हमारे महान खिलाड़ियों को जनता सिर-आंखों पर बैठाती है, मगर जनता पर जब ऐसी कोई त्रासदी बरपा करती है- जिसके लिए सरकार या समाज का एक वर्ग ज़िम्मेदार हो तो वे ऐसे विलुप्त हो जाते हैं, गोया इस दुनिया में रहते न हों.
‘मैं ऐसे मुल्क में बड़ा हुआ जिसे 25 साल तक गृहयुद्ध का सामना करना पड़ा था और मैं नहीं चाहता कि अगली पीढ़ी को भी उससे गुजरना पड़े.’
सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ यह बयान किसी राजनेता का नहीं बल्कि क्रिकेट के एक खिलाड़ी का था. और स्थान था, पड़ोसी देश श्रीलंका.
और अब जबकि दंगों की आग की लपटें थम गई हैं, दंगों के लिए जिम्मेदार कहे जाने वाले सिंहल बौद्ध अतिवादी संगठनों के मुखिया एवं कार्यकर्ताओं को तथा अन्य दंगाइयों को जेल भेजा गया है और समूचा श्रीलंकाई समाज तमिल उग्रवाद के दमन के बाद मुल्क के सामने इस नई चुनौती से रूबरू है, तब दंगों से जुड़ी चंद ऐसी खबरें भी शाया हो रही हैं जिन पर उन दिनों अधिक चर्चा नहीं हुई थी.
मिसाल के तौर पर श्रीलंका में जब सांप्रदायिक दावानल चरम पर था तब सांप्रदायिक हिंसा की भर्त्सना करते हुए, दोषियों को नस्ल/धर्म से परे जाकर दंडित करने की मांग करता क्रिकेटर महेला जयवर्धने का उपरोक्त बयान उन दिनों सुर्खियां बना था.
I strongly condemn the recent acts of violence & everyone involved must be brought to justice regardless of race/ religion or ethnicity. I grew up in a civil war which lasted 25 years and don’t want the next generation to go through that.
— Mahela Jayawardena (@MahelaJay) March 7, 2018
महेला के बाद श्रीलंका के क्रिकेट खिलाड़ियों में अव्वल समझे जाने वाले कुमार संगकारा और सनथ जयसूर्या ने भी जनता से शांति की अपील की और दंगाइयों से सख्ती से निपटने के लिए कहा था.
ऐसा सोचना मासूमियत की पराकाष्ठा होगी कि श्रीलंका के महान खिलाड़ियों में शुमार इन तीनों के बयान को पढ़कर दंगाइयों का दिल पसीजा होगा या सिंहली वर्चस्ववादियों के सम्मोहन में पड़े आम लोग अपने-अपने घरों को लौट गए होंगे, जिन्होंने तमिलों के दमन के बाद अपने ‘नए दुश्मन’ को ढूंढ लिया है.
मगर इस सीमा के बावजूद इन तीनों अग्रणी खिलाड़ियों के बयान पड़ोसी मुल्क से आ रही हवा की ताज़ी बयार की तरह मालूम पड़ते हैं.
कल्पना करें कि दंगे की स्थिति भारत के किसी हिस्से में बनी होती तो क्या यहां के महान कहे जाने वाले क्रिकेट के बल्लेबाज या बाॅलर ऐसा कोई बयान देते, जो बहुसंख्यक समुदाय को निशाने पर लेता दिखता. निश्चित ही नहीं!
अपने यहां के ‘महान’ फिर चाहे मनोरंजन जगत के सुपरस्टार हों या क्रिकेट के सम्राट हों, ऐसे तमाम नाजुक मौकों पर मौन को वरीयता देते हैं.
सिले होंठ, खुली आंखें मगर कुछ देखती न हों, जिनकी अब पहचान बनता जा रहा है. यूं तो जनता उनके लिए पलक पावड़े बिछा लेती है, मगर जनता पर जब ऐसी कोई त्रासदी बरपा करती है- जिसके लिए सरकार या जनता का ही दूसरा हिस्सा जिम्मेदार हो, तो वह इस तरह विलुप्त हो जाते हैं, गोया इस दुनिया में रहते न हों.
हां, मानवीय आधार पर उनके सीमित हस्तक्षेप की खबर कभी आ जाती है. मसलन 1992-92 में जब मुंबई में दंगे हो रहे थे, तब का प्रसंग याद है जब सुनील गावस्कर ने उनके घर के सामने हो रही हिंसा से किसी बच्चे को बचाया था. अच्छा लगा था. मगर स्टैंड लेना, सरकार की नाकामी पर, लोगों के अंदर बैठी पशुता पर बोलने से वह संकोच ही करते हैं.
