बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के रेडिकल पक्ष को नज़रअंदाज़ करने के पीछे की राजनीति बहुत पुरानी है. शासक जमातें उत्पीड़ित तबकों से आने वाले नेताओं को सीमित करके प्रस्तुत करती हैं.
यह 1927 का साल था जब डॉ. आंबेडकर की अगुवाई में ऐतिहासिक महाड सत्याग्रह का आयोजन हुआ था. नागरिक आजादी के लिए हिंदुस्तान की सरजमीं पर एक ऐतिहासिक संघर्ष छेड़ा गया था जिसकी अगुवाई डॉ. आंबेडकर ने की थी. तत्कालीन मुंबई प्रांत का हिस्सा कोंकण का महाड एक अलग तरह की समरस्थली बना था, जब हजारों की तादाद में वहां दलितों और उनके समविचारी लोगों ने एक सार्वजनिक तालाब पर जाकर पानी पिया था.
वह एक तरह से वर्ण मानसिकता के खिलाफ संघर्ष का बिगुल था क्योंकि सवर्ण हिंदुओं ने उपरोक्त तालाब पर पानी पीने से उन्हें प्रतिबंधित किया था, उनका कहना था कि उनके स्पर्श से वह ‘अपवित्र’ हो जाएगा. रेखांकित करने वाली बात थी कि इस तालाब पर कुत्ता, बिल्ली या अन्य जानवर पानी पी सकते थे, मगर इंसानों के लिए मनाही थी.
उन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं थी कि महाड म्युनिसिपालिटी ने इस मसले पर एक प्रस्ताव पारित किया था. वहां एकत्रित अवाम को संबोधित करते हुए डॉ. आंबेडकर ने दलितों का आह्वान किया था कि वह उन तमाम गंदे पेशों को छोड़ दें जिसने उन्हें सदियों से कलंकित रखा है और अवमानित किया है और कहा था वह आज से मनुष्य की तरह जीना शुरू करें.
बहरहाल, पिछले ही साल पूरे मुल्क में इस ‘महाड क्रांति’ (दलित इतिहास में इसे इसी नाम से संबोधित किया जाता है) के नब्बे साल पूरे होने पर जब इस ऐतिहासिक अवसर को जगह-जगह मनाया जा रहा था, हम सभी एक विचलित करने वाले नजारे से रूबरू थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हम वहीं कदमताल कर रहे हैं, कहीं आगे नहीं बढ़े हैं.
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बड़े-बड़े बिलबोर्ड्स प्रायोगिक तौर पर लगाए गए जिसमें डॉ. आंबेडकर को ही स्वच्छता के आइकन या प्रतीक के तौर पर पेश किया गया. जिन्हें बाद में देश के अन्य रेलवे स्टेशनों पर लगाया जाना था और जिसे स्वच्छ भारत अभियान के हिस्से के तौर पर पेश किया गया था.
बिलबोर्ड में आंबेडकर जैसा दिखने वाला एक व्यक्ति लोगों के समूह की अगुवाई करता दिखा जो लोगों को कूड़ेदान की तरफ चलने का संकेत देता दिख रहा था और बैनर हेडलाइन थी ‘आप के अंदर के बाबा साहब को आप जागृत करें, गंदगी के खिलाफ इस महान अभियान में अपना योगदान दें.’
उन आंबेडकरी संगठनों एवं रेडिकल दलित कार्यकर्ताओं की पहल की तारीफ करनी पड़ेगी जिन्होंने सैकड़ों लोगों के साथ आंबेडकर के इस अपमान का विरोध किया और ‘जातिवादी आग्रहों’ को प्रदर्शित करने वाले इन बिलबोर्ड्स को हटाने के लिए भारतीय रेल को मजबूर किया, मगर यह समूचा प्रसंग तमाम सवालों को छोड़ गया.
यह प्रश्न तत्काल उठा कि इन जातिवादी आग्रहों को दिखाने वाले बिलबोर्डस को बिना आपत्ति प्रमाणपत्र किसने दिया और उनके सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति आखिर किसने दी? और आंबेडकर के इस प्रगट अपमान के खिलाफ रेल मंत्रालय या संबंधित विभाग ने इस मामले में क्या कार्रवाई की ? आखिर इस बिलबोर्ड के संदेश के जरिये क्या संप्रेषित की जाने की कोशिश हो रही थी?
यही न कि देश के नीतिनिर्धारकों के लिए तथा उनके मातहत काम करने वालों के लिए डॉ. आंबेडकर की अहमियत आज भी उत्पीड़ित जातियों के उन सदस्यों से अलग नहीं है जिन्हें वर्णव्यवस्था ने धर्म की मुहर लगा कर अस्वच्छ पेशों तक सीमित कर दिया है, जिनसे मुक्ति का हुंकार महाड सत्याग्रह था!
क्या यह एक तिरछी कोशिश थी ताकि वर्चस्वशाली जातियों में व्याप्त इस समझदारी को पुष्ट किया जाए कि इस मुल्क में समता के लिए चली लड़ाई में डॉ. आंबेडकर के योगदान की या नवस्वाधीन भारत का संविधान बनाने में दिए उनकेे योगदान की उन्हें कोई कदर नहीं है ?
या वह इसी समझदारी को आगे बढ़ाना चाह रहे थे कि यह महान विद्धान,जिनकी निजी लाइब्रेरी में बीस हजार से अधिक किताबें थीं और जिन्होंने भारत की उत्पीड़ित-शोषित जनता के हितों के लिए जबरदस्त लेखन किया, उनकी हैसियत उनके लिए कुछ भी नहीं है !
और अब जबकि देश के पैमाने पर डॉ. आंबेडकर का 127वां जन्मदिन बहुत धूमधाम से मनाया जा चुका है. इस दौरान हम उत्तर प्रदेश सरकार से जुड़ी आंबेडकर के नाम के साथ ताल्लुक रखने वाली एक खबर से रूबरू रहे हैं. दरअसल, आंबेडकर जयंती के कुछ वक्त पहले यूपी सरकार ने एक आदेश पारित किया कि आधिकारिक दस्तावेजों में डॉ. आंबेडकर के नाम के साथ उनके नाम का मझला हिस्सा रामजी (जो उनके पिता का नाम है) जोड़ा जाएगा.
