2003 में महाराष्ट्र सरकार ने नक्सल-विरोधी अभियान के तहत गांवों को ‘नक्सल-मुक्त’ बनाने के लिए इनाम देना शुरू किया. इस प्रक्रिया में आम गांव वालों को नक्सली बताकर फ़र्ज़ी आत्मसमर्पण करवाया जा रहा है.
लवारी (गढ़चिरौली), महाराष्ट्र: जिला मुख्यालय से 110 किलोमीटर दूर कुरखेड़ा तहसील में स्थित गढ़चिरौली के आखिरी गांव तक की यात्रा मुश्किलों से भरी है. गाड़ी जैसे-जैसे लवारी के नजदीक पहुंचती है, कंक्रीट की बनी सड़क गायब होने लगती है.
आखिरी चार किलोमीटर तो मिट्टी की बेहद उबड़-खाबड़ सड़क से ज्यादा कुछ नहीं है, जिस पर गाड़ी चलाकर गांव तक पहुंचना लगभग नामुमकिन है, बशर्ते स्थानीय लोग आपकी मदद न करें.
इस इलाके की सुदूरता गांव वालों को राज्य की सबसे शक्तिशाली पुलिस इकाई- एंटी नक्सल सेल के ख़िलाफ़ खड़े होने में आड़े नहीं आई, जब इस इकाई द्वारा 15 दिसंबर, 2017 को ‘नक्सल आत्मसमर्पण’ के बाद गोंड समुदाय के 27 वर्षीय आदिवासी युवक दशरथ गावडे को हिरासत में लिया गया.
इस आत्मसमर्पण का आयोजन जिला के सी-60 कमांडो (महाराष्ट्र पुलिस का विशेष नक्सल विरोधी दस्ता) द्वारा किया गया था. गवाडे को 65 दिनों तक गैर-कानूनी हिरासत में रखा गया.
लेकिन गावडे की पत्नी सुनीता ने मामले में मूक दर्शक बन कर अन्याय सहने से इनकार कर दिया. उन्होंने बताया कि यह कथित आत्मसमर्पण साफ तौर पर गैर-कानूनी था. वे इसके खिलाफ मजिस्ट्रेट की अदालत में गयीं, जिसने उनकी बात से इत्तेफाक जाहिर किया.
17 फरवरी को गढ़चिरौली जुडिशल मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास कोर्ट (जेएफएमसी) के मजिस्ट्रेट एनसी बोरफाल्कर ने गावडे की तत्काल रिहाई का आदेश दिया. ऐसा शायद पहली बार हुआ है.
22 दिसंबर को गढ़चिरौली के स्थानीय मीडिया ने जिला कलेक्टर शेखर सिंह के नेतृत्व वाली जांच व पुनर्वास समिति के सामने ‘पुराने नक्सली’ गावडे के ‘स्वतः आत्मसमर्पण’ को जिला पुलिस की बड़ी उपलब्धि बताते हुए प्रमुखता के साथ छापा था.
यह उसे हिरासत में लिए जाने के आठ दिन बाद की बात है. गढ़चिरौली पुलिस के एंटी नक्सल सेल के मुताबिक गावडे 2012 से 2015 के बीच सशस्त्र आंदोलन में सक्रिय शामिल था और कम से कम ‘दो गोलीबारी’ में शामिल था.
पुलिस ने दावा किया था कि आंदोलन से मोहभंग हो जाने और पुलिस की सतत कार्रवाई ने उसे आत्मसमर्पण करने के लिए प्रेरित किया. लेकिन, इस फर्जी आत्मसमर्पण के तुरंत बाद, जोर-जबरदस्ती और पुलिसिया दमन की परेशान करने वाली कहानी सामने आयी.
रिहाई के चार दिन बार गावडे ने द वायर को बताया, ‘मुझे दो महीने तक गंदे कमरे में बंद करके रखा गया था. वे घंटों तक मुझसे मेरे नक्सली संबंधों के बारे में पूछते थे. जब मैंने उनसे कहा कि मैं निर्दोष हूं, तो उन्होंने मुझे बुरी तरह से पीटा.’
