क्यों महिलाओं की आर्थिक-राजनीतिक अधिकारों की लड़ाई बाज़ार के डिस्काउंट तक सिमट गई है?

अंतरराष्ट्रीय ‘श्रमजीवी’ महिला दिवस से श्रमजीवी शब्द को हटाना मज़दूर महिलाओं के संघर्ष और इस दिन के इतिहास के महत्व को कम करता है.

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::STANDALONE PHOTO PACKAGE:: Udaipur: Shanta (10), Meena (15), Champa (12) and Pushpa (16) in a light mood after a friendly match at village Mota Bhata in Udaipur. An NGO, Vikalp Sansthan, is training girls of this Bhil tribe in volleyball; in an attempt to try and pull them out of their homes and making them comfortable not just in the open fields of the village area but also with their own selves. The girls from this extremely remote area of Rajasthan have found a means of self expression through this simple game. International Women's Day observed on March 8th, has 'Press for Progress', which promotes gender parity as it theme this year. PTI Photo by Rohit Jain(PTI3_7_2018_000136B)
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अंतरराष्ट्रीय श्रमजीवी महिला दिवस का इतिहास मज़दूर महिलाओं के लंबे संघर्ष की कहानी बयां करता है.

::STANDALONE PHOTO PACKAGE:: Udaipur: Shanta (10), Meena (15), Champa (12) and Pushpa (16) in a light mood after a friendly match at village Mota Bhata in Udaipur. An NGO, Vikalp Sansthan, is training girls of this Bhil tribe in volleyball; in an attempt to try and pull them out of their homes and making them comfortable not just in the open fields of the village area but also with their own selves. The girls from this extremely remote area of Rajasthan have found a means of self expression through this simple game. International Women's Day observed on March 8th, has 'Press for Progress', which promotes gender parity as it theme this year. PTI Photo by Rohit Jain(PTI3_7_2018_000136B)
(फोटो: पीटीआई)

आज कॉरपोरेट और विभिन्न ग़ैर सरकारी संगठन भारत में वर्ग और जातीय भेदभाव के सवाल को महिलाओं के सवाल से अलग करके नारीवादी आंदोलन को हड़पने और उसके राजनीतिक महत्व को कम करने का प्रयास कर रहे हैं.

पिछले दो-तीन दिनों से सड़कों पर प्रचार और ऑनलाइन बाज़ार महिला दिवस पर भारी छूट देकर ख़ुद को महिला समर्थक बनाने और मुनाफ़ा कमाने की होड़ में लगे हुए हैं.

कॉरपोरेट जगत की बड़ी-बड़ी कंपनियां महिलाओं को एक दिन का सम्मान देने के लिए विभिन्न सामानों पर भारी छूट देकर महिला दिवस मना रही हैं.

टाइम्स आॅफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, रेनॉल्ट नाम की कार कंपनी छह से 11 मार्च तक महिला ग्राहकों को मुफ्त कार पिकअप और ड्रॉप सुविधा की उपलब्ध कराएगी. साथ ही महिलाएं अपने वाहनों की निःशुल्क जांच भी करा सकती हैं.

रेनॉल्ट के महिलाओं के जीवन को रफ़्तार देने के साथ विस्तारा एयरलाइंस महिलाओं को ऊंची उड़ान देने के लिए टिकटों पर भारी छूट दे रही है.

लैक्मे, वीएलसीसी जैसी सौंदर्य उत्पाद बनाने वाली कई कंपनियां भी महिलाओं को सुंदरता की परिभाषा में सटीक बैठाने के लिए अपनी सेवाओं पर आज के दिन छूट दे रही हैं.

हास्यास्पद यह भी है कि ब्यूटी पार्लरों में काम करने वाली ज़्यादातर महिलाएं ही महिला दिवस के दिन कंपनी की योजना के अनुसार महिला ग्राहकों को सेवा उपलब्ध कराएंगी.

सिर्फ कॉरपोरेट जगत ही नहीं बल्कि सरकार और उसके विभाग भी आज के दिन महिला दिवस मना रहे हैं भले ही महिलाओं की असल में स्थिति कुछ और कहती हो.

