गोरखपुर से ग्राउंड रिपोर्ट: लगातार जीत से अति-आत्मविश्वास की शिकार भाजपा के लिए यह उपचुनाव आसान नहीं रह गया है. दोनों उपचुनाव शुरू से ही पार्टी के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं क्योंकि यहां के प्रतिकूल परिणाम उसे बहुत नुकसान पहुंचा सकते हैं.
पांच मार्च की शाम छह बजे गोरखपुर शहर के राप्तीनगर में भाजपा की चुनाव सभा हो रही थी. सभा में भाजपा प्रत्याशी उपेंद्र दत्त शुक्ल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उपस्थिति में भाषण दे रहे थे.
उन्होंने कहा, ‘यह चुनाव गोरखपुर के गौरव, संपूर्ण हिंदू समाज के गौरव पूज्य योगी आदित्यनाथ के सम्मान की लड़ाई है. आज गोरखपुर के गौरव का कद भारतीय राजनीति में में बढ़ा है. अभी त्रिपुरा का चुनाव जिताने का पूरा श्रेय जिनके हिस्से में हैं, गुजरात का चुनाव जिताने का श्रेय जिनके हिस्से में है और कल कर्नाटक की जीत में जिनकी बड़ी भूमिका होने जा रही है, उनको चुनौती देने का प्रयास हो रहा है. इसलिए खड़े होइए, अपने गौरव के सम्मान की लड़ाई में आगे बढ़कर दलित बस्ती में, अति पिछड़ों, पिछड़ों की बस्ती में जाकर हर चौखट पर मत्था टेकिए और कमल का फूल खिलाइए.’
इसी सभा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सपा-बसपा के गठबंधन को चोर-चोर मौसेरे भाई का गठबंधन बताया. चार घंटे पहले वह गोरखपुर ज़िले में पीपीगंज की सभा में इस गठबंधन को सांप-छछूंदर का गठबंधन बता चुके थे.
एक दिन पहले उन्होंने गठबंधन की तुलना बेर और केर से की थी. अभी हाल में अपने सरकारी ड्राइवर को पीटने से चर्चा में आए कैबिनेट मंत्री नंद गोपाल नंदी फूलपुर की सभा में योगी आदित्यनाथ के कड़वे बोल से और आगे निकल गए और मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव और मायावती की तुलना रामायण के खल पात्रों से कर दी.
गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव के आखिरी हफ्ते चार मार्च को बसपा द्वारा दोनों स्थानों पर सपा प्रत्याशियों के समर्थन के ऐलान के बाद ही भाजपा के शीर्ष नेताओं का मूड बिगड़ा दिखने लगा है जबकि इसके पहले वे त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में पार्टी की जीत की खुशी में मगन थे.
बसपा के समर्थन के ऐलान के बाद से दोनों उपचुनाव का परिदृश्य एकदम बदल गया है और यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सीट कठिन चुनावी चक्रव्यूह में फंस गई है? क्या यूपी सरकार के दोनों प्रमुख चेहरे अपने ही घर में घिर गए हैं?
बसपा का समर्थन मिलने के बाद सपा के बढ़े मनोबल का दृश्य तब देखने को मिला जब छह मार्च को योगी आदित्यनाथ कर्नाटक में भाजपा के लिए वोट मांग रहे थे, उस समय सपा प्रत्याशी प्रवीण निषाद अपने पिता और निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय कुमार निषाद व सैकड़ों समर्थकों के साथ गोरखनाथ मंदिर मे पूजा कर जीत की कामना कर रहे थे.
डॉ. संजय निषाद ऐसे शख्स हैं जो लगातार यह कहते रहे हैं कि गोरखनाथ मंदिर निषाद समाज का मंदिर है और बाबा गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ निषाद समाज के थे.
