अलग-अलग चरणों में पार्टी के चुनावी प्रदर्शन में असमानता इस बात का सबूत है कि ‘अच्छी खबर’ चुनावी पासे को पलटने में मदद कर सकती है.
400 से ज्यादा विधानसभा सीटों और 14 करोड़ से ज्यादा मतदाता वाले उत्तर प्रदेश में तीन चौथाई सीटें जीतना किसी के लिए भी एक असाधारण राजनीतिक उपलब्धि है. उत्तर प्रदेश में आखिरी बार ऐसा चार दशक पहले हुआ था. तब आपातकाल के बाद जनता गठबंधन की सुनामी इंदिरा गांधी की अभिमानी सरकार को बहा ले गयी थी.
इसलिए, जब पिछले हफ्ते नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल के मध्य में भारतीय जनता पार्टी को यूपी में वैसी ही जीत दिलायी, तब लोगों को यह किसी चमत्कार से कम नहीं लगा. इसने साबित कर दिया कि इस समय भारतीय राजनीति में मोदी जैसा कोई और नहीं है.
अगर कुछ अप्रत्याशित नहीं घटा, तो 2019 के आम चुनावों के लिए मोदी सबसे आगे नजर आ रहे हैं. लेकिन, चुनावी सफलता की चमक से हमारी आंखें इतनी नहीं चौंधियानी चाहिए कि हम इन चुनावों के एक खास भीतरी पैटर्न को नहीं देख सकें. यह पैटर्न भारतीय राजनीति के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है.
कोई दौड़ में आगे कर दिया गया कोई पीछे यूपी में हुए सात चरणों के विधानसभा चुनावों के पहले चरण के ठीक अगले दिन, 12 फरवरी को व्यापक प्रसार संख्या वाले अखबार दैनिक जागरण ने राज्य में भाजपा की जीत की भविष्यवाणी करने वाले एक्जिट पोल का प्रकाशन किया.
चुनावों के बीच में एक्जिट पोल का प्रकाशन चुनाव आयोग की आचार संहिता के खिलाफ था. इस अपराध के लिए अखबार के खिलाफ मामला दर्ज किया गया और इसके एक संपादक को गिरफ्तार भी किया गया. भले दैनिक जागरण ने अपनी वेबसाइट से एक्जिट पोल के कंटेंट को हटा दिया, लेकिन भाजपा की संभावित जीत की खबर को लोगों ने व्हाट्सएप के संदेशों के माध्यम से खूब प्रसारित किया.
कई लोगों का तर्क है कि बेहद सुनियोजित तरीके से निश्चित समय पर सामने लाई गई इस मददगार अनुकूल सूचना ने बाद के चरणों में भाजपा को बढ़त दिलाने में काफी मदद की. यूपी में अनिर्णीत मतदाताओं-फ्लोटिंग वोटर्स की बड़ी संख्या ने बीजेपी की इस बढ़त को वास्तविक चुनावी फायदे में बदलने का काम किया.
यूपी में मतदाताओं का एक बड़ा तबका ऐसा है, जो अलग-अलग चुनावों में अलग-अलग राजनीतिक दलों को वोट देता है. इसका एक उदाहरण यह है कि 2014 में 25 फीसदी मतदाता ऐसे थे, जिन्होंने 2009 की अपनी पार्टी के बदले किसी दूसरी पार्टी को मत दिया था.
मतदाताओं के बीच फ्लोटिंग वोटर्स के अनुपात की गणना पेंडरसन इंडेक्स से की जाती है. यह इंडेक्स दो चुनावों के बीच एक पार्टी से दूसरी पार्टी की तरफ करवट बदलने वाले मतदाताओं की वास्तविक संख्याओं की गणना करता है.
किसी पार्टी के वफादार मतदाताओं के बारे में यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि वे विचारधारा या अस्मिता आधारित विश्वासों से प्रेरित होकर अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को वोट देते हैं. लेकिन फ्लोटिंग मतदाता अक्सर ऐसे उम्मीदवारों को मत देते हैं, जिनके जीतने की संभावना ज्यादा प्रबल होती है.
समाज-वैज्ञानिकों ने लंबे अरसे से यह अनुमान लगाने की कोशिश की है कि आखिर किस प्रेरणा के तहत फ्लोटिंग मतदाता संभावित विजेता को वोट देने का फैसला करता है. एक तर्क यह है कि जीतने वाले पक्ष के साथ खड़ा होना कुछ लोगों में सही चुनाव करने का संतोष देता है.
यह वैसा ही है जैसा प्रतियोगी खेलों में होता है. किसी पार्टी के जीतने पर उसके समर्थकों को मिलनेवाले संभावित भौतिक लाभों का विचार भी इसके पीछे एक कारण हो सकता है. जो भी कारण हो, फ्लोटिंग मतदाता, प्रायः जीतने वाले की ओर जाता है.