विडंबना ही है कि अपनी मानवीय संवेदना प्रकट करना दूर रहा, जिसे प्रताड़ित किया जा रहा है उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करना दूर रहा, इसके बरअक्स कई बार वह अपने वक्तव्यों से तनाव को बढ़ाते ही दिखते हैं.
केरल के 30 साल के आदिवासी मधु की भीड़ द्वारा की गयी हत्या के प्रसंग को देख सकते हैं, जिसे चावल चोरी के आरोप में अपनी जान गंवानी पड़ी.
इस हत्या के तत्काल बाद चंद गिरफ्तारियां हुईं, जिनमें दोनों समुदायों (हिंदू एवं मुस्लिम समुदाय) के लोग आरोपी थे. घटना की निंदा करते हुए सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय रहने वाले एक अग्रणी पूर्व क्रिकेटर ने मैसेज साझा किया जिसमें कहा गया कि ‘सभी आरोपी अल्पसंख्यक समुदाय के थे.’
यह साफ-साफ शरारतपूर्ण कार्रवाई थी, जब इसके खिलाफ हंगामा हुआ तब महोदय ने माफी मांगते हुए दूसरा ट्वीट जारी किया और बाद में माफी वाले उस ट्वीट को भी हटा दिया.
रेखांकित करने वाली बात थी कि यह पहला मौका नहीं था कि उन्होंने ऐसी शरारतपूर्ण हरकत की थी. दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा किए गए हमले के बाद कारगिल युद्ध में मारे गए सैनिक की बेटी गुरमेहर कौर ने इन संगठनों के विरोध में अपनी पोस्ट साझा की तो गोया उसके जवाब में इस पूर्व बल्लेबाज ने भी उसी अंदाज में पोस्ट जारी की.
यह अलग बात थी कि इस मामले में उनकी इतनी थू-थू हुई कि उस वक्त भी उन्हें अपना ट्वीट डिलीट करना पड़ा. जब जेएनयू में साजिशों से ‘एंटी नेशनल’ होने को लेकर जबरदस्त हंगामा किया जा रहा था, उस वक्त भी इस जनाब ने और कई अग्रणी खिलाड़ियों ने (जो अलग-अलग खेलों से जुड़े थे, नाम कमा चुके थे) ऐसे बयान दिए थे जो सरकारी स्टैंड के हमकदम चलते दिख रहे थे.
दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र के महान कहे जाने वाले खिलाड़ियों के बिल्कुल विपरीत दुनिया के सबसे ताकतवर जनतंत्र के खिलाड़ी दिखते हैं.
डेढ साल पहले अमेरिका के कॉलिन केपरनिक (जो जाने-माने फुटबाॅल खिलाड़ी हैं) अचानक सुर्खियों में आए जब वह मैच के शुरू में गाए जाने वाले राष्ट्रगान के दौरान खड़े नहीं हुए बल्कि बैठे ही रहे. और इस नायाब तरीके से अमेरिका में अश्वेतों के दमन के मुद्दे को लेकर अपने आक्रोश को जुबां दी, जो मुद्दा उन दिनों सुर्खियों में था.
उनका वक्तव्य था, ‘मैं ऐसे देश के झंडे के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए खड़ा नहीं हो सकता हूं, जहां पर अश्वेतों एवं कलर्ड लोगों पर दमन होता हो. मेरे लिए यह फुटबाॅल से बड़ी चीज़ है और यह स्वार्थीपन की हद होगी कि मैं इस हक़ीकत से नज़रे चुराऊं. सड़कों पर लाशें पड़ी हैं और इसे अंजाम देने वालों को भुगतान के साथ छुट्टी मिल रही है और वे बचाये जा रहे हैं.’
उनके इस रेडिकल कदम से फुटबाॅल जगत के कई अन्य खिलाड़ियों को भी प्रेरणा दी और बाद में कइयों ने अलग-अलग ढंग से विरोध को प्रकट किया.
वैसे यह पहली दफा नहीं था जबकि अमेरिका में किसी खिलाड़ी ने धारा के विरूद्ध खड़े होने का साहस जुटाया हो और उसके लिए जोखिम उठायी हो.
महान बाॅक्सर ‘द ग्रेटेस्ट’ मुहम्मद अली की मौत पर यही बात रेखांकित की गयी थी कि किस तरह वह न केवल महान खिलाड़ी थे बल्कि अभिव्यक्ति के तमाम खतरों को उठाने के लिए तैयार महान शख्सियत भी थे.
यह अकारण नहीं कि मुहम्मद अली के गुजर जाने के बाद उन्हें जो श्रद्धांजलियां दुनिया भर से अर्पित की गयी थीं, उसमें न केवल उनके बाॅक्सिंग के महान होने की प्रशंसा की गयी, साथ ही साथ मानवाधिकारों की हिफाजत के लिए, समय-समय पर अमेरिकी सरकार का भी विरोध करने के कदम को भी रेखांकित किया गया था.