फूलपुर
लगातार जीत से अति आत्मविश्वास की शिकार भाजपा के लिए यह उपचुनाव आसान नहीं रह गया है और उसे कड़ी चुनौती मिल रही है. भाजपा के लिए ये दोनों उपचुनाव शुरू से परेशानी का सबब बने हुए हैं क्योंकि यहां के प्रतिकूल परिणाम उसे बहुत नुकसान पहुंचा सकते हैं.
यही कारण है कि भाजपा इस उपचुनाव को लेकर हमेशा असमंजस, दुविधा और आत्मविश्वास की कमी का शिकार दिखी. दोनों सीटों पर वह सबसे आखिर में अपने प्रत्याशी तय कर पायी.
फूलपुर में जिन कौशलेंद्र सिंह पटेल को प्रत्याशी बनाया गया, वह चुनाव के लिए तैयार ही नहीं थे. वह गोरखपुर में थे और यहां का चुनाव प्रबंधन देख रहे थे. नामांकन की आखिरी वक्त में उन्हें फूलपुर से लड़ने को भेजा गया.
भाजपा हाईकमान को यह निर्णय इसलिए लेना पड़ा क्योंकि सपा ने यहां से पटेल बिरादरी के नागेंद्र सिंह पटेल को चुनाव में उतार दिया. भाजपा पटेल बिरादरी पर अपने वर्चस्व को खोना नहीं चाहती थी इसलिए उसने कौशलेंद्र को प्रत्याशी बनाया जबकि उनका कामकाज का क्षेत्र मिर्जापुर और वाराणसी का था.
देवरिया जिला जेल में बंद बाहुबली नेता पूर्व सांसद अतीक अहमद द्वारा फूलपुर से चुनाव लड़ने को भी भाजपा का ‘प्लान’ बताया जा रहा है. कहा जा रहा है कि भाजपा को अपनी जीत पर भरोसा नहीं है, इसलिए उसने अतीक अहमद को चुनाव लड़ने के लिए ‘तैयार’ किया ताकि अल्पसंख्यक मतों में विभाजन हो सके.
अतीक अहमद निर्दल चुनाव लड़ रहे हैं. उनका नामांकन जेल से नामांकन के आखिरी दिन हुआ. इलाहाबाद से आए अधिवक्ताओं ने सुबह उनसे नामांकन पत्र भरवाया और फूलपुर ले जाकर दाखिल किया. इस दौरान जेल प्रशासन का रवैया बेहद दोस्ताना रहा लेकिन नामांकन के बाद जेल प्रशासन अचानक अतीक अहमद को लेकर सख्त हो गया है.
छह मार्च को दोपहर डीएम और एसपी ने अचानक जेल पर छापा डाला और विशेष रूप से अतीक अहमद के बैरक को चेक किया. बैरक से गुटखा, सिगरेट के अलावा तमाम नाम व नंबरों वाली एक डायरी बरामद हुई. नकदी और मोबाइल भी बरामद होने की खबर है लेकिन प्रशासन ने इसकी पुष्टि नहीं की है.
बैरक की चेकिंग के दौरान अतीक की डीएम से गर्मागर्मी भी हुई. डीएम ने पत्रकारों से कहा कि अतीक अहमद के खिलाफ जेल में प्रतिबंधित सामान मिलने के मामले में रिपोर्ट दर्ज करायी जाएगी.
इसके पहले भी 24 फरवरी को अतीक अहमद की बैरक को चेक किया गया. सूत्र बता रहे थे कि देवरिया जिला प्रशासन ने ऊपर से आए निर्देश के बाद अतीक पर यह सख्ती की है. अतीक पर ‘सख्ती’ को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अपने उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के बीच बढ़ते मतभेद का कारण बताया जा रहा है.
कहा जा रहा है कि मौर्य ने अतीक को भाजपा प्रत्याशी को लाभ पहुंचाने के लिए मैनेज किया लेकिन योगी सरकार उन्हें और सहूलियत देने के बजाय उन पर सख्ती कर रही है कि जिससे वह अपने पक्ष में ज्यादा प्रचार न कर पाएं.
