पुण्यतिथि विशेष: कुमायूं के किसी गांव का किसान जब उनके पास यह गुहार लेकर आता कि बाघ उनके घरेलू जानवर को खींच ले गया है तो वह अपना बटुआ मंगाते और किसान को हुए नुकसान का पूरा मुआवज़ा दे देते.
अप्रैल 1973 को भारत सरकार द्वारा कॉर्बेट नेशनल पार्क में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ के देश में आरंभ होने की औपचारिक और ऐतिहासिक घोषणा की गई. जिम कॉर्बेट को गुज़रे ज़्यादा वक्त न हुआ था.
तीन पीढ़ियों पहले जिम के पूर्वज आयरलैंड के हरित चारागाहों को छोड़कर हिंदुस्तान आ बसे थे. वह सभी इस देश की मिट्टी में कब्रनशीं हुए. जिम ने अपने जीवन की गोधूलि-बेला के लिए केन्या के जंगल चुने.
19 अप्रैल 1955 को केन्या की नएरी नदी के पास बने सेंट पीटर चर्च में लॉर्ड बेडेन-पॉवेल की कब्र के पास उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया.
यह जगह उस ‘छोटी हल्द्वानी’ से बहुत दूर थी जिसे हल्दू (कदंब) के पेड़ों की बहुतायत की वजह से ‘हल्द्वानी’ कहा जाता था और जिसकी सुगंधि ने जिम कॉर्बेट को कभी तन्हा न छोड़ा था.
मार्टिन बूथ ने उनकी आत्मकथा ‘कारपेट साहिब: अ लाइफ आॅफ जिम कॉर्बेट’ में लिखा कि जिम केन्या जाकर भी ‘अपना देश’ नहीं भुला सके. वह जिस तरह भी जुड़े रह सकते थे, इससे जुड़े रहना चाहते थे.
उन्होंने वर्मा परिवार को अपने पुरखों का घर तो बेचा, लेकिन नैनीताल बैंक में अपना खाता न बंद किया. जाते-जाते वह बैंक को लिख कर दे गए कि राम सिंह को उस खाते से हर महीने 10 रुपये निकाल कर दे दिए जाएं.
जिम के अपनी आख़िरी सांस लेने तक राम सिंह को यह इमदाद मिलती रही. गढ़वाल के राम सिंह ने उनकी ज़िंदगी भर सेवा की थी.
कालाढूंगी का एक प्लाट भी उन्होंने उसके नाम कर दिया जिसे जिम के जाने के बाद राम सिंह ने बेच दिया और गढ़वाल के अपने गांव वापस लौट गया.
राम सिंह जिम और मैगी को लखनऊ तक छोड़ने आया. बंबई से केन्या के लिए एसएस आर्नोडा के जहाज़ में अपना सफ़र शुरू करने से पहले जिम ने लखनऊ के रेलवे स्टेशन पर राम सिंह को गले लगाया. रेल चल पड़ी. मार्टिन बूथ ने लिखा, ‘राम सिंह रो पड़ा’. क्या जिम कॉर्बेट भी ख़ुद न रोए होंगे!
बहुत मुमकिन है कि यदि कुमायूं के लोग ये जान जाते कि उनके ‘कारपेट साहिब’ ठीक-ठीक कब और कितने बजे अपना घर छोड़कर हमेशा के लिए दूर जाकर बसने वाले हैं, तो उनकी विदाई बहुत ही आसान न रही होती! जिम की बहन ने अपनी एक दोस्त को उस मंज़र के बारे में इस तरह से लिखा:
‘जिस सुबह हम हल्द्वानी सदा के लिए छोड़ने वाले थे, हमने आख़िरी बार घर के पास बहते हुए पानी को देखा. सुबह के पौ फटे तो उस पानी की छटा ही अलग थी. हम चलने को हुए. घर के सब नौकर-चाकर भारी आंखों से बाहर आ कर खड़े हो गए. वो सुबकने लगे. हम पहाड़ी ढलान से नीचे उतरे. आख़िरी बार उस घर को पलट कर निहारा, जिसमें अब हम दोबारा कभी लौटने वाले न थे!
जिम ने अपने जाने की आसपास किसी को भी इत्तिला न होने दी थी. बाघों और परिंदों को भी क्या जिम के जाने की कोई आहट न मिली होगी! तराई के उन बाघों को जो जिम के पैरों की पद-चापों को कितने निकट से पहचानते थे!
