प्रधानमंत्री जी! आपकी सरकार पितृसत्ता का ज़हर क्यों फैला रही है?

राजस्थान के झुंझुनू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेटियों को लेकर जो कुछ भी कहा, उससे कई सवाल खड़े होते हैं.

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The Prime Minister, Shri Narendra Modi interacting with the Beti Bachao Beti Padhao beneficiaries, in Jhunjhunu, Rajasthan on March 08, 2018.

राजस्थान के झुंझुनू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेटियों को लेकर जो कुछ भी कहा, उससे कई सवाल खड़े होते हैं.

The Prime Minister, Shri Narendra Modi interacting with the Beti Bachao Beti Padhao beneficiaries, in Jhunjhunu, Rajasthan on March 08, 2018.
(फोटो साभार: पीआईबी)

मानना होगा, नरेंद्र मोदी के चार साल के प्रधानमंत्रित्व में उनके व्यक्तित्व का कम से कम इतना विकास तो हुआ है कि समस्याओं के सरलीकरण के उनके कौशल का उनके विरोधी भी लोहा मानने लगे हैं.

सो, यह धारणा आम हो गई है कि इस मामले में उनका कोई सानी नहीं है. खुदा न खास्ता, इसको लेकर किसी के दिलोदिमाग में फिर भी कोई संदेह बचा रहा हो तो गत आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर राजस्थान के झुंझुनू जिले में राष्ट्रीय पोषण मिशन के शुभारंभ और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ अभियान के विस्तार के वक्त दिये उनके भाषण से दूर हो जाना चाहिए.

इस भाषण में उन्होंने, जैसी कि उनकी पुरानी आदत है, उपदेशवाचन-सा करते हुए अपने तईं एक बेहद गंभीर सवाल पूछा: वेद और विवेकानंद के इस देश में ऐसी कौन-सी बुराई घर कर गई है कि हमें अपनी बेटियां बचाने के लिए भी हाथ-पैर जोड़ने पड़ रहे हैं और बजट तय करके धन खर्च करना पड़ रहा है?

फिर जैसे खुद ही अपने इस सवाल के बोझ से दबकर कराहने लगे हों, आत्मधिक्कार की भावना से भरकर कहने लगे कि सोच अठारहवीं सदी की हो तो हमें खुद को इक्कीसवीं सदी का नागरिक कहलाने का कोई अधिकार नहीं है.

कराह फिर भी कम नहीं हुई तो उसके उन्मूलन का रामबाण ढूढ़ते हुए बेटियों की सास के पास जा पहुंचे. कह दिया कि ये सास आगे बढ़कर बेटियों को बचाने की जिम्मेदारी संभाल लें तो कोई समस्या ही न रह जाये. न रहे बांस और न बजे बांसुरी.

एक वक्त था, जब देशवासी प्रधानमंत्री के ऐसे ‘रामबाणों’ से बड़ी-बड़ी उम्मीदें लगा लेते थे. लेकिन चूंकि अब उनकी बेहिसी पूरी तरह उजागर हो चुकी है, नई नाउम्मीदियों से भर जाते हैं.

इसीलिए कई लोग तो तुरंत ही पूछने लगे कि ‘जीनियस’ प्रधानमंत्री के पास बेटियों की समस्याओं का ऐसा एकमुश्त व आसान-सा समाधान था तो उन्होंने उसे अपने मुखारविन्द पर लाने में चार साल क्यों लगा दिये?

सत्ता में आते ही बता दिया होता तो कौन जानें अब तक बेटियां कितनी ‘बच’ गई होतीं! किस लाभ या लोभ में अब तक व्यर्थ बजट तय करते और खर्च करते रहे?

प्रधानमंत्री ने बेटियों को परिवारों की आन-बान-शान बताया तो भी इन लोगों से पूछे बिना नहीं रहा गया कि इसमें कौन-सी नयी बात है? बेटियों को परिवारों की शान से जोड़ा जाता है इसीलिए तो वे ‘आनर’ के नाम पर ‘हारर किलिंग’ तक की शिकार होती हैं.

लोगों की यह पूछापेखी बहुत स्वाभाविक है क्योंकि जो पितृसत्ता हमारे समाज में अभी भी जड़ें जमाये बैठी, कहना चाहिए ऐंठी, है और बेटियों की दुर्दशा को लेकर खुद को किंचित भी अपराधी महसूस नहीं करती, प्रधानमंत्री भी जाने-अनजाने उसी के प्रवक्ता बन गये हैं.

सारा तकिया सासों पर रखकर उन्होंने जो कुछ कहा है, प्रकारांतर से उसका मतलब यही तो है कि सासें अपना दायित्व नहीं निभा रहीं, इसीलिए बेटियां नहीं बच पा रहीं.

