प्रसार भारती में सूचना प्रसारण मंत्रालय का बढ़ता हस्तक्षेप इस बात का सबूत है कि मंत्रालय चीज़ों को बेहतर बनाने की जगह हर चीज़ पर नियंत्रण स्थापित करना चाहता है.
सूचना और प्रसारण मंत्री के तौर नए धारावाहिक में स्मृति ईरानी का किरदार निश्चित तौर उनके सभी पिछले सास, बहू धारावाहिकों से कहीं ज्यादा दिलचस्प है. यह जानना काफी सुखद है कि अभिनय की उनकी प्रतिभा बची हुई है.
वे भले एक के बाद एक अपने ही पाले में कई गोल दागती रहें, लेकिन जब तक त्रिशूल विरोधी के सीने के आर-पार जा सकता है, तब तक उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.
इस नए मामले में उनके शत्रु हैं ए सूर्यप्रकाश- प्रसार भारती के अध्यक्ष सूर्यप्रकाश का संबंध विवेकानंद फाउंडेशन से है और वे भाजपा-संघ के सबसे उत्तम नस्ल के वफादारों में से हैं.
जब उन्होंने पलटकर बराबर का वार किया, तब उन्होंने निश्चित तौर पर साहस का सबूत दिया. वे ऐसा कर सकते हैं, इसकी उम्मीद कम लोगों को ही थी. लेकिन, सच्चाई यह भी है कि उनका अस्तित्व ही इस लड़ाई पर टिका हुआ है.
उन्होंने यह मानने से इनकार कर दिया कि अध्यक्ष के तौर पर उनकी कोई भूमिका या शक्ति नहीं है और उनका काम सिर्फ बोर्ड की बैठकों की अध्यक्षता करना ही है.
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी को प्रसार भारती का जो अध्यक्ष विरासत में मिला, उसके बारे में उन्हें यह लगता था कि वह बहुत ज्यादा विरोध करता है और लोक-प्रसारक की स्वायत्ता (जिसका वादा तो खूब किया गया, मगर जो कभी वास्तव में दिया नहीं गया) को जरूरत से ज्यादा गंभीरता से ले रहा है.
यह देखते हुए उन्होंने उसके ऊपर एक ‘एक्जीक्यूटिव चेयरमैन’ बैठाने का फैसला किया, हालांकि ऐसा करना कानून के खिलाफ था. प्रकाश को वेतन के साथ फर्स्ट क्लास में यात्रा की सुविधा मिली हुई है.
अक्टूबर, 2014 में प्रसार भारती में उनको बिठाए जाने के बाद दूरदर्शन (डीडी), ऑल इंडिया रेडियो और यहां तक कि मंडी हाउस स्थिति प्रसार भारती मुख्यालय के कॉरपोरेट ऑफिस के लोग भी नई सरकार का आशीर्वाद पाने के लिए उनके दरवाजे के सामने कतार में खड़े हो गए.
उन शुरुआती कुछ दिनों में, खासकर ‘बागी’ सीईओ को कार्यकाल के समाप्त होने से पहले ही बाहर का रास्ता दिखाने के बाद, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और प्रसार भारती ने कदम ताल मिलाकर काम किया होगा.
मगर, अब प्रसार भारती के इतिहास का सबसे भद्दा झगड़ा सामने आने से हमें यह पता चल रहा है कि यह सत्ता में बैठे लोगों की खुशफहमी थी कि अपने पाले के अध्यक्ष के होने मात्र से शांति और सद्भाव को कायम कर लिया जाएगा.
सूर्यप्रकाश और स्मृति ईरानी के एक-दूसरे के खिलाफ तलवार खींच लेने से यह पुरानी कहावत साबित हो रही है कि कोई स्थायी मित्र या स्थायी शत्रु नहीं होता है- सिर्फ स्थायी फायदे होते हैं.
और चूंकि दोनों खेमा राजनीतिक रसूख के मामले में किसी से कम नहीं है, इसलिए प्रसार भारती के शीर्ष प्रबंधन ने भी सही और गलत के विचार को स्थगित कर दिया है और वे ईरानी और प्रकाश, दोनों के नाम से कसमें खा रहे हैं.
रिमोट कंट्रोल पर कब्जा बनाए रखने की जंग
वैधानिक निकाय के तौर पर गठित प्रसार भारती में सूचना प्रसारण मंत्रालय का बढ़ता हस्तक्षेप इस बात का सबूत है कि मंत्रालय चीजों को बेहतर बनाने की जगह हर चीज पर नियंत्रण स्थापित करना चाहता है.