जिम कॉर्बेट बाघों को ‘बड़े दिल वाला सज्जन’ कहते थे. वो कहते थे, ‘मैं उस दिन की कल्पना करता हूं, जब भारत के जंगलों में ये शानदार जानवर नहीं रहेगा और सच में वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन अधिक दूर नहीं है, यदि इस देश के लोग उसके साथ न आ खड़े हुए और उस दिन ये देश कितना गरीब हो जाएगा!’
ये जंगल छोड़कर जाने से पहले ‘बड़े दिल वाले सज्जनों’ के भविष्य पर ऐसी टिप्पणी थी जो दो दशक बाद तो सच साबित होने वाली थी, लेकिन उस वक़्त किसी ने उसकी कल्पना भी नहीं की थी.
उन अंग्रेज़ प्रशासकों ने भी नहीं जो जिम के साथ शौकिया शिकार खेलने की इच्छा लिए कुमायूं आते थे. ब्रिटिश शासन के दिन गिने-चुने बचे थे जब लॉर्ड बेबेल 1946 की क्रिसमस मनाने नैनीताल आए.
उनकी इच्छा थी कि जिम बाघ के शिकार में उनके साथ चलें. अब तक जिम बाघों और परिंदों के शिकार से घृणा करने लगे थे. बुलाए जाने पर वह केवल नरभक्षी बाघ का ही शिकार करने को तैयार होते थे.
अब वह उन पर अपने अनुभवों को सहेजकर या तो किताबें लिखने लगे थे या फिर एक और ब्रिटिश वन-अधिकारी एफडब्लू चैम्पियन से प्रभावित होकर उनकी फोटोग्राफी करने लगे थे.
राइफल की जगह उनके कैमरे ने ले ली थी या उनके बटुए ने. मार्टिन बूथ बताते हैं कि जब भी कालाढूंगी या कुमायूं के किसी गांव का किसान उनके पास यह गुहार लेकर आता कि बाघ उनके घरेलू जानवर को खींच ले गया है; वह अपने घर में अंदर ज़ोर से आवाज़ लगाकर अपनी ‘रिग्वी’ या ‘.275 वेस्टले रिचर्ड्स’ राइफ़ल मंगाने की जगह अपना बटुआ मंगाते. किसान को उसके जानवर जाने से हुए नुकसान का पूरा मुआवज़ा दे देते.
लेकिन देश के गवर्नर जनरल को इस तरह से मना करना जिम को बड़ा मुश्किल लगा. वो साथ तो गए लेकिन बेमन से. सौभाग्य से बेबेल को बाघ नहीं मिला. जिम खुश थे लेकिन बेबेल ने अपने संस्मरण में लिखा;
‘जंगलों और बाघों पर जिम कॉर्बेट से बात करना एक शानदार अनुभव था. मेरी इच्छा हुई काश! मैं भी जंगलों को इतना जानता. लेकिन वह इस देश में बाघों के भविष्य को लेकर बड़े चिंतित बल्कि कहूं कि निराशावादी दिखे. उनके हिसाब से देश में क़रीब तीन से चार हज़ार बाघ ही बचे थे और वो भी अगले दस से पंद्रह सालों में ख़त्म हो जाने वाले थे. मैंने उनसे इसका कारण पूछा. उन्होंने बताया कि भारतीय राजनीतिज्ञों को इसमें दिलचस्पी नहीं है. ऊपर से बाघ वोट भी नहीं देते. जबकि वो जो बंदूकों के लाइसेंस लेंगे, वोट देने वाले लोग होंगे.’
(मार्टिन बूथ, पृष्ठ सं. 231, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस 2011)
जिम कॉर्बेट के देश छोड़कर चले जाने के पीछे कई कारण थे. कुछ अफ़वाहें थीं जो उनके ‘निजी अविवाहित जीवन’ को मध्य में रखकर किस्सागोई करती थीं. कुछ वास्तविक तथ्य और ब्रिटिश राज से आज़ादी के बाद इस देश में पैदा होने वाले हालातों पर कॉर्बेट की अपनी चिंताएं.
वह अंततः एक अंग्रेज़ ही थे. वह आज़ादी के बाद के भारत में एक अंग्रेज़ के तौर पर अपने प्रति होने वाली सामाजिक प्रतिक्रियाओं को लेकर संशय में रहने लगे थे.
हालांकि वहां के सभी लोग छोटी हल्द्वानी के अपने ‘कारपेट साहिब’ को गोरा साधु कहते थे जिसने अपने प्राणों को दांव पर लगाकर न जाने कितने नरभक्षी बाघों से उन्हें बचाया था. कई दोस्तों ने उन्हें यकीन दिलाया कि उनके शक निर्मूल थे. मैगी भी यहां रहना चाहती थी. लेकिन जिम भारी मन से जाने का फैसला कर चुके थे.
