केंद्र की मोदी सरकार में सत्ता का जो स्वरूप दिखाई दे रहा है, कुछ वैसा ही स्वरूप माकपा शासित राज्यों में दिखाई देता था.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी माकपा की मृत्यु पर आंसू बहाने का कोई कारण नहीं है. त्रिपुरा चुनाव परिणाम आने के बाद कई लोग विलाप करते पाए गए.
कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर और कुछ ने अख़बारों में लेख लिखकर माकपा को आत्ममंथन करने की सलाह दी.
उन्होंने पार्टी को फिर से भारत के लोकतांत्रिक सिद्धांतों के मुख्य संरक्षक के तौर पर उभरने के लिए कहा- ख़ासकर ऐसे दौर में जब भारत पर हिंदुत्व ब्रिगेड के हमले तेज़ हो रहे हैं. इसमें कोई शक़ नहीं कि हिंदुत्व अपना प्रसार कर रहा है.
दूसरी तरफ़ संसद और संसद के बाहर जनाधार के मामले में माकपा ऐतिहासिक निम्नतम स्तर पर है. सबसे ख़राब बात यह है कि अपनी इस मौजूदा हालत के लिए पार्टी अपने अलावा किसी और को दोष नहीं दे सकती है.
यह कहने में झिझक नहीं होनी चाहिए कि माकपा ने आत्ममंथन करने या समावेशी होने की न तो इच्छा दिखाई है, न ऐसी क्षमता होने का परिचय ही दिया है.
जिन लोगों ने माकपा को उसके प्रभाव वाले राज्यों में काम करते देखा है, ख़ासकर उन राज्यों में जहां उन्हें लंबे समय तक चुनावी सफलता मिलती रही और अरसे तक जनसमर्थन बरक़रार रहा, उन्हें यह मालूम होगा कि पार्टी ने अपनी भूल-ग़लती को दुरुस्त करने के लिए शायद ही कभी कुछ किया.
1977 से पार्टी का पश्चिम बंगाल पर पूर्ण नियंत्रण था. लेकिन 1980 के दशक के मध्य से यह स्पष्ट हो चुका था कि शासन या नीति-निर्माण में माकपा की कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी.
वहां माकपा के सत्ता में आने के बाद लागू की गई भूमि सुधार नीति ने एक बड़ा समर्थक आधार तैयार करने में उसकी मदद की. भूमि सुधार नीति ने बंटाईदारों और उनके द्वारा जोती जाने वाली ज़मीन के साथ परंपरागत रिश्ते को बेहतर बनाने का काम किया.
लेकिन, कृषि सुधार के शुरुआती परिवर्तनकारी विचार को आगे बढ़ाते हुए कोई कृषि नीति तैयार नहीं की गई. साक्षरता, शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कोई बड़ी नीतिगत पहल नहीं की गई.
न ही रोज़गार के क्षेत्र में कोई बड़ी पहल की गई. प्रशासनिक इच्छाशक्ति पूरी तरह नदारद थी. और जहां तक औद्योगीकरण का सवाल है, माकपा के पास दिखाने के लिए शायद ही कुछ था.
किसी अच्छे दिन में पार्टी नेता मार्क्स की किताब दास कैपिटल की पंक्तियां सुनाया करते थे, तो औसत दिनों में वे क्यूबा की मिसाल दिया करते थे. ख़राब दिनों में वे एक लोक-कल्याणकारी राज्य के साथ केंद्र के भेदभाव भरे रवैये पर आरोप लगाया करते थे.
आख़िरकार माकपा ने सरकार को पार्टी से मिला दिया. इसने सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक शिक्षा की कमर तोड़ दी. नौकरशाही की कार्यकुशलता की उपेक्षा की और बुनियादी ढांचे का विकास करने के विचार, तकनीक, परिवर्तन और आधुनिकता की ओर कोई ध्यान नहीं दिया.
पार्टी के नेता सिर्फ़ दो मामलों में जोश में दिखाई देते थे. इसमें एक था, बंगाल में सार्वजनिक जीवन (और निजी जीवन भी) के हर पहलू में घुसपैठ करने की रणनीति तैयार करना. बंगाली भद्रलोक के बीच वाम के प्रति सम्मान की भावना ने उसके काम को और आसान बना दिया.