अतीक अहमद योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के एक महीने के बाद ही देवरिया जेल भेज दिए गए थे. फूलपुर से नामांकन करने के बाद वह नैनी जेल जाना चाहते थे और इसकी खूब चर्चा भी हो रही थी लेकिन यह संभव नहीं हो पाया.
इससे अतीक के चुनाव लड़ने का ‘पूरा फायदा’ फूलपुर में भाजपा प्रत्याशी को नहीं मिल पा रहा है.
वहीं कौशलेंद्र को उम्मीदवार बनाते ही उनका पारिवारिक विवाद का मामला एक बार फिर सामने आया जिससे पार्टी परेशानी में पड़ी. उनकी पूर्व पत्नी ने घरेलू हिंसा के आरोप को एक बार फिर मीडिया में कहा, जिसकों लेकर विरोधी उन पर निशाना साध रहे हैं.
चुनाव में स्थानीय बनाम बाहरी का भी मुद्दा चल रहा है. भाजपा प्रत्याशी को बाहरी बताकर सपा अपने पक्ष में पटेल मतों को ज्यादा से ज्यादा ध्रुवीकृत करने में लगी है.
फूलपुर परंपरागत रूप से भाजपा की सीट नहीं रही है. पिछले चुनाव में केशव प्रसाद मौर्य ने जरूर 52.43 फीसदी मत प्राप्त कर बड़ी जीत हासिल की थी. सपा प्रत्याशी 20.33 और बसपा प्रत्याशी 17.05 फीसदी वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे.
पटेल, बिंद, पासी, मुसलमान यहां चुनाव का फैसला करते हैं. बसपा के प्रमुख नेता रहे इंद्रजीत सरोज अब सपा में हैं और वह चुनाव का संचालन कर रहे हैं. उनकी वजह से सपा पहले से ही मजबूती से लड़ रही थी.
अब बसपा का भी साथ मिल जाने से उसकी स्थिति और ठीक हो गई है. चुनाव परिणाम मुसलमान मतों के विभाजन पर निर्भर करेगा. यदि मुसलमान अतीक अहमद और सपा में विभाजित हुए तो इसका फायदा भाजपा को मिलेगा और ऐसा नहीं हुआ तो परिणाम सपा के पक्ष में जा सकता है.
गोरखपुर
गोरखपुर में भी योगी आदित्यनाथ अंतिम समय तक अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी नहीं चुन पाए. यहां से पूर्व गृह राज्यमंत्री चिन्मयानंद, फिल्म अभिनेता रवि किशन से लेकर गोरखनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी योगी कमलानाथ के नाम उछलते रहे, लेकिन नाम फाइनल हुआ भाजपा के क्षेत्रीय अध्यक्ष उपेंद्र दत्त शुक्ल का.
गोरखपुर की राजनीति में उपेंद्र शुक्ल कभी भी योगी के गुड बुक में नहीं रहे. वर्ष 2005 में कौड़ीराम विधानसभा के उपचुनाव में वह योगी पर टिकट कटवाने का आरोप लगाते हुए भाजपा के अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव लड़ गए थे. वह भी हारे और भाजपा प्रत्याशी भी हार गया.
उन्हें योगी आदित्यनाथ के प्रतिद्वंद्वी खेमे केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री शिवप्रताप शुक्ल का नजदीकी माना जाता है. शिव प्रताप शुक्ल भी पूर्व में योगी की नाराजगी झेल चुके हैं. योगी ने उनके खिलाफ हिंदू महासभा से डॉ. राधा मोहन दास अग्रवाल को चुनाव लड़ाकर जिता दिया था.