जिम के संशयग्रस्त मन को जंगल के प्रति भारतीय लोगों के बदलते नज़रिये से और बल मिला.
मार्टिन बूथ ने लिखा कि तराई के जिन जंगलों में जिम ने बाघों को निरापद विचरते और चीतलों की मुक्त चंचलता को देखा. वहां अब उन्हें काटकर चौड़ा कर खेतों में तब्दील कर दिया जा रहा था.
जंगलों में गाय और बैल घूमते. जंगल के रास्ते मोटर गाड़ियों के लिए चौड़े कर दिए गए और कुछ को पक्का कर दिया गया. जिम जंगलों में बदलाव का यह रूप देखकर स्तब्ध थे.
लेकिन शायद ये रामगंगा नदी के ऊपर आकाश में जंगलों को जलाए जाने से उठा वह धुआं रहा होगा जिसने इस देश और उसके समाज से प्रयाण करने के जिम के निर्णय को पहली बार एक मुकम्मल विचार में ढाल दिया.
जिम कॉर्बेट पर स्टीफन ऑल्टर के कथा-उपन्यास के मुताबिक ये कोई साल 1932 का बसंत था जब जिम ने एक शाम को जलते हुए जंगल देखे. जंगल रात भर जलते रहे. वह उदास हो गए.
जंगल में सदियों से रहते आए वनवासी समुदायों के प्रति जिम शुरुआत से संवेदनशील थे. वह यह भी मानते थे कि ब्रिटिश नौकरशाही उनकी वनों और वन-उत्पादों पर उनकी निर्भरता को उनकी परंपरा से जोड़कर नहीं देखती है.
वह लेकिन हिमालय की पाद-शृंखलाओं में उगे इन वनों के प्रति लोगों के बदलते नज़रिये से हैरान थे.
1932 के उस बसंत में जब उन्होंने रात भर जलते हुए वन देखे तो उनका हृदय चीत्कार उठा. बसंत में वनों का जलना! क्या अद्भुत संयोग सा है! दुष्यंत कुमार ने अपने सबसे चर्चित काव्य-संग्रह को शीर्षक दिया था, ‘जलते हुए वन का वसंत’.
उस शाम जिम की मन:स्थिति कुछ ऐसी ही रही होगी जो दुष्यंत की ‘एक शाम की मन:स्थिति’ थी.
उधर पश्चिम में जल उठा है
व्योम-खंड-विभोर,अभी इस सुनसान वन में
एक पंछी
झील के तट से चिहुंककर
मर्मभेदी चीख भरता हुआ भागा है,इस निपट तम में अचानक
बिजलियों से भर गया आकाश बिलकुल अभी,
एक ज़रा-सी बात को लेकर हृदय में
एक विवश विचार जागा है.
1943 के अगस्त महीने तक वह अपनी पहली किताब पूरी कर चुके थे. उन्होंने नाम दिया, ‘जंगल स्टोरीज़’. छपवाने के लिए जब ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से संपर्क किया तो प्रकाशक ने इस शीर्षक को कुछ ज़्यादा सपाट बताते हुए नाम दिया, ‘मैन-ईटर्स आॅफ कुमायूं’.
इस किताब ने जिम को एक शिकारी के दर्जे से ऊपर उठाकर एक मंजे हुए लेखक का दर्जा दिला दिया. यह किताब नरभक्षी बाघों की साहसिक खोज-कथाओं पर तो थी ही, पहली बार मानवों और वाइल्ड-लाइफ के मध्य पनपे तनाव को संजीदगी से समझने की भी एक ईमानदार कोशिश थी.
वह इंसान की उन भूलों और हरकतों पर रोशनी डालती थी जो एक ‘जेंटलमेन’ जानवर को बर्बर रक्तपिपासु में परिवर्तित कर देती थीं.
1948 में उसी प्रकाशन से जिम की दूसरी किताब छपी, ‘मैन-ईटिंग लेपर्ड आॅफ रुद्रप्रयाग’. तब तक जिम केन्यावासी हो चुके थे. यह किताब उन्होंने समर्पित की थी उन लोगों को जो नरभक्षी तेंदुओं के शिकार हुए थे.
जिम कॉर्बेट की इन दोनों किताबों ने उन्हें अपार ख्याति दी. इनसे मिलने वाली रॉयल्टी जिम और उनकी बहन के लिए एक बड़ा आर्थिक संबल थी.