फिर 1960 के ओलंपिक में बाॅक्सिंग में हासिल स्वर्ण पदक को ओहिओ नदी में फेंक देने का प्रसंग रहा हो- क्योंकि अमेरिका में उन दिनों जारी रंगभेद के चलते उन्हें महज श्वेतों के लिए संचालित रेस्तरां में घुसने नहीं दिया गया था, या अमेरिकी सरकार द्वारा वियतनामी जनता के खिलाफ शुरू किए गए अन्यायपूर्ण युद्ध में शामिल होने से इंकार करके अपने हेवीवेट पदक को खो देने का मसला हो, वह निरंतर बागी बने रहे.
मालूम हो कि वियतनाम युद्ध का विरोध करने के लिए उन्हें पांच साल जेल की सजा भी सुनायी गयी थी- जो चार साल की अपील के बाद भले ही स्थगित कर दी गयी थी और उसके बाद तीन साल तक न्यूयाॅर्क स्टेट एथलेटिक कमीशन ने उनके बाॅक्सिंग लाइसेंस को रद्द कर दिया था.
निश्चित ही इन सभी जोखिमों को उठाते हुए मुहम्मद अली ने अपने आप को ग्रेटेस्ट बनाए रखा. मुहम्मद अली ने कैशियस क्ले नाम से अपने खेलकूद की शुरुआत की थी और 1960 का ओलंपिक मेडल इसी नाम से जीता था, मगर बाद में ‘गुलाम’ पहचान से दूरी बनाने के लिए उन्होंने इस्लाम कबूल किया था और अपने आप को उन दिनों के एक रेडिकल संगठन ‘नेशन आॅफ इस्लाम’ से जुड़ा घोषित किया था.
और न केवल मुहम्मद अली बल्कि विद्रोही खिलाड़ियों की इस सूची में टाॅमी स्मिथ, जान कार्लोस जैसों का नाम भी स्वर्णाक्षरों से अंकित हैं.
20 वीं सदी के उस कालजयी फोटोग्राफ को किसने नहीं देखा होगा जिसमें 1968 के मेक्सिको सिटी ओलंपिक्स के 200 मीटर दौड़ के मेडल प्रदान किए जा रहे थे और तीनों विजेताओं टाॅमी स्मिथ, जॉन कार्लोस (दोनों अमेरिकी) और पीटर नॉरमन (आॅस्टेलिया) ने मिल कर अमेरिका में अश्वेतों के हालात पर अपने विरोध की आवाज को पोडियम से ही अनूठे ढंग से संप्रेषित किया था.
अफ्रीकी अमेरिकी टाॅमी स्मिथ (स्वर्ण विजेता) एवं जॉन कार्लोस (कांस्य विजेता) ने पोडियम पर खड़े होकर अपनी मुट्ठियां ताने चर्चित ब्लैक पाॅवर का सैल्यूट दिया था और रजत पदक विजेता पीटर नॉरमन उन दोनों के साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए अपने सीने पर ओलंपिक्स फॉर ह्यूमन राइट्स का बैज लगाया था.
यह एक कड़वी सच्चाई है कि इतनी बड़ी गुस्ताखी के लिए तीनों खिलाड़ियों को अपनी वतनवापसी पर काफी कुछ झेलना पड़ा था, अमेरिका जैसी वैश्विक महाशक्ति की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई इस ‘बदनामी’ का खामियाजा टाॅमी स्मिथ (स्वर्ण विजेता) एवं जान कार्लोस के परिवारवालों को भी भुगतना पड़ा था.
आॅस्ट्रेलिया की सरकार ने अमेरिका के प्रति अपने नजदीकी का इजहार करते हुए पीटर नॉरमन को बाद में कभी अंतरराष्ट्रीय खेलों में खेलने नहीं दिया. 1972 की म्यूनिख ओलंपिक में क्लालीफाई करने के बावजूद उन्हें भेजा नहीं गया, यहां तक कि 2000 में जबकि आॅस्ट्रलिया की सिडनी में ओलंपिक का आयोजन हुआ, उस वक्त भी महान पीटर नॉरमन को याद नहीं किया गया, वे गुमनामी में ही रहे.
गौरतलब है कि अपने इस कदम को लेकर पीटर नॉरमन ने कभी अफसोस नहीं किया, उन्हें बार-बार संकेत दिया गया कि वह 1968 की ‘गलती’ के लिए माफी मांग लें, तो उनके लिए फिर समृद्धि के दरवाजे खुल सकते हैं.
मगर वह महान खिलाड़ी अंत तक अपने उसूलों पर अडिग रहा. 2006 में उनके इंतकाल के बाद उनकी अर्थी को कंधा देने के लिए टाॅमी स्मिथ और जान कार्लोस दोनों ही पहुंचे थे.