इसके बाद वह भाजपा में हाशिये पर चले गए. केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद अचानक उनका भाग्योदय हुआ है. पहले उन्हें राज्यसभा भेजा गया और अब वित्त राज्यमंत्री बना दिया गया. उनका कद बढ़ाए जाने को मोदी-शाह की चेक एंड बैलेंस पॉलिटिक्स का हिस्सा माना जाता है ताकि योगी के उभार से ब्राह्मण भाजपा में अपने का उपेक्षित न समझें और योगी के गढ़ में एक समानांतर सत्ता केंद्र बना रहे.
उपेंद्र के प्रत्याशिता को योगी आदित्यनाथ ने तो स्वीकार कर लिया लेकिन उनके खांटी समर्थक निरुत्साहित हो गए हैं और बेमन से चुनाव प्रचार में लगे हैं. समस्या यहीं पर खत्म नहीं हुई. चुनाव प्रचार के बीच में ही उपेंद्र गंभीर रूप से बीमार हो गए और उन्हें लखनऊ पीजीआई में भर्ती कराना पड़ा.
उनके दिमाग में खून का थक्का बन गया था, जिसके ऑपरेशन के कारण वह पांच दिन बाद चुनाव प्रचार में लौट पाए. अब वह चुनावी सभाओं में भावुक होते हुए बोल रहे हैं कि योगी आदित्यनाथ ने उनका जीवन बचाया है.
गोरखपुर सीट 1989 से लगातार गोरखनाथ मंदिर के पास है. 1989 से 1998 तक योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवैद्यनाथ यहां के सांसद रहे. इस दौरान वह लगातार तीन चुनाव जीते. उसके बाद से योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार से चुनाव जीतते आ रहे हैं.
गोरखनाथ मंदिर के महंत देश की आजादी के बाद से चुनावी राजनीति में सक्रिय हैं. महंत दिग्विजयनाथ 1952 और 1957 का हिंदू महासभा से लड़े लेकिन कांग्रेस के सिंहासन से हारे. तीसरी बार उन्हें 1967 में जीत मिली. दो वर्ष बाद उनका निधन हो गया और 1969 में उपचुनाव हुआ जिसमें महंत अवैद्यनाथ जीते लेकिन 1970 के चुनाव में वह कांग्रेस प्रत्याशी नरसिंह नारायण पांडेय से हार गए.
इसके बाद वह चुनावी राजनीति से दूर हो गए. राम मंदिर की राजनीति शुरू होने पर वह फिर से 1989 में राजनीति में लौटे. 1989 से 2014 के आठ चुनावों के परिणाम का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि सिर्फ दो बार 1998 और 1999 में योगी आदित्यनाथ को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा.
वह 1998 का चुनाव 26,206 और 1999 का चुनाव सिर्फ 7,339 वोटों से जीते. दोनों बार सपा प्रत्याशी जमुना निषाद ने उन्हें टक्कर दी. इन दोनों चुनावों में बसपा प्रत्याशी ने क्रमशः 15.23 और 13.54 फीसदी वोट बांट लिया नहीं तो चुनाव परिणाम कुछ और हो सकता था.
वर्ष 1998 में बेहद नजदीकी मुकाबले में जीत के बाद योगी आदित्यनाथ ने हिंदू युवा वाहिनी का गठन किया. इसके बाद गोरखपुर और आसपास का इलाका सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं से झुलस गया. इसका चुनावी फायदा योगी आदित्यनाथ को हुआ और 1998 के बाद वर्ष 2004, 2009 और 2014 में उनकी जीत का अंतर बढ़ता गया.
वर्ष 2014 का चुनाव वह 51.80 फीसदी वोट प्राप्त कर 3,12,783 वोट के अंतर से जीते. पिछले तीन चुनावों से सपा, बसपा और कांग्रेस के सम्मिलित वोट से भी अधिक वोट योगी आदित्यनाथ को मिल रहा है.