सोचिये जरा कि एक ओर पितृसत्ता का ऐसा कहर व्याप रहा है कि जो मांएं बेटियों को नौ महीने तक या जब तक धारण करने पाती हैं, अपने उदर में धारण करती हैं, वे भी उन्हें बचा नहीं पा रहीं और दूसरी ओर प्रधानमंत्री उन सासों से लौ लगा रहे हैं, जो खुद भी पितृसत्ता की जंजीरों में जकड़ी हुई हैं और सब कुछ उसी की आंखों से देखने को अभिशप्त हैं.

हमारे परिवारों में अभी भी बेहद स्वाभाविक माने जाने वाले पुरुष वर्चस्व को, जो बेटियों की सारी दुर्दशा का मूल है, इंगित करने से सायास परहेज बरतते हुए प्रधानमंत्री यह कहना चाहते हों कि बेटियों की नियति सरकार से ज्यादा सासों के हाथ में है, तो स्वाभाविक ही अंदेशा होता है कि वे मसले से जुड़ी तल्ख सच्चाइयों से शुतर्मुर्गों जैसे पेश आने के फेर में हैं.

सिद्ध करना चाहते हैं कि पितृसत्ता गलत नहीं कहती सासों के रूप में स्त्रियां ही स्त्रियों की सबसे बड़ी दुश्मन हैं.

थोड़ा गहराई में जाकर पड़ताल करें तो यह उसी कुटिल खेल का प्रतिरूप है जिसके तहत दुखियारी बेटियों को कुछ महिला सेलिब्रिटियों के, जिनमें अब कई बड़ी कंपनियों की सीईओ भी शामिल हो गयी है, नया आसमान छूने की गाथाओं में भरमाकर सुनहरे दिनों का सब्जबाग दिखाया जाता है.

इधर कई लोग उनसे इस बात पर भी गर्व करने को कह रहे हैं कि देश के अरबपतियों में आठ महिलाएं भी शामिल हो गयी हैं.

दरअसल, इस बहाने वे बेटियों को बताना चाहते हैं कि सरकार हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी और उनके लिए ऐसे गलीचे बिछा रही है, जिसपर चलकर वे अरबपतियों में अपना नाम लिखा सकती हैं.

The Prime Minister, Shri Narendra Modi interacting with the Beti Bachao Beti Padhao beneficiaries, in Jhunjhunu, Rajasthan on March 08, 2018.
बीते आठ मार्च को राजस्थान के झुंझुनू में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम के लाभार्थियों से बातचीत करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

फिर भी नहीं लिखा पा रहीं तो उसे नहीं अपनी किस्मत को और नहीं तो सांसों को कोसें? लेकिन ऐसा है तो बेचारी सासें किसे कोसें, जो खुद भी एक दिन बेटी और बहू ही थीं और पितृसत्ता ने उन्हें ‘कोयला भई न राख’ वाली परिस्थितियों में फंसाकर सास और उससे भी ज्यादा ‘कंटाइन’ बना डाला ताकि अपने सिर आयी बलाओं के सारे ठीकरे उनके सिर फोड़ने की सहूलियत पा सके.

वरना प्रधानमंत्री को पता है कि बेटियों की तस्वीरें सरकारी आंकड़ों में भले ही उजली हों, स्वतंत्र आंकड़ों में धुंधली ही नजर आती हैं, तो सासों के नहीं, सरकारों के कारण.

वे यह भी जानते हैं कि महिलाओं व पुरुषों के एक जैसे काम के वेतन में बीस फीसदी का अंतर है, बीसीसीआई द्वारा घोषित अनुबंध में पुरुष क्रिकेटरों का ए प्लस श्रेणी का मेहनताना सात करोड़ रुपये है तो ए श्रेणी के महिला क्रिकेटरों का महज पचास लाख, शीर्ष लोकतांत्रिक संस्थाओं में तैंतीस फीसदी महिला आरक्षण का मामला लंबे अरसे से अटका हुआ है, हर मिनट 38 महिलाएं अपराधों की शिकार हो रही हैं और उनके (प्रधानमंत्री के) दुर्भाग्य से इन सारे अन्यायों में सासों के बजाय उनकी सरकार की ही भूमिका है.

पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने संसद की महिला सदस्य रेणुका चैधरी की हंसी की तुलना शूर्पणखा से कर उनका मजाक उड़ाया तो उसके लिए उन्हें किसी सास ने नहीं उकसाया था.