यह इस बात का भी अच्छा उदाहरण है कि उदारीकरण के बाद के भारत में नेता और अफसरशाह किस तरह से परमिट-कोटा राज में उन्हें मिली शक्ति की भरपाई करने की कोशिश करते हैं.
यह एक कठोर तथ्य है कि जब तक जरूरत से बड़े आकार के मंत्रालयों का अस्तित्व रहेगा और जब तक उन पर अफसरशाहों का राज रहेगा, वे अपने वर्चस्व का प्रदर्शन करने की कोशिश जरूर करेंगे. उन पर मोदी के ‘मिनिमम गवर्नमेंट’ के जुमले का कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला.
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, बैंकों और ‘स्वायत्त निकायों’ को अब मंत्रियों और बाबुओं के सनकी रवैये को सहना पड़ता है. यह बार-बार और कभी भी बदल जाने वाले सरकारी निर्देशों, अनियंत्रित हस्तक्षेप और सार्वजनिक संस्थाओं के अधिकारियों से बात-बेबात पूछताछ के तौर पर सामने आता है.
मंत्रालयों को लेकर कोई पक्षपात न रखते हुए यह कहा जा सकता है कि उनके हस्तक्षेप को अक्सर उनके द्वारा बोर्ड में नियुक्त किए गए लोगों द्वारा कृतज्ञतावश बढ़ावा दिया जाता है. इसलिए कोई कारण नहीं कि आखिर प्रसार भारती बोर्ड में ऐसे लोग क्यों न भरे जाएं जिनकी वफादारी प्रधानमंत्री कार्यालय या आरएसएस के प्रति हो.
आखिरकार, हर छोटी या बड़ी नियुक्ति प्रधानमंत्री कार्यालय के सख्त नियंत्रण में होती है, जो फैसले लेने में सालों का समय लेता है, भले इस दौरान संबंधित संगठन का कामकाज ठप होने की ही स्थिति में क्यों न आ जाए.
अब किसी को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि बीजी वर्गीज जैसा कोई निडर पत्रकार या मुज़फ्फर अली जैसा कोई फिल्मकार प्रसार भारती बोर्ड की शोभा बढ़ाएगा.
यह बात सबको अच्छी तरह से मालूम है कि इन मामलों में किसी मंत्री की कुछ नहीं चलती है, सिवाय उन लोगों के साथ काम करने के जिन्हें नियुक्त करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है.
दरअसल झगड़े की जड़ यही है. वही बोर्ड जो आज मंत्रालय से इतना नाराज है, उसी ने हाल ही में प्रसार भारती के सीईओ के सकारात्मक प्रस्तावों का गला घोंटने के लिए मंत्रालय के साथ सांठ-गांठ कर ली थी.
और ऐसा करने का कारण बस इतना था कि ‘यह मंत्री जी की इच्छा थी.’ इस बात के सबूत के तौर पर काफी लिखित दस्तावेज मौजूद हैं.
कानून के बावजूद संसद की उपेक्षा
लेकिन सवाल है कि अगर प्रसार भारती को संसद के कानून से गठित किया गया था, तो फिर स्मृति ईरानी इस पर अपनी मनमर्जी थोपने की केाशिश कैसे कर सकती हैं?
पहली बात तो ये है कि प्रसार भारती एक्ट में ही बोर्ड में राजनीतिक नियुक्तियों की व्यवस्था की गई है. इससे भी ज्यादा खतरनाक इसमें दो अनुच्छेद 32 और 33 का होना है, जो सुनिश्चित करते हैं कि सारे प्रमुख फैसलों के लिए मंत्रालय की अनुमति ली जाएगी.
एक भूतपूर्व नौकरशाह ने कभी काफी गर्व के साथ कहा था कि इस तरह के सभी कानूनों में ऐसे छिपे हुए बटनों की जरूरत होती है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ‘स्वायत्तता नियंत्रण से बाहर न निकल जाए.’
इस एक्ट के तहत संसद की तरफ से प्रसार भारती के कामकाज की देखरेख करने के लिए एक 22 सदस्यीय संसदीय समिति के गठन की बात की गई है.