उसकी दूसरी रुचि सत्ता में बने रहने के लिए अंकगणित के सूत्र तैयार करने में थी. ग़रीबी उन्मूलन, सामाजिक न्याय, अल्पसंख्यकों के अधिकार आदि सिर्फ़ काग़ज़ों पर दर्ज प्रतिज्ञाएं बन कर रह गईं. वहीं, पर्यावरणवाद, शहरीकरण, पर्यटन, खेल आदि को बुर्जुआ शगल क़रार दिया गया.
पार्टी ने इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज़ कर दिया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) (1964 में विभाजन के बाद माकपा का गठन हुआ था) एक पूरी पीढ़ी के प्रतिबद्ध स्त्री-पुरुष कार्यकर्ताओं की स्वार्थरहित मेहनत, बलिदान और पूरे समर्पण के साथ किए गए संगठनात्मक कार्यों के बल पर खड़ी हुई थी.
उस पीढ़ी ने हाशिये पर खड़े बेजुबान लोगों के हक़ की रक्षा करने के लिए लड़ने वाली पार्टी का निर्माण करने का सपना देखा था.
त्रिपुरा भी अलग नहीं था. इस राज्य में भी हम बंगाल जैसी अदूरदर्शिता और पाखंड वाला रोग देखते हैं. राज्य में पार्टी ने एक मज़बूत और मुखर आदिवासी आबादी के बजाय बाहर से आकर बसे भद्रलोक के बीच अपने जनाधार को मज़बूत करना ज़रूरी समझा.
बंगाल और त्रिपुरा में अपने लंबे शासन के दौरान पार्टी का वामपंथी चरित्र कमज़ोर होता गया. उनके कामकाज का तरीका सोवियत शैली की नौकरशाही की तरह था.
अगर हम डिजिटल प्रचार-प्रसार और नाम संक्षेपीकरण से भरे शब्दाडंबर को घटा दें, तो केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार जिस तरह से सत्ता का इस्तेमाल कर रही है, कुछ वैसा ही काम माकपा भी अपने शासन वाले राज्यों में गर्व के साथ किया करती थी.
अंतर बस इतना है कि बंगाल और त्रिपुरा में सत्ता पार्टी के पास थी, जबकि केंद्र की वर्तमान सरकार में पूरी शक्ति सिर्फ़ एक व्यक्ति में केंद्रित है.
मिसाल के लिए, जो लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा जवाहर लाल यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के स्वरूप में बदलाव लाने की कोशिशों से परेशान हैं, उन्हें एक बार पीछे मुड़कर यह भी देखना चाहिए कि माकपा ने 1980 और 1990 के दशक में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर कलकत्ता यूनिवर्सिटी या प्रेसिडेंसी कॉलेज के साथ क्या किया था.
जेएनयू का वर्तमान प्रशासन फैकल्टी और छात्रों की मौजूदा व्यवस्था में बदलाव लाने के लिए जितने भी हथकंडे आजमा रहा है, बहुत मुमकिन है, उसमें माकपा द्वारा बंगाल के उच्च शिक्षा संस्थानों के साथ किए गए सुलूक का अक्स दिखाई दे.
पार्टी ने नियुक्तियों को प्रभावित किया. दफ़्तरों को अपने वफ़ादारों से भर दिया. भाई-भतीजावाद को सांस्थानिक रूप दिया और वाइस चांसलरों से लेकर अर्दली तक, सबसे पार्टी के प्रति अटूट निष्ठा की मांग की.
इसने संस्थानों को उसी तरह से अपनी जागीर बना दिया, जिस तरह से आरएसएस जेएनयू को बनाना चाहता है. आरएसएस जेएनयू से लेकर पूरी सरकार, पूरी नौकरशाही (और शायद न्यायपालिका भी) को ऐसे संस्थानों में तब्दील कर देना चाहता है, जिस पर वह नियंत्रण कर सके. दोनों के बीच अंतर तरीके का नहीं, बल्कि पागलपन की मात्रा का है.