लेकिन जिस एक किताब में इस देश के प्रति उनका असीम स्नेह मुद्रित हो सका वह थी, ‘माय इंडिया’. यह किताब भी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी. साल था, 1952.
जगह थी, केन्या की नएरी नदी के किनारे के घास के मैदानी जंगल लेकिन किताब का विषय ख़ुद जिम कॉर्बेट के शब्दों थे ‘हिंदुस्तान के करोड़ों अधपेटे लोग जिनके बीच मैं रहा हूं और जिनसे मैं प्यार करता हूं’.
जिम का समाजशास्त्र से कोई लेना-देना न था. लेकिन यह पुस्तक वस्तुतः एक देशकाल में अपने परिवेश से घिरे एक समाज के लोगों पर किसी समाजशास्त्री के लिखे गए ‘एथनोग्राफ़िक नोट्स’ की तरह है.
मेहनतकश पहाड़ी लोगों की सरलता, उनका निश्छल जीवन-प्रवाह, ब्रिटिश नौकरशाही से उनके तनावपूर्ण संबंध, मोकामाघाट की ज़िंदगी, सुल्ताना डाकू और पुलिस कप्तान फ्रेडी यंग के दिलचस्प क़िस्से, समाज में ‘अछूत’ कहे जाने वाले ‘चमारी’ नाम के कामगार की कहानी, भावित कर देने वाले स्मृतियों के न कितने ही आख्यान…
इस किताब में जिम अपने ‘शासक-वर्ग’ से वियोजित होते हैं. उन्हें इस देश के मेहनतकश लोग दिखते हैं. उनके लिए उनकी संवेदना सैलाब-सी उमड़ती है. वैसे ही जैसे वनों और वन्यजीवों के लिए थी.
अपने ‘सबसे ईमानदार कामगार चमारी’ के हैज़े से पीड़ित होने पर वह उसके पास पहुंचे. जिम लिखते हैं;
‘बुखार की बेचैनी में उसने मुझे आवाज़ लगाई, ‘महाराज, ओ महाराज! कहां हो? मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा तो उसने अपने दोनों हाथों से मेरे हाथ कसकर पकड़ लिए और कहा, महाराज परमेश्वर मुझे बुला रहे हैं. मुझे जाना होगा. चमारी ने दोंनों हाथ जोड़कर अपना सिर नवाया और कहा परमेश्वर मैं आ रहा हूं. जब तक मैं उसे वापस लिटाता, चमारी जा चुका था.’
जिम ने अपने संस्मरण में आगे लिखा, ‘मोकामाघाट में फिर वैसा अंतिम संस्कार किसी का नहीं हुआ होगा जैसा चमारी का हुआ. श्मशान घाट पर सब जातियों के लोगों की भीड़ थी. ऊंचे-नीचे, अमीर-ग़रीब, हिंदू-मुसलमान, अछूत-ईसाई सब वहां मौजूद थे- उसे श्रद्धांजलि देने के लिए.’
जिम कॉर्बेट ने केन्या में लिखते हुए अपने ‘चमारी’ को अपनी किताब में ऐसे याद किया, ‘यदि मुझे वहां जाने का सौभाग्य मिले जहां चमारी गया है तो इस से बढ़कर मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता.’
यदि जिम कॉर्बेट ने ‘माय इंडिया’ न लिखी होती तो वह वन्यजीव प्रेमियों और नौकरशाहों की अभिजातवादी परंपरा से जुड़े रहते. उनका वह रूप कभी सामने न आता जिसमें वह जज़्बातों के बहुत बारीक धागों से सिले हुए थे और इन धागों को तोड़कर अप्रैल की 19 तारीख, साल 1955 को वह वहीं चले गए जहां उनका ‘चमारी’ गया था.
ठीक 18 साल बाद उत्तराखंड के रामनगर स्थित जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में जब ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ शुरू हुआ तो वन के वृद्ध हल्दू के वृक्षों ने एडवर्ड जेम्स कॉर्बेट यानी जिम कॉर्बेट को ज़रूर याद किया होगा.
केन्या की नएरी नदी के कूलों से आया हुआ अफ़्रीकी हवा का एक झंझा तराई के उन्हीं जंगलों में नमूदार हुआ होगा जहां की पगडंडियों से जिम गुज़रे थे. ये हवा उस ख़ुशबू को वापस लाकर यहां छोड़ गई होगी जो जिम के साथ प्रवासी हो गई थी. ये हवा अब भी वहां बहती है.
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा में उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं.)