कहा गया कि उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक के सुझाव या सलाह पर इसे अंजाम दिया गया, जिन्होंने इसके लिए मराठी परंपरा का हवाला दिया था, जहां नाम के साथ पिता का नाम उल्लेखित किया जाता है. रेखांकित करने वाली बात थी कि ऐतिहासिक रिकॉर्ड को कथित तौर पर ‘ठीक करने’ के इस कदम का (जैसा कि दावा किया गया) उसका दलित अग्रणियों और बुद्धिजीवियों ने ही नहीं बल्कि उनके दो पोतों प्रकाश और आनंदराव ने भी विरोध किया.
हम देख सकते हैं कि आंबेडकर को स्वच्छता के आइकन के तौर पर पेश करना या उनके नाम में अचानक ‘रामजी’ जोड़ना, यह दोनों कदम इसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं ताकि बाबा साहब की एक सैनिटाइज्ड/साफ सुथरी छवि जनमानस में कायम रहे और ब्राहमणवाद और पूंजीवाद को चुनौती देने वाले उनके रेडिकल योगदानों को लोग भूल जाएं.
जिस तरह गुजरात सरकार की तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के कार्यकाल में सरकार की तरफ से लिखवाई गई और छपवाई गई डॉ. आंबेडकर के चरित्र की लाखों प्रतियां (जिन्हें सरकारी प्राइमरी पाठशालाओं में मुफ्त वितरण के लिए तैयार करवाया गया था) एक तरह से कबाड़ बना दी गईं, वह ‘सूटेबल’ आंबेडकर गढ़ने की इन संगठनों की कोशिशों का एक और उदाहरण है. कारण यह बताया गया कि किताब ‘राष्टीय एकता’ के विपरीत संदेश देती है.
किताब के अंत में प्रकाशक ने उन बाईस प्रतिज्ञाओं को शामिल किया था, जिन्हें डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध धर्म स्वीकार करने के वक्त अपने अनुयायियों को पढ़ाया था. इन प्रतिज्ञाओं से गुजरात सरकार को इसी वजह से आपत्ति थी कि उसमें हिंदू देवी-देवताओं की आलोचना की गई थी, कर्मकांडों से दूर रहने के लिए लोगों को कहा गया था आदि.
उधर गुजरात सरकार ने डॉ. आंबेडकर के चरित्र को कबाड़ बना दिया तो इधर उनके नाम पर तमाम स्मारकों के उद्घाटन करने वाली हुकूमत इस बात का पूरा ध्यान रखती है कि लोग उन्हें फूल मालाएं चढ़ाते रहें मगर उन्हें पढ़े नहीं. इसीलिए उनकी रचनाएं आउट आफ प्रिंट होने के बावजूद उन्हें छपवाने को लेकर उनके मंत्रालय को कोई चिंता नहीं है.
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने लिखा था:
…विडंबना देखिए कि केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय के तहत संचालित आंबेडकर फाउंडेशन के पास बहुत अरसे से आंबेडकर साहब की किताबें और संकलित रचनाओं की प्रतियां नहीं बची हैं, पूरा का पूरा आंबेडकर साहित्य आउट-आॅफ प्रिंट है. हालांकि इसमें आंबेडकर फाउंडेशन का उतना दोष नहीं. दरअसल, आंबेडकर फाउंडेशन ने बाबा साहब की संकलित रचनाओं का विभिन्न भाषाओं में प्रकाशन महाराष्ट्र सरकार से मिले अनापत्ति-प्रमाणपत्र (एनओसी) के बाद किया था…प्रतिष्ठान चाहते हुए भी लगभग दो दर्जन किताबें नहीं प्रकाशित कर पा रहा है क्योंकि महाराष्ट्र शासन ने फाउंडेशन को दिए अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) को रद्द कर प्रकाशन का अधिकार वापस ले लिया.
लेख में स्पष्ट किया गया था कि डॉ. आंबेडकर के निधन को साठ साल पूरे होने के बाद उनके साहित्य पर किसी का भी कापीराइट नहीं बनता. मगर इस मसले को इस कदर केंद्र और राज्य के बीच उलझा दिया गया है कि आंबेडकर की रचनाएं पाठकों के सामने लाई नहीं जा सकीं.
जाहिर है सरकार यही चाहती है कि मालाएं चढ़ाने में मुब्तिला जन उनके विचारों की तरफ झांकें ही नहीं.
छवियों के कोलाहल में
दरअसल हम ऐसी तमाम मिसालों को पेश कर सकते हैं जो उजागर करती हैं कि किस तरह अपने फायदे के लिए सत्ताधारी तबके ने डॉ. आंबेडकर की छवि का न्यूनीकरण, विकृतिकरण और उनका समाहितकरण करने की कोशिश की है, मगर यह भी पूछा जाना जरूरी है कि डॉ. आंबेडकर की जो सर्वमान्य छवि (जो हमारे दिलो दिमाग में भी विराजमान है) क्या वह महान नेता, विद्वान और प्रबोधनकारी चिंतक के तौर पर उनके योगदानों के साथ मेल खाती है?
कुछ लम्हों के लिए अपनी आंखें बंद कर लीजिए और यह सोचने की कोशिश करिए कि उनकी कौन सी छवि आप के मन की आंखों के सामने नमूदार होती है जब कोई उनका नामाोल्लेख करता है!
अगर अपवादों को छोड़ दें तो आंबेडकर की छवि अधिकतर मामलों में इसी किस्म की सामने आती है: दलित नेता, समाज सुधारक, संविधान की मसविदा कमेटी के चेअरमैन, अनुसूचित जातियों के अधिकारों के लिए संघर्षरत, बौद्ध धर्म को पुनर्जीवन देने वाले आदि.