माकपा के मौजूदा दयनीय हालात पर अगर सरसरी निगाह भी डाली जाए, तो पता चलेगा कि सत्ता से उनका कितना मज़बूत गठबंधन था. बंगाल जैसे राज्य में, जहां वह 34 सालों तक सत्ता में रही और 10 साल पहले तक जहां उसे अजेय समझा जाता था, वहां से पार्टी का एक तरह से नामोनिशान मिटा दिया गया है.
इसमें कोई शक़ नहीं कि इस पतन के पीछे कई तरह के कारकों का हाथ है. लेकिन, फिर भी यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि पार्टी को सत्ता की ऐसी लत गई थी कि यह उसके बग़ैर ख़ुद को जीवित नहीं रख सकी.
शासन से बाहर, पार्टी ने वर्षों तक सत्ता के दलालों के साथ अलग-अलग स्तर की नज़दीकी वाले कैडरों की जमात तैयार करने के अलावा और कुछ नहीं किया. एक बार सत्ता से पार्टी की पकड़ क्या छूटी, सत्ता सुख के अभ्यस्त हो चुके पार्टी कैडर ने सत्ता के नए दलालों और नए सत्ताधारियों की तरफ अपनी वफ़ादारी मोड़ दी.
वैसे स्थानीय छत्रप जिन्हें लालच देकर या डरा कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल नहीं किया जा सका था, वे भारतीय जनता पार्टी की नाव में सवार हो गए.
त्रिपुरा में भी पार्टी के साथ यही हुआ. आज पार्टी सिर्फ़ दिशाहीन ही नज़र नहीं आती है, बल्कि इसका सामंती चरित्र और ज़्यादा स्पष्ट होकर सामने आ रहा है.
सिर्फ़ केरल में ही संगठन थोड़ा सा अलग है. इसका कारण शायद वहां उच्च साक्षरता का होना या हर पांच साल बाद सत्ता से बेदख़ल कर दिया जाना है.
भारत में वाम के भविष्य पर ही सवालिया निशान लगा है, लेकिन अगर ऐसा कोई भविष्य सचमुच बचा हुआ है, तो इसकी बागडोर माकपा को नहीं सौंपी जा सकती. पार्टी को ज़मीन पर उसकी शक्ति के हिसाब से बहुत ज़्यादा या कहें ग़ैर-अनुपातिक महत्व मिलता रहा है.
भारत में वाम का रास्ता विपक्ष के विकेंद्रीकरण, मौलिक विचारों और मुक्तिदायी आंदोलनों से होकर गुज़रता है, न कि ड्राइंग रूम की बातचीतों और माकपा पोलितब्यूरो में होने वाली बहसों से.
वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र आज कठिन दौर से गुज़र रहा है- चाहे भारत हो, चीन, अमेरिका, तुर्की, अफ्रीका, यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के फैसले के बाद का ब्रिटेन हो या ‘यूरो’ को शक़ की नज़र से देखने वाला यूरोप हो.
आज दुनिया में वास्तव में कोई वाम या दक्षिणपंथी संगठन नहीं है. बस दो तरह की शक्तियां हैं- एक, जो किसी भी कीमत पर लोकतंत्र को बचाए रखना चाहती हैं और दूसरी वे जो इसे नष्ट करना चाहती हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का असली प्रतिपक्ष उन लोगों की तरफ़ से आना चाहिए, जो अपनी आस्तीनें चढ़ाकर ज़मीन पर दो-दो हाथ करने की इच्छा रखते हैं, गठबंधनों को बनाने और तोड़ने के लिए तैयार हैं और युवाओं और परेशानी झेल रहे लोगों के ग़ुस्से और हताशा को अपने कार्यक्रमों शामिल करने के इच्छुक हैं.
उन्हें तकनीक के प्रति समर्पित होना होगा और विविधता को गले लगाना होगा. हमारा सामना एक नई दुनिया से है और इस नई दुनिया को एक नई राजनीति की दरकार है.
(लेखक दिल्ली के आंबेडकर यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं और ये उनके निजी विचार हैं.)
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