जब तक इरोम अनशन कर रही थीं, वे मणिपुरी जनता के लिए ‘आइकॉन’ थीं, संघर्ष का प्रतीक थीं, मणिपुर क्या, देश भर के लोग उन्हें ‘हीरो’ मानते थे, पर नायक तो वोट नहीं मांगते! ये कुछ उस तरह था कि भगवान ज़मीन पर आ जाएं, शादी करके आम ज़िंदगी बिताना चाहें या अपने लिए चुनाव में वोट मांगे. उनके ऐसा करते ही उनके भक्त घबरा जाते हैं.
जब इरोम शर्मिला जैसा कोई उम्मीदवार चुनाव के मैदान में उतरता है तब उसके पास जनता को देने के लिए सिर्फ एक सपना होता है, स्थितियों को बेहतर बनाने की उम्मीद होती है. इसी उम्मीद के आधार पर जनता वोट के रूप में अपना भरोसा उसे देती है, पर दुर्भाग्य से मणिपुर के विधानसभा चुनाव में बहुत कम लोग ही यह भरोसा दिखाने का साहस कर पाए.
इरोम को मिले 90 वोट दिखाते हैं कि उनके राजनीति में उतरने के फैसले को जनता ने बुरी तरह नकार दिया. इस बात का कारण जानना तो ज़रूरी है ही, साथ ही यहां ज़रूरत इस बात की भी पड़ताल की भी है कि लंबे समय तक सेना के दखल या अशांति की स्थितियों के परिणाम क्या होते हैं. जहां इससे एक तरह का साहस तो उपजता है वहीं एक तरह की कड़वाहट भी जनता में देखी जा सकती है.
क्या थी समस्या
यह बात तो साफ़ थी कि इरोम जीतेंगी तो नहीं. तीन बार से मुख्यमंत्री बन रहे ओकराम इबोबी सिंह जैसे मज़बूत प्रतिद्वंद्वी को हराना इतना आसान नहीं है. उस पर जनता का मानना है कि इबोबी सिंह ने अपने क्षेत्र में काफ़ी काम किया है, वहां पैसा ख़र्च किया है.
साथ ही वे नगा दलों के सामने मणिपुर मेईतेई समुदाय का प्रतिनिधित्व भी करते हैं. पर इस बात को किसी भी तरह से तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता कि भाजपा उम्मीदवार को मिले 8,179 और तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार के 144 मतों के मुकाबले इरोम को बस 90 मत ही क्यों मिले?
इसे भी पढ़ें: इरोम की हार और लोकतंत्र का शोकगीत: ‘थैंक्स फॉर 90 वोट्स’
इस बहस में यह कहा गया कि देश के कई हिस्सों की तरह मेईतेई लोगों को भी अपना नेता (प्रतिनिधि) भ्रष्ट ही चाहिए और एक सामाजिक कार्यकर्ता बिल्कुल पवित्र (हालांकि इस पवित्रता के पैमाने के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता) पर इस बात से राजनीतिक व्यवस्था में बैठे लोग इत्तेफ़ाक नहीं रखते.
पर यहां मूल सवाल कुछ और ही है : इस ‘प्रतिनिधित्व’ के असल मायने क्या हैं? जो लोग जनता के अधिकारों के लिए लड़ते हैं, उसके लिए संघर्ष करते हैं, क्यों जनता उन्हें चुनावों में अपना प्रतिनिधि चुनने में झिझकती है? क्यों उन्हें चुनावों में हिस्सा लेकर व्यवस्था का हिस्सा बनकर उसे सुधारने के क़ाबिल नहीं समझा जाता? क्यों इन सामाजिक कार्यकर्ताओं को उन लोगों के हक़ के लिए लड़ते रहना चाहिए, जिनके प्रति उनका कोई सीधा उत्तरदायित्व ही नहीं बनता?
यह सवाल 2014 के आम चुनावों के बाद ज़्यादा गंभीरता से सामने आया था, जब आम आदमी पार्टी के झंडे तले कोडनकुलम के एंटी न्यूक्लियर आंदोलन के प्रमुख नेता एसपी उदयकुमार और नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर और आलोक अग्रवाल चुनावी मैदान में उतरे और हार गए.
