सवाल यह है कि अजय सिंह बिष्ट उपनाम योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी को कैसे देखा जाए? आरंभ में आपको अटपटा लग सकता है लेकिन थोड़ा धैर्य से सोचेंगे तो पाएंगे कि संन्यासी का राजनीति से एक नाभि-नाल का संबंध रहा है.
गोरखनाथ को बहुत साफ़-साफ़ कहने वाले संतों में शुमार किया जाता रहा है. राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें नवीं शताब्दी का संत माना था. यह दौर सामंतवाद के चरम पर पहुंचने का दौर भी था. इस दौर को धन और स्त्री देह के प्रति कभी न मिट सकने वाले आकर्षण का दौर भी कहा जा सकता है.
राजाओं और उनके सामंतों ने धन और स्त्रियों को एकत्र किया. सामंतों ने अपनी भक्ति को बढ़ावा दिया. यह बहुत संतों को नागवार गुजर रहा था. गोरखनाथ को भी यह नागवार गुजरा. उन्होंने इसकी निंदा की. अगर आप इलाहाबाद के हिंदी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित गोरखवाणी को पढ़ें तो उसमें ऐसे सैकड़ों पद मिल जाएंगे.
वास्तव में गोरखनाथ को उत्तर भारत में एक ऐसी संत परंपरा को शुरू करने का श्रेय दिया जाता है जिसने अपने से पहले चले आ रहे आचार-विचार की मुखालफत की. गोरखनाथ ने बहुत ज्यादा खाने और ज्यादा इकठ्ठा करने की निंदा की.
उन्होंने अपने एक पद में कहा कि लग रहा है मोटे लोगों को गुरु से भेंट नहीं होती है, नहीं तो वह कम खाने को कहता. इस प्रकार से वह बहुत चुटीले अंदाज़ में भोगवादी संस्कृति की निंदा करते थे.
उन्होंने चापलूसी की संस्कृति की निंदा की. उन्होंने कहा कि कोई उनकी निंदा करता है, कोई उनसे वरदान प्राप्त करने की आशा करता है लेकिन वह निंदा-प्रशंसा से उदासीन रहते हैं. वह किसी से संपर्क नहीं रखते हैं.
गोरखपंथी समाज से जीवनयापन के लिए संपर्क रखते थे. वे एक खुले बर्तन जैसे नारियल की तुम्बी में भिक्षा मांगते थे, जो मिल जाता था वही खा लेते थे.
इस प्रकार वे समाज के धनिक और सामंतशाही से ओतप्रोत जीवनशैली का एक प्रति आख्यान रच देते थे कि देखो इस प्रकार भी जिया जा सकता है.
उन्होंने अपने विरक्ति भाव से सामंतशाही और धन के लालच को उसकी औकात बता दी. उनकी इस विरक्ति में उनका एक राजनीतिक स्टैंड भी था.
धीरे-धीरे उनके इस भाव और विचार परंपरा ने एक सुगठित पंथ का रूप ले लिया और जैसा जी. डब्ल्यू ब्रिग्स ने अपनी किताब गोरखनाथ एंड द कनफटा योगीज में बताया है कि गोरखपंथ के बारह मुख्य उपपंथ हो गए.
इन उपपंथों में ऊपरी वर्णों से लेकर सबसे निचले वर्णों की जातियां समाहित थीं. इस प्रकार गोरखपंथ के अधीन कई ऐसी जातियां आ गईं जो एक नई और वैकल्पिक जीवन दृष्टि से परिचालित थीं.
संन्यास की परंपरा को जानने वाले लोग इसे अच्छी तरह जानते हैं कि संन्यासी अपनी पूर्ववर्ती पहचान नष्ट का देता है. संन्यास के साथ ही उसका नया जीवन शुरू होता है.
जल्दबाजी में मान लिया जाता है कि संन्यासी का समाज से क्या लेना-देना? ऐसा नहीं है. उसे समाज से लेना-देना है. संन्यासी समाज को परिभाषित करता है.
इतिहासकार रोमिला थापर ने संन्यास को एक प्रति-संस्कृति या काउंटर कल्चर कहा है. यह प्रति संस्कृति हिन्दुस्तान के एक बड़े हिस्से में व्याप्त रही है.
गोरखपंथ भी ऐसी ही संस्कृति को आगे ले जाता रहा है. लेकिन जैसा धर्म के सांस्थानीकरण के साथ होता है, गोरखपंथ के तमाम उपपंथों के मठ बने, धन और शक्ति इकट्ठा हुई. समाज में संन्यासियों को जो सम्मान प्राप्त था, उसमें सत्ता भी आ जुड़ी. उन्होंने मठों के संचालन से लेकर उत्तराधिकार के स्पष्ट नियम बनाकर अपनी शक्ति को बचाया.