इनका चयन संसद के दोनों सदनों से आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली से होना है. लेकिन किसी भी सरकार ने आज तक इस समिति का गठन नहीं किया है, क्योंकि यह अपनी शक्ति का त्याग नहीं करना चाहती और बीबीसी की तरह प्रसार भारती को अपनी समस्याओं और परियोजनाओं को मंत्रालय को दरकिनार करके सीधे संसद को बताने की स्थिति नहीं बनने देना चाहती.
यह चली आ रही व्यवस्था के खिलाफ होगा, जिसमें हर मंत्री को बाबुओं से यह सीख दी जाती है कि सिर्फ वे ही संसद के प्रति जवाबदेह हैं और इसलिए वे अधिकारियों को किसी भी समय किसी भी कारण से तलब कर सकते हैं.
सेक्शन ऑफिसर तक इन अधिकारों का प्रयोग जब-तब करते रहते हैं. इसके पीछे विचार यह है कि प्रसार भारती, दूरदर्शन (डीडी) और ऑल इंडिया रेडियो के अधिकारियों को सवालों से हलकान कर दिया जाए और उनके हर काम पर तब तक उंगली उठाई जाए, जब तक वे मंत्रालय के सामने समर्पण न कर दें.
यह बात लगभग पक्के तौर पर कही जा सकती है कि संसद सदस्यों को संसदीय समिति के इस प्रावधान के बारे में जानकारी नहीं है, जिससे नौकरशाही के हस्तक्षेप में काफी कमी लाई जा सकती है और और सूचना और प्रसारण मंत्रालय से बार-बार होने वाली लड़ाई को टाला जा सकता है.
न कोई इस बात से वाकिफ है कि इस कानून में अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 जैसे भी हिस्से हैं, जिनमें राजनीतिक निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए ब्रॉडकास्टिंग काउंसिल के गठन की बात की गई है.
एक के बाद एक आने वाले सूचना-प्रसारण सचिवों और मंत्रियों ने काफी मेहनत करके इस बात की उपेक्षा करने की कोशिश की है या वे इसका जिक्र ही नहीं करते हैं कि कानून के अनुच्छेद 13, 14 और 15 में संसदीय समितियों के सामने प्रसार भारती की देखरेख के अनिवार्य लोकतांत्रीकरण की व्यवस्था करते हैं.
अगर ऐसा नहीं है, तो सारी शक्तियों के शास्त्री भवन में कैद होने का और क्या कारण हो सकता है?
सिर्फ पैसे का मामला नहीं
बजट और खर्चे का इंतजाम ऐसे दो क्षेत्र हैं, जहां सरकारी पैसे पर चलने वाले वैसे सभी संस्थानों को जो ‘अपने संबंद्ध मंत्रालयों के जरिए संसद से अनुदान पाते हैं’, अपने मंत्रालयों के सामने गिड़गिड़ाना पड़ता है.
मैंने केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय में सचिव के तौर पर लंबे समय तक काम किया और इस दौरान मेरा आधा से ज्यादा वक्त अपने ही बाबुओं से लड़ते हुए बीता, जो मंत्रालय के भीतर आने वाले स्वायत्त संस्थानों को नियमित तौर पर परेशान कर रहे थे.
ऐसा नहीं है कि प्रसार भारती या दूसरे स्वायत्त संस्थानों में संत लोग भरे हुए हैं, लेकिन असिस्टेंटों, सेक्शन ऑफिसरों और अंडर सेक्रेटरियों द्वारा गैरजिम्मेदार तरीके से अपनी शक्ति का इस्तेमाल करना भारत में किसी भी सकारात्मक प्रगति की राह में सबसे बड़ी रुकावट हैं.
उन्हें इस बात का जरा भी इल्म नहीं है कि दिल्ली के बाहर वास्तविक भारत कैसा है. वे बस इस कारण फल-फूल रहे हैं, क्योंकि आईएएस और केंद्रीय सेवाओं के अधिकारी प्रधानमंत्री कार्यालय, नीति आयोग और अपने मंत्रियों के इच्छाओं और आदेशों को पूरा करने में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें इन पर नियंत्रण रखने का वक्त ही नहीं मिलता है.
इसका एक कारण ये हो सकता है कि वे कसूरवारों और पीड़ितों के बीच न्याय करने की अपनी शक्ति का लुत्फ उठाते हैं.