छवियों के इस संग्रह में न ऐतिहासिक महाड सत्याग्रह नजर आता है, जब हजारों की तादाद में दलितों एव उनके मित्र शक्तियों ने उस सार्वजनिक तालाब पर पानी पीया था, जिसमें जानवर पी सकते थे मगर दलितों के लिए मनाही थी (19-20 मार्च 1927) और जिसके दूसरे चरण में मनुस्मृति का दहन किया गया था, जिस कदम की तुलना डॉ. आंबेडकर ने फ्रेंच क्रांति के साथ की थी.
न उसमें शामिल होता है विवरण डॉ. आंबेडकर की अगुआई में बनी स्वतंत्र मजदूर पार्टी (इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी) का जिसके सिद्धांत काफी हद तक समाजवाद से मिलते-जुलते थे (1937). न उसमें जिक्र होता है मुंबई असेंबली पर गए ऐतिहासिक मार्च का जिसका फोकस कोंकण के इलाके में कायम ‘खोत प्रथा’( एक किस्म की जमींदारी प्रथा) पर था और जिसमें डॉ. आंबेडकर ने कम्युनिस्टों से साझा किया था.
मनमाड के रेलवे कामगारों के सामने प्रस्तुत उनके ऐतिहासिक भाषण का भी वर्णन उसमें नहीं मिलता जिसमें उन्होंने ‘ब्राहमणवाद’ और ‘पूंजीवाद’ जैसे दो दुश्मनों से लड़ने के लिए कामगारों का आह्वान किया था और न ही हिंदू कोड बिल के लिए उनके संघर्ष की बातें उसमें शामिल रहती हैं, जो इतिहास में पहला प्रयास था हिंदू महिलाओं को सीमित अधिकारों से लैस करने का. उनके झंझावाती जीवन के तमाम पहलू छवियों के इस संग्रह में अनुल्लेखित रह जाते हैं.
प्रश्न उठता है कि अधिकतर लोग उनके बारे में इतना कम क्यों जानते हैं? बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में राजनीतिक आर्थिक आजादी और सामाजिक सांस्कृतिक मुक्ति के लिए जो हलचलें उठीं, उनमें अहम भूमिका निभाने वाले आंबेडकर के बारे में यह ‘अज्ञान’ क्या दर्शाता है?
क्या इसे एक सचेत प्रक्रिया का हिस्सा समझा जा सकता है जिसके तहत उत्पीड़ितों के अग्रणियों की इसी तरह अनदेखी की जाती है या यह सब कुछ अनजाने में हुआ? निसंदेह ऐसे लोग या संगठन जो व्यापक सामाजिक बदलाव के संग्राम में में मुब्तिला हैं, जिसमें वह तमाम तंजीमें भी शुमार की जा सकती हैं जो अपने आप को उनका अनुयायी कहलाती हैं, वह भी इसकी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती क्योंकि वह या तो वर्णमानसिकता के अभिजातों की साजिशों के प्रति अनभिज्ञ रहीं या यह समूचा खेल समझने लायक सचेत नहीं रहीं.
डॉ. आंबेडकर के बारे में यह चुनिंदा स्मृलिलोप क्या इसी बात का परिघटना को पुष्ट नहीं करता है कि शासक जमातें आम तौर पर उत्पीड़ित तबकों से आने वाले नेताओं को सीमित करके प्रस्तुत करती है, जो एक विश्वव्यापी परिघटना है.
उत्पीड़ितों की सियासत का कोई भी विद्यार्थी बता सकता है कि किस तरह इसी किस्म का सिलसिला अमेरिका में भी चला जहां नागरिक अधिकार आंदोलन के महान नेता मार्टिन लूथर किंग (जिनकी शहादत को इसी अप्रैल माह में पचास साल पूरे हुए) की बेहद सैनिटाइज लोकप्रिय छवि बना दी गयी है.
एक रेडिकल मार्टिन लूथर किंग जिन्होंने वियतनाम युद्ध की मुखालफत की, पूंजीवाद को सभी बुराइयों की जड़ बताया, जो कामगारों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे और उसी लड़ाई के दौरान उनकी हत्या हुई के बजाय हमारे सामने किंग की ऐसी छवि पेश की गई है जो वहां के सत्ताधारियों को अनुकूल जान पड़ती है.
उधर एक ‘सूटेबल’ किंग और इधर एक ‘सूटेबल’ आंबेडकर ! समाहित करने का वही खेल दुनिया के ताकतवर और सबसे बड़े जनतंत्र में. दोनों इसी फार्मूले पर काम करते हैं कि शख्सियतों का मिथकीकरण करो और विचारों का हाशियाकरण करो.
एक ‘बहिष्कृत’ भारत से प्रबुद्ध और समावेशी भारत की तरफ
यह पूछा जाना समीचीन होगा कि स्वतंत्र भारत के बारे में आंबेडकर की भविष्यदृष्टि या विजन क्या थी या भारत के भविष्य के नक्शे की तरफ वह किस तरह देख रहे थे?
संविधान के निर्माण की प्रक्रिया अपने आप में जटिल थी, जिसमें तरह-तरह के विचारों, हितों, दबाव समूहों को मद्देनजर रखना था. जाहिर है कि जो दस्तावेज सामने आया वह एक तरह से विभिन्न शक्तियों एवं विचारों के आपसी टकरावों के बीच उभरे समझौता दस्तावेज के तौर पर देखा जा सकता है.
संविधान को देश को सौंपते वक्त ‘एक व्यक्ति और एक वोट वाले निजाम के साथ भारत में राजनीतिक जनतंत्र की शुरुआत’ की बात और ‘एक व्यक्ति और एक मूल्य वाले सामाजिक जनतंत्र’ की दिशा में उन्मुख होने के बीच व्याप्त अंतराल को लेकर डॉ. आंबेडकर द्वारा की गई भविष्यवाणी के माध्यम से एक तरह से इसी तथ्य को रेखांकित किया गया था कि अभी भी यह संघर्ष पूरा नहीं हुआ है.
यह सही है कि उन्हें संविधान का शिल्पकार कहा गया है और उनकी मौजूदगी या हस्तक्षेप ने, जिसमें जवाहरलाल नेहरू और अन्य सदस्यों को समर्थन अहम था, जिसके चलते संविधान में कई जनपक्षीय और वंचितों के हक में महत्वपूर्ण प्रावधान शामिल किए जा सके, मगर यह सोचना गलतफहमी होगी कि उसे बनाने में महज ‘उनकी दृष्टि/विजन’ हावी रही.