यह बात तो अब खुले तौर पर मानी जाने लगी है कि जनता ‘जीतने वाली’ पार्टी को ही वोट देना चाहती है न कि किसी अपेक्षाकृत कमज़ोर प्रत्याशी को मत देकर अपना वोट ख़राब करना. लोग चाहते हैं कि जीतने वाली पार्टी सिस्टम में रहते हुए ही उनके काम और उम्मीदें पूरी करे. दूसरा पहलू यह है कि चुनाव विस्थापन, आफ्सपा या न्यूक्लियर प्लांट जैसे किसी एक मुद्दे के लिए नहीं लड़े जाते.
विधायक यहां तक कि कभी-कभार सांसदों से भी जनता कि यही अपेक्षा रहती है कि वो बिजली, स्कूल दाखिले और तबादले जैसे उनके रोज़मर्रा के मसले भी सुलझाए. कई बार नेता भी यह शिकायत करते हुए भी सुने जाते हैं कि उनका सारा वक़्त तो अपने क्षेत्र में सालगिरह, शादी या शोक समारोह में शिरकत करने में ही निकल जाता है. ये एक ऐसा काम है जिसके लिए शायद ही कोई सामाजिक कार्यकर्ता कभी समय निकल पाए.
इसे भी पढ़ें: इरोम शर्मिला: 16 साल का संघर्ष और 90 वोट
इसके अलावा सब जानते हैं कि चुनाव लड़ने और जीतने के लिए धन, अनुभव, बूथ मैनेजमेंट और मीडिया सपोर्ट जैसे कई पहलू भी महत्वपूर्ण होते हैं. पर जीतने वाला दल हमेशा जीत की वजह यही बताता है कि कितनी सफलता से उसने अपनी और जनता की उम्मीदें एक साथ जोड़ीं. जिन उम्मीदों या विज़न को इस जीत का कारण बताया जाता है वो सिर्फ जनता की कल्पना में ही होता है, असल में नहीं.
इरोम के मामले में कुछ लोग कहेंगे कि उन्हें क्यों लगा कि उनके 16 साल के संघर्ष के बदले में उन्हें कुछ मिलेगा. अगर लोग अपना वोट बेचकर (ये चौंकने की बात नहीं है, ऐसा देश में कई जगह होता है, थोबुल में भी) इसे व्यर्थ गंवा सकते हैं तो वे इस वोट को इरोम के इंसाफ और एक नए मणिपुर के सपने पर भी ‘ज़ाया’ कर सकते थे. पर महज़ 90 लोगों को ही इस बात का एहसास हुआ.
क्यों किया जनता ने अस्वीकार
जब तक इरोम अनशन कर रही थीं, वे मणिपुरी जनता के लिए ‘आइकॉन’ थीं, संघर्ष का प्रतीक थीं, मणिपुर क्या, देश भर के लोग उन्हें ‘हीरो’ मानते थे, पर नायक तो वोट नहीं मांगते! ये कुछ उस तरह था कि भगवान ज़मीन पर आ जाएं, शादी करके आम ज़िंदगी बिताना चाहें या अपने लिए चुनाव में वोट मांगें.
उनके ऐसा करते ही उनके भक्त घबरा जाते हैं. अब उन्हें इबादत से आगे कुछ और करना होगा. अगर ऊपरवाला नहीं होगा तो उन्हें अपनी ज़िंदगी भगवान भरोसे नहीं बल्कि अपने बलबूते चलानी होगी!
यह सच है कि इरोम ने अपना अनशन किसी के कहने पर शुरू नहीं किया था, पर यह भी सच है कि बिना समर्थन के वे 16 साल का रास्ता तय नहीं कर पातीं. हालांकि यह समर्थन वैसा नहीं था जैसा इसे होना चाहिए था. न उनके अपने लोगों, न आम जनता और न ही मीडिया से उन्हें वो समर्थन मिला जो मिलना चाहिए था. सरकार के उनके प्रति रूखे और कठोर रवैये की बात न ही करें तो अच्छा.
इन सबके बीच सबसे चिंतनीय यह कहा जाना है कि इरोम को अपनी भूख हड़ताल ख़त्म करने से पहले अपने समर्थकों के बीच रेफरेंडम करना चाहिए था, उनसे पूछना चाहिए था कि वे यह अनशन ख़त्म करें या नहीं. यह बिल्कुल ग़लत है.