गावडे अपनी पत्नी और अपनी 10 महीने की बच्ची के साथ लवारी गांव में अपने पैतृक घर में रहते हैं. चार बेटों में सबसे बड़े गावडे चार एकड़ की पारिवारिक जमीन पर खेती करते हैं और उसकी उपज स्थानीय बाजार में बेचते हैं.
गावडे ने द वायर को बताया कि किसी सशस्त्र गतिविधि में शामिल होने और तीन साल जंगल में रहने की बात तो जाने ही दीजिए, वे कभी भी एक या दो दिन से ज्यादा समय के लिए गांव से बाहर नहीं गए. जिन गांव वालों से हमने बात की, उन्होंने भी इस बात की तस्दीक की.
आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के पुनर्वास कैंप में दो महीने से ज्यादा वक्त गुजार कर, वे एक बार फिर अपने गांव लौट आए हैं और 15 दिसंबर, 2017 से शुरू हुए घटनाक्रम को अच्छी तरह से याद करते हैं, जब सादे कपड़ों में आई दस लोगों की टीम ने उनके दरवाजे पर दस्तक दी थी.
‘उन्होंने अपनी पहचान सी 60 (कमांडो दस्ते) के तौर पर दी और उनमें से दो ने नजदीक के पुरादा पुलिस स्टेशन से होने का दावा किया. उन्होंने इसे रूटीन पूछताछ बताते हुए मुझे उनके साथ गढ़चिरौली पुलिस मुख्यालय चलने को कहा.’
आगे उन्होंने बताया, ‘उन्होंने कहा था कि मुझे उसी दिन 3 बजे तक छोड़ दिया जाएगा. लेकिन मुझे पता था कि अगर मैं पुलिस के साथ गया, तो फिर कभी वापस अपने घर नहीं आ पाऊंगा.’ और हुआ भी ऐसा ही.
पुलिस अधिकारियों ने गावडे से उनकी रजामंदी नहीं ली, न ही उन्हें अपने साथ लेकर जाने का कारण ही बताया. गावडे का कहना है कि चूंकि उनके खिलाफ कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं था- और ऐसा कभी हुआ भी नहीं था, इसलिए उन्होंने हिरासत में लिए जाने का विरोध किया.
जब पुलिस ने उन्हें घसीटना शुरू किया, तब सुनीता उनसे उससे लिपट गईं और पति के साथ जाने को कहा. दूसरे रिश्तेदार और गांव वाले गावडे की हिरासत के कारणों को जानने और उसे रिहा कराने का उपाय खोजने के लिए पीछे रह गए.
सुनीता कहती हैं, ‘मैंने पुलिस को अपने घर में घुसने नहीं दिया. मुझे यह डर था कि वे मेरे घर में कुछ रख देंगे और बाद में उसका इस्तेमाल मेरे पति के खिलाफ सबूत के तौर पर करेंगे. जब उन्होंने बलपूर्वक मेरे पति को ले जाना चाहा, तो मैंने उनसे कहा कि वे मुझे भी साथ ले चलें. मैं जोर-जोर से चिल्लाने लगी. हंगामा खड़ा हो जाने के डर से उन्होंने मुझे भी साथ आने दिया.’
गढ़चिरौली पुलिस मुख्यालय पहुंचने पर, सुनीता को प्रवेशद्वार पर ही रोक दिया गया और गावडे को एक कमरे में ले जाया गया, जो सुनीता के मुताबिक एक ‘पूछताछ कमरे’ की तरह लगता था.
सुनीता कहती हैं, ‘उन्होंने मुझे घर लौट जाने और मेरे पति का राशन और आधार कार्ड लाने के लिए कहा. मैं उनसे लगातार अपने पति के हिरासत में लिए जाने का कारण पूछती रही, लेकिन, पुलिस ने कोई जवाब नहीं दिया. फिर 2 बजे के करीब हमें कहा गया कि गावडे को आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली के तौर पर पेश किया जाएगा.’