श्रम मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार अप्रैल-जून 2017 के बीच मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के संविदा और अस्थायी कर्मचारी सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए.

तिमाही रोज़गार सर्वेक्षण के अनुसार, ‘मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में अनुमानित आधार पर कुल 22,000 महिलाओं की नौकरियां गईं. इसी रिपोर्ट के अनुसार कुल 87,000 नौकरियों में से 65,000 पुरुषों की नौकरियां भी गई हैं.

सरकार के नोटबंदी जैसे बड़े फैसलों के कारण साल 2017 के शुरुआती चार महीनों में 15 लाख नौकरियां ख़त्म हो गईं. इससे असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं सबसे ज़्यादा प्रभावित हुईं.

अगर देखा जाए तो जो महिलाएं घर में रहती हैं और घर का कामकाज करती हैं अक्सर उनको कामकाज़ी महिलाओं की श्रेणी से बाहर रखा जाता है लेकिन असल में वो महिला भी काम कर रही है बस उसका वेतन उसे नहीं मिलता. नोटबंदी के बाद इन महिलाओं की जमा पूंजी भी सबके सामने आने से यह वर्ग भी बहुत प्रभावित हुआ.

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में सामने आया है कि महिलाओं के साथ होने वाला भेदभाव केवल लैंगिक नहीं बल्कि जाति और आर्थिक स्थिति पर भी आधारित है.

‘टर्निंग प्रॉमिसेस इन टू एक्शन- जेंडर इक्वॉलिटी इन द 2030’ एजेंडा नाम की इस रिपोर्ट के अनुसार, एक सवर्ण महिला की तुलना में एक दलित महिला करीब 14.6 साल कम जीती है.

इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ दलित स्टडीज़ के 2013 के एक शोध का हवाला देते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जहां एक ऊंची जाति की महिला की औसत उम्र 54.1 साल है, वहीं एक दलित महिला औसतन 39.5 साल ही जीती है.

Alirajpur: Tribal girls, in traditional ornaments and attire, travel by a jeep to attend the Bhagoria Haat festival to choose their life-partners at Sondwa village in Alirajpur district of Madhya Pradesh on Thursday. The festival is celebrated by Bheel tribal people in Jhabua and Alirajpur districts a week before Holi. During the festival young boys and girls are allowed to elope with their partners for marriage. PTI Photo (PTI3_1_2018_000217B)
(फोटो: पीटीआई)

आज के समय में महिला दिवस को मात्र एक दिन का उत्सव और महिलाओं को मात्र एक दिन का सम्मान देकर मनाया जाने लगा है. साथ ही सभी महिलाओं को ‘एक समान श्रेणी’ में देखा जाता है लेकिन इस दिन का इतिहास महिलाओं के संघर्ष की कुछ और कहानी बताता है.

इसके इतिहास की बात करें तो अधिकांश वर्ष 1975 से इस दिवस को मनाने की शुरुआत मानते हैं लेकिन यह उससे कहीं पहले शुरू हुआ था.

क्या है अंतरराष्ट्रीय श्रमजीवी महिला दिवस का इतिहास?

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पहली बार 1909 में मनाया गया था लेकिन आज के समय में इस दिन को विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान और प्रशंसा प्रकट करते हुए, महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है. लेकिन असल में अंतरराष्ट्रीय श्रमजीवी महिला दिवस का इतिहास और आज के समय में इस दिन की समझ में बड़ा अंतर दिखाई देता है.

1907 में न्यूयॉर्क में महिलाओं ने आठ मार्च के दिन का चयन वर्ष 1857 में हुई परिधान श्रमिकों (गारमेंट वर्कर) की 50वीं वर्षगांठ के उत्सव के रूप में किया और इस दिन महिलाओं के लिए ‘मतदान के अधिकार’ की मांग की.

इसके बाद साल दर साल विभिन्न देशों की महिलाओं ने अपने अधिकारों की मांग को लेकर एकजुट होकर प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था.