आमरण अनशन… इसे शुरू और ख़त्म करने का फैसला बेहद निजी होता है भले ही उसका उद्देश्य सार्वजानिक हो. अपने जीवन के बारे में दूसरों से पूछकर फैसला लेना बहुत मुश्किल है क्योंकि यह अनशन 16 साल तक चला, इसका यह अर्थ तो नहीं कि यह सिर्फ निजी संघर्ष नहीं था और इस बात से इस अनशन की गंभीरता और पीड़ा कम हो जाती है.
इरोम के अनशन ख़त्म करते ही उनके अधिकतर समर्थकों ने उनका साथ छोड़ दिया. यह बहुत दुखद है. ऐसा लगता है कि इसके बजाय शायद जब सरकार से लड़ते हुए वे अपनी जान गंवा देतीं, तब वो ‘शहादत’ इन समर्थकों को ज़्यादा प्रिय होती.
यहां सवाल उठता है कि क्या इन 16 सालों में उन्हें जो समर्थन मिला उसका कारण इंसाफ या इंसाफ की उम्मीद नहीं थी बल्कि कड़वाहट भरी राजनीति थी, एक तरह का ग़ुस्सा था, जो परिस्थितियां बदलते ही सरकार कि ओर से इरोम की ओर मुड़ गया.
भारत सरकार ‘अंडरग्राउंड समूहों’ को इरोम के इस अनशन के लिए ज़िम्मेदार बताती है पर इरोम के इस अनशन से ये समूह कभी ख़ुश नहीं थे. उनका कहना था कि इरोम के इस ‘जनतांत्रिक संघर्ष’ ने भारतीय उपनिवेशवाद की वास्तविकता को छिपा दिया है और आफ्सपा के ख़िलाफ़ इस लड़ाई से इरोम के अनशन का कोई लेना-देना नहीं है.
वैसे इरोम के अनशन से सबसे ज़्यादा असहमत व्यक्ति भी यह तो मानेगा कि उनके अनशन के चलते ही आफ्सपा को हटाने की मांग को इतना प्रचार और नैतिक वैधता मिली. पर उनकी चुनावी हार यह साबित करती है कि अब आफ्सपा कोई ऐसा मुद्दा नहीं रह गया जिसके आधार पर जनता उन्हें वोट दे. आफ्सपा वोट देने का बात या बहस करने का भी मुद्दा नहीं है. ऐसे में इस बात को जनता को समझा पाना कि आफ्सपा जैसे क़ानून की लोकतंत्र में कोई ज़रूरत नहीं है, बहुत मुश्किल है.
इसे भी देखें: जन की बात: राजनीति में विपक्ष और इरोम शर्मिला, एपिसोड 18
सेना से संघर्षों का प्रदेश के हालात पर असर तो पड़ा ही है- लोगों का खुद से ही विश्वास कम हो गया है. ये अंडरग्राउंड लोग जिस सरकार का विरोध करते हैं, उसी के कर्मचारियों से पैसा वसूलते हैं, पुलिस वाले पैसों के लिए लोगों पर गोली चला देते हैं. ऐसी परेशानियों का कोई अंत नहीं है. ड्रग्स एक और समस्या है.
राज्य के विद्यार्थियों के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए राज्य छोड़कर जाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है. पहाड़ी क्षेत्र के निवासियों के साथ भेदभाव होता है, तराई वालों को उनके अस्तित्व पर ख़तरा दिखाई देता है. अगर नागा ‘फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ के सार्थक परिणाम की उम्मीद में भाजपा को वोट दे सकते हैं, तब यह कहना कि इरोम को किसी बेहतरी की आशा के बजाय यथार्थ में जीना चाहिए, कहां तक सही है? यह शर्त इरोम की उम्मीदों पर ही क्यों लागू होती है? क्यों कहा जा रहा है कि उनकी जैसी उम्मीदों का यही नतीजा होता है? क्यों कहा जा रहा है कि वे कोई सपना देखने की बजाय यथार्थ में अपना सच ढूंढें?
जिस तरह थोबुल की जनता ने इन चुनावों में वोट दिया उससे न सिर्फ उनके सामने बल्कि हम सबके सामने यह सवाल है, क्या हम आदर्शवाद को वाकई कोई मौका नहीं देना चाहेंगे या हम सपने और उम्मीदें पालना ही भूल चुके हैं?
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाती हैं)
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.