हालांकि, इस सिद्धांत के साथ एक दिक्कत यह है कि फ्लोटिंग वोटर्स को यह निश्चित तौर पर पता नहीं होता है कि जीत किसकी झोली में जाने वाली है. इसी कारण फ्लोटिंग मतदाता अपनी समझ के हिसाब से जीत सकने वाले कई उम्मीदवारों में बंट जाते हैं. इसका नतीजा यह होता है कि हर पार्टी की दौड़ एक ही रेखा से शुरू होती है.
दैनिक जागरण के एक्जिट पोल ने यूपी में पहले चरण के ठीक बाद जीत को लेकर स्वाभाविक अनिश्चितता का अंत कर दिया. उसने एक ऐसे समय में जब मतदाता फैसला कर रहा होता है, यह बताने का काम किया कि किसकी जीत की संभावना सबसे ज्यादा है. इसने फ्लोटिंग मतदाताओं के एक बड़े तबके को बीजेपी की गाड़ी में सवार होने का फैसला करने में मदद पहुंचाई.
कैसे तैयार की गयी चुनावी लहर
2017 के यूपी चुनावों के विभिन्न चरणों में भाजपा के प्रदर्शन पर एक डालना मुनासिब होगा. पूरे राज्य में 2014 के मुकाबले भाजपा के मत प्रतिशत में 2.6 फीसदी की मामूली कमी दर्ज की गयी और यह 42.3 प्रतिशत से 39.7 फीसदी पर आ गया. लेकिन अगर हम 2014 के लोकसभा चुनावों में विधानसभा क्षेत्रों के हिसाब से बीजेपी के प्रदर्शन की तुलना इस बार के परिणामों से करें, तो हम पाते हैं कि पहले चरण के चुनावों में पार्टी के मत प्रतिशत में तेज गिरावट आयी, जो औसतन पांच फीसदी के बराबर थी.
2017 में भाजपा के मत-प्रतिशत में गिरावट का कारण 2014 में पार्टी का बेहतर प्रदर्शन है. इसलिए नीचे दिया गया ग्राफ 2014 के आंकड़ों के प्रभाव को समायोजित करता है. हम देख सकते हैं कि दैनिक जागरण के एक्जिट पोल के परिणामों के प्रकाशन के बाद भाजपा के पक्ष में जाने वाले वोट में बढ़ोतरी दर्ज की गई. दूसरे चरण और उसके बाद पार्टी को 2014 के लगभग बराबर मत मिलने शुरू हो गये.
दैनिक जागरण के एक्जिट पोल के बाद भाजपा की चुनावी किस्मत में सुधार की बात तब और स्पष्टता से सामने आती है, जब हम अलग-अलग चरणों में पार्टी के मतों में हुए बदलावों से थोड़ा आगे जाकर सारे विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी के प्रदर्शन पर नजर डालते हैं.
12 फरवरी के एक्टिज पोल से पहले के चरण में भाजपा ने 2014 के प्रदर्शन की तुलना में कमजोर प्रदर्शन किया. पहले चरण के 80 फीसदी विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी के वोट प्रतिशत में गिरावट आई. पार्टी की किस्मत में यह ढलान दैनिक जागरण के एक्जिट पोल के प्रकाशन और प्रसार के बाद रुक गयी.
बाद के चरणों में भाजपा ने 43 फीसदी क्षेत्रों में 2014 की तुलना में भी बेहतर प्रदर्शन किया. यह तर्क दिया जा सकता है कि बाद के चरणों में भाजपा के पक्ष में उछाल का कारण पहले चरण के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं में आया जोश था. एक कारण यह भी बताया जा सकता है कि भाजपा ध्रुवीकरण के अपने आजमाए नुस्खे पर उतर आयी.
एक कारण यह भी बताया जा सकता है कि मोदी ने यूपी में अनथक मेहनत की, लेकिन जैसा कि ‘दि वायर’ में आयी खोजी रपट में बताया गया है, दैनिक जागरण के एक्जिट पोल का मकसद भाजपा कार्यकर्ताओं में बढ़ रही हताशा को कम करना उन्हें चुनाव के बाद के चरणों में दोगुनी मात्रा में प्रचार करने के लिए उत्साहित करना था.
यह मान भी लिया जाए, फिर भी पहले चरण के बाद भाजपा के मतों में जिस बड़ी मात्रा में उछाल देखा गया, वह सिर्फ जोश से भरे चुनाव प्रचार की बदौलत संभव नहीं है. इसके लिए मतदाताओं में इस यकीन का फैलना जरूरी है कि भाजपा की जीत अवश्यंभावी है. और इस यकीन के वशीभूत होकर फ्लोटिंग मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा उसे वोट दे. इतने बड़े पैमाने पर मतदाताओं में ऐसा यकीन करना दैनिक जागरण जैसी धोखाधड़ी के बगैर संभव नहीं है.
