शराबबंदी क़ानून के तहत अब तक कुल 1 लाख 21 हज़ार 586 लोगों की ग़िरफ्तारी हुई है, जिनमें से अधिकांश बेहद ग़रीब तबके से आते हैं.
जहानाबाद रेलवे स्टेशन के पास मुख्य सड़क से एक पतली गली बायीं तरफ मुड़ती है. इस गली में 6-7 मिनट पैदल चलने के बाद बजबजाती नालियों, ऊबड़-खाबड़ रास्ते और कूड़ों के बीच दड़बेनुमा घरों की बेतरतीब कतार शुरू हो जाती है. यह ऊंटी मुसहर टोली के नाम से जाना जाता है.
इसी मोहल्ले में पेंटर मांझी और मस्तान मांझी रहते हैं. दोनों भाई हैं. पेंटर मांझी का घर ईंटों को मिट्टी से जोड़कर बनाया गया है. खपरैल की छत है. एक जर्जर दरवाजा कमरे की तरफ खुलता है. कमरे में खिड़की नहीं है जिस कारण कड़ी धूप में भी भीतर घुप्प अंधेरा है. पेंटर मांझी अपने तीन बच्चों व बीवी संग इसी कमरे में रहते हैं.
पेंटर मांझी के घर से बिल्कुल सटा हुआ मस्तान मांझी का घर है. मस्तान मांझी के घर में मिट्टी का लेप नहीं चढ़ा है जिससे नंगी ईंटें साफ दिखती हैं. मस्तान मांझी का घर भी एक ही कमरे का है. इसी एक कमरे में वह अपने चार बच्चे, एक बहू, पोते और अपनी पत्नी के साथ जिंदगी काट रहे हैं.
दोनों भूमिहीन हैं. जितनी जगह में घर है, वही उनकी कुल जमीन है. भाड़े पर ठेला चलाकर वे किसी तरह परिवार की गाड़ी ठेल रहे हैं. ठेला जिस दिन नहीं चलता, उस दिन चूल्हे से धुआं भी नहीं उठता.
दोनों भाईयों को 29 मई 2017 की दोपहर शराब पीने के अपराध में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. गिरफ्तारी के महज 43 दिनों के भीतर यानी 11 जुलाई को जहानाबाद कोर्ट ने दोनों को 5-5 साल की कैद और एक-एक लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनायी थी.
अप्रैल 2016 में बिहार में शराबबंदी लागू होने के बाद शराब के मामले में यह पहली सजा थी. दोनों के खिलाफ बिहार मद्य निषेध व उत्पाद अधिनियम 2016 की धारा 37 (बी) के अंतर्गत सजा मुकर्रर हुई थी.
गिरफ्तारी के बाद मस्तान मांझी और पेंटर मांझी की सारी जमा-पूंजी कोर्ट-वकील की भेंट चढ़ गयी. बच्चों की पढ़ाई रुकी सो अलग और खाने के लाले तो थे ही. मांड़-भात खाकर किसी तरह उनका परिवार जिंदा रहा.
कुछ महीने पहले ही मस्तान व पेंटर पटना हाईकोर्ट से जमानत लेकर छूटे हैं.
मस्तान मांझी कहते हैं, ‘कोर्ट-कचहरी के चक्कर में करीब एक लाख रुपये खर्च हो गये. इतने रुपये हमारे पास कहां थे. कुछ रुपये जमा कर रखे थे, उसे लगाया. कुछ रुपये महाजन से ब्याज पर लिया और सूअर पाल रखे थे, उन्हें बेचकर कुछ पैसे का जुगाड़ किया गया.’
मांझी बताते हैं, ‘ठेला चलाकर बमुश्किल दो सौ से ढाई सौ रुपये की कमाई होती है. इसमें से 50 रुपये ठेला मालिक को देना पड़ता है. इतने कम पैसे में परिवार को खिलाऊं या महाजन का कर्ज चुकाऊं, समझ में नहीं आ रहा है.’
29 मई की वो आग उगलती दोपहर थी, जब मस्तान मांझी को पकड़ा गया था. उस दिन को वह याद करते हैं, ‘दोपहर का वक्त था. बाहर तेज धूप थी. मैं ठेला चलाकर आया था. थकान मिटाने के लिए थोड़ी ताड़ी पी ली थी और घर में लेटा हुआ था. नींद आंखों पर सवार थी. नींद आती कि उससे पहले घर में पुलिस आ धमकी. न कोई सवाल-जवाब और न ही जांच-पड़ताल. बस, पकड़ कर थाने के लॉकअप में डाल दिया. बीवी-बच्चे बिलखते रह गये.’