एक नक्सली का ‘आत्मसर्पण’ एक लंबी प्रक्रिया है. 2005 में शुरू की गई इस योजना के अनुसार प्रत्यक्ष तरीके से सशस्त्र आंदोलन में शामिल रहने वाले या या परोक्ष तरीके से उसे समर्थन देने वाले व्यक्ति को पुलिस कैंप में 2 महीने पुनर्वास के तौर पर बिताने के बाद सामान्य जीवन में फिर से लौटने का मौका मिलता है.
उसे अगले 10 महीने गांव से बाहर गुजारने पड़ते हैं. आत्मसमर्पण करने वाले व्यक्ति को इनाम के तौर पर किश्तों में 4.5 लाख रुपये मिलते हैं.
पिछले करीब एक दशक के दौरान राज्य सरकार ने इस कार्यक्रम के मद में केंद्र से अलग से मिलने वाले फंड के अलावा अपनी तरफ से भी काफी बड़ी राशि का आवंटन किया है.
आधिकारिक दावों के मुताबिक 700 से ज्यादा सशस्त्र विद्रोहियों ने अब तक इसके तहत आत्मसमर्पण किया है. हाल ही में राज्य के गृह विभाग ने नक्सलियों के लिए आत्मसमर्पण की योजना को 28 अगस्त, 2019 तक बढ़ा दिया है.
सुनीता बताती हैं कि पुलिस अधीक्षक (एसपी) अभिनव देशमुख के दफ्तर में उन्हें लगातार यह समझाने की कोशिश की जाती रही कि इस कदम से उनके परिवार को कितना फायदा होगा. ‘उन्होंने कहा कि अगर मैं चुप रही, तो रातों-रात लखपति बन जाऊंगी.’
सुनीता का दावा है कि पुलिस ने उन्हें और उस समय तक तक पुलिस मुख्यालय पहुंच चुके गांव वालों से ‘सहयोग’ करने के लिए और गावडे को दो महीने तक कैंप में रहने देने के लिए कहा.
सुनीता कहती हैं, ‘मैं चुप रहने और अपने पति के एक साल बाद लौटने की शर्त पर लाखों रुपये लेकर आगे का जीवन सुख से बिताने का रास्ता चुन सकती थी. लेकिन, मुझे यह भी पता था कि इसकी कीमत मुझे अपने आत्मसम्मान से चुकानी पड़ेगी और मेरे पति पर कभी न मिटाया जा सकने वाला दाग लग जाएगा. मैं किसी भी कीमत पर ऐसा नहीं होने देना चाहती थी.’
किसी कानूनी कारण के बगैर पति को एक तरह की हिरासत में ले लिए जाने के बाद पुलिस मुख्यालय के बाहर ही उन्होंने लड़ने का फैसला किया. पुलिस मुझसे मेरे पति के पहचान संबंधी दस्तावेज मांगती रही, लेकिन मैं उनके दबाव में नहीं आई.
मैंने अपने ससुराल वालों और दूसरे गांव वालों को विश्वास में लिया और उन्हें कहा कि हम सबको मिलकर पुलिस के खतरनाक इरादों को नाकाम करना होगा.
जिस समय सुनीता स्थानीय नेताओं के साथ मुलाकात कर रही थीं और गढ़चिरौली और नागपुर में वकीलों से मशविरा कर रही थीं, उस समय उनके पति को इन कोशिशों की कोई जानकारी नहीं थी.
सुनीता याद करती हैं, ‘गढ़चिरौली (पुलिस मुख्यालय) छोड़ने से पहले मैंने अपने पति से कहा था कि आप मुझ पर विश्वास रखिए, मैं आपको यहां से जरूर बाहर निकालूंगी. उन दो महीनों में मेरी उनसे वही आखिरी बातचीत थी.’
15 से 21 दिसंबर तक पुलिस ने गावडे की हिरासत को सार्वजनिक नहीं किया. 22 दिसंबर को उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और मीडिया को उनके आत्मसमर्पण की खुद से तैयार की गई कहानी सुनाई. उस इलाके के मीडिया में इसे प्रमुखता से छापा गया.