राज्य चुनाव के विभिन्न चरणों में भाजपा के चुनावी भाग्य में अंतर यह बताने के लिए काफी है कि 2017 में मोदी के पक्ष में एक ‘दैनिक जागरण लहर’ चल रही थी. इसकी तुलना 2014 के लोकसभा चुनाव से करने पर पता चलता है कि तब राज्य में मोदी लहर के कारण पूरे राज्य में और सभी चरणों में एकसमान तरीके से पार्टी के मत-प्रतिशत में उछाल आया था.
विपक्षी मतदाओं में भ्रम की स्थिति
एक अन्य अप्रत्यक्ष और कपटी तरीके से इस एक्जिट पोल ने यूपी चुनाव परिणामों को प्रभावित किया होगा. दैनिक जागरण के चुनाव ने सिर्फ भाजपा को जीतता हुआ नहीं दिखाया, इसने चुनावी समर में बहुजन समाज पार्टी को समाजवादी पार्टी के आगे दिखाया. लेकिन, यह आकलन भी गलत साबित हुआ.
सपा गठबंधन ने पहले चरण में भी बसपा की तुलना में ज्यादा मत हासिल किये. यह चुनावी प्रक्रिया की शिल्पकृति हो या या धूर्ततापूर्ण शरारत, इस भ्रम फैलाने वाले पूर्वानुमान ने इतना तो जरूर किया कि इसने उन मतदाताओं को जो भाजपा को वोट नहीं देना चाहते थे, सपा से दूर हटाकर बसपा की तरफ कर दिया या उन्हें दोनों पार्टियों में विभाजित कर दिया.
कई विशेषज्ञों का आकलन है कि सामान्य तौर पर भाजपा को अपना समर्थन नहीं देने वाले मुसलमान मतदाता बसपा और सपा गठबंधन के बीच बंट गये. इस कारण भाजपा को ज्यादा सीटें दिलायीं. राज्य भर में मुसलिम मतदाताओं पर किये गये एक सर्वे का कहना है कि पश्चिमी यूपी में समुदाय ने सपा गठबंधन के पक्ष में मतदान किया और उनमें बिखराव नहीं हुआ. लेकिन एक्जिट पोल के बाद के चरणों में इसने अपना मत बसपा की तरफ शिफ्ट कर दिया.
किसी भी तरह से देखा जाए, दैनिक जागरण में आयी खबर ने बेहद कामयाबी के साथ विपक्ष के मतदाताओं को बांटने का काम किया और उन्हें किसी एक विपक्षी गठबंधन या पार्टी के पक्ष में लामबंद होने से रोका. ऐसा होता, तो भाजपा इस तरह से आगे नहीं निकल पाती.
एक नई तरह की खबर और लोकतंत्र
दैनिक जागरण के एक्जिट पोल का चुनावी प्रक्रिया पर पड़ने वाले असर का उल्लेख करने का अर्थ यह नहीं है कि बीजेपी चुनाव नहीं जीतती. इस सुनियोजित एक्जिट पोल के बगैर भी, खासतौर पर विपक्ष के बिखराव को देखते हुए, संभव है भाजपा की ही जीत होती. लेकिन, सीटों की संख्या और मत प्रतिशत के हिसाब से जीत का आकार इतना नाटकीय नहीं होता. लेकिन, दैनिक जागरण का एक्जिट पोल कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाता है.
जिस तरह से एक्जिट पोल की खबर ने यूपी के चुनावी समर को एक पार्टी के पक्ष में झुकाने में मदद की उसका संबंध फर्जी खबरों, संपादकीय आग्रहों से युक्त रिपोर्टिंग और वैकल्पिक तथ्यों को लेकर हाल के समय में जतायी जा रही वैश्विक चिंताओं से जुड़ा है.
दैनिक जागरण मामला यह बताता है कि भारत ‘खबर’ के इस नए रूप के दुष्परिणामों से सुरक्षित नहीं है. हकीकत यह है कि अगर इस पर अंकुश नहीं लगाया जाए, तो यह उस लोकतंत्र के क्षय का कारण बनेगी, जिस पर हम सब गर्व करते हैं.
(अनूप सदानंदन इस महीने के अंत में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित होनेवाली किताब ‘व्हाय डेमोक्रेसी डीपेन्स: पॉलिटिकल इनफार्मेशन एंड डीसेंट्रलाइजेशन इन इंडिया के लेखक हैं)
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