संविधान निर्माण की प्रक्रिया अपने आप में दबावों-प्रतिदबावों से गुजरी थी, जिसमें रेडिकल बदलावों में यकीन करने वालों से लेकर यथास्थितिवादी लोग सभी किस्म के विचार शामिल थे और जो दस्तावेज सामने आया, वह एक मिलाजुला दस्तावेज था.
ब्रिटिशकाल में भारत के जिस तरह के हालात थे, उसके साथ तुलना करें तो हम दावे के साथ कह सकते हैं कि उसने एक भारत के सामाजिक-राजनीतिक संरचना में नई जमीन तोड़ी. अंग्रेजों के काल में अगर प्रत्यक्ष या अपरोक्ष तौर पर सामाजिक जीवन में मनुवादी चितंन एवं व्यवस्था हावी थी तो संविधान में उसे औपचारिक तौर पर समाप्त किया गया.
लंबे समय तक चले औपनिवेशिक शासन से मुक्ति और आजादी के आंदोलन के कर्णधारों के हाथों में नवस्वाधीन मुल्क की बागडोर का आना भी अपने आप में एक बहुत रेडिकल संभावनाओं का वक्त था.
भारत जैसे पिछड़े समाज में संविधान निर्माण की कवायद की सीमाओं के बारे में डॉ. आंबेडकर वाकिफ थे:
भारतीय लोग आज इन दो किस्म की विचारधाराओं से संचालित होते दिखते हैं. उनका राजनीतिक आदर्श संविधान के प्राक्कथन से निर्धारित होता है जो स्वतंत्रता, समता और बंधुता के जीवन की हिमायत करता है, जबकि उनका सामाजिक आदर्श धर्म के साथ नत्थी है जो उन्हें उससे इनकार करता है.
भविष्य के भारत के बारे में डॉ. आंबेडकर की अपनी दृष्टि/विजन को उनके बहुत कम चर्चित दस्तावेज ‘स्टेट्स एंड माइनाॅरिटीज: व्हाॅट आर देअर राइटस एंड हाउ टू सिक्योर देम इन द कॉन्स्टिट्यूशन आॅफ फ्री इंडिया‘(राज्य और अल्पसंख्यक: उनके अधिकार क्या हैं और उन्हें आजाद भारत के संविधान में किस तरह सुरक्षित किया जा सकता है) में देखा जा सकता है.
यह दस्तावेज एक किस्म का ज्ञापन था जो आल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की तरफ से (जिसकी वह उन दिनों अगुआई कर रहे थे) संविधान सभा को सौंपा गया था. इसका फोकस अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षा प्रदान करने पर था. प्रस्तुत मोनोग्राफ अपने आप को महज ‘सुरक्षा प्रावधानों’ तक सीमित नहीं रखता बल्कि बहुसंख्यकवाद के खतरे, किसी भी बदलाव के साथ हिंदू धर्म की असंगतता/बेमेलपन की बात करता है तथा एक ऐसे आर्थिक विकास के माॅडल की बात करता है जिसे वह खुद ‘राज्य समाजवाद’ कहते हैं.
वह एक ऐसा मोनोग्राफ या विशेष निबंध है, जो कुछ दिलचस्प बहसों को छेड़ता है. मसलन, इसमें डॉ. आंबेडकर यह परिकल्पना कर रहे हैं कि ‘राज्य किसी भी धर्म को राज्य धर्म के तौर पर मान्यता नहीं देगा’ और ‘हर नागरिक के जमीर/अंतःकरण/विवेक की स्वतंत्रता की गारंटी करेगा’.
साथ ही साथ, आर्थिक शोषण से सुरक्षा के लिए, उन्होंने यह ऐलान किया कि न केवल ‘अहम उद्योगों की मिल्कियत राज्य के पास होगी और वह उनको संचालित करेगा’ बल्कि ‘गैरअहम मगर बुनियादी उद्योग भी राज्य की मिल्कियत में होंगे और राज्य द्वारा ही संचालित होंगे.’ वह इस मत के भी थे कि ‘कृषि राज्य उद्योग होगी.’
जहां ‘हस्तगत की गई जमीन को राज्य स्टैंडर्ड आकारों के खेतों में विभाजित करेगा’ और जमीन के इन हिस्सों पर ‘राज्य द्वारा बनाए गए नियमों और प्रस्तुत निर्देशों के मुताबिक सामूहिक खेती के अंदाज में फसल पैदा की जाएगी.’
वह इस प्रावधान को इन शब्दों में स्पष्ट करते हैं:
इस प्रावधान का मुख्य मकसद लोगों के आर्थिक जीवन का नियोजन करने के लिए राज्य पर जिम्मेदारी हो जिसके माध्यम से निजी उद्यमों के लिए हर मुमकिन रास्ते बंद किए बिना उत्पादकता का उच्चतम स्तर हासिल हो सके और संपत्ति के समान वितरण को भी मुमकिन बनाया जा सके. इस प्रावधान में जो योजना पेश की गई है. उसमें कृषि क्षेत्र में राज्य की मिल्कियत में सामूहिक पद्धति से खेती और उद्योगों में संशोधित किस्म का राज्य समाजवाद …….भारत के तेजी से औद्योगिकीकरण के लिए राज्य समाजवाद जरूरी है. निजी उद्यम उसे कर नहीं सकते और अगर उन्होंने ऐसा किया तो वह संपत्ति की उन्हीं गैरबराबरियों को पुनर्निमित करेंगे और यह बात भारतीयों के लिए चेतावनी समझी जा सकती है…
दिलचस्प बात है कि वह यह प्रस्ताव नहीं रखते कि राज्य समाजवाद का विचार विधायी संस्थाओं पर छोड़ा जाए बल्कि उसे संवैधानिक कानून द्वारा अमल में लाने की बात करते हैं:
इस योजना के दो पहलू हैं. एक तो यह है कि वह आर्थिक जीवन के महत्वपूर्ण दायरों में राज्य समाजवाद को प्रस्तावित करता है. इसका दूसरा पहलू है कि वह राज्य समाजवाद की स्थापना को विधायिका की इच्छा पर नहीं छोड़ता. वह संविधान के कानून के तहत राज्य समाजवाद की स्थापना करता है और इस तरह विधायिका और कार्यपालिका की किसी कार्रवाई के तहत उसे अपरिवर्तनीय बनाता है.