गावडे के वकील जगदीश मेश्राम कहते हैं कि यह एक पेचीदा मामला था. सुनीता लड़ने के लिए तैयार थीं, लेकिन हम इस बात को लेकर पक्का नहीं थे कि क्या पुलिस दशरथ के मनोबल को तोड़ने में कामयाब हो जाएगी?
‘आखिर उन्हें दो महीने तक बंद करके रखा गया था और उन्हें परिवार वालों के साथ ही बाहरी दुनिया के किसी भी व्यक्ति से मिलने नहीं दिया गया था.’
हाईकोर्ट में गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को पेश किए जाने की रिट (बंदी प्रत्यक्षीकरण या हीबस कॉपर्स) दायर करने की जगह मेश्राम ने अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 97 के तहत गढ़चिरौली में जेएमएफसी कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया.
चूंकि, इस धारा का इस्तेमाल ज्यादातर वैवाहिक झगड़ों में संतानों की कस्टडी के लिए किया जाता है, इसलिए पुलिस ने इसे सुनीता और उसके वकील की तरफ से एक कमजोर कोशिश की तरह देखा.
मेश्राम कहते हैं, ‘जब हम हाईकोर्ट जाते हैं, तो वे ज्यादा चौकन्ने रहते हैं और पूरी तैयारी करके आते हैं. तथ्यों को ढकने-छिपाने के लिए वे अतिरिक्त ध्यान देते हैं, लेकिन चूंकि हमने मजिस्ट्रेट का दरवाजा खटखटाया था, इसलिए पुलिस ने इसे हल्के में लिया. यह बात हमारे पक्ष में गई.’
17 फरवरी को मजिस्ट्रेट ने गावडे को तत्काल रिहा करने का आदेश दिया और यह कहा कि गावडे को 64 दिनों तक गैरकानूनी तरीके से बंद करके रखा गया. ऐसा तब किया गया जब गावडे ने कोर्ट को यह कहा कि उसे उसकी इच्छा के खिलाफ हिरासत में लिया गया था.
पूछताछ के दौरान गावडे ने कोर्ट से कहा, ‘मैंने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया था. मैं कभी किसी नक्सली गतिविधि में शामिल नहीं था.’
कोर्ट ने टिप्पणी की, ‘दशरथ को जिस तरह से निगरानी में रखा गया है वह कैद करके रखे जाने के समान है, इसलिए उसे तत्काल रिहा किया जाना चाहिए. न्याय के हित में मैं यह फैसला सुनाता हूं.’
द वायर ने गढ़चिरौली के एसपी देशमुख से भी संपर्क करने की कोशिश की, जिनकी निगरानी में यह ‘आत्मसमर्पण’ कराया गया था. उनके कार्यालय की तरफ से बताया गया कि वे किसी ट्रेनिंग के सिलसिले में हैदराबाद गए हुए हैं.
जिला पुलिस के इंचार्ज एडिशनल एसपी माहेश्वर रेड्डी ने दावा किया कि उन्होंने ‘आत्मसर्पण से पहले सभी उचित प्रक्रियाओं का पालन किया था. गावडे ने आत्समर्पण करने की सहमति दी थी. हमने एक हफ्ते तक उसकी काउंसलिंग की थी और उसके बाद उसे कलेक्टर की समिति के सामने पेश किया था. लेकिन, ऐसा लगता है कि वह नक्सलियों के भीषण दबाव में है, जिसके कारण उसे अपने बयानों से पीछे हटना पड़ा.’
रेड्डी ने यह भी जोड़ा कि वे इस मामले को फिर से देखेंगे और इस मामले में दूसरे नक्सलियों और उसकी पत्नी की भूमिका की पड़ताल करेंगे.
जीता-जागता नर्क है पुनर्वास कैंप
आत्मसमर्पण करने की इच्छा रखने वाले नक्सलियों को जिस ‘पुनर्वास कैंप’ में रखा जाता है, वह पुलिस मुख्यालय के पास एक किलेनुमा तीन मंजिला इमारत है.