पत्रकारों से बात करते हुए जॉन कार्लोस ने बताया था, ‘हमारे साथ गनीमत थी कि पारी-पारी से हम दोनों को प्रताडित किया जाता था, मगर जहां तक पीटर नॉरमन की बात है, उनके खिलाफ समूचा राष्ट्र खड़ा था. जाइये, दुनिया को बताइये कि कोई पीटर नॉरमन जैसा शख्स पैदा हुआ था.’
पीटर नॉरमन भले ही गुमनामी में रहे मगर उनके अनोखे हस्तक्षेप ने अगली पीढ़ी के लोगों को भी प्रेरित किया. याद करे कनाडा में 1994 में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स, जिसमें 200 एवं 400 मीटर की विजेता आॅस्ट्रेलिया की मूल निवासी समुदाय की कैथी फ्रीमैन को जिसने जीत के जश्न में दौड़ते हुए दो झंडे थामे थे, एक आॅस्ट्रलियाई झंडा और दूसरा मूलनिवासियों का झंडा.
शायद तब तक आॅस्ट्रेलियाई सरकार ने भी परिपक्वता दिखायी और ऐसा कोई कदम नहीं उठाया कि कैथी को प्रताड़ित किया जाए.
ऐसा नहीं कि मुहम्मद अली, टाॅमी स्मिथ, जॉन कार्लोस या पीटर नॉरमन जैसों की तरह यहां खेलों में महान कहलाने वाले लोग अनुपस्थित हैं, मगर वह अपने आप को खेलों तक सीमित रखते हैं और उन्हीं चीज़ों के बारे में स्टैंड लेते हैं जिनके बारे में सभी जानते हैं- उदाहरण के लिए स्वच्छता के लिए या नारी सशक्तिकरण आदि के लिए.
ऐसी घटनाएं, प्रसंग आए दिन सुनाई देते रहते हैं, जब देश में वंचित, उत्पीड़ित सरकारी या गैर-सरकारी कारकों के हाथों अत्याचार का शिकार नहीं होते. दलितों का सरेआम पीटा जाना या जनसंहारों में उन्हें न्याय न मिलना, गोया आम परिघटना हो गयी है.
या किसी विकास की परियोजना के नाम पर हजारों आदिवासियों का विस्थापन भी आम हो चला है. मगर अभी भी हम ऐसे किसी खिलाड़ी के बारे में सुनना बाकी है, जिसने ऐसी घटनाओं को लेकर अपना मौन तोड़ा हो.
आजादी के पहले हम ऐसे उदाहरणों से जरूर परिचित होते हैं जिन्होंने तत्कालीन सरकार के खिलाफ अपना विरोध प्रकट किया, मगर आजादी के बाद ऐसे खिलाड़ियों की नस्ल गोया लुप्त हो गयी है.
खिलाड़ी ‘महान’ घोषित किए जाते हैं, उन्हें तमाम पदकों, पुरस्कारों से लाद भी दिया जाता है, शायद इसी चकाचौंध में वह समाज की विकराल होती समस्याओं के बारे में अधिकाधिक बेखबर एवं उदासीन होते जाते हैं.
काश! खिलाड़ियों की इस भीड़ में कोई कॉलिन केपरनिक भी उभरता जो अपना स्टैंड प्रकट करने के लिए इसी तरह मेडल ग्रहण करते हुए अपनी विरोध की आवाज बुलंद करता.
मुहम्मद अली के इन्तकाल पर इंडियन एक्सप्रेस में छपे लेख में (7 जून 2016) शायद बहुत कुछ गया था:
‘इतिहास अली को इस बात के लिए याद करता है क्योंकि उन्होंने सांचे को तोड़ा. वह ऐसा अश्वेत व्यक्ति नहीं बनना चाहते थे जिन्हें श्वेत तभी पसंद करें जब वह ओलंपिक पदक लटका लें. उन्होंने समानता की चाह रखी जिसका नतीजा है कि आज ह्वाइट हाउस में एक मुस्लिम नामधारी राष्ट्रपति बना है. हमारे महान कम महत्वाकांक्षी हैं. उनके अंदर इतना साहस नहीं कि वह लीक से हटें और देश की भावी यात्रा को प्रभावित करें…’
अंत में, अपने समाज एवं सरकार को आईना दिखाने वाले श्रीलंका के खिलाड़ियों के बहाने हम कुछ वक्त पहले प्रकाशित ‘द वायर’ के एक लेख की पंक्तियों को उद्धृत कर सकते हैं जिसमें उसने, तमाम सामाजिक उथल-पुथल के बीच भारत के महान खिलाड़ियों के मौन पर यही प्रश्न पूछा था कि ‘क्या हमारे दौर के ‘महानायक’ बोलना नहीं जानते या कमअक्ल होते हैं?’
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं.)