इसके एक साल बाद 1908 में आठ मार्च के दिन 15,000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क शहर में एक जुलूस निकाल कर फैक्ट्रियों में काम करने की बेहतर स्थिति, काम करने का कम समय और मतदान के अधिकार की मांग की थी.

साल 1909 में तकरीबन 20 हज़ार महिलाओं ने 13 सप्ताह तक अपने अधिकारों के लिए प्रदर्शन किया और इतिहास में इस घटना को ‘राइज़िंग ऑफ 20 थाउजेंड’ के रूप में जाना जाता है.

इस दौरान महिलाओं ने ख़ुद को सफलतापूर्वक संगठित किया. इस सफलता ने पूरे अमेरिका की तमाम महिला श्रमिकों में भरोसा जगाया.

उसी साल 28 फरवरी को पहली बार इस दिन को आधिकारिक पहचान मिली और सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने इस दिन को राष्ट्रीय महिला दिवस का नाम दिया.

साल 1911 में 19 मार्च को इस दिन ‘अंतरराष्ट्रीय श्रमजीवी महिला दिवस’ के रूप में मनाया गया.

मज़दूर महिलाओं का संघर्ष देख कम्युनिस्ट क्रांतिकारी क्लारा जेटकिन ने इस दिन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाने का प्रस्ताव रखा जिसे 17 विभिन्न देशों की लगभग 100 महिलाओं ने समर्थन दिया. उसके बाद यह आंदोलन ऑस्ट्रिया, जर्मनी और डेनमार्क के साथ अन्य देशों में भी फैल गया.

उस दौरान एक अन्य कम्युनिस्ट क्रांतिकारी एलेक्ज़ेंड्रा कोल्लान्ताई जर्मनी में थीं. उन्होंने जगह-जगह महिलाओं की बैठक आयोजित करने में अपना योगदान दिया था.

उस दौरान एक बड़ा प्रदर्शन होना था जिसमें 30 हज़ार महिलाएं शामिल होने वाली थीं लेकिन पुलिस बल से उसे दबा दिया गया.

इसके अगले सप्ताह न्यूयॉर्क में ‘ट्राएंगल फायर’ नाम की घटना में 140 श्रमिकों की फैक्ट्रियों में काम करने की ख़राब परिस्थितियों के कारण मौत हो गई.

साल 1913 और 1914 में यूरोप भर में महिलाओं ने शांतिपूर्ण रैलियां आयोजित कीं. 1917 में महिलाओं ने ‘ब्रेड एंड पीस’ (रोटी और शांति) के लिए एक हड़ताल शुरू की और सरकार को उनके मतदान के अधिकार की मांग को मानना पड़ा.

इस दौरान महिला दिवस युद्ध का विरोध करने का प्रतीक बनकर उभरा. रूसी महिलाओं ने पहली बार अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस फरवरी माह के आख़िरी दिन पर मनाया और पहले विश्वयुद्ध का विरोध दर्ज किया.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

उसके बाद पश्चिम में संघर्ष और महिला दिवस का उत्सव जारी रहा. ऑस्ट्रेलिया की अतिवादी महिलाओं ने 25 मार्च 1928 को अपनी पहली रैली का आयोजन किया.

महिला दिवस की 50वीं वर्षगांठ डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में आयोजित एक सम्मेलन में 73 देशों से 729 प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिन्होंने महिलाओं के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों पर सहमति जताई.

इसी तरह लंदन और इराक़ में महिलाओं ने अपने साथ हो रहे दमन का विरोध किया.

बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतराष्ट्रीय महिला दिवस को साल 1975 से औपचारिक तौर पर मनाना शुरू किया.

सोवियत संघ भी इसे महिला दिवस के रूप में मनाता था लेकिन बाद में संघ अपने समाजवादी एजेंडे की पटरी से उतरा और साल 1989 में महिला दिवस को ख़त्म कर दिया गया.