इस हिसाब से देखें तो भाजपा प्रत्याशी को कोई चुनौती पेश नहीं आ रही है लेकिन इन चुनावों में सपा और बसपा, योगी आदित्यनाथ को हराने के लिए नहीं बल्कि एक दूसरे को हराने के लिए लड़ते रहे हैं. वर्ष 2004 में सपा और बसपा दोनों ने निषाद प्रत्याशी दिया तो वर्ष 2009 में ब्राह्मण.
पिछले चुनाव में दोनों ने फिर निषाद प्रत्याशी दिया. इससे पिछड़े और अल्पसंख्यक मतों में विभाजन होता रहा, जिसका फायदा योगी आदित्यनाथ को होता रहा है. मुकाबला हमेशा त्रिकोणीय रहा.
कांग्रेस यहां पर पिछले छह चुनावों से अपनी कोई हैसियत नहीं बना पाई है और छह बार से उसकी जमानत जब्त होती रही है. उसका वोट प्रतिशत 2.60 से 4.85 फीसदी के बीच रहा है.
इस बार कांग्रेस ने डॉ. सुरहिता करीम के रूप में एक बेहतर प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारा है लेकिन सपा और भाजपा के बीच वोटों के ध्रुवीकरण के कारण इस बार भी कांग्रेस की हालत पिछले चुनावों से बेहतर होने की उम्मीद नहीं लग रही है.
इस चुनाव में भाजपा का सपा प्रत्याशी से सीधा मुकाबला होने जा रहा है क्योंकि बसपा चुनाव नहीं लड़ रही है और उसने सपा प्रत्याशी को समर्थन दिया है. लगभग तीन दशक बाद पहली बार ऐसा हो रहा है कि सामाजिक समीकरण, जाति के आंकड़े और वोटों का अंकगणित सपा प्रत्याशी के पक्ष में दिख रहा है.
गोरखपुर संसदीय क्षेत्र में सबसे अधिक वोटर निषाद जाति के हैं जिनकी संख्या लगभग 3.5 लाख बतायी जाती है. यादव और दलित मतदाता दो-दो लाख हैं. ब्राह्मण मतदाता 1.5 लाख के आस-पास हैं. यदि इस चुनाव में निषाद, यादव, मुसलमान और दलितों की एकजुटता सफल हो जाए तो चौंकाने वाले परिणाम आ सकते हैं.
गोरखपुर की राजनीति में ब्राह्मणों और राजपूतों के बीच प्रतिद्वंद्विता का पांच दशक पुराना इतिहास है. यह प्रतिद्वंद्विता 80 के दशक में खूनी लड़ाई में बदल गई थी. इसकी छाया अभी भी है.
योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद ब्राह्मणों की राजनीति के सबसे बड़े सेंटर हाता पूर्व मंत्री हरिशंकर तिवारी का घर पर छापे और इसके विरोध में हुए ब्राह्मणों के उग्र प्रदर्शन से लगा था कि पुराना दौर फिर शुरू हो जाएगा लेकिन सरकार के कदम खींच लेने से मामला ठंडा हो गया लेकिन शीत युद्ध अभी भी जारी है.
योगी आदित्यनाथ की सीट पर भाजपा द्वारा ब्राह्मण प्रत्याशी उतारे जाने के बावजूद ब्राह्मण उसे कितना समर्थन देंगे, इसको लेकर संशय बना हुआ है.
हिंदू युवा वाहिनी का निष्क्रिय होते जाना भी उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी के लिए कमजोरी का सबब बना हुआ है. विधानसभा चुनाव में ही हिंदू युवा वाहिनी के प्रमुख नेताओं ने टिकट न मिलने से नाराज होकर बगावत कर दी थी.
इस पर योगी आदित्यनाथ ने उन्हें संगठन से निकाल दिया. मुख्यमंत्री बनने के बाद भी इन नेताओं को संगठन में वापस नहीं लिया गया. साथ ही पूरे संगठन को ‘रचनात्मक कार्य’ ही करने का कड़ा निर्देश दिया गया. इसके बाद से धीरे-धीरे संगठन का लोप होता जा रहा है.