पेंटर मांझी भी ठेला चला कर आए थे. उन्होंने भी ताड़ी पी रखी थी. कुछ देर घर में आराम करने के बाद पत्नी से 5 रुपये लेकर वह पान खाने जा रहे थे कि देखा पुलिसवालों की फौज उनकी तरफ आ रही है.
वह कुछ समझ पाते तब तक पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर चुकी थी. पुलिस ने पेंटर की पत्नी क्रांति देवी को भी पकड़ लिया था. बाद में उसे छोड़ दिया गया.
पेंटर मांझी कहते हैं, ‘पुलिसवालों ने पांच लीटर के सफेद गैलन में पानी भर लिया और उसे शराब बताकर हमें जेल में डाल दिया.’
पेंटर के पास 6-7 सूअर थे. सभी को बेच कर और कुछ पैसा कर्ज लेकर अदालती कार्रवाई पर खर्च किया गया.
वह निराशा और गुस्सा मिश्रित भाव चेहरे पर लाकर कहते हैं, ‘जो शराब बेचते हैं, उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती है और हम जैसे लोगों को पानी फेंक कर सजा दी जा रही है.’
दोनों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया गया है. एक लाख की मोटी रकम देना उनके लिए नामुमकिन है.
‘पइसा कहां से जुटतै, जेले में रहबई एक साल (पैसे का जुगाड़ कहां से कर पायेंगे. एक साल और जेल में ही रहेंगे)’, यह कहते हुए दोनों के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान फैल गयी, जिसके पीछे बेइंतहा दर्द भी था.
अरवल जिले के करपी थाना क्षेत्र के खजुरी गांव के निवासी ललन मांझी भी करीब तीन हफ्ते जेल में बिताकर पिछले शनिवार को जमानत पर घर लौटे हैं. वह सुबह-सुबह घर पर चने की फलियां छुड़ा रहे थे. उसी वक्त पुलिस आयी और उन्हें दबोच लिया.
ललन मांझी के पास अपना एक बित्ता भी खेत नहीं है. ललन मिट्टी के घर में रहते हैं. वह दूसरे से खेत बटैया लेकर खेती-बाड़ी और दूसरों के खेत में मजदूरी कर आजीविका चलाते हैं. गिरफ्तारी ने उन्हें हजारों रुपये का कर्ज सिर पर लेकर जीने को विवश कर दिया है.
ये महज कुछ बानगियां हैं, शराबबंदी कानून के शिकंजे में फंसकर कराह रहे ऐसे परिवारों की संख्या हजारों में है.
विगत 9 मार्च को राज्य के मद्य निषेध व उत्पाद विभाग के मंत्री बीजेंद्र प्रसाद यादव ने बिहार विधान परिषद में बताया था कि शराब मामले में अब तक 1 लाख 21 हजार 586 लोगों की गिरफ्तारी हुई.
मंत्री के अनुसार, मद्य निषेध व उत्पाद विभाग ने कुल 44 हजार मामले व पुलिस ने 57 हजार मामले दर्ज किए हैं.
लेकिन, शराबबंदी में गिरफ्तार करीब सवा लाख लोगों में से फरवरी तक महज 30 लोगों को ही कोर्ट से सजा सुनाई जा सकी है. बाकी आरोपियों को जमानत पर छोड़ा जा रहा है. हाल के अदालती फरमानों के मद्देनजर आरोपियों को जमानत देने की प्रक्रिया में तेजी आई है.
शराबबंदी कानून के तहत गिरफ्तार आरोपियों की प्रोफाइल देखें तो अधिकांश लोग बेहद गरीब तबके से आते हैं. इनके पास केस लड़ने व वकील को देने के लिए पैसे तक नहीं होते हैं.
गया कोर्ट में लंबे समय से प्रैक्टिस कर रहे वरिष्ठ वकील मुरारी कुमार हिमांशु बताते हैं, ‘गया कोर्ट में रोज शराब मामले में गिरफ्तार लोगों की जमानत की 70 से 80 अपीलें आती हैं और इनमें 95 फीसदी से अधिक आरोपी बहुत गरीब होते हैं.’
मुरारी कुमार कहते हैं, ‘गिरफ्तारी के चार-पांच दिनों के भीतर जमानत लेने में कम से कम 10 हजार रुपये खर्च हो जाते हैं. समय जितना बढ़ता जायेगा, खर्च भी उसी रफ्तार से बढ़ेगा.’
95 फीसदी से अधिक आरोपितों का गरीब तबके से होने का मतलब यह नहीं है कि अमीर लोग शराब नहीं पी रहे हैं या पी रहे हैं तो पकड़े नहीं जा रहे हैं.