स्थानीय पुलिस सूत्रों के मुताबिक इसमें दर्जनों लोगों को बंद करके रखा गया है. इसके प्रवेशद्वार पर बंदूकधारी जवानों का जबरदस्त पहरा है. इस रिपोर्टर को ‘सुरक्षा कारणों’ से इस इमारत में जाने से रोक दिया गया.
गावडे का कहना है कि इस कैंप में बिताया हुआ समय किसी नर्क में रहने की तरह था- ‘ती जगहा नरका पेक्षा कमही नवहातिट (यह नर्क से थोड़ा सा भी कम नहीं था). उन्हें एक छोटे से कमरे में, जिसमें न कोई पंखा था, न कोई रोशनदान था, अकेले रखा गया था. उसे सिर्फ वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, जिसका नाम उसे नहीं पता है, के पास ले जाते वक्त कमरे से बाहर कदम रखने की इजाजत मिलती थी.’
गावडे यह भी आरोप लगाते हैं कि उन्हें बुरी तरह से पीटा गया और जबरदस्ती सरेंडर पेपर पर दस्तखत करने पर मजबूर किया गया.
गावडे कहते हैं, ‘वे हर रोज मेरी कोठरी में आते थे और मुझे पीटते थे. उन्हें मुझसे सादे कागज पर दस्तखत कराने की कोशिश की. मेरे इनकार करने पर उन्होंने मुझे एनकाउंटर में मार डालने की धमकी दी.’
गावडे की कमर में भीषण दर्द है, जिसके बारे में उनका कहना है कि यह दर्द उन्हें रीढ़ की हड्डी में मारे जाने के बाद शुरू हुआ.
गावडे के मुताबिक, उन्हें दो बार कैंप से 15 मिनट की ड्राइव पर एक जंगल ले जाया गया. ‘मुझे हिरासत में लेने के तीन दिन बाद पांच पुलिस वाले मुझे एक जंगल में लेकर गए. उन्होंने मुझे गाड़ी से उतर जाने और जंगल में दौड़ने के लिए कहा. उन्होंने मुझसे कहा कि आज रात हम तुम्हारी हत्या कर देंगे और किसी को इसके बारे में पता भी नहीं चलेगा. मैं सचमुच डर गया था.’
गावडे बताते हैं कि एक पखवाड़े के बाद उन्हें फिर उसी जंगल में ले जाया गया. इस बार उन्होंने मुझे साफ तौर पर या तो कागजों पर दस्तखत करने या एनकाउंटर में मारे जाने के बीच किसी एक का चुनाव करने के लिए कहा.
लेकिन, 17 सितंबर को जब कोर्ट में गावडे से उनके साथ किए गए खराब व्यवहार के बारे में पूछा, तब उन्होंने कुछ नहीं कहा था.
इस पर उन्होंने द वायर को कहा, ‘मैं डरा हुआ था. उन्होंने मुझे धमकी दी थी कि अगर मैंने उनके खिलाफ जबान खोली, तो वे मुझे और मेरे परिवार को मार डालेंगे.’
आत्मसमर्पण के लिए मिलने वाला इनाम
सामान्य तौर पर आत्मसमर्पण करने वाला व्यक्ति यहां (पुनर्वास कैंप में) दो महीने के लिए रहता है. इस अवधि में नक्सल विरोधी इकाई कई दिनों तक उस व्यक्ति से पूछताछ करती है.
खुफिया जानकारी इकट्ठा करती है और उस व्यक्ति के खिलाफ मामलों का (अगर कोई मामला है तो) अध्ययन करती है. आखिर में उन मामलों पर फैसला लिया जाता है, जिनमें उस व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा चलाया जाएगा और जिनमें वह माफी के लिए अपील कर सकता है.
इस तरह की आत्मसमर्पण नीतियां ओड़िशा, छत्तीसगढ़ और झारखंड में चल रही हैं.