इन कमजोरियों के बावजूद योगी आदित्यनाथ यहां से जीत के प्रति आश्वस्त दिख रहे हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण है इस संसदीय क्षेत्र का गोरखपुर शहर विधानसभा क्षेत्र. यह क्षेत्र भाजपा का मजबूत किला है. यहां से भाजपा को हर चुनाव में प्रमुख प्रतिद्वंद्वी से 50 से लेकर एक लाख की बढ़त दे देता है.
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को यहां से एक लाख की मार्जिन मिली थी जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी यहां से 60 हजार से अधिक मतों से विजयी हुआ था. इस अंतर को कम करने के विपक्षी दलों के प्रयास अब तक विफल साबित हुए हैं.
भाजपा एक बार फिर इसी विधानसभा क्षेत्र से बड़ी बढ़त लेने की रणनीति बनाए हुए है. खुद योगी आदित्यनाथ ने एक सभा में कार्यकर्ताओं से शहर विधानसभा में मतदान प्रतिशत बढ़ाने का निर्देश दिया और कहा कि यहां से हमें निर्णायक बढ़त मिलती है जिसको कायम रखना होगा.
निषाद पार्टी
दो वर्ष पहले बनी निषाद पार्टी ने निषाद वोटों पर अपना प्रभावशाली वर्चस्व दिखाया है. निषाद पार्टी ने विधानसभा चुनाव पीस पार्टी के साथ मिलकर लड़ा था. पीस पार्टी को निषाद वोट तो ट्रांसफर हुए लेकिन पसमांदा मुसलमानों के वोट निषाद पार्टी को नहीं मिले.
इस कारण वह यूपी में एक ही सीट ज्ञानपुर जीत पाई. पीस पार्टी भी कोई सीट जीत नहीं पाई. निषाद पार्टी 72 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसे 5,40,539 वोट मिले. तमाम सीटों- पनियरा, कैम्पियरगंज, सहजनवा, खजनी, तमकुहीराज, भदोही, चंदौली में उसे दस हजार से अधिक वोट मिले.
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. संजय कुमार निषाद गोरखपुर ग्रामीण सीट से चुनाव लड़े और 34,869 वोट पाए. चुनाव तो वह नहीं जीत पाए लेकिन वह सपा, बसपा, कांग्रेस को एहसास दिलाने में कामयाब रहे कि निषाद जाति के वोटों पर उनकी अच्छी पकड़ है.
यही कारण है कि सपा ने चुनाव बाद उसे अपने साथ लिया और निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय कुमार निषाद के बेटे प्रवीण निषाद को प्रत्याशी बना दिया.
ओबीसी पॉलिटिक्स
लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में इस इलाके में निषाद नेताओं की भाजपा ने उपेक्षा की, जिससे वे भाजपा से दूर होते गए और निषाद पार्टी के साथ गोलबंद हो गए हैं. अन्य पिछड़ी जातियों में भी भाजपा से नाराजगी बढ़ी है.
उन्हें ऐसा लग रहा है कि उनका वोट लेने के बावजूद सत्ता में उनका समुचित प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है. कानून व्यवस्था ठीक करने के नाम पर मुठभेड़ और पुलिस कार्रवाई की जद में सबसे अधिक पिछड़े वर्ग के लोग ही आए हैं.
इससे भी उनकी नाराजगी योगी सरकार से बढ़ी है. यूपी में भाजपा सरकार बनने के बाद जो छोटे दल भाजपा के साथ आए हैं, वे बहुत खुश नहीं हैं. वे अपनी उपेक्षा को लेकर शिकायत भी कर रहे हैं. भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर कई बार अपनी उपेक्षा का सार्वजनिक इजहार कर चुके हैं.