फूलपूर में प्रधानमंत्री की पार्टी की चुनावी सभा में उसके उप्र के स्टाम्प और नागरिक उड्डयन मंत्री नंदगोपाल गुप्ता नंदी ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मौजूदगी में मायावती को शूर्पणखा बतलाया और निहायत ओछे तरीके से कहा कि इस युग में भी तुम्हारा विवाह नहीं होगा, तो भी वे सास द्वारा नहीं सरकार और पितृसत्ता द्वारा संरक्षित थे.

भाजपा के उपाध्यक्ष रहे बहुचर्चित दयाशंकर सिंह की तरह, जिन्होंने नन्दी की ही भांति मायावती के खिलाफ बेहद अपमानजनक टिप्पणी की थी.

लेकिन प्रधानमंत्री की ‘चतुराई’ देखिये कि उन्होंने इन सारे तथ्यों से तो निगाहें फेरे ही रखीं, यह देखना भी गवारा नहीं किया कि जिस राजस्थान में वे सासों से बेटियों के पक्ष में उठ खड़ी होने को कह रहे हैं, वहां की सरकार बेटियों से कितना भेदभाव कर रही है.

वह सरकारी कालेजों में विद्यार्थियों के लिए ऐसा ड्रेस कोड लागू कराना चाहती है, जिसमें लड़के तो पैंट-शर्ट व जूते-मोजे पहनें और सर्दियों में जर्सी डाल लें, लेकिन लड़कियां सलवार-कमीज-दुपट्टा या साड़ी और सर्दियों में ऊपर से कार्डिगन पहनें.

प्रधानमंत्री इस 18वीं शताब्दी के सरकारी सोच के लिए किस सास को सजा दे सकते हैं या कौन-सी सास बेटियों को इस भेदभाव से निजात दिला सकती है?

अभी तो जींस पर पाबंदी के लिए बेकार के तर्क देने वाले उन्हें यह कहने की भी इजाजत नहीं दे रहे कि कपड़ों का शालीनता और संस्कारों से कोई वास्ता होता तो भगवाधारियों के संस्कारों को लेकर बार-बार सवाल न उठते.

प्रधानमंत्री इस सरकार से इतना तो पूछ ही सकते थे कि संस्कारों के नाम पर बेटियों पर पाबन्दियां थोपकर वह कैसा समाज बनाना चाहती है? और क्या ऐसा समाज सचमुच आगे बढ़ सकता है?

उन्होंने नहीं पूछा तो कई हलकों में यह सवाल पूछा जाने लगा है कि तब वे राष्ट्रीय पोषण मिशन के शुभारंभ और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान के विस्तार के लिए राजस्थान गये ही क्यों?

यह शुभारंभ व विस्तार दिल्ली या हरियाणा से क्यों नहीं किया, जहां महिलाओं के खिलाफ अपराधों की दर सबसे ज्यादा है?

चूंकि सवालिया हो रहे लोग अब उनके अन्दाज-ए-हुकूमत से वाकिफ हो चुके हैं, इसलिए जवाब आने में भी देर नहीं लग रही-वे वहां बेटियों को बचाने के उद्देश्य के प्रति समर्पण या सदाशयता के भाव से नहीं राजनीतिक मकसद से प्रेरित होकर गये थे.

पिछले सात महीनों में तीसरी बार वहां पहुंचे थे, क्योंकि वहां जल्द ही चुनाव होने वाले हैं. हां, वहां के उपचुनावों में भूलुंठित भाजपा को फिर से खड़ी करने के लिए आने वाले महीनों में कुछ और अवसरों पर वहां दिख सकते हैं.

उनके वहां जाने से साफ है कि सत्ताओं और सरकारों में सदाशयता की कमी और समस्याओं की जटिलताओं में जाने के बजाय फरेबों व सरलीकरणों की बाढ़ लाना ही बेटियों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है.

इन सत्ताओं व सरकारों ने बेटियों के बीच एक छोटा-सा ही सही, पितृसत्ता से उपकृत वर्ग पैदा कर दिया है और उसकी तथाकथित सक्सेज स्टोरीज से जन्में आकांक्षा व प्रतीक्षा के द्वंद्वों में फंसाकर बेटियों को उनकी बेड़ियों के पूरे सच से वाकिफ नहीं होने देना चाहतीं.

बेटियों के लिए इसका एक ही मतलब है-उनकी लड़ाई अभी भी लंबी है और उन्हें प्रधानमंत्री से पूछना ही होगा कि पितृसत्ता के जिस जहर को उनकी सरकार तक निकालने के बजाय फैलाने में लगी है, बेचारी सासें उसे कैसे निकाल पायेंगी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फैज़ाबाद में रहते हैं.)

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