मुरारी कुमार हिमांशु के अनुसार, ‘पैसेवाले लोग मोटी रकम देकर थाने से ही मैनेज कर लेते हैं. कोर्ट-कचहरी का चक्कर गरीबों के लिए है.’
यहां एक दिलचस्प बात यह है कि शराब के मामले में अब तक शायद ही कोई आरोपित बरी हुआ है, जबकि शराब नहीं पीने के बावजूद गिरफ्तार कर लिए जाने की शिकायतें अक्सर आती रहती हैं.
कई वकीलों ने भी यह स्वीकार किया है कि उनके कई क्लाइंट ऐसे हैं, जो पूरी ईमानदारी के साथ बताते हैं कि वे शराब नहीं पीते हैं और उन्हें फंसाया गया है.
पटना सिविल कोर्ट के वकील अरविंद महुआर कहते हैं, ‘ऐसे बहुत-से मामले आ रहे हैं, लेकिन पुलिस के पास केसों का इतना बोझ है कि उसके लिए किसी एक मामले की गहराई से जांच कर पाना मुमकिन नहीं है. ऐसे में संभव है कि बेगुनाह व्यक्ति भी गुनाहगार बन जाए.’
अरवल के रामापुर गांव के रहने वाले 32 वर्षीय महादलित मिथिलेश ने पीना तो दूर शराब को आज तक हाथ भी नहीं लगाया है. मिथिलेश गुटखा भी नहीं खाते, लेकिन शराब पीने के जुर्म में दो बार गिरफ्तार होकर कर्जदार बन चुके हैं.
वह परचून की एक छोटी-सी गुमटी चलाते हैं. घर में चार बच्चे हैं और बीवी है. दो बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं. परचून की दुकान से जो थोडी बहुत कमाई होती है, उसी से परिवार चलता है.
मिथिलेश कहते हैं, ‘पहली गिरफ्तारी पिछले साल अक्टूबर में हुई थी. तीन बजे भोर में. 42 हजार रुपये खर्च हो गये तब जाकर नवंबर में जमानत मिली. उसी साल दिसंबर में रात आठ बजे पुलिस ने मुझे दोबारा पकड़ लिया. दूसरी गिरफ्तारी की जमानत लेने में 22 हजार रुपये लग गये.’
मिथिलेश की पत्नी ने काफी भागदौड़ कर जमानत दिलवायी. जितने दिन मिथिलेश जेल में रहे, बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह ठप रही. मिथिलेश ने कहा, ‘चार छोटे-छोटे बच्चों को लेकर कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाना परिवार (पत्नी) के लिए बहुत दुखदायी था.’
मिथिलेश आगे बताते हैं, ‘पहली गिरफ्तारी के दौरान ही 5 रुपये सैकड़ा (100 रुपये पर 5 रुपये ब्याज प्रति माह) पर 30 हजार कर्ज लेना पड़ा था. उसे अब तक चुका रहे हैं.’
अरवल के ही नेउना गांव के रामभजन मांझी का भी आरोप है कि वह शराब का धंधा करते ही नहीं, लेकिन उन्हें झूठे मामले में फंसा दिया गया. बिना किसी कसूर उन्हें साढ़े तीन महीने तक जेल में बिताना पड़ा.
रामभजन का घर भी मिट्टी का है. एक कच्ची व टूटी-फूटी सड़क उनके घर तक जाती है. घर में बीवी-बच्चे और बूढे मां-बाप हैं. गिरफ्तार से परिवार की आर्थिक स्थिति चरमरा गयी थी. रामभजन का कहना है कि वह न तो शराब पीते हैं और न ही शराब का धंधा करते हैं.
उन्होंने कहा, ‘दो गुटों में हुए झगड़े को मैं निबटाने गया हुआ था. उसी मामले में मुझे गिरफ्तार कर लिया गया था. उक्त मामले में जब मुझे जमानत मिलने लगी, तो शराब का धंधा करने का झूठा मामला दर्ज कर दिया गया. कोर्ट-कचहरी में 50 हजार रुपये लग गये. कपार पर 20 हजार का कर्जा भी आ गया.’
शराबबंदी ने एक तरफ हजारों गरीब लोगों को जेल में डाल दिया है, तो दूसरी तरफ लोगों को दूसरे नशीले पदार्थों के सेवन को भी मजबूर किया है. खासकर शहरी क्षेत्रों में ऐसा ट्रेंड देखने को मिल रहा है. नशामुक्ति केंद्रों में मरीजों की बढ़ती संख्या इसकी तस्दीक करती है.