दिलचस्प यह है कि उनकी कमनजरी में ये दोनों समान हैं. यह बात सारे मंत्रालयों और सभी स्वायत्त संस्थानों पर लागू होती है (सिवाय परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष विभाग के) और वास्तव में प्रभुता जताने का तरीका वर्तमान निजाम में और भी ज्यादा बर्दाश्त से बाहर हो गया है.
वर्तमान गतिरोध की बात की जाए, तो स्पष्ट तौर पर प्रसार भारती एक बार फिर मुश्किल में है. इस बार उसका सामना एक ऐसी घमंडी मंत्री से है, जो बाबुओं को भी दमन के नए-नए तरीके सिखा सकती है.
मंत्री साहिबा अध्यक्ष और बोर्ड को घुटनों पर लाने के मकसद से एक थोड़ी झक्की किस्म की और नुकसानदेह नीति पर चल रही हैं. इसमें थोड़ा वक्त लग रहा है, हालांकि प्रसार भारती के वरिष्ठ अधिकारी भी मंत्रालय के आदेशों का गुलाम होने की दुखदाई स्थिति को स्वीकार कर चुके हैं.
गुणवत्ता से समझौता
यह समझने के लिए कि दूरदर्शन पर आने वाले कार्यक्रम बेहद औसत हैं, टेलीविजन धारावाहिक का पूर्व स्टार होना जरूरी नहीं है. इस स्थिति का एक प्रमुख कारण 2000-03 के बीच लिए गए फैसले हैं, जब सूचना और प्रसारण मंत्री अपने वफादार अतिरिक्त सचिवों को प्रसार भारती के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) तौर पर नियुक्त करके, परोक्ष रूप से उसका नियंत्रण करते थे.
दूरदर्शन के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों ने उस समय धारावाहिकों की आउटसोर्सिंग की परंपरा को समाप्त करने की सलाह दी थी. जबकि इस सरकारी चैनल को ऐतिहासिक ऊंचाइयों पर पहुंचाने में रामायण, महाभारत, बुनियाद और हमलोग जैसे आउटसोर्स किए गए धारावाहिकों का योगदान था.
दूरदर्शन ने उस समय के कई बड़े निजी निर्माताओं के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया, जबकि वे वास्तव में उसके लिए सोने के अंडे देने वाली मुर्गियां थे.
मंडी हाउस के एक (अब दिवंगत) कपटी अधिकारी, ने दूरदर्शन की कीमत पर निजी टीवी चैनलों को फायदा पहुंचाने का इंतजाम कर दिया.
दूरदर्शन ने उसके बाद धारावाहिकों की कमीशनिंग शुरू कर दी, जबकि इसके अंदर के किसी भी व्यक्ति को यह पता नहीं था कि आखिर एक सुपरहिट टीवी धारावाहिक बनता कैसे है?
इसका नतीजा यह हुआ कि डीडी ने किसी यश चोपड़ा (मान लीजिए) के धारावाहिक से भरपूर पैसे कमाने की जगह नए निर्माताओं को बड़ी रकम देकर काम कराना शुरू किया, जिनमें से कई बिल्कुल स्तरहीन थे.
ये कहानियां आम थीं कि किस तरह से इन बी-ग्रेड निर्माताओं को प्रभावशाली लोगों या शास्त्री भवन से (जहां सूचना और प्रसारण मंत्रालय स्थित है) सिफारिशी चिट देकर दूरदर्शन भेजा जाता था. जब सीबीआई ने एक सूचना प्रसारण मंत्री के निजी सचिव के दफ्तर में छापा मारा, तब इनमें से कुछ कहानियां सही पाई गई थीं.
मंत्रालय के आशीर्वाद से दूरदर्शन पर राज करने वाले पिछले दशक के स्वामी भक्त सीईओ और कई महानिदेशकों (डीजी) ने मंत्रालीय की बीन पर नाचना शुरू कर दिया.
उम्मीद के मुताबिक ही निर्माताओं की इस नई पौध को इतना पैसा दिया गया, जितना दूरदर्शन इनके धारावाहिकों से कमा नहीं सकता था.
लेकिन, जब तक दूसरे सुख मिलते रहे, किसी को न तो इस बात की कोई फिक्र थी, न किसी का ध्यान ही इस ओर गया. प्रसार भारती और दूरदर्शन के अंत की शुरुआत यहीं से होती है.
सूर्य प्रकाश के बोर्ड को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने आखिरकार स्तरहीन धारावाहिकों से होने वाले नुकसान और इसके साथ जुड़े भ्रष्टाचार को समाप्त करने के सीईओ के प्रस्ताव को मान लिया.