इसी किताब में वह ‘अछूत’ और ‘हिंदुओं’ के बीच भी साफ तौर पर फर्क करते हैं.
अब वह दिन बीत गए थे कि जब उन्हें लगा था कि हिंदू धर्म अपने आप को अंदर से सुधार देगा. येवला सम्मेलन को एक दशक से अधिक वक्त हो गया था जिसमें उन्होंने ऐलान किया था कि ‘मैं भले ही हिंदू के तौर पर पैदा हुआ मगर मैं हिंदू के तौर पर मरूंगा नहीं.’
वह ‘हिंदू आबादी के उनको (अछूतों) लेकर बैरभाव रखने के मामले में’ बिल्कुल स्पष्ट हैं और इस बात पर भी जोर देते हैं कि ‘उनके खिलाफ अत्याचार करने में या असमानता बरतने में उन्हें कोई गुरेज नहीं होता.’
स्वराज के तहत उनकी संभावित स्थिति को लेकर भी वह बहुत आशान्वित नहीं हैं:
‘आखिर अछूतों के लिए स्वराज्य के क्या मायने हो सकते हैं? उसका मतलब एक ही हो सकता है कि आज जबकि महज प्रशासन ही हिंदुओं के हाथ में है, मगर स्वराज के तहत विधायिका और कार्यपालिका भी हिंदुओं के हाथ में होगी, यह कहना जरूरी नहीं कि स्वराज के तहत अछूतों की स्थितियां बदतर होंगी. क्योंकि एक प्रतिकूल प्रशासन के अलावा, अब एक बेरुखी भरी विधायिका होगी और अनुदार कार्यपालिका भी होगी. इसका नतीजा यही होगा कि अपनी सख्ती और दुर्भावना के चलते प्रशासन जिसे विधायिका और कार्यपालिका दोनों का कोई अंकुश नहीं होगा वह अछूतों के खिलाफ गैरबराबरी की नीतियां बेधड़क जारी रखेगा. अगर दूसरे अंदाज में कहें तो स्वराज के तहत अछूतों के लिए अपमान की नियति से किसी भी किस्म का छुटकारा मुमकिन नहीं होगा, जिसे हिंदुओं और हिंदू धर्म ने उनके बारे में सुनिश्चित किया है.’
भारतीय राष्ट्रवाद जिस तरह विकसित हुआ है उसके चलते बहुसंख्यकवाद के खतरे के प्रति पूरी तरह जागरूक थे, जिसने उनके मुताबिक,
‘…एक नया सिद्धांत विकसित किया है जिसे बहुमत का दैवी अधिकार कहा जा सकता है, जिसमें बहुमत की इच्छाओं के अनुरूप अल्पसंख्यकों पर शासन करने की बात कही गई है. अल्पसंख्यकों की तरफ से सत्ता में भागीदारी का किसी भी किस्म का दावा हमेशा सांप्रदायिकता कहलाता है जबकि समूची सत्ता पर बहुसंख्या के अधिकार को राष्ट्रवाद कहा जाता है.’
और, इस तरह अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए (गौर करें कि वह अपने आप को धार्मिक अल्पसंख्यकों तक सीमित नहीं रखते है बल्कि अपनी परिभाषा में ‘अनुसूचित जातियों’ को भी शामिल करते हैं) वह एक ऐसी कार्यपालिका के रूप को प्रस्तावित करते हैं वह निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति करे:
- बहुमत को महज अपने बलबूते तब तक सरकार बनाने से रोकना जब तक वह अल्पमत को इस मामले में निर्णायक अवसर देने के लिए तैयार न हो.
- प्रशासन पर विशेष नियंत्रण कायम करने से बहुमत को रोकना और इस तरह अल्पमत पर बहुमत की निरंकुशता/निरंकुश शासन की संभावना खारिज करना.
- कार्यपालिका में अल्पमत के ऐसे प्रतिनिधियों को शामिल करने से बहुमत की पार्टी को रोकना जिन पर अल्पसंख्यकों का कोई विश्वास न हो.
- एक अच्छे और कार्य सक्षम प्रशासन के लिए एक स्थायी कार्यपालिका का गठन करना.
दरअसल, बहुसंख्यकवाद को लेकर उनकी आशंकाएं शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन (वह राजनीतिक संगठन जिसकी स्थापना उन्होंने 1942 में की थी) के राजनीतिक घोषणापत्र में भी दिखी थीं, जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा को ‘प्रतिक्रियावादी’ संगठन के तौर पर खारिज किया था:
शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन हिंदू महासभा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी किसी प्रतिक्रियावादी पार्टी के साथ किसी भी तरह का गठजोड़ नहीं करेगी.
जिस किसी ने भारतीय संविधान के निर्माण की प्रक्रिया को देखा होगा वह जान सकता है कि आखिर आंबेडकर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा को घोर ‘प्रतिकियावादी’ क्यों कहा था. इतिहास इस बात का गवाह है कि उन्होंने उसके निर्माण में तरह-तरह की खलल डाली. अपने मुखपत्रों में उन्होंने यह भी सुझाया कि एक नए संविधान के बजाय नवस्वाधीन मुल्क को मनुस्मृति को ही अपनाना चाहिए. आज भले ही यह सुझाव हास्यास्पद लगे, मगर हकीकत यही है कि उसे उसके हिमायतियों ने बेहद गंभीरता से उठाया था:
भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खराब (बात) यह है कि उसमें भारतीय जैसा कुछ भी नहीं है …इसमें प्राचीन भारतीय संवैधानिक कानूनों, संस्थाओं, नामकरणों और कथनशैली/पदावली का अंश भी नहीं है …. न प्राचीन भारत के अनोखी संवैधानिक विकासक्रम का उल्लेख है. स्पार्टा के लिसर्गस या पर्शिया के सोलोन से बहुत पहले मनु के कानून लिखे गए थे. आज तक मनुस्मृति में प्रस्तुत कानून दुनिया में प्रशंसा का विषय बने हुए है और (भारत के हिंदुओं में) स्वतःस्फूर्त अनुपालन और पुष्टि का तरीका बने हैं. मगर हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कुछ भी अर्थ नहीं है. (Excerpts of Editorial on Constitution, Organiser’ November 30, 1949, whose final draft had just been presented to the Constituent Assembly by Ambedkar.)