आज भी हंगरी, पोलैंड और रोमानिया जैसे देश इस दिन पर महिलाओं को फूल देकर महिला दिवस का जश्न मनाते हैं. ज़्यादातर देश और कॉरपोरेट हालांकि अभी भी महिलाओं को असमान मज़दूरी देते हैं.

अब इस दिन पर महिलाओं को माताओं, बहनों, बेटियों और पत्नियों के दर्जे तक सीमित कर उनसे अच्छी तरह से व्यवहार करने की सीख सिखाई जाती है. न्याय की लड़ाई को महिलाओं को एक दिन के लिए ‘पूजनीय’ और ‘सम्मान’ देने तक सीमित कर दिया गया है.

यह न केवल महिलाओं के संघर्षों के महत्व और इतिहास को ख़त्म करता है बल्कि उन्हें उनकी स्वतंत्र पहचान से भी वंचित करता है.

साल 1993 में बॉम्बे (मुंबई) में ‘फ्रेंड्स आॅफ सोवियत यूनियन’ संस्था द्वारा पहली बार आठ मार्च को महिला दिवस मनाया गया था. 1950 से भारतीय महिला राष्ट्रीय नेशनल फेडरेशन द्वारा अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस नियमित रूप से मनाया जाने लगा.

हालांकि, भारत में महिलाओं की मुक्ति के लिए संघर्ष 19वीं सदी से शुरू होता है जहां सावित्रीबाई फुले, पंडित रमाबाई और ज्योतिबा फुले जैसे सामाजिक सुधारकों ने जाति वर्ग व्यवस्था और पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ लड़ाई लड़ी और कुरीतियों को तोड़ते हुए महिलाओं की शिक्षा के लिए स्कूल स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

साल 1946 में महत्वपूर्ण तेभागा और तेलंगाना (1948-51) किसान आंदोलनों ने न केवल महिलाओं पर हो रहे पितृसत्तात्मक उत्पीड़न के ख़िलाफ़ संघर्ष किया था बल्कि ज़मींदारों और पुलिस के दमन के ख़िलाफ़ भी एक मज़बूत आंदोलन खड़ा किया.

तेभागा संघर्ष की महिलाओं ने पितृसत्तामक सोच के दायरे को तोड़ते हुए आंबेडकर के हिंदू कोड बिल को भी समर्थन प्रदान किया गया.

इसके बाद भारत में महिलाओं के आंदोलन में एक बड़ा परिवर्तन देखा गया और 1970 के दशक में अंतरर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने के लिए नगर पालिका के 800 महिला कर्मचारियों ने सड़कों पर जुलूस निकला था. उनके नारों में मज़दूर दिवस, वियतनाम के वीर सेनानियों, मज़दूर वर्ग की महिलाओं के नारे भी शामिल थे.

जहां कॉरपोरेट और ग़ैर सरकारी संगठन भारत में वर्ग और जातीय भेदभाव के सवाल से महिलाओं के सवाल को अलग करने की कोशिश करते हैं, वहीं अंतरराष्ट्रीय ‘श्रमजीवी’ महिला दिवस से श्रमजीवी शब्द को हटाना मज़दूर महिलाओं के संघर्ष और इस दिन के इतिहास के महत्व को भी कम करता है.

जहां संघवाद की विचारधारा महिलाओं को माता और बहनों की छवि में देखती है वहीं बाज़ारवाद की विचारधारा महिलाओं को वस्तु की तरह देखती है. महिला दिवस इस सोच के ख़िलाफ़ की लड़ाई है. महिलाओं के सवाल को जाति और वर्ग के सवाल से अलग करके देखना नामुमकिन है. महिलाएं अपनी पहचान के अलावा इस पूंजीवादी व जातिवादी व्यवस्था में सबसे अधिक शोषित होती हैं.

महिलाओं को मात्र एक दिन का ‘सम्मान’ देना, कॉरपोरेट क्षेत्र का महिलाओं को समाज के ढांचे में फिट करने की कोशिश करना और उसे माता, बहन या बेटी की पहचान तक सीमित रखना, हर वर्ग और जाति की महिला के लिए नारीवाद की परिभाषा बदल रहा है.