गावडे ने बताया, ‘कैंप में रखे गए ज्यादातर ‘आत्मसमर्पण करने वाले’ नक्सली तेलुगू बोलने वाले हैं. उन्हें वहां महीनों से रखा गया है. वे वहां रसोई चलाते हैं और सुरक्षाकर्मियों के तौर पर भी काम करते हैं. मेरी हिरासत और मेरी रिहाई से जुड़ी ज्यादातर जानकारियां मुझे इन लोगों ने ही दी.’
इस आत्मसमर्पण को असली दिखाने के लिए, गावडे को गैर-कानूनी ढंग से हिरासत में रखने के अलावा पुलिस ने काफी फुर्ती से पुलिस मुख्यालय के ठीक सामने स्थित स्थानीय गढ़चिरौली जिला सहकारी बैंक में उनका एक बचत खाता खुलवा दिया.
जानकारी के मुताबिक हर आत्मसमर्पण के बदले में पुलिस इस ब्रांच में एक खाता खोलती है और इनाम के तौर पर दी जानेवाल राशि को उनके खातों में किस्तों में जमा करा दिया जाता है.
बैंक के ब्रांच मैनेजर एके पात्रे के मुताबिक, बैंक द्वारा गावडे का खाता ‘नो योर कस्टमर’ (केवायसी) प्रक्रिया का पालन करने के बाद खोला गया. ‘यह खाता पुलिस द्वारा उन्हें बैंक लेकर आने और और उनके दस्तखत समेत अन्य दस्तावेज उपलब्ध कराने के बाद खोला गया.’
लेकिन, गावडे ने पात्रे के दावे को नकार दिया और कोर्ट के सामने कहा कि उसे कभी बैंक नहीं ले जाया गया था और बैंक के कागज पर किया गया दस्तखत भी उनका नहीं था.
गावडे ने द वायर को बताया, ‘बैंक की पासबुक पर मराठी में दस्तखत था, जबकि मैं अंग्रेजी में दस्तखत करता हूं.’ चूंकि पुलिस भी कागजातों की असली कॉपी पेश नहीं कर पायी, इसलिए कोर्ट ने भी गावडे के बयान को स्वीकार कर लिया.
आत्मसमर्पण का गोरखधंधा
यह लवारी गांव का पहला आत्मसमर्पण नहीं है. गावडे के मामले से दो महीने पहले, एक 25 वर्षीय महिला कमला गावडे को इसी तरह से उठा लिया गया था.
कमला की मां सुकुमारी याद करती हैं, ‘वे लोग बड़ी संख्या में सुबह-सुबह पहुंच गए और हमसे हमारी बेटी को सरेंडर करने के लिए कहा. उन्होंने कहा कि वे उसे दो महीने बाद सुरक्षित पहुंचा देंगे.’
इस परिवार को भी पैसे देने का वादा किया गया था.
सुकुमारी ने द वायर को बताया, ‘कमला को 25 दिसंबर तक कैंप में रखा गया. उसके लिए एक बैंक खाता खोला गया और उसमें 2.5 लाख रुपये जमा करा दिए गए. बाकी का 2 लाख अभी तक नहीं दिया गया है.’
हालांकि, कमला ने भी खुद से समर्पण नहीं किया था, मगर पैसे के लेन-देन और किसी कानूनी सहायता के अभाव के कारण उसकी आवाज दब कर रह गयी. अब इस परिवार को यह समझ नहीं आ रहा है कि आखिर वह इस प्रकरण का सामना किस तरह से करे.
यह पूछे जाने पर कि क्या उसकी बेटी नक्सली थी, सुकुमारी फौरन ‘न’ में जवाब देती हैं, लेकिन कुछ समय सोचने के बाद कहती हैं कि ‘वह चार साल के लिए घर से बाहर थी.’
जब उनसे उसके घर से बाहर रहने के समय के बारे में पूछा गया, तो सुकुमारी बस इतना कह पायी कि ‘यह बहुत पहले की बात है.’