जब शराबबंदी लागू हुई थी, तब दिशा नशामुक्ति केंद्र में नशामुक्ति के लिए आने वाले मरीजों की संख्या में कमी आने लगी थी, लेकिन अब दोबारा मरीजों की संख्या में इजाफा हो गया है और इनमें 80 से 90 फीसदी मरीज दूसरे नशीले पदार्थों का सेवन कर रहे हैं.
पटना स्थित दिशा नशामुक्ति केंद्र की अंडर सेक्रेटरी राखी शर्मा कहती हैं, ‘शराबबंदी कानून लागू होने के बाद हमारे सेंटर में हर महीने करीब 150 मरीज आते थे. लेकिन, अभी इनकी संख्या में इजाफा हो गया है. इन दिनों हर महीने 200 से 225 मरीज आ रहे हैं.’
वह बताती हैं, ‘चौंकानेवाली बात यह है कि 80 प्रतिशत से अधिक लोग गांजा, भांग, ब्राउन शुगर, ह्वाइटनर, डेंडराइट आदि का सेवन कर रहे हैं. चिंता की बात यह भी है कि इनमें से अधिकांश मरीजों की उम्र 16 से 25 साल के बीच है.’
शराबबंदी के बाद बिहार सरकार यह कहकर अपनी पीठ खूब थपथपा रही है कि शराब पर पाबंदी लगने से महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा में गिरावट आयी है.
पिछले साल नवंबर में राज्य के समाज कल्याण विभाग की ओर से एक रिपोर्ट जारी की गयी थी. सीएम नीतीश कुमार ने खुद यह रिपोर्ट सार्वजनिक की थी.
रिपोर्ट पांच जिलों की 2,368 महिलाओं के साथ बातचीत के आधार पर तैयार की गयी थी. इसमें बताया गया था कि महज पांच प्रतिशत महिलाएं ही लगातार शारीरिक अत्याचार व छह प्रतिशत महिलाओं ने आर्थिक सहयोग से वंचित होने की शिकायत की.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि शराबबंदी के बाद घरेलू हिंसा के मामलों में भी कमी आई है. लेकिन, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के वर्ष 2016 के आंकड़े इस दावे को मुंह चिढ़ा रहे हैं.
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016 में बिहार में पति या ससुराल के अन्य सदस्यों द्वारा महिला पर हिंसा करने के कुल 3,794 मामले दर्ज किये गये, जो वर्ष 2015 से दो अधिक थे.
वहीं, घरेलू हिंसा की बात की जाए, तो इसमें भी इजाफा ही हुआ है. एनसीआरबी के मुताबिक वर्ष 2015 में बिहार में घरेलू हिंसा के कुल 161 मामले दर्ज किये गये थे, जो वर्ष 2016 में बढ़कर 171 हो गए.
बिहार सरकार ने जब बिहार मद्य निषेध व उत्पाद अधिनियम, 2016 लागू किया था, तो उसमें कई कठोर प्रावधान रखे गये थे, ताकि सजा के डर से लोग शराब छोड़ दें. एक्ट में शराब बनाने, रखने, बेचने व निर्यात करने वालों को इस अधिनियम के तहत 10 साल से आजीवन कारावास व एक लाख रुपये जुर्माने की सजा हो सकती है.
वहीं, अगर कोई व्यक्ति शराब पीता है, तो उसे कम से कम 5 साल और अधिकतम 7 साल की सजा हो सकती है और साथ ही 1 लाख से 7 लाख रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है.
इसके अलावा भी कई तरह के प्रावधान हैं, लेकिन हकीकत यह है कि लोगों में शराब को लेकर कोई खौफ नहीं रह गया है. अब यह ‘ओपेन सीक्रेट’ बात है कि बिहार में शराब बिक्री संगठित धंधे की शक्ल ले चुकी है.
पहले शराब अधिकृत दुकानों पर ही मिला करती थी, लेकिन अब महज एक फोन कॉल पर शराब की होम डिलीवरी हो रही है. बस, जेब थोड़ी ज्यादा ढीली करनी पड़ती है. ग्रामीण क्षेत्रों में देसी शराब अब भी बन रही है.
शराब माफियाओं के लिए शराब का धंधा सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह है. वहीं, गरीब व शारीरिक मेहनत करने वाले तबके के लिए शराब (अधिकांशतः देसी व ताड़ी) मनोविज्ञान से जुड़ा मसला है.
अरवल के रामापुर गांव के ही छोटन मांझी शराब पीने के आरोप में दो हफ्ते जेल में बिताकर लौटे हैं. वह मजदूरी करते हैं. जमानत लेने में 10 हजार रुपये खर्च हो गये.