सपा की नई सोशल इंजीनियरिंग
विधानसभा चुनाव परिणाम से सबक लेते हुए सपा चुपचाप नई सोशल इंजीनियरिंग करने में जुट गई थी. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सपा के सामाजिक आधार को विस्तृत करने का प्रयास शुरू किया.
वह सपा को यादव पार्टी की पहचान से मुक्त कराने के लिए राजनीतिक हाशिये पर पडे़ पिछड़ी जाति के कई नेताओं को सपा में शामिल किया और विधानसभा चुनाव में अपनी ताकत दिखाने में कामयाब हुई निषाद पार्टी, पसमांदा मुसलमानों की पार्टी पीस पार्टी जैसे छोटे दलों से बातचीत शुरू की और उसे अपने साथ ले आने में कामयाब हुए.
विधानसभा चुनाव में निषाद पार्टी ने सपा से गठबंधन की कोशिश की थी लेकिन सपा ने भाव नहीं दिया. निषाद पार्टी के नेता डॉ. संजय कुमार निषाद कहते रह गए कि यदि सपा ने उनसे गठबंधन कर लिया होता तो वे विधानसभा चुनाव में कम से कम 30 से 35 सीटों पर नहीं हारते.
चुनाव बाद वोटों का गुणा-भाग करने पर सपा को साफ तौर पर समझ में आ गया कि यदि निषादों के साथ-साथ सैंथवार, पटेल व कुछ अन्य ओबीसी जातियों को साथ लाया जा सके तो वह अपने सामाजिक आधार को काफी विस्तारित कर सकती है जो पिछले कुछ वर्षों से छीजता गया है. इसी रणनीति के तहत गोरखपुर सहित कई स्थानों पर ओबीसी सम्मेलन हुए, जिसे सपा ने पीछे से सपोर्ट किया.
इन सम्मेलनों में मांग उठाई गई कि ओबीसी समाज को उसकी आबादी के हिसाब से 52 फीसदी आरक्षण दिया जाए. इन सम्मेलनों में ओबीसी समाज को देश की तीसरी सबसे बड़ी शक्ति बताते हुए यादव, निषाद, सैंथवार, पटेल, राजभर, मौर्य, विश्वकर्मा, प्रजापति, जायस
गोरखपुर में पांच जनवरी को हुए ओबीसी सम्मेलन में ओबीसी एकता का लोकसभा उपचुनाव में परीक्षण करने की बात कही गई थी. ओबीसी सम्मेलन कराने वाले ओबीसी आर्मी के अध्यक्ष कालीशंकर कहते हैं कि यह चुनाव ओबीसी, एससी और एसटी की सामंतवादी ताकतों से लड़ाई का चुनाव है.
यूपी में बदलती राजनीति का इम्तिहान है उपचुनाव
एक तरफ सपा ने पिछड़ी जातियों को एकजुट कर अपने पाले में जुटाने की कोशिश की और बसपा से लोकसभा उपचुनाव के साथ-साथ विधान परिषद और राज्यसभा चुनाव में रणनीतिक गठबंधन कर लिया, वहीं भाजपा दूसरे राज्यों में विजय अभियान और सत्ता संचालन में व्यस्त हो गई. जब उसे विपक्ष की नई रणनीति समझ में आई तो मछुआरा सम्मेलन, कायस्थ सम्मेलन करने लगी.
एक वर्ष के अंदर प्रदेश की राजनीति में दिलचस्प परिवर्तन आए हैं. पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद से विकास की राजनीति से मोहभंग हो गया है और वह सोशल इंजीनियरिंग के जरिए उखड़े पांव जमाने की कोशिश कर रहे हैं तो दलितों और पिछड़ों की कुछ जातियों को अपने पक्ष में कर सत्ता तक पहुंचने वाली भाजपा और उसके मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, अखिलेश सरकार की तरह विकास का राग गाने लगे हैं.
गोरखपुर और फूलपुर के चुनाव परिणाम साबित करेंगे कि किसकी रणनीति सही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के आयोजकों में से एक हैं.)