कुछ मिनट की बातचीत के बाद सुकुमारी ने कहा, ‘नहीं, मेरी बेटी कभी भी आंदोलन में नहीं थी, न ही उसके खिलाफ कोई मामला दर्ज है.’
कमला अब पड़ोस की कोरची तालुका में अपने चाचा के घर में रहती है, क्योंकि अगले एक साल तक उस पर अपने गांव वापस जाने की पाबंदी है. इस बीच उसके परिवार ने उसकी शादी तय कर दी है.
गांव की पूर्व सरपंच और एक सक्रिय नेता अंतु कुमोते ने इस रिपोर्टर को बताया कि आत्मसमर्पण की ये कहानियां एक-दूसरे से बहुत ज्यादा मिलती हैं. ‘वे 4.5 लाख के इनाम पर इतना जोर देते हैं कि परिवारों को यह लगता है कि सिस्टम के खिलाफ लड़ाई लड़ने से अच्छा है कि पैसे ले लिए जाएं.’
सरकारी नीतियां और इसकी खामियां
2003 में अपने नक्सल विरोधी अभियान के हिस्से के तौर पर सरकार ने सशस्त्र विद्रोहियों को भगाने और खुद को ‘नक्सल मुक्त गांव’ बनाने वाले ग्रामसभाओं को इनाम देने की शुरुआत की.
एक बार नक्सल मुक्त घोषित कर दिए जाने के बाद गांव को कल्याणकारी कार्यक्रमों को चलाने के लिए 3 लाख का इनाम दिया जाना था. पिछले 15 वर्षों में गढ़चिरौली के 1681 गांवों में से 872 गांव खुद को ‘नक्सल मुक्त’ घोषित कर चुके हैं.
नक्सल-मुक्त गांव योजना और स्वैच्छिक आत्मसमर्पण योजना को एक साथ चलाया जाता है. लेकिन, स्थानीय कार्यकर्ता दोनों ही कार्यक्रमों में धांधली का आरोप लगाते हैं.
भाकपा के जिला प्रतिनिधि अमोल मरकवार ने कहा, ‘फर्जी आत्मसमर्पण ड्रामे की ही तरह, ज्यादातर गांवों को, जिनमें नक्सली गतिविधि का कोई नामोनिशान नहीं था, इस योजना के तहत नक्सल मुक्त घोषित कर दिया गया और उन्हें इनाम में पैसे दिए गए. राज्य सरकार वास्तविक मसले से निबटे बगैर ही समस्या के समाधान की दिशा में अपनी उपलब्धि दिखाना चाहती है.’
गढ़चिरौली जिला ग्रामीण विकास एजेंसियों (डीआरडीए) के मुताबिक, जो कि इस योजना के तहत फंड बांटे जाने के लिए जिम्मेदार है, सिर्फ 2017-18 में राज्य ने 193 गांवों में वितरण करने के लिए 5.79 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था. लेकिन अभी तक केवल 90 गांव ही फंड लेने के लिए राजी हुए हैं.
डीआरडीए दफ्तर में कंसल्टेंट गजानन दाहिकर का कहना है, ‘हम फंड स्वीकार करने के लिए 103 गांवों के संपर्क में हैं. अगर वे पैसे नहीं लेते हैं, तो यह पैसा वापस चला जाएगा.’
व्यक्तियों और गांवों के लिए पैसों का लालच बड़ा हो सकता है. इसके अलावा सरकार से मुकाबला करना आसान काम भी नहीं है. लेकिन, जैसा कि दशरथ गावडे के मामले ने दिखाया है, हर कोई नक्सली का ठप्पा लगवाकर और आत्मसमर्पण करके इनाम स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है.
गावडे दंपति को आशा है कि उनकी जीत के बाद किसी बेकसूर आदिवासी को गलत तरीके से फंसाने से पहले पुलिस दस बार सोचेगी.
सुनीता ने कहा, ‘हम सिर्फ यह उम्मीद करते हैं कि दूसरे पीड़ित भी हमारे संघर्ष से सीखें और पुलिस के दबाव के सामने घुटने न टेकें. डटकर लड़ने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है.’
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