2016 में आखिरकार कई महीनों की बहस और माथापच्ची के बाद सबसे ज्यादा बोली लगाने वाले योग्य बोलीकर्ता को डीडी धारावाहिक का स्लॉट बेचने की अनुमति दे दी गई. डीडी में बैठे कुछ लोगों ने कई बार इसकी राह में अड़चनें डालने की कोशिश कीं.
बोर्ड के एक सदस्य ने धारावाहिकों के निर्माण की पुरानी व्यवस्था को बचाए रखने की कोशिश की- शायद नई निजाम के अनुयायियों को भी खून का स्वाद लगना शुरू हो गया था.
मगर, बोर्ड द्वारा अनुमोदित और पहले मंत्रालय द्वारा स्वीकृत पारदर्शी नीलामी की प्रक्रिया को भी ईरानी और उनके नौकरशाहों ने अटका दिया है.
उनके अधिकार-क्षेत्र से बाहर जाकर काम करने का कोई कारण या औचित्य भी नहीं बताया गया है.
दूरदर्शन के राजस्व का दूसरा प्रमुख स्रोत इसके मुफ्त डिश सैटेलाइट स्लॉटों की नीलामी से होने वाली कमाई है. इसे भी मंत्री साहिबा द्वारा रोक दिया गया है. ऐसा किस कारण से किया गया है, यह अभी तक पता नहीं चला है.
मंत्रालय को कानून के अनुच्छेद 16 के तहत पिछले 21 सालों में प्रसार भारती को परिसंपत्तियों का हस्तांतरण करने के लिए नियम बनाने का समय नहीं मिला है.
किसी को नहीं पता कि इस बीच खाली पड़ी या काम में न आने वाली जमीनों पर दूसरों द्वारा कब्जा कर लेने से कितने करोड़ का नुकसान हुआ है.
तुगलक की वापसी
कर्मचारियों के मोर्चे पर प्रसार भारती को उसके जन्म के वक्त ही जानबूझ कर कमजोर कर दिया गया था. 1997 में दशकों से मंत्रालय द्वारा ऑल इंडिया रेडिया और दूरदर्शन के लिए नियुक्त किए गए 48,000 सरकारी कर्मचारियों को विरासत के तौर पर इसके गले में बांध दिया गया.
ऐसा करते वक्त न तो कर्मचारियों की रजामंदी पूछी गई, न ही सार्वजनिक प्रसारक से विचार-विमर्श किया गया. कानून के तहत इनका वेतन मंत्रालय को देना है, भले ही कोई घर से ही क्यों न काम करे.
प्रसार भारती को एकतरफा तरीके से इन सबका समावेश करने के लिए कह दिया गया. उसे यह विकल्प नहीं दिया गया कि वह अनिच्छुक लोगों को या वैसे लोगों को जो आधुनिक प्रसारण व्यवसाय की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में फिट नहीं बैठते, लेने से इनकार कर दे.
जैसा कि प्रसार भारती की भूतपूर्व अध्यक्ष और पत्रकार मृणाल पांडे ने कहा था, इसके भीतर के योग्य लोगों ने निजी टेलीविजन और रेडियो में ज्यादा मालदार मौकों को लपक लिया.
इस बात में कोई शक नहीं है कि अगर प्रसार भारती को अधिकारों के प्रति इतने ज्यादा जागरूक और नियमों के प्रेमी बाबुओं की ऐसी फौज विरासत में नहीं मिलती, तो उसका प्रदर्शन ज्यादा बेहतर हो सकता था.
पिछले 25 सालों से मंत्रालय द्वारा नियमों का हवाला देकर किसी को भी पदोन्नति नहीं दी गई. आखिरकार कुछ साल पहले प्रसार भारती ने विद्रोह करते हुए काफी कर्मचारियों को एड-हाॅक पदोन्नति देने का फैसला किया. यह फैसला मुख्य तौर पर कर्मचारियों के मनोबल को बढ़ाने के लिए किया गया.
प्रसार भारती के कर्मचारियों के वेतन को रोकने का स्मृति ईरानी का तुगलकी फैसला न सिर्फ गैरवाजिब है, बल्कि उनके मंत्रालय के कानूनी उत्तरदायित्व को भी नकारने वाला है.