वह कहते हैं, ‘मैं मीट भून रहा था. मीट बनाकर शराब के साथ खाने का मन था, लेकिन मुझे क्या पता था कि शराब पीने की इच्छा होने पर भी पुलिस पकड़ लेती है. पुलिस ने जिस वक्त पकड़ा था, उस वक्त तो शराब पीना दूर शराब खरीदी भी नहीं थी.’
वह आगे बताते हैं, ‘देखिये, साहब! हम लोग दिनभर मेहनत मजदूरी करने वाले लोग हैं. शराब नहीं पीयेंगे, तो नींद ही नहीं आयेगी. क्या करें!’
नीतीश कुमार ने शराब पीने पर पाबंदी लगायी है और शराब की जगह दूध पीने को कहा है तो शराब छोड़ क्यों नहीं देते?
इस सवाल का जवाब शराब पीने के आरोप में 15 दिन जेल में बिताकर लौटे अरवल के ही नेउना गांव के तपेंदर मांझी कुछ यूं देते हैं, ‘ज्यादा थके रहते हैं, तो पीते हैं. 10 रुपये की ताड़ी शरीर के सारे दर्द चुन लेती है. 10 रुपये का दूध कितना आयेगा और उससे थकावट कितनी दूर होगी?’
शराब नहीं छोड़ पाने के मनोवैज्ञानिक पहलू पर रोशनी डालते हुए पटना के जाने-माने साइकेट्रिस्ट डॉ. सत्यजीत सिंह कहते हैं, ‘अचानक शराब छोड़ देने से शराबियों पर शारीरिक और मानसिक असर पड़ता है. व्यक्ति को नींद नहीं आती है और मानसिक स्थिति गड़बड़ा जाती है. शरीर में थकावट आ जाती है व मांसपेशियों में दर्द होने लगता है.’
डॉ. सत्यजीत सिंह आगे बताते हैं, ‘जो नियमित शराब का सेवन करते हैं वे अल्कोहलिक डेलिरियम ट्रेमेंस का शिकार हो सकते हैं.’
डेलिरियम ट्रेमेंस मतिभ्रम की स्थिति है. इसमें शराब छोड़ने वाला व्यक्ति अजीबोगरीब भ्रम में रहने लगता है और मनगढ़ंत काल्पनिक घटनाएं देखता है. ऐसी स्थिति में वह खुद को और अपने संबंधियों को पहचान भी नहीं पाता.
वैसे, इन स्थितियों से निबटने के लिए राज्य के सरकारी डॉक्टरों को विशेष ट्रेनिंग दी गयी थी और हर जिला अस्पताल में 15 बेड इस तरह के मरीजों के लिए रखा गया था. लेकिन, ग्रामीण क्षेत्रों में इसे व्यापक स्तर पर प्रचारित नहीं किया गया, जिस कारण लोग जागरूक नहीं हो पाये. इसी वजह से शराब छोड़ने पर जब इस तरह का लक्षण दिखा, लोगों ने दोबारा शराब पीना शुरू कर दिया.
शराबबंदी के कारण होने वाली परेशानियों के मद्देनजर राज्य की विपक्षी पार्टियों का कहना है कि उनकी सरकार बनती है तो कानून में बदलाव किया जायेगा.
राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह ने इसी साल जनवरी में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा था कि अगर उनकी पार्टी की सरकार बनती है, तो शराबबंदी कानून में ढील दी जायेगी. राजद नेता व पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी ऐसा ही वादा कर चुके हैं.
विगत 16 मार्च को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेकुलर) के मुखिया जीतनराम मांझी ने भी कहा था कि अगर बिहार में उनकी सरकार बन जाती है, तो शराबबंदी कानून में बदलाव किया जायेगा.
दूसरी तरफ, नीतीश कुमार के लिए शराबबंदी अब नाक का सवाल बन गया है. वह किसी भी सूरत में इस कानून को वापस लेने या आमूलचूल संशोधन करने को तैयार नहीं हैं. उल्टे उन्होंने शराबबंदी को ठीक से लागू करने के लिए इंस्पेक्टर जनरल का नया पद सृजित कर एक अलग इकाई तैयार कर दी है.
बिहार सरकार के इस कदम से कितना फायदा होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा. लेकिन, मौजूदा सच यही है कि शराबबंदी के कारण हाशिये पर खड़े पेंटर, मस्तान और ललन जैसे हजारों बेबस-गरीब लोग कोर्ट-कचेहरी के चक्कर में बर्बाद हुए जा रहे हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)