नोटबंदी से पहले तक तो जनता ये कल्पना भी नहीं करती थी कि कभी उसे बैंकों में जमा अपना ही धन पाने में इतनी समस्याएं पेश आएंगी और सरकार के झूठे आश्वासन जले पर नमक छिड़कते नज़र आएंगे.
डेढ़ साल पहले आठ नवंबर, 2016 को नोटबंदी के वक्त दिखाया गया कालेधन, नकली नोटों और आतंकवाद के खात्मे का सपना तो वैसे भी पूरा होने के आसार नहीं थे, सो वह नहीं पूरा हुआ तो उसकी बात भी क्या की जाए.
लेकिन इस स्वप्नभंग की ओर से देशवासियों का ध्यान हटाने के लिए कुछ ही दिनों बाद सरकार ने कैशलेस इकोनॉमी या कि कैशलेस इंडिया का जो सब्जबाग दिखाया था और जिसको लेकर बढ़-चढ़कर किए जा रहे उसके दावे अभी भी धीमे नहीं पड़ रहे.
उसका यूं मंजिल की ओर बढ़ना किसी खौफ से रूबरू होने से कम नहीं है कि देश के अनेक बड़े राज्यों के एटीएम इस कदर कैशलेस हो गए हैं कि उन्हें लेकर हाहाकार मच गया है और नोटबंदी के दूध के जले लोगों में जितने मुंह उतनी बातें हो गई हैं.
दक्षिण के राज्यों में कई स्वनामधन्य जहां यह कहने लगे हैं कि केंद्र द्वारा राज्यों को धनावंटन घटा देने के कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई है तो उत्तर के राज्यों में यह कि सहालग यानी शादी-विवाह के मौसम में किसानों द्वारा कृषि उपज की अप्रत्याशित बिक्री से बढ़ी नकदी की अप्रत्याशित मांग ने कोढ़ में खाज कर डाला है.
जैसे कि हम शादी के मौसम से पहली बार बावस्ता हों या किसान अपने बेटे-बेटियों की शादियों के लिए पहली बार बड़े परिमाण में अनाज बेचने पर उतरे हों!
लेकिन आपका इन स्वनामधन्यों के अज्ञान को कोसने का मन हो रहा हो तो पलभर रुककर समझ लीजिए कि यह उनके अज्ञान से ज्यादा उस अविश्वास का प्रतिफल है, जो सरकार के एक के बाद एक अजीबोगरीब कदमों ने बैंकिग व्यवस्था को लेकर उनके दिल व दिमाग में भर दिये हैं.
वे इसलिए भी डरे हुए हैं कि बैंकों के बढ़ते एनपीए ने न सिर्फ बैंकिंग प्रणाली को हिला कर रख दिया बल्कि बैंकों की साख पर भी सवाल खड़ा कर रखा है और अटकलें हैं कि उन्हें उबारने के लिए ग्राहकों के खातों में जमा रकम का इस्तेमाल किया जा रहा है.
आखिरकार आजादी के बाद के दौर में नोटबंदी से पहले तक तो ये ग्राहक कल्पना भी नहीं करते थे कि कभी उन्हें बैंकों में जमा अपना ही धन पाने में इतनी समस्याएं पेश आएंगी और आएंगी तो सरकार के झूठे आश्वासन जले पर नमक छिड़कते नजर आयेंगे.
इस बार भी वे देख ही रहे हैं कि सरकार से न अचानक (पढ़िये: सरकार के एक बार फिर सोती पकड़ी जाने के बाद) पहेली की तरह आ खड़े हुए इस संकट को सुलझाते बन रहा है और न सफाई देते. वह जो भी सफाई दे रही है, वही नोटबंदी की उसकी बहुप्रचारित ‘उपलब्धियों’ को दाग-दाग करने, मुंह चिढ़ाने और दल-दल में फंसाने लग जा रही है.
गौर कीजिए, वित्तमंत्री अरुण जेटली कह रहे हैं कि बैंकों में सामान्य से ज्यादा नकदी चलन में है और उसकी जो कमी उत्पन्न हुई है, उसका कारण पिछले तीन महीने में मांग में आया असामान्य उछाल है और इस ‘अस्थायी समस्या’ से जल्द ही निपट लिया जाएगा. जैसे कि इस ‘असामान्य उछाल’ का समय रहते अंदाजा लगाना और लोगों को दुश्वारियों से बचाना उनका दायित्व न हो.
उनकी मानें तो अब पांच सौ के नोटों की पांच गुनी छपाई के आदेश दे दिए गए हैं, रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया व दूसरे बैंकों से संपर्क कर नकदी की व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही है और हालात से निपटने के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति गठित की गई है, जो एक राज्य से दूसरे राज्य को नकदी के स्थानांतरण पर निगाह रखेगी.
जाहिर है कि वित्तमंत्री का सारा जोर यह बताने पर है कि आग लगी तो कितने कुंओं की खुदाई शुरू की गई. कई जरूरी बातें वे जानबूझकर गोल कर दे रहे हैं.