कई सचिवों और मंत्रियों को सार्वजनिक तौर पर यह कहते सुना गया कि प्रसार भारती का वेतन बिल उनके बजट का 80 फीसदी हिस्सा खा जाता है. ऐसा कहना इसलिए काफी खराब था, क्योंकि वे तथ्यों के आधार पर बात नहीं कर रहे थे.
लेकिन, कोई भी मंत्री संसद की तौहीन नहीं कर सकता है, जिसने प्रसार भारती के इस खर्च के पक्ष में मत दिया है. उनके पास ऐसा करने का कोई विकल्प है ही नहीं.
तब भी नहीं जब प्रसार भारती को बंद कर दिया जाए. यह वास्तविक जीवन है, कोई धारावाहिक नहीं, जहां नखरों को मेलोड्रामाई शोर के साथ पेश किया जाता है.
किसी प्रसारक को किस तरह न चलाया जाए, प्रसार भारती खुद इस बात का एक अच्छा उदाहरण है- यह प्रतिभाहीनता, साजिशों और क्षुद्र भ्रष्टाचारों का गढ़ बन चुका है.
लेकिन, वर्तमान परिदृश्य में मंत्री द्वारा इस पर ज्यादा खर्चीले पत्रकारोंको थोपने का विरोध करना सही है, भले ही उनका रंग भगवा हो. जैसे को तैसा की शैली में मंत्रालय द्वारा प्रसार के सभी अनुबंधित कर्मचारियों को बर्खास्त करने का आदेश हास्यास्पद है, क्योंकि इन लोगों की ही बदौलत यह संगठन इसे खत्म करने की तमाम कोशिशों के बावजूद भी भी जिंदा है.
सरकार चाहे जिसकी भी रही हो, इसे दो दशकों से ज्यादा तक देशभर में कई केंद्र खोलने पर मजबूर किया गया. लेकिन, इनके लिए कोई कर्मचारी नहीं दिए गए.
दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो इन केंद्रों को अनुबंधित कर्मचारियों के बल पर ही चलाते हैं.
मंत्री साहिबा द्वारा अपनी शक्ति के प्रकट दुरुपयोग का एक और मामला सामने आया है. दूरदर्शन के कार्यक्रम भले स्तरीय न हों, लेकिन स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे विशेष मौकों पर इसका प्रसारण दुनिया के बेहतरीन को टक्कर देनेवाला होता है.
ईरानी ने मनमाने ढंग से दूरदर्शन को 2017 के अंतरराष्ट्रीय भारतीय फिल्म समारोह के उद्घाट और समापन समारोह को कवर करने से रोक दिया. अब दूरदर्शन को सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत आनेवाले एनडीएफसी को 2.9 करोड़ रुपये चुकाने के लिए कहा जा रहा है ताकि वह इस काम के लिए एक कंपनी को (जिसके निदेशकों को ईरानी के करीब बताया जाता है) पैसे दे सके.
संसद का सत्र एक बार फिर शुरू होनेवाला है, लेकिन मंत्री साहिबा को किसी बात से कोई फर्क नहीं पडता. क्योंकि, जितना ज्यादा हंगामा होगा, सरकार के लिए यह दावा करना उतना आसान होगा कि संसद को काम नहीं करने दिया जा रहा है और उसके बाद बिना किसी बहस के सभी विधेयकों को आगे बढ़ाया दिया जाएगा.
जहां तक सूचना और प्रसारण मंत्रालय का सवाल है, वर्तमान विवाद कोई सतही विवाद न होकर, सार्वजनिक प्रसारक को काबू में करने के लिए सोच समझकर खड़ा किया गया है.
प्रसार भारती के बिना, मंत्रालय के पास अखबारों का पंजीयन कराने जैसा उबाऊ काम ही बचेगा. या सुहाने सपने दिखाने वाली सरकार की सीमित उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना ही उसका काम रह जाएगा.
जहां तक स्मृति ईरानी का सवाल है, हमें इस ट्रैजिक-कॉमिक धारावाहिक के अगले एपिसोड का इंतजार करना चाहिए.
(जवाहर सरकार, 2012 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से बतौर केंद्रीय संस्कृति सचिव सेवानिवृत्त हुए. वे 22 फरवरी, 2012 से 3 नवंबर, 2016 तक प्रसार भारती के सीईओ रहे. वर्तमान में वे कोलकाता में रहते हैं.)
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए क्लिक करें