अब आते हैं 2017 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव पर. इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला है. उसने उत्तर प्रदेश के लिए मुख्यमंत्री चुनने में एक हफ्ते का समय लिया और गोरखपुर के गोरक्षपीठ के महंत योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया.
सवाल यह है कि अजय सिंह बिष्ट उपनाम योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी को कैसे देखा जाए? आरंभ में आपको अटपटा लग सकता है लेकिन थोड़ा धैर्य से सोचेंगे तो पाएंगे कि संन्यासी का राजनीति से एक नाभि-नाल संबंध रहा है.
भारत में आरंभिक दौर से ही संन्यासी को राजदरबार में सम्मान और श्रद्धा से देखा जाता रहा है. कालामुख महंत कुछ राजाओं के गुरु भी होते थे. गंग और होयसल राजाओं के यहां वे नीति निर्धारण में सक्रिय भागीदारी निभाते थे.
मैंने यूनानी दार्शनिकों को ज्यादा नहीं पढ़ा है जो दार्शनिक राजा की बात करते थे लेकिन भारत में सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक ने दार्शनिक राजा की बात की थी जो प्रजा की खैरियत चाहे और उससे प्यार करे, ज्यादा कर न लगाए. इस बार संन्यासी ने वह सम्मान और श्रद्धा मुख्यमंत्री का पद स्वीकार कर या लेकर स्वयं ही अर्जित कर लिया है.
1974 में जन्मे योगी आदित्यनाथ ने अपने गुरु महंत अवैद्यनाथ से दीक्षा के बाद से ही राजनीति में पदार्पण कर दिया था. मठ कोई समाज से बाहर की चीज नहीं होती है. मठ की ‘संपत्ति’ होती है. उसे खरीदा-बेचा जाता है.
इसलिए मठ उतना ही सांसारिक है जितना संसार की अन्य चीजें जैसे 1 बीघा खेत या कोई पेट्रोल पंप. मात्र 26 वर्ष की आयु में भारतीय संसद में जाने वाले योगी अदित्यनाथ उतने ही सांसारिक हैं जितने अन्य लोग.
उन्होंने अपनी सांस्कृतिक परंपराओं का पालन करते हुए विवाह नहीं किया है. यह उन्हें संसार से विरक्त नहीं करता है बल्कि उन्हें अन्य सांसारिक लोगों की तरह यह मेरा है- यह मेरा है करने से बचाता है.
एक ऐसे दौर में जब भारतीय राजनीति में परिवारवाद हावी है तब योगी आदित्यनाथ के द्वारा भारतीय जनता पार्टी इसे ध्वस्त कर देना चाहती है. वह साफ़ संदेश देना चाहती है कि कम से कम उच्च पदों पर ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें सांसारिक लोभ डिगा न सके.
नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में उनके इस पक्ष को बढ़ा-चढ़ा कर ऐसे ही नहीं प्रचारित किया गया था. ऐसे में योगी आदित्यनाथ का व्यक्तित्व ही भाजपा के हिसाब से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के पारिवारिक आभा मंडल को छिन्न-भिन्न करने के लिए पर्याप्त है.
भाजपा एक सोची समझी रणनीति से अपनी राजनीति को एक नैतिक आभा देने का प्रयास कर रही है. इसमें योगी आदित्यनाथ सबसे मुफीद चेहरा हो सकते हैं.
याद रखें कि भाजपा की राजनीतिक कल्पनाएं भारत के हिंदू अतीत और भविष्य में आकार ग्रहण करती हैं. 2014 के लोकसभा के चुनाव के बाद उसने स्पष्ट रूप से हिंदू भारत की बात की है.
वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में उसने स्पष्ट रूप से खुले तौर पर किसी भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया. भाजपा अपनी रणनीति में सफल भी रही. उसने आने वाले वर्षों के उत्तर प्रदेश का भविष्य भी साफ़ कर दिया है. इसके लिए योगी आदित्यनाथ ही भाजपा की पहली पसंद हो सकते थे.
भाजपा ने यह चुनाव गुंडाराज की समाप्ति के वादे पर भी लड़ा था. अखिलेश यादव के राज में गुंडाराज का परसेप्शन काफी काम कर रहा था, विशेषकर 2015 के बाद. इसके लिए उसने योगी आदित्यनाथ को आगे बढ़ाया.
मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले सबसे पहले उन्होंने यही संदेश दिया कि उनके मुख्यमंत्री चुने जाने की खुशी में किए जाने वाले किसी भी जुलूस या कार्यक्रम में समर्थकों को हर्षातिरेक में कानून व्यवस्था हाथ में लेने की हालत में कड़ी कार्यवाही की जाएगी.
हालांकि अखिलेश यादव ने भी मुख्यमंत्री बनते समय यही कहा था (बाकी सब इतिहास है). मैं यह बात दोबारा कह रहा हूं कि योगी आदित्यनाथ स्वयं के परिवार को बचाने की उस कमजोरी से दूर हैं जिसकी जद में आकर शासक कानून व्यवस्था से समझौता कर लेते हैं.
जैसा इस बार का चुनाव परिणाम बताता है विधानसभा में काफी बाहुबली चुनाव जीतकर आए हैं. उनके समर्थकों से निपटना और उन्हें पार्टी की कानून व्यवस्था की लाइन पर बनाए रखना कोई आसान काम नहीं होने जा रहा है.
एक बड़ी मुस्लिम जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश के लिए भाजपा की पहली पसंद योगी आदित्यनाथ की दिक्कतें कम नहीं होने वाली हैं. अब वे उस प्रकार भड़काऊ भाषण नहीं दे सकते हैं जिन्हें 18 मार्च की शाम 5 बजे से अब तक लगातार उनके विरोधी और प्रशंसक यू-ट्यूब पर सुन रहे हैं.
चुनाव के बाद कहा गया है कि समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के दिन लद गए हैं.
योगी आदित्यनाथ मुसलमानों के प्रति स्पष्ट रूप से बैर भाव की बातें करते रहे हैं. अब वे उन्हें यह संदेश देना चाहेंगे कि वे एक ज़िम्मेदार मुख्यमंत्री हैं. वे मुसलमानों के साथ बराबरी का व्यवहार रखेंगे जैसा एक मुख्यमंत्री अपने नागरिकों से करता है.
योगी आदित्यनाथ के इतिहास को देखते हुए उनके विरोधी सशंकित हैं. योगी उन्हें ग़लत साबित करना चाहेंगे. अगर वे ऐसा करेंगे तो उन्हें वह वोटबैंक और राजनीतिक फसल बचाने में मुश्किल आएगी जिसे भाजपा ने बड़ी मेहनत से तैयार किया है.
योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाकर एक तरफ भाजपा हिंदू मन के राष्ट्रवादी ज्वार को 2019 तक चढ़ाए रखेगी तो दूसरी तरफ वह कुछ उदार कदम उठाने का प्रयास कर सकती है. वह मुस्लिम मनों का राजनीतिक अप्रोप्रियेशन (उपयोग) भी करेगी, जैसा 18 मार्च की शाम से सोशल मीडिया पर दिख रहा है.
बताया जा रहा है कि योगी आदित्यनाथ व्यक्तिगत जीवन में मुस्लिमों से कोई बैरभाव नहीं रखते हैं! बिना किसी प्रमाण के चुनाव विश्लेषक यह भी कह रहे हैं कि ट्रिपल तलाक़ के मुद्दे पर मुस्लिम समुदाय की युवा महिलाओं ने भाजपा को वोट दिया है.
बात यह नहीं है कि इसे सच या झूठ माना जाए, बात यह है कि इसके द्वारा मुस्लिम समुदाय को भाजपा से 2019 के लिए जुड़ने के लिए कहा जा रहा है. देखना यह है कि उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री अपने भाषणों और कार्यों से इसे किस ओर ले जाते हैं.
योगी आदित्यनाथ अगले पांच वर्षों के लिए उत्तर प्रदेश के निज़ाम को किस ओर ले जाएंगे, यह तो फर्स्ट ड्राफ्ट लिखने वाले पत्रकार और उसका दूसरा ड्राफ्ट लिखने वाले इतिहासकार बताएंगे लेकिन इतना तो निश्चित है यह भारतीय राजनीति का सबसे रोचक दौर है.
पत्रकारों और इतिहासकारों के लिए गोरखनाथ की सलाह कोई ख़राब सलाह नहीं है. वे कहते हैं, हे अवधूत! शब्द को प्राप्त करो, शब्द को प्राप्त करो. शब्द से शरीर सिद्ध होता है. इसी शब्द को प्राप्त करने के लिए निन्यानबे करोड़ राजा चेले हो गए और प्रजा में से कितने हुए, इसका तो पता ही नहीं चलता (आप चाहें तो शब्द की जगह अपनी पसंद का कुछ और शब्द रख सकते हैं)
(लेखक ने जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी की है)