स्त्रियों को अधिकार दिलाने का संघर्ष
‘राज्य और अल्पसंख्यक’ के बहाने प्रस्तावित संविधान को लेकर अपने प्रारूप स्पष्ट करने का डॉ. आंबेडकर के इस हस्तक्षेप की तरह ( जिस पर अधिक चर्चा नहीं हो सकी) उन्होंने इस दौरान किए एक दूसरे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप पर भी अधिक चर्चा नहीं हो सकी है.
वह था ‘हिंदू कोड बिल’ के इर्दगिर्द चला संघर्ष, जो एक तरह से स्वाधीन भारत की पहली कोशिश थी हिंदू पर्सनल लाॅ (हिंदू निजी कानून) को सुधारने की तथा हिंदू स्त्रियों को अधिक अधिकार दिलाने की. इसके जरिए उनकी कोशिश थी कि एकपत्नीप्रथा (मोनोगामी) पर मुहर लगायी जाए, स्त्रियों के अलग होने के अधिकार तथा संपत्ति के उनके अधिकार को सुनिश्चित किया जाए.
हम यह भी जानते हैं कि उनकी यह कोशिश अंजाम तक नहीं पहुंच पायी.
हिंदुत्व दक्षिणपंथ और कांग्रेस के अंदर मौजूद रूढ़िवादी तबके ने इस मसले में गठजोड़ कायम किया, जिस मुहिम में केसरिया बाना पहने साधु और स्वामी भी जुड़े थे. दरअसल, प्रतिक्रियावादी और यथास्थितिवादी ताकतों के इस गठजोड़ ने अपने आप को महज बयान जारी करने तक सीमित नहीं रखा. उन्होंने सड़कों पर उतर कर भी बिल का विरोध किया और इस बिल के खिलाफ अखिल भारतीय स्तर पर लामबंदी की. ऐसे अवसर भी आए जब इन लोगों ने डॉ. आंबेडकर के अपने घर पर भी धावा बोलने की कोशिश की.
आंबेडकर द्वारा नेहरू के कैबिनेट से इस्तीफा देने के पीछे प्रमुख कारण में यही शामिल था, जब उन्होंने महसूस किया कि तमाम कोशिशों के बावजूद इस मामले में कोई कारगर कदम वह नहीं उठा पा रहे हैं. मंत्राीपद से इस्तीफा देते वक्त जो पत्र उन्होंने प्रस्तुत किया उसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि उनके लिए इस विधेयक की क्या अहमियत थी:
वर्ग और वर्ग के बीच, लिंग और लिंग के गैरबराबरी को बनाए रखना जो हिंदू समाज की आत्मा है और आर्थिक समस्याओं को लेकर एक के बाद एक विधेयक पारित करते जाना एक तरह से संविधान का मखौल उड़ाना है और एक किस्म से गोबर के ढेर पर महल खड़ा करना है. हिंदू कोड की मेरे लिए यह अहमियत रही है.
दरअसल महात्मा फुले की तरह (जिन्हें उन्होंने ‘महान शूद्र’ के तौर पर संबोधित किया और बुद्व तथा कबीर के साथ अपना शिक्षक घोषित किया) आंबेडकर की अगुआई में चले आंदोलन में महिला मुक्ति को लेकर सरोकार हमेशा रहा. यह अलग बात है कि हिंदू महिलाओं को हक दिलाने में डॉ. आंबेडकर के योगदान को स्वीकार करने में देश का नारी आंदोलन लंबे समय तक असमंजस में रहा.
जनतंत्र-सरकार के रूप से कुछ अधिक
आखिर उन्होंने जम्हूरियत या जनतंत्र के विचार की कल्पना किस तरह की? इस संदर्भ में ‘वायस आफ अमेरिका’ रेडियो पर उनका व्याख्यान (20 मई 1956) रोशनी डालता है. अपनी मौत के कुछ माह पहले दिया गया यह व्याख्यान इस अवधारणा के इर्द गिर्द उनके विचारों का अच्छा सार संकलन प्रस्तुत करता है.
सबसे पहला बिंदु जो वह रखते हैं वह यह है कि ‘जनतंत्र गणतंत्र से तथा संसदीय सरकार से भी काफी अलग होता है.’ उनके मुताबिक:
जनतंत्र की जड़ें सरकार के रूप में, फिर भले वह संसदीय हो या अन्य तरह की हो, निहित नहीं होतीं. जनतंत्र सरकार के रूप से अधिक होता है. वह मुख्यतः मिलजुल कर रहने की एक प्रणाली होती है. जनतंत्र की जड़ों को सामाजिक संबंधों में, लोगों के बीच मिलेजुले जीवन के संदर्भ में, जिससे समाज निर्मित होता है, तलाशा जाना चाहिए.
बाद में वह ‘समाज’ शब्द का अर्थ स्पष्ट करने लगते हैं. वह कहते हैं:
जब हम समाज की बात करते हैं, हम उस उसके स्वरूप के तौर पर एक ही समझते हैं. इस एकता के साथ जो गुण नत्थी होते हैं उसमें शामिल होते हैं एक साझे उद्देश्य का समुदाय और कल्याण की आकांक्षा, सार्वजनिक हितों की प्रति प्रतिबद्धता और सहानुभूति और सहयोग की पारस्पारिकता.