पहली यह कि पिछले साल मई में दो हजार के नोट छापना बंदकर 500 और 200 रुपये के नोट लाये गये, जिससे एटीएम में डाले गये नोटों की वैल्यू कम हो गई. जानकारों के अनुसार किसी एटीएम को दो हजार के नोटों से भरा जाए तो उसमें 60 लाख रुपये तक आ जाते हैं, जबकि 500 और 100 के नोटों से सिर्फ 15 से 20 लाख रुपये आते हैं. ऐसे में नकदी की यह किल्लत आज नहीं तो कल होनी ही थी.
खासकर, जब 200 के नोटों के लिए अभी महज 30 फीसदी एटीएम ही कैलीब्रेट हो सके हैं और रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया की एक आकस्मिक जांच रिपोर्ट कहती है कि औसतन 30 फीसदी एटीएम हर समय खराब रहते हैं.
दूसरी ओर कुछ बैंक अधिकारियों की मानें तो लोगों को कैशलेस लेन-देन यानी डिजिटल भुगतान को प्रेरित (पढ़िये: बाध्य) करने के लिए बैंकों को नकद आपूर्ति जान-बूझ कर घटा दी है.
वित्तमंत्री करें भी क्या, भारतीय स्टेट बैंक के एक अधिकारी की तरह यह स्वीकार नहीं कर सकते कि बैंकों को एनपीए से उबारने के लिए अपने खातों की रकम के इस्तेमाल की अफवाह से डरे लोग नोटबंदी के वक्त बैंकों में जमा अपने पैसे वापस निकाल ले रहे हैं, भले ही उन्हें इसकी आवश्यकता न हो.
बैंकिग प्रणाली में विश्वास न्यूनतम हो चला है, जिसके कारण बैंकों में अरसे से नकदी वापस नहीं आ रही और वे एटीएम को फिर से भरने में असमर्थ हैं. वित्तमंत्री इसे स्वीकार लें तो अंततः इस सबका जिम्मा उन पर, उनकी सरकार और प्रधानमंत्री पर ही आयेगा.
वे मान लें कि 2000 के ज्यादातर गुलाबी नोट आगामी चुनावों के लिए नकदी की जमाखोरी या उस कालेधन की भेंट हो गए हैं जिसके उन्मूलन के नाम पर उन्हें एक हजार के पुराने नोटों के स्थान पर लाया गया था, तो भी लोग पूछेंगे ही कि हुजूर, कालेधन की जमाखोरी को एक हजार के नोटों के मुकाबले दो गुना आसान बनाने वाले ये नोट आपने जारी ही क्यों किए थे?
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान की तरह 2,000 के नोट दबाकर नकदी की कमी पैदा करने के षड्यंत्र की बात तो वे मुंह पर भी नहीं ला सकते. इसलिए कि उससे कई जटिल प्रतिप्रश्न पैदा हो सकते हैं.
अभी जब वे इतना ही कह रहे हैं कि सामान्य से ज्यादा नकदी प्रचलन में है और रिजर्व बैंक की रिपोर्ट बता रही है कि इस प्रचलन का स्तर नोटबंदी से पहले वाले स्तर यानी करीब 17 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है, तो भी लोग पूछ ही रहे हैं कि अगर देश को नोटबंदी के बाद नोटबंदी के पहले से ज्यादा नकदी की जरूरत पड़ रही है तो सरकार के अर्थव्यवस्था को कैशलेस बनाने के उन प्रयत्नों का क्या हुआ, भारत को विकसित देशों की पांत में लाने के लिए जिसके गुन गाते न प्रधानमंत्री थकते हैं और न वित्तमंत्री?
वित्तमंत्री का यह कहना सही हो सकता है कि यह संकट अस्थायी है और जल्दी ही दूर कर लिया जायेगा, लेकिन ऐसा हो भी जाये तो उससे पैदा हुए डर और आशंकाएं अरसे तक पीछा नहीं छोड़ने वाली.
बढ़ते घपलों-घोटालों और एनपीए से त्रस्त देश की बैंकिंग प्रणाली इन दिनों ऐसे हाल में है कि अस्थायी संकटों की पुनरावृत्तियों से भी वह अपने ग्राहकों के विश्वास से स्थायी तौर पर वंचित हो सकती है. ऐसा हुआ तो उसका अंजाम सोचकर ही सिहरन होती है.
वित्तमंत्री को भी होती है तो उन्हें खुराफात की जड़ पर सीधे प्रहार करना चाहिए न कि धान कूटने और कांख ढके रखने के फेर में ‘एक झूठ को सच बनाने के लिए सौ झूठ’ की राह अपनाना.
अभी जिस संकट ने उनके लिए नोटबंदी की ‘उपलब्धियों’ का बचाव मुश्किल कर दिया है, इस राह को अपनाने से उसका समाधान भी मुश्किल हो जायेगा. तब वे कैसे कहेंगे कि नहीं यह नोटबंदी का आतंक नहीं है या उसने देश की अर्थव्यवस्था को मार नहीं दिया है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)