगों को लगता है कि राजनीति में उतरने के बजाय मानवाधिकार के मुद्दे को लेकर उन्हें अपनी लड़ाई जारी रखनी चाहिए थी. तमाम ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि राजनीति एक गंदी जगह है, इसलिए अपनी साफ-सुथरी छवि को देखते हुए इरोम को इससे दूरी बरतनी चाहिए थी.
इरोम एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. मणिपुर में यही उनकी पहचान भी है. उनकी छवि किसी मंझे राजनीतिज्ञ जैसी नहीं है. यह भी एक वजह हो सकती है.
एक वजह यह भी कि उन्होंने ओकराम इबोबी सिंह के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा जो राज्य के एक दिग्गज नेता हैं और लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं.
बहरहाल, 16 साल की भूख हड़ताल, जो विश्व में सबसे लंबी चलने वाली भूख हड़ताल मानी जाती है, के बाद जब उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया तब उनका लक्ष्य उस राजनीतिक इच्छाशक्ति का निर्माण करना था ताकि आफ्सपा यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को ख़त्म किया जा सके.
मणिपुर जैसे अशांत राज्य में आफ्सपा और गैर न्यायिक हत्या जैसे मुद्दे राष्ट्रीय मीडिया के लिए महत्व रखते हैं, लेकिन स्थानीय स्तर पर अब बहुत कुछ बदल चुका है.
राज्य में आए दिन होने वाले प्रदर्शनों, नाकाबंदी और विकास की कमी से तंग आए लोगों की नज़रों में आफ्सपा जैसे मुद्दों का महत्व दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है.
आफ्स्पा के ख़िलाफ़ जब इरोम की लड़ाई शुरू हुई तब मणिपुर के हालात अलग तरह के थे. 16 साल पहले का मणिपुर अब काफी बदल चुका है. स्मार्ट फोन, इंटरनेट आदि की वजह से लोगों में जागरूकता बढ़ी है.
इसके अलावा राज्य में तैनात सुरक्षा बल भी अब वैसी कोई कार्रवाई नहीं करते जैसी 16 साल पहले की थी जिसके बाद इरोम ने आफ्सपा ख़त्म करने के लिए भूख हड़तान करने का बीड़ा उठाया था.
एक बात और है जब लोग लंबे समय से एक संघर्षशील स्थिति में फंसे रहते हैं तो एक समय के बाद वे उस कठिन परिस्थिति को स्वीकार कर लेते हैं, उन्हीें स्थितियों में जीने के आदि हो जाते हैं. ऐसे में बजाय विरोध के वे अपने रोज़ाना की जरूरतों को पूरा करने में लग जाते हैं.
इस बार का विधानसभा चुनाव जातीय आधार पर लड़ा गया. राज्य के बहुसंख्यक मेइतेई समुदाय ने ओकराम इबोबी सिंह पर एक ऐसे नेता के रूप में भरोसा जताया जो नागाओं को चुनौती दे सकता था.
चुनाव के दौरान इरोम ने घोषणा की थी कि वह अपने गृहनगर की सीट खुरई के अलावा थउबल सीट से भी विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी. हालांकि बाद में उन्होंने खुरई सीट छोड़ दी और ओकराम इबोबी सिंह के ख़िलाफ़ थउबल सीट से चुनाव लड़ा. यह कदम भी उनकी हार का एक बड़ा कारण हो सकता है.
हालांकि विधानसभा चुनाव परिणाम चाहे जो भी रहे हों, लेकिन अपने 16 साल के संघर्ष और आफ्सपा ख़त्म करने के उद्देश्य से एक नया राजनीतिक दल बनाने के लिए इरोम शर्मिला इतनी क़ाबिल तो हैं कि उनकी तारीफ की जानी चाहिए.
वह यह जानती हैं कि उन्हें अब उन लोगों का समर्थन नहीं जिन लोगों ने उनके संघर्ष के समय उनका समर्थन किया था. हालांकि उनकी इस नई राजनीतिक लड़ाई में कुछ लोग शामिल हुए थे, लेकिन ये समर्थन वैसा नहीं था.
इसके अलावा उनका महिला होना भी उनकी हार का एक कारण हो सकता है. इस चुनाव में 268 उम्मीदवारों में से सिर्फ 10 महिलाएं थीं.
यहां तक कि भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों में से हर एक ने सिर्फ दो महिलाओं को ही टिकट दिया. यह स्थिति साफ तौर पर बताती है कि राज्य के राजनीतिक फलक पर महिलाओं की कमी है.
मणिपुर की राजधानी इम्फाल में अनोखा और अपनी तरह का दुर्लभ इमा मार्केट है, जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ महिलाएं संचालित करती हैं. उस राज्य की राजनीति में महिलाओं की स्थिति इमा मार्केट की तरह ताकतवर नहीं दिखती.
मणिपुर में राजनीति करना सिर्फ़ पुरुषों का ही शगल माना जाता है.
(अमानत खुल्लर से बातचीत पर आधारित)