भारतीय समाज की पड़ताल करते हुए वह प्रश्न उठाते हैं कि क्या ‘ऐसे आदर्श भारतीय समाज में मिलते हैं?’ वह जोड़ते हैं कि भारतीय समाज और कुछ नहीं बल्कि ‘अनंत जातियों का समूह है जो अपने अस्तित्व में असमावेशी हैं और उनके पास बांटने करने के लिए कोई भी साझा अनुभव नहीं होता और सहानुभूति का भी कोई बंधन नहीं होता.’
और वह निष्कर्ष निकालते हैं…जाति व्यवस्था का अस्तित्व समाज के इन आदर्शों की मौजूदगी से साफ इनकार है और इस तरह जनतंत्र का भी निषेध है.
वह आगे बताते हैं कि ‘भारतीय समाज जाति व्यवस्था में इस कदर अन्तर्गुंथित है कि हर चीज जाति के आधार पर ही संगठित रहती है.’ वह शुद्धता और प्रदूषण जैसी दो संकल्पनाओं के इर्दगिर्द केंद्रित लोगों के रोजमर्रा की जिंदगी की मिसालें पेश करते हैं और इस बात की भी चर्चा करते हैं कि किस तरह जाति सामाजिक-राजनीतिक दायरे में भी व्याप्त है और व्यंगपूर्वक नतीजा निकालते हैं, ‘राजनीति, उद्योग, व्यापार और शिक्षा में वंचितों और बहिष्कृतों के लिए कोई जगह नहीं है.’
इसके बाद वह जाति व्यवस्था की अन्य विशिष्टताओं की चर्चा करते हैं ‘जिनके नकारात्मक परिणाम होते हैं और जो जनतंत्र के खिलाफ पड़ती हैं. वह विशेष तौर पर ‘सोपानक्रम पर आधारित गैरबराबरी’ (ग्रेडेड इनइक्विलिटी) के लक्षण की बात करते हैं जिसमें अंतगर्त ‘जातियां अपनी हैसियत/प्रतिष्ठा में समान नहीं होती’ बल्कि ‘एक दूसरे के उपर खड़ी रहती हैं’ और ‘नफरत का आरोही पैमाना और अवमानना/तिरस्कार के अवरोही पैमाने’ का निर्माण करती हैं, जिसके बेहद नुकसानदायक/घातक परिणाम होते हैं क्योंकि वह ‘स्वेच्छा पर आधारित और उपयोगी किस्म के सहयोग’ को नष्ट कर देता है.
जाति और वर्ग के बीच के फर्क पर बात करते हुए वह जाति व्यवस्था के दूसरे घातक परिणाम की चर्चा करते हैं जो होता है ‘पूर्ण अलगाव’ जो वर्गीय प्रणाली में नहीं होता. वह इस तथ्य में प्रतिबिम्बित होता है कि ‘जातियों के बीच उत्तेजना/उद्दीपन/प्रेरणा और प्रतिक्रिया का मामला एकतरफा होता है. ऊंची जातियां एक स्वीकृत तरीके से आचरण करती हैं और निम्न जाति को भी स्थापित तरीके से प्रतिक्रिया देनी होती है.’
ऐसे प्रभाव ‘कुछ लोगों को स्वामी/मालिक/उस्ताद के तौर पर गढ़ते हैं और बाकियों को चाकर/दास/गुलाम बनाते हैं …. यह समाज के विभाजन में परिणत होता है, जिसमें एक तरफ विशेषाधिकारप्राप्त लोग होते हैं और दूसरी तरफ प्रजाजन होते हैं. ऐसा विभाजन सामाजिक अन्तराभिसरण को रोकता है.’
जाति व्यवस्था की तीसरी खासियत यही है कि वह ‘जनतंत्र की जड़ों पर चोट करती है,’ और ‘एक जाति एक पेशे से जुड़ी होती है’. आंबेडकर कहते हैं कि ‘क्षमताओं और गतिविधियों की असीमित विविधता मनुष्य में समाहित रहती है. जनतंत्र के लिए उन्मुख समाज को व्यक्ति की ऐसी सभी क्षमताओं का इस्तेमाल करने के लिए रास्ता खोलना चाहिए.’
हालांकि एक पेशा विशेष से मनुष्य का इस कदर बंध जाना वह स्तरीकरण में परिणत होता है जो ‘व्यक्ति के विकास को रोकता है और इस तरह सचेत ढंग से किसी का अवरूद्ध किया जाना एक तरह से जनतंत्र को सचेत तरीके से अवरूद्ध करना है.’
अपने व्याख्यान के अंतिम हिस्से में आंबेडकर जाति प्रथा की समाप्ति के रास्ते की बाधाओं की चर्चा करते है. वह कहते हैं कि पहली बाधा है सोपानक्रम पर आधारित गैरबराबरी जो जाति व्यवस्था की आत्मा है.’ दूसरी बाधा है ‘अपनी साझी भलाई किसमें है यह न समझ पाने के चलते भारतीय समाज में कार्रवाई की एकता नहीं दिखती…’
हर तरफ ‘भारतीयों का मन छद्म मूल्यांकनों और छद्म परिप्रेक्ष्यों से भटका रहता है और गुमराह होता रहता है.’ वह अपने व्याख्यान का अंत इस बात पर जोर देकर करते हैं कि महज शिक्षा से जाति व्यवस्था समाप्त नहीं होगी, ‘अगर आप भारतीय समाज के उस हिस्से का शिक्षा देते हैं जो जाति व्यवस्था बनाए रखना चाहता है क्योंकि वह उनके लिए लाभप्रद है, तो जाति व्यवस्था मजबूत होगी. दूसरी तरफ, अगर आप भारतीय समाज के निम्न तबके को शिक्षा देते हैं जो जाति व्यवस्था को ध्वस्त करना चाहता है तो जाति व्यवस्था ध्वस्त होगी.’
और इस वजह से वह निष्कर्ष निकालते हैं: ‘ऐसे तबकों को शिक्षा प्रदान करना जो जाति व्यवस्था बनाए रखना चाहते हैं इसका मतलब होगा भारत में जनतंत्र के भविष्य को संवारना नहीं बल्कि उसे अधिक ख़तरे में डालना.’
जनतंत्र को लेकर रूढ़िवादी धारणाओं के बरअक्स (जिसके मुताबिक वह एक उपकरण है खराब लोगों को सत्ता हथियाने से रोकना) आंबेडकर जनतंत्र को सामाजिक रूपांतरण और मानवीय प्रगति से संबंधित मानते थे.
उन्होंने जनतंत्र को इस तरह परिभाषित किया: ‘वह शासन/हुकूमत का ऐसा रूप और तरीका है जिसके जरिए बिना रक्तपात के लोगों के आर्थिक और सामाजिक जीवन में इन्कलाबी बदलाव लाए जा सकते हैं.’
इसके लिए जरूरी शर्तें इस प्रकार हैं:
- समाज में अतिस्पष्ट गैरबराबरियां नहीं हों अर्थात एक वर्ग के पास विशेषाधिकार न हो
- प्रतिपक्ष की मौजूदगी
- कानून और प्रशासन में समानता
- संवैधानिक नैतिकता का पालन
- बहुमत की निरंकुशता से इनकार
- समाज की नैतिक व्यवस्था
- सार्वजनिक विवेक/जमीर
25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अपने भाषण के दौरान उन्होंने तीन चेतावनियां दीं और यह माना कि हमारी जनतांत्रिक संस्थाओं को अंदर से कमजोर न किया जा सके इसलिए इस पर ध्यान देना अहम होगा.
- संवैधानिक पद्धतियों का पालन
- अपनी आजादियों को किसी महान शख्स के चरणों में गिरवी न रखना
- राजनीतिक जनतंत्र को सामाजिक जनतंत्र बनाना
आंबेडकर की बात करें तो उनके लिए, जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को अलग नहीं किया जा सकता. इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि भारत एक बहुधर्मीय/बहुआस्थाओं वाला समाज है जहां एक साझा तत्व धर्मनिरपेक्षता हो सकता है, वह जोर देते हैं:
पश्चिम की उदार जनतांत्रिक परंपरा से धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा व्युत्पन्न की गई है. कोई भी ऐसी संस्था जो पूर्णतः राज्य के फंड से चलती है, उसे धार्मिक शिक्षा के किसी भी मकसद के लिए इस्तेमाल किया जाएगा, भले ही वह धार्मिक शिक्षा राज्य या अन्य किसी निकाय द्वारा दी जा रही हो.
संसद में एक बहस के दौरान उन्होंने कहा:
इसके (धर्मनिरपेक्ष राज्य) होने का अर्थ यह नहीं होता कि हम लोगों की धार्मिक भावनाओं पर गौर नहीं करेंगे. धर्मनिरपेक्ष राज्य का मतलब महज इतना ही है कि संसद शेष जनता पर कोई विशिष्ट धर्म लादने में सक्षम नहीं होगी. यही एक मात्रा सीमा है जिसे संविधान स्वीकारता है.
उसी वक्त, वह इस बात पर विशेष जोर देते हैं कि राज्य का कर्तव्य यह सुनिश्चित करना है कि अल्पमत बहुमत की निरंकुशता का शिकार न बने:
राज्य को चाहिए कि वह अपने नागरिकों को विवेक की आजादी और अपने धर्म पर आचरण की पूरी आजादी की गारंटी करे, जिसमें वह उस खुले आम उसे स्वीकार कर सके, उसका प्रचार करे और सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता की सीमाओं के अंतर्गत धर्मांतरण भी कर/करा सकें.
अपने एक गहरे अंतरदृष्टि वाले लेख में प्रोफेसर ज्यां द्रेज लिखते हैं कि ‘जनतंत्र के प्रति आंबेडकर का उत्साह तार्किकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से गहरे से जुड़ा था.’ ज्यां द्रेज इस अंतर्संबंध का विवरण देते हैं.
जनतांत्रिक शासन के लिए तार्किकता जरूरी है क्योंकि सार्वजनिक बहस जो जनतांत्रिक व्यवहार का जरूरी पहलू है, सहजबोध के प्रति साझा जुड़ाव, तार्किक दलीलों और आलोचनात्मक पड़ताल/ तहकीकात के बिना नामुमकिन है. और वैज्ञानिक चिंतन अंतर्भूत रूप में अधिनायकविरोधी होती है, क्योंकि व्यक्ति फिर प्राधिकार में विश्वास नहीं करता, मगर दलील की सुसंगता/सम्बद्धता और सबूतों की गुणवत्ता पर जोर देता है.
द्रेज का यह कहना है कि आंबेडकर इसी विश्वास के कायल थे. यह डॉ. आंबेडकर के आखिरी व्याख्यान से भी स्पष्ट है. ‘बुद्ध या कार्ल मार्क्स’ शीर्षक से प्रकाशित उपरोक्त व्याख्यान काठमांडू में दिया था जिसमें वह बुद्ध की शिक्षाओं का इस तरह समाहार करते हैं:
हरेक को सीखने का अधिकार है. अन्न जिस तरह मनुष्य के जीने के लिए जरूरी है उसी तरह सीखना भी जरूरी है …कोई भी चीज अचूक नहीं होती. कोई भी बात हमेशा के लिए बंधनकारी नहीं होती. हर चीज अनुसंधान और जांच पड़ताल के दायरे में आती है.
ज्यां द्रेज कहते हैं कि जनतंत्र और तार्किकता/वैज्ञानिक नजरिये के बीच के इस रिश्ते को सामने लाना जरूरी है क्योंकि ‘भारतीय जनतंत्र को हाल के समयों में जिन खतरों का सामना करना पड़ रहा है उसमें अक्सर तार्किकता और वैज्ञानिक चिन्तन पर संगठित हमला दिखता है.’
भारत के पूर्वराष्टपति केआर नारायणन ने डॉ. आंबेडकर के योगदान की चर्चा करते हुए लिखा था कि उन्होंने तमाम ऐसे विचार पेश किए जिन्होंने भारतीय चितंन को समृद्ध बनाया. अपने आप को उनका अनुयायी कहलाने वाले लोगों पर क्या यह जिम्मा नहीं आता कि वह विचारों की इस मशाल को आगे